कुंवारे को उमावा व परणियो को पछतावा। पता नहीं इस कहावत के पीछे क्या हकीकत हैं या यह कहावत कैसे प्रचलित हुई जो भी कहावत बनती हैं वो अनुभव के आधार पर बनती हैं उन्हें झुठी या मन गढंत ठहराना भी उचित नहीं। कहावतें प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से शिक्षाप्रद होती हैं। अतः चिंतन करने की आवश्यकता है विवाह के रूप में परिणय संस्कार पति-पत्नी के लिए पवित्र बंधन माना जाता है, जिसके लिए सामाजिक मर्यादा के अंतर्गत सुन्दर पारिवारिक व्यवस्था बनी हुई है व यही प्रथा सर्व मान्य भी हैं, वर्तमान वातावरण में इस प्रथा मे कुछ विकृतियां आ गई लगती हैं, परिणाम स्वरूप पवित्र बंधन जो रेशमी धागे के सामान मजबूत था, कच्चे धागे की तरह कभी भी टूटने की स्थिति में पहुंचने की नौबत आ सकती हैं
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पुराने जमाने में विवाह योग्य लड़के-लड़की का मिलाप व खानपान व गुण देखकर माता-पिता द्वारा निश्चित किया जाता था, जहां शिक्षा के अभाव में उन दिनों लड़का-लड़की स्वयं देख कर एक दूसरे को पसंद करने की अभिलाषा व्यक्त नहीं कर पाते थे, बल्कि माता-पिता के निर्णय को सही मानकर परिणय सुख में बंध जाते थे साथ ही इस पवित्र बंधन को जीवन पर्यन्त निभाने में अपना गौरव पूर्ण कर्तव्य भी मानते थे। अतः दाम्पत्य जीवन की मधुरता में कभी दरार नहीं पड़ती थी, परंतु वर्तमान वातावरण काफी बदल चुका है आधुनिक शिक्षा का मौलिक वाद से प्रभावित युवा वर्ग पुरानी प्रथा को रुढिवाद के रूप में देखते हैं तथा स्वयं अपना जीवन साथी चुनना पसंद करते हैं।जिसका मुख्य आधार चाम व दाम अर्थात गौर वर्ण, दिखने में सुंदर व घर में दाम यानी धन की कमी ना हो, इस प्रकार का संबंध करने की अभिलाषा रखते हैं जो अपने किस्मत का साथ देने पर ऐसे संबंध स्थापित हो भी जाते हैं। परंतु कभी किस्मत ने पलटा खाया तो विपरीत स्थिति को भी भुला दिया जाता है व एक दूसरे से मुंह मोड़ने की नौबत आने की स्थिति बन जाती है। जहां गण व खानदान को दरकिनार करते हुए मात्र हाईट व वाइट को देख संबंध जोड़ दिया जाता है तो आपस में फाइट भी हो सकता है जिसके जिम्मेदार वे स्वयं ही है जवानी का रंग वैसे ही फिका पड़ते देर नहीं लगती है। जैसे खिले हुए फूल को मुरझाने में कितनी देर लगेगी। सही गृहस्थ धर्म वे ही निभा पाते हैं, जिनका जीवन धार्मिक संस्कारों से ओत-प्रोत हो। यही अच्छे खानदान होने का परिचायक हैं जहां जहां धर्म का साथ हैं वहां ईश्वर का उन पर हाथ हैं।
आजकल के दूषित वातावरण में एक दूजे से प्यार करने की बात को लेकर उतावल में अक्सर युवक संयम व विवेक खो देता है, परिणाम स्वरूप परिणय जैसे पवित्र बंधन के साथ खिलवाड़ होते देर नहीं लगती, यही कारण है कि पुन: विवाह को बढ़ावा मिल रहा है, सामाजिक मर्यादा दरकिनार हो गई हैं। कुंवारे व्यक्ति को जवानी के जोश में विवाह की उमंग व उत्साह होना स्वाभाविक है परंतु ज्योहीं विवाह के पश्चात खट्टे-मीठे को लेकर परेशानियां उपस्थित होने लगती है तब वही उमंग व उत्साह फीका पड़ जाता है इसलिए कहा गया होगा कि कुंवारे को उमावा व परणिये को पछतावा। क्योंकि उनके नीरस जीवन का सार रह गया है।
“भूल गए राग रंग भूल गए छकड़ी
याद रह गई तीन बातें तेल लूण लकड़ी”
प्रस्तुति:- लकाराम पुत्र श्री केराराम बर्फा सियाट