सर्वप्रथम मैं उन सभी पुरखों को कोटि-कोटि नमन करता हूँ जिन्होने अपनी अनुशासनात्मक और मर्यादित जीवन शैली से अपने काल में सामाजिक समरसता और एकात्मकता को सुदृढ़ता प्रदान की।उनके सामाजिक आत्मिक आलंबन और जुड़ाव की जितनी तारीफ की जाय उतनी कम है। हमारे पुरखों ने पारिवारिक ढांचे को जिस अनुशासन से संचालित किया और उसमें प्रेम व आत्मिक स्नेह की अविरल धारा को प्रवाहित किया,उसके लिए वे कोटि-कोटि बधाई के पात्र हैं।संयुक्त परिवार व्यवस्था का संचालन और उसका प्रबंधन देखने लायक था,जहाँ एक ही परिवार में तीन-तीन पीढिया साथ-साथ रहती थी लेकिन उनके बीच अवल दर्जे का प्रेम व आत्मिक स्नेह था।वृहद परिवार के सदस्यों में किसी प्रकार का ईर्ष्या-राग-द्वेष व वैमनस्य नजर नही आता था। परिवार के सभी सदस्य अपने मुखिया के दिशा-निर्देशों की कड़ाई से पालना करते थे।सभी के साथ बराबर का व्यवहार होता था।पारिवारिक खान-पान व्यवस्था,शादी समारोह,सामाजिक कार्य या मेले उत्सव में जाना हो हर मौके पर मुखिया किसी भी तरह से भेदभाव नही करते थे। परिवार के सभी सदस्य मर्यादाओ को तरजीह देते थे। पारिवारिक व्यवस्था में अपराध दर शून्य होता था।उनका पारिवारिक प्रबंधन आज के बड़ी कंपनी से भी श्रेष्ठ था। उस समय की सामाजिक न्याय व्यवस्था भी बड़ी सुढृढ़ थी।गाँव में किन्ही दो संयुक्त परिवार में आपसी तनाव हो जाता था तो लोग जाजम पर बैठते समय न्याय को सर्वोच्च स्थान पर रखते थे किसी भी स्थिति में पक्षपातपूर्ण रवैया नही रखते थे। वे जाजम को न्याय का आसन मानते थे और न्याय करते समय अपने ईष्ट देवी-देवताओं को साक्षी मानकर न्याय करते थे।न्याय के केंद्र में आपसी प्रेम-भाईचारा और सामाजिक समरसता होता था। पारिवारिक रिश्तों में उच्च कोटि का माधुर्य होता था।स्त्री-पुरूष दोनों अपने-अपने मर्यादाओ में रहते थे।पारिवारिक रिश्तों के टूटने की दर लगभग शून्य थी। उस समय तलाक जैसे शब्द नही थे। मात-पिता अपनी बेटी को जिसके साथ शादी कर भेजते थे,वह बेटी दुःख व कष्ट सहकर भी अपना संघर्षमय जीवन जीती थी।वह अपने मात-पिता को किसी भी तरह से अवसाद में नही डालती थी। सचमुच वे सभी स्त्रियां अभिनंदन के अधिकारी थी।
मैं समाजशास्त्र का विद्यार्थी रहा हूँ,मैंने सामाजिक व्यवस्था का गहराई से अध्ययन किया है और उसी का परिणाम है कि मैंने अपने व्यक्तिगत जीवन में उन मूल्यों और आदर्श प्रतिमानों को आत्मसात किया है।जीवन का परमानंद यदि पाना है तो हम सबको कही भटकने की आवश्यकता नही है।हम सब
पुरखों के बतलाये रास्ते पर चले,पारिवारिक व्यवस्था को पुनः सुढृढ़ करे। नए सिरे से सामाजिक व्यवस्था को सृजित करे।समाज में जहां-जहां कमी है उसे दुरस्त करे।समाज आज की पहली आवश्यकता है।समाज के बिना व्यक्ति का कोई वजूद ही नही है।यदि कोई सामाजिक व्यवस्था को नजरअंदाज करके अपना जीवन जीना चाहे तो उसे समाज के लोग अपने स्तर पर निर्णय ले सकते है।सामाजिक व्यवस्था सुढृढ़ होने से न्याय व्यवस्था पर अनावश्यक बोझ कम होता है।प्राचीन काल और आधुनिक काल में पारिवारिक अपराध,राजस्व विवाद और अन्य अपराध की तुलनात्मक विश्लेषण किया जाय तो जमीन आसमान का अंतर है।प्राचीन समय मे अपराध दर बहुत ही कम थी।उसका कारण सामाजिक व्यवस्था का सुढृढ़ होना था।
आज हम देखते है कि समाज आर्थिक दृष्टि से बहुत ही सम्पन्न है लेकिन सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से बहुत ही विपन्न है।आज एकल परिवार व्यवस्था में भी प्रेम व आत्मिक स्नेह का अभाव नजर आता है। पारिवारिक वाद-विवाद,घरेलू हिंसा और रिश्तो की टूटन बहुत ज्यादा हो रही है। आज जिस तरह से परिवार बिखर रहे हैं उसे देखकर मन व्यथित होता है।युवा पीढ़ी मात-पिता की अवज्ञा कर रही है।सामाजिक प्रतिमानों और आदर्श मूल्यों की धज्जियां उड़ा रही है। सामाजिक मर्यादाओ पर चलना उन्हें जैसे तलवार की धार पर चलने के समान लग रहा है।वे सामाजिक अनुशासन को अपनी स्वतंत्रता के हनन के रूप में देख रहे हैं उसी का परिणाम है कि आज पारिवारिक रिश्तों में वैसा माधुर्य और सौहार्द्ध नही है जैसा हमारे पुरखो के काल में होता था। यह सब देखकर मन अति व्यथित व द्रवित होता है।
अब प्रश्न उठता है कि क्या हम सब अपनी सामाजिक व्यवस्था को इसी तरह छिन्न-भिन्न होते हुए देखते रहेंगे?क्या हम अपनी पुरखो की लगाई गई सुंदर वाटिका को यू ही उजड़ते हुए देखेंगे?क्या हम यही चाहते है कि हमारी सामाजिक व्यवस्था नष्ट-विनष्ट हो जाय? क्या हम अपनी युवा पीढ़ी के उज्ज्वल भविष्य के लिए चिंतन-मंथन करके कोई सकारात्मक निर्णय नही ले सकते?
बहुत-से प्रश्न है जो आप सबके दिलों-दिमाग में तरंगित हो रहे होंगे। एक बात मेरी सभी समाज के बंधुजन-बहनो से कहनी है कि कोई भी ऐसी समस्या नही है जिसका समाधान नही है।अर्थात हर समस्या को समाधान है बस जरूरत है दृढ़ इच्छाशक्ति, विशाल सहृदयता और सामाजिक समरसता से निर्णय लेने की।
आइये,आप और हम सभी अपने पुरखों की सामाजिक व्यवस्था के संदर्भ में गहन विचार-विमर्श करे और नए सिरे से समाज को आधुनिक तकनीकी युग में उन सामाजिक आदर्श प्रतिमानों को कैसे लागू करे और समाज को हम अपने प्राचीन गौरवपूर्ण स्थान पर कैसे प्रतिस्थापित करे?इस पर गहराई से मंथन करना ही होगा।
आप सभी वन्दनीय महानुभावों,बुद्धिजीवियों और समाज के श्रेष्ठ हितचिंतकों को मेरा सादर चरण वन्दन-नमन सा।🙏🙏
आपका अपना
हीराराम गेहलोत, सोनाई माँझी
प्रवक्ता,
सीरवी समाज सम्पूर्ण भारत डॉट कॉम