विचार आया कि हमारे समाज की एक बुराई यानि बिना श्रम और योग्यता के अपने आपको मात्र डींगे हांककर श्रेष्ट साबित कर जाजम का हक प्राप्त करने की प्रवृत्ति के कारण ही हमारे समाज का प्रबुद्व एवं शिक्षित वर्ग जाजम पर साथ बैठने से कतराता है।यह सत्य है कि पंचायती में जाजम के केन्द्र में और समारोह की अग्रिम पंक्ति में बैठकर अपने आपको समाज का महत्वपूर्ण व्यक्ति बताने की लालसा ही समाज में टांग-खिंचाई का सबसे बडा कारण हैं। यहीं टांग-खिंचाई आपसी वैर-वैमनस्य और समाज को खोखला करने का कार्य कर रही हैं। हकीकत तो यह है वर्तमान में समाज में जो उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति आ रहे है, उन्हें पद का लालच बिल्कुल नहीं हैं। लेकिन पढे लिखे व्यक्तियों के बारे में जो गलत धारणाएं एवं तानामार प्रवृत्ति है, उसके कारण बुद्विजीवियों को जाजम से डर लगता है। सोचते है कि इनको सुधारने जाओगे तो अपनी ही फजीहत करवाएंगे। ऐसे में हमारा शिक्षित वर्ग स्व-केन्द्रित हो जाता है और समाज विकास की सोचने के बजाय अपने बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर, अधिकारी या व्यापारी बनाने से आगे की नहीं सोच पाता है। यदि हमें समाज का उत्थान करना है तो हमें जाजम के झगड़े से उपर उठकर सुलझी हुई विचारधारा अपनानी पडेगी
महासभा के जाजम पर कुछ लोग 15 वर्षो से बैठे हैं और किसी भी तरह का लेखा-जोखा यहां तक कि इसका ,,,,, भी शायद निरस्त हो गया है किन्तु अभी भी प्रचार-प्रसार जाजम हेतु कर रहे हैं।महासभा के संविधान के अनुसार कार्यकारिणी का कार्यकाल 3 वर्ष का होता है। किंतु इस स्तर के संगठनों में लोगो ने कई वर्ष तक जाजम को नहीं छोडा। फिर चुनाव हुए होते है तो कुछ लोग जाजम से बाहर हो जाते है। लेकिन जाजम प्रिय व्यक्ति का बिना जाजम के काम नहीं चलता। आखिर समाज सेवा के नाम पर चौधराहट कैसे करेंगे। मेरा ऐसे लोगों से निवेदन है कि सामाजिक संस्थाओं का कार्यकाल 3 वर्षो से अधिक नहीं होना चाहिए(लेकिन अगर कोई अच्छा काम करता है , सभी को साथ लेकर चलता है तो भले ही वह बहुत सालो तक अपने पद पर बना रहे ,समाज के लिये और हमारे लिये अच्छा ही होगा..और इतना तो हम भी जानते है कि कौन काम आ सकता है और कौन नही.. ), ताकि परिवर्तन हो और नया आदमी, नये जोश-खरोश से कार्य कर सके। समाज के आम मेहनतकश आदमी को जाजम से कोई लेना देना नहीं है। लेकिन कुछ व्यक्ति अपने निहित स्वार्थो के कारण हर समय जाजम के केन्द्र में बने रहना चाहते हैं जिसके कारण टांग-खिंचाई बढती है और आम मेहनतकश आदमी जिनके विकास की डींगे हांककर संगठन बनाया जाता है वह अपना दम तोड देता है जो यह समझता है कि धन-बल या गुट बल के कारण जाजम पर मात्र उनका ही हक है, चाहे वे सालो-साल तक समाज के लिए चौधराहट करने के अलावा कोई काम नहीं करें। जब भी कोई अन्य व्यक्ति सच्चे मन से समाज सुधार का कार्य करता है और वह सफल हो जाता है तो उन्हें अपने पैरों से जाजम खिसकती नजर आती है ऐसे लोगों को दबंग तो कह सकते है, लेकिन समाज सेवी नहीं कह सकते।
ऐसे लोगों का अपने आपको जाजम के केन्द्र में बनाये रखने की प्रवृत्ति के कारण समाज सुधार नहीं हो पाता है। समाज में कोई संगठन बनता है तो शुरू में जो निर्विरोध सदस्य चुन लिए जाते हैं वे अपने आपको समाज का ठेकेदार समझने लग जाते हैं और कभी चुनाव नहीं होने देना चाहते, ताकि वे जाजम पर बने रहे। एक बार अध्यक्ष आदि बन जाने पर वे अपने आपको हमेशा के लिए स्वयंभू अध्यक्ष आदि समझने लग जाते हैं।भाषण में तो सभी अच्छा-अच्छा बोलेंगे, लेकिन हकीकत के धरातल पर जाजम छोडना किसी को अच्छा नहीं लगता है। जाजम का मोह तो सभी को लुभाता है। जाजम के मोह से गांव के स्तर के संगठन से लेकर अखिल भारतीय महासभा तक कोई अछूता नहीं रहा हैं। कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी, यदि जाजम प्रिय व्यक्ति को समाज का वायरस कहा जाये। ये वायरस समाज संगठन के शरीर से तब तक बाहर नहीं निकलता, जब तक कि उस संगठन के बचे हुए पैसे का पूरा उपयोग (दुरूपयोग) नहीं कर दें। जब कार्य असफल होता है, तो इनको टीका-टिप्पणी का मसाला मिल जाता है। जब कार्य सफल होता है, तो ये फुदक कर जाजम के बीच में आ जाते हैं।
एक पुराने चबुतरे को तोडकर नया मन्दिर बनाने की बात आई। मूल ढांचा बन गया। बाद का ढांचा कोई अपनी सुविधा तो कोई दूसरे की असुविधा को ध्यान में रखकर बनाना चाहते थे। जो कि जाजम का झगडा अर्थात अपनी बात मनवाने की जिद पर अडे रहकर अपनी प्रमुखता सिद्व करना ही है। मन्दिर में बैठा भगवान जाजम की खींचतान में अपनी दयनीय स्थिति देखकर रो रहा है और मन्दिर कई वर्षो से रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद की हालत में है। हमारे समाज के गरीब और मेहनतकश लोगों की गाडी कमाई का पैसा जाजम की खींचतान में कैसे अधरझूल में लटक जाता है ये उसक उदाहरण है। ऐसे उदाहरण अन्य जगह भी है जहां किसी कार्य, समारोह, सामूहिक विवाह आदि के लिए पैसा इकट्ठा होता है और बचे हुए पैसों पर अपना कंट्रोल बनाये रखने के लिए मुद्दों को विवादास्पद बना दिया जाता है ताकि वो पैसा समाज के कार्य नहीं आए। ऐसे लोगों को समूह कहे या गिरोह, हर जगह पाया जाता है समाज की जब जरूरत पडती है तब उस पैसे को इकटठा करना बहुत मुश्किल हो जाता है और जिस उद्देश्य के लिए पैसा पडा है वह कभी पूर्ण नहीं होता है। इतना जरूर होता है कि जिन चन्द लोगों के हाथों में पेसों की कमान होती है वे जाजम पर अपना हक समझते हैं और पूरे समाज को नचाते है। यहां पर जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली बात है। बुद्वि बल, ज्ञान एवं चातुर्य यहां पर चक्कर खा जाता है। क्या, करें, जाजम का लोभ है ही ऐसा। आपका इसमें कोई दोष नहीं है जाजम का मोह है ही ऐसा। इससे आपको तो क्या संत-महात्माओं तक को नहीं छोडा।
लेख में कहीं आपको समाज सेवा की भावना का अंश नजर आया क्या ? मुझे तो इन संगठनों में जाजम के हक की लडाई छोडकर कुछ नजर नहीं आया। निवेदन है कि हमारे समाज सुधारक संतो ने जो शीर्ष संगठन बनाये हैं, उन्हें जाजम के झगडे से अछूता रखे, समय-समय पर संगठन के संविधान के अनुसार चुनाव करायें, चुनाव हार जाने पर हार सहर्ष स्वीकार करे और अन्य लोगों को जाजम का हक दे, ताकि सामाजिक संस्थाओं में सुखद परिवर्तन आये और टांग-खिंचाई की बजाय नये लोगों को अपने अनुभव का लाभ दे। समाज सेवा का कार्य दिल से अपनी संतुष्टि के लिए करे, न कि जाजम पर अपना स्थान पाने के लिए।
लगता है कि मैं लिखते-लिखते थक गया हूं क्योंकि जैसे सावन के अधें को हरा ही हरा नजर आता है उसी तरह जब से मेरी जाजम प्रिय व्यक्ति को परखने की दिव्य-दृष्टि खुली, मुझे चारो तरफ नाना प्रकार के अलग-अलग किस्मों के जाजम प्रिय व्यक्ति नजर आते हैं। आखिर किस-किस जाजम प्रिय वेरायटी के बारे में लिखूँ । कम लिखा ज्यादा समझना। आप सभी समझदार है। मेरा इशारा किसी व्यक्ति विशेष की तरफ नहीं है। ये जाजम प्रिय व्यक्ति सभी जगह होते हैं। कभी-कभी तो मुझे अपने आप पर शक होता है कि कहीं मैं भी जाजम प्रिय नहीं हो जाउं।
ये सारी दिमागी सोच आप्को बस आगामी अखिल भरतीय महासभा के चुनावो से अवगत कराने के लिये थी… अब देखना आपको है कि आप युवाओ का साथ देते हो या जाजम का…
प्रस्तुति- प्रवीण चौधरी, ब्यावर
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