मन्दिर बडेर किया है।

भगवती श्री आईजी द्वारा स्थापित इबादत पद्धति में आध्यात्मिकता तथा सांसारिकता दोनों के समान विकास की हकीकत के दर्शन है। समाज से हटकर कोई भी इंसान आध्यात्मिक नहीं हो सकता है। माताजी ने सामाजिक व्यवस्था में साम्यवाद के सिद्धान्त को व्यावहारिक स्वरूप प्रदान किया। भगवती श्री आईजी के मन्दिर को बडेर कहा जाता है। बडेर का अर्थ है- बांडेरुओं (पूर्वजों) द्वारा स्थापित आध्यात्मिक पद्धति। बडेर में कोई एक डोराबन्ध इंसान को अन्य सभी लोग सर्व-सम्मति से कोटवाल चुनते हैं। कोटवाल के दो कार्य प्रमुख होते हैं। प्रथम धार्मिक रस्मों का निर्वहन तथा द्वितीय सामाजिक एकता के लिए सामाजिकता के कार्य का जिम्मेदारी से निबटारे में सहयोग करना। इस प्रकार वह एक तरफ से राजा भी है लेकिन दूसरी तरफ से धर्म-कर्म का नोकर भी है। दूसरा व्यक्ति जमाधारी कहलाता है।जमाधारी का कार्य आध्यात्मिक अधिक व सामाजिक कम होता है। जमाधारी पद करीब-करीब परम्परागत होता है। लेकिन कोटवाल चयन प्रक्रिया से बनाया जाता है। ये दोनों इंसान बडेर की देख-रेख के लिए मुखर तथा जिम्मेदार होते है। बडेर धार्मिक रस्मों के निर्वहन का स्थान तो है ही लेकिन ध्यानादि के लिए भी उत्तम स्थान होता हैं। माताजी के अनुयायियों में सर्वाधिक संख्या सीरवियों की है। सीरवियों में कोटवाल जमाधारी पद का खास महत्व है। कोटवाल-जमादारी एक तरह से पुरे समाज के प्रतिनिधि होते हैं। माताजी ने कोटवाल जमा-धारी पद सृजना ब्राह्राणों के आडम्बरों तथा स्वार्थवान से बचने एवं उन्मूलन के लिए की थी। वर्तमान समय में दक्षिण भारत में। संस्थाओं के निम्‍न पदाधिकारी इस प्रकार होते। अध्‍यक्ष, उपाध्‍यक्ष ,सचिव , सहसचिव, कोषाध्‍यक्ष, सहकोषाध्यक्ष , कार्यकारिणी सदस्‍य, अपना एक भाई अपने को परमार्थ की नसीहत देता है, इससे इंसान की स्वस्ति बढ़ती हैं। माताजी की बडेर में हनुमानजी, चारभुजा, गजानन्दजी, दुर्गा आदि प्रतिमाएं भी स्थापित की जाती है। इस प्रकार बडेर निराकार तथा साकार के दर्शन का पावन तिर्थ स्थल होता है। इस तरह बार-बार अकाल पड़ने के कारण साधारण करती वर्क हमारे समाज को अपने जीवन निर्वाह करने के लिए देश-प्रदेश की दौड़ तो दौड़नी ही पड़ती है। हमारा समाज राजस्थान के अलावा मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, दिल्ली, तमिलनाडु विशेषकर दक्षिण भारत में विक्रम सवंत 1980 के आस-पास से परिवार की स्थिति के अनुसार कुछ भाईयों का अपना निजी छोटा व्यवसाय और कुछ जैन व सेठ साहूकारों के यहां नौकरी करने लगे थे। समयानुसार धीरे-धीरे हर तरह की व्यवसायगुर सीखकर अपने जातिगत स्वभाव संस्कार के साथ लगन परिश्रम एवं ईमानदारी के कारण स्वयं सेठ बनकर स्वतंत्र रूप में अपना व्यवसाय शुरू किया। आज माँ श्री आईजी की असीम कृपा से समस्त भारत के नगरों में सीरवी समाज द्वारा श्री आई माताजी के भव्य मंदिरों (बडेरों) का निर्माण और उनकी प्रतिष्ठा के कार्य प्रगति पर है। श्री आईमाताजी की कृपा से व पवन सुत हनुमानजी की कृपा से मद्रास (तमिलनाडु) में बहुत सीरवी समाज बन्धुओं ने वास किया । समस्त सीरवी बन्धुओं ने एक सुत्र मे बंधकर अपने धर्म इष्ट देवी मां भगवती श्री आईमाताजी के भव्य मन्दिर निर्माण कार्य का प्रयास कर सन् 1981 में पहली बडेर का पंजीकरण नम्बर 155 श्री डाक्टर बसन्त रोड़ ट्रिपलीकेन मद्रास 600005 पर समस्त सीरवी समाज बन्धुओं ने मिलकर व कठिन परिश्रम धन लगाकर भव्य भवन व मन्दिर (बडेर) का निर्माण कराया गया । यह भव्य मन्दिर मन्दिर समुद्र के किनारे से करीबन एक किलोमीटर दुरी पर है। इसी तरह प्रथम बडेर मुम्बई में श्री सीरवी समाज की इष्ट देवी भगवती श्री आईमाताजी का विस्तार पुर्ण प्रकट पर्चा न्यू मुम्बई तुर्भा शहर मे बताया गया है। नई मुम्बई में तुर्भा नाका शहर के आस पास में कई मारवाड़ राजस्थान से आकर सीरवी बन्धुओं ने विराजकर अपना व्यवसाय (व्यापार) आरम्भ किया । करीबन 40 साल से भी अधिक समय से यहा समाज के बन्धुगण व्यवसाय कर रहे है। समय समय पर सब सीरवी समाज के सभी बन्धुगणों ने इकट्ठा होकर विचार विमर्श करके यह पक्का तय कर दिया की अपने इष्ट देवी श्री आईमाताजी के मन्दिर के लिए सबने मिलकर भुमि खरीद कर श्री आईमाताजी के बढेर का मोहरत निकलवाकर निर्माण कार्य करके श्री आईमाताजी की बिना पाट रखकर जोत अखण्ड प्रारम्भ कर दिया । यह मन्दिर मेन रोड़ से 50 कदम पर हे । समाज के सभी सदस्य एक सुत्र बंधकर अपना परिश्रम व धन लगाकर मन्दिर निर्माण कर काफी तादाद मे बढेर का निर्माण करवाया। श्री तुर्भा बढेर न्यू मुम्बई के सर्व सीरवी समाज बन्धुओं का मन शुद्ध होने के कारण भगवती ने बिना पाट रखे ही केशर की ओलखान बता दी हे यानी भगवती जगत माता साक्षात तुर्भा बढेर मे पधार कर समाज बन्धुओं को दर्शन दे दिया हो । इसमे कुछ भी झुठ नही है। जिस बन्धु को विश्वास ना हो वो स्वयं तुर्भा बढेर पधार कर दर्शन कर लाभ उठावें । इसी तरह दक्षिण भारत कर्नाटक में श्री सीरवी समाज कर्नाटक शहर मैसूर का देवस्थान के भव्य निर्माण कार्य भारत की रमणीय नगरी मैसूर में श्री सीरवी समाज के बंधुओं में एक सूत्र में बंद कर श्री आई माताजी के धाम (स्थान) की स्थापना रजिस्टर नंबर 289/87-88 पंजीकृत नम्बर एल – 75 ए के आर हास्पिटल रोड़ मैसुर 570001 पर कराया गया। मैसुर शहर मे सीरवी बन्धुओं का बसना विराजना करीबन 35 या 40 से है। परंतु 1970 के करीबन बहुत से स्वजातिय बन्धुगण मैसूर शहर मे काफी संख्या मे बस गये । जेसे जेसे समाज के बन्धुगणों का यहा बसना हुआ तो सबको लगा की हमारे सीरवी समाज मे आईपंथ को कायम व स्थापित रखना हे तो मैसूर शहर मे माताजी का मन्दिर (बडेर) होना अति आवश्यक हे । उसके बाद कुछ समय बितने के पश्चात सभी सीरवी समाज के बन्धुओं ने मिलकर अपना अमुल्य समय निकालकर व कठिन परिश्रम करके सभी बन्धुओं ने श्री आईमाताजी के भवन निर्माण कार्य की स्‍थापना के लिये कार्य शुरु किया ।

पंचों का पांतियाँ

सीरवी समाज में मन्दिर प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर प्राण प्रतिष्ठा समापन से विशेष कार्यक्रम बड़े ही अनुशासित तरीके से सम्पूर्ण होता है। जिसे पंचों का पांतियाँ कहा जाता है। मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर लाखों भक्तों के प्रसाद ग्रहण कर लेने के बावजूद सभी ग्रामों से पधारे कोतवाल जमादारी एवं पंचगण दीवानजी तथा जति भगाबाबाजी के संग सहभोज ग्रहण नहीं करते तब तक प्राण प्रतिष्ठा का कार्यक्रम अधूरा रहता हैं। पंचों के पांतियें में कुछ नियम कायदे भी लागू होते हैं जिनमे सर्व प्रथम नियम यह है कि भोजन की कतार में बैठने से पूर्व यह देखलें की सर पर साफा पगड़ी है अथवा नहीं। अर्थात बिना साफे वाले इस भोजन में नहीं बेथ सकते हैं। साफा बंधा हुआ है और आप पंक्ति में विराजमान हो गए है तब भले ही आपके थाल में भी सभी परोसगारी हो चुकी है तब भी सभी के परोसगारी हो चुकने के पश्चात जति महाराज द्वारा अथवा दीवानजी द्वारा जीमने का आदेश होने के साथ ही भोजन करना प्रारम्भ किया जाता है अकेले द्वारा पहले नहीं। भोजन प्रारम्भ होने के पश्चात चाहे कोई कम भोजन ग्रहण करे अथवा कोई अधिक। सभी के भोजन ग्रहण कर चूकने के पश्चात ही सभी द्वारा चलु भोजन समाप्ति पर हाथ धोना किया जा सकता है। सीरवी समाज में पंचों का पांतियाँ दीवानजी के संग भोजन का अनुशासित तरीका है जिसमें मन को वश में करने की आदत पड़ती है अपने अलावा सभी का ख्याल किया जाता हैं एवं सामान्य जन बिना दरी अथवा आसन के भोजन ग्रहण कर सकते है परन्तु यहाँ पर दरी बिछी होती है जिसे पांतिया कहा जाता है बिछाकर उस पर सभी विराजमान होकर भोजन करते हैं। इस समय सिर्फ दीवानजी के सामने पाटा बाजोट लगता है अन्य के नहीं। इस समय के भोजन में दिन के प्रसाद से कुछ अधिक करने का प्रयास किया जाता है जैसे प्रसाद में लापसी है तो पांतिया पर हलवा होगा, प्रसाद में हलवा है तो पांतिया पर हलवे पर घी की चरी तथा पूड़ी व् हरी सब्जी भी होगी। इस तरह से मंदिर प्राण प्रतिष्ठा में पधारे विशेष मेहमानों का विशेष भोज सम्मान का सूचक है।

बेथ पंतग में पंच-श्रद्धालु, जब प्रास ग्रहण करते हैं।
लगा बाजोट एक दीवानजी के, थाल में भोजन परोसतवे हैं।
कोटवालजी हर्षित मन से, फिर घी की आरती करते हैं।
एक साथ सहभोज चलु कर, पांतियाँ रस्म निर्वाह करते हैं।