श्री आईपंथ के सिद्धान्त अर्थात नियम की पालना करने वाला हर व्यक्ति अपने जीवन को सुकूनदायी और आनंददायी कर जाता है। श्री आईपंथ के नियम बहुत ही सरल है जिसकी पालना हर व्यक्ति कर सकता है। जो व्यक्ति अपनी ईमानदारी और सच्चाई से श्री आईपंथ के सिद्धांतों की पालना कर जीवन जीता है उसका जीवन धन्य हो जाता है।माँ श्री आईजी की अपार अनुकम्पा से उसका घर -परिवार सुख और समृद्धि से सुवासित हो जाता है।
श्री आईपंथ का छठा नियम भारतीय संस्कृति में “अतिथि देवो भवः” की महान परम्परा को समर्पित है। छठा नियम है-अभ्यागत हो देवा। अर्थात हमारे घर पधारे अतिथि देवता के सदृश है।अतिथियों का देवताओं के समान आदर सत्कार करने से शुभता प्राप्त होती है।श्री आईपंथ का छठा नियम श्री आईपंथ के हर सच्चे अनुयायी को यह सीख देता है कि वह अपने घर आए मेहमानों (अतिथियों) की निःस्वार्थ सेवा भावना से आदर सत्कार करें। श्री आईमाता जी अपने अनुयायियों को उपदेश दिया कि-वे अपने घर पधारे हर उस अभ्यागत की निष्काम सेवा भावना से सेवा व सहायता करें। अभ्यागत में वे लोग भी आते है जो शारीरिक व मानसिक रूप से अशक्त है या दिव्यांग है। जो भी व्यक्ति याचक बन घर आ जाते है उनकी भी सेवा-सुश्रुसा करे। श्री आईमाता जी ने सीख दी कि-“जो व्यक्ति निरीह,बेबस या असहाय प्राणियों की सेवा शुद्ध अंतर्मन से करता है वह मेरी कृपा का पात्र बन जाता है।”
“भारत के आध्यात्म चिंतन-आईपंथ” नामक पुस्तक में लिखा गया है कि:-
“दीन दुःखी पर सेवा जो करता,वह दीनबंधु कहलाता है।
निर्बल के दुःख को नित जाने,वह परमेश्वर बन जाता है।”
अतः आप और हम सबको श्री आईपंथ के छठे नियम की पूर्णतः पालना करनी चाहिए और अभ्यागत जनों का देवस्वरूप मानकर उनकी सेवा और उनके कष्ट पीड़ा जो भी हो हरने का प्रयास करना चाहिए। अभ्यागतों के आशीष से जीवन धन्य हो जाता है। श्री आईमाता जी स्वयं जाणोजी राठौड़ के यहाँ एक अभ्यागत की तरह पधारे और जाणोजी ने निष्काम सेवा भावना से उनकी सेवा की,श्री आईमाता जी के आशीर्वाद से उनके सब मनोरथ पूर्ण हो गए और उनका वंश अमर हो गया।
आज के कलयुगी जीवन में ऐसे बहुत-से छल कपटी,लुटेरे और चोर भी अभ्यागत बन कर आ जाते है उनकी पहचान कर तदनुसार व्यवहार करना चाहिए।
आप सभी श्रेष्ठजनों को मेरा सादर प्रणाम सा।🙏🙏
आपका अपना
हीराराम गेहलोत
संपादक
श्री आई ज्योति पत्रिका।