श्री आईपंथ के ग्यारह नियमों में चौथा नियम है:-“चौथे जुआ कभी न खेलो।”यह नियम व्यक्ति को सदा सद्मार्गी रहने की प्रेरणा देता है तथा व्यक्ति को गलत आदतों से दूर रहने की सीख देता है।मनुष्य के जीवन मे सुख-शांति का साधन जुआ नहीं बल्कि शारीरिक या मानसिक कर्म है। जो व्यक्ति गलत आदतों में पड़कर धन कमाता है उस धन से हानि ही हानि होती है।जुआ जैसी लत में पड़ना एक अनैतिक कार्य है। अनैतिक कार्यो से प्राप्त धन से परिवार का सुख चैन सब नष्ट हो जाता है।जुआ एक ऐसी लत है जिसमें व्यक्ति लोभ व लालसा में अपनी बुद्धि व विवेक दोनों खो देता है जिसका परिणाम होता है कि -व्यक्ति कुमति का शिकार हो जाता है,उसकी निर्णय क्षमता नष्ट हो जाती है और वह अपने पास अर्जित संपदा को भी खो देता है।महाभारत के काल कौरवों और पांडवों के बीच मे जो कुछ भी हुआ वह जुआ का परिणाम था।धर्मराज युधिष्ठिर के जुआ खेलने के शौक ने सबकुछ स्वाह कर दिया। यह आप सभी जानते ही हो।श्री आईमाता जी ने अपने अनुयायियों को सीख दी कि-“वे जुआ कदापि नहीं खेले तथा ऐसी बुरी लत से अपने आपको दूर रखें।
आज भी इस कलयुग में व्यक्ति लोभ व लालच में पड़कर जुआ,छटा बाजार और लॉटरी के खेल खेलते हैं।यह आदतें अच्छी नहीं है,इन बुरी आदतों से दूर रहने वाला व्यक्ति ही अपने घर परिवार को सुख-समृद्धि से सुवासित कर सकता है।
अतः सीरवी समाज का हर समाजी बंधुजन-बहना इस नियम की पूर्णतः पालना करे और इस मनुज जीवन में जुआ जैसी बुरी आदतों से अपने आपको दूर ही रखे। जुआ खेलने की बुरी आदत का शिकार न होवे।
आप सभी श्रेष्ठ वन्दनीय महानुभावों को मेरा सादर वन्दन-अभिनंदन सा।🙏🙏
आपका अपना
हीराराम गेहलोत
संपादक
श्री आई ज्योति पत्रिका।