श्री आईपंथ के सिद्धान्त या नियम सुकूनदायी व आनंददायी जिंदगानी का अमृत रस पान है।जो व्यक्ति श्री आईपंथ के सिद्धांतों या नियमों की पूर्णतःपालना करता है उसका जीवन सदा सुख-समृद्धि से सुवासित हो जाता है।उस व्यक्ति के जीवन में सुख-चैन और शान्ति छा जाती है। श्री आईपंथ के नियम सुखद जिंदगानी का सार तत्व है।
श्री आईपंथ का आठवां नियम:-“आठ परहित मार्ग चालो।” यह नियम सीख देता है कि व्यक्ति को अपना जीवन परमार्थ को समर्पित करके जीना चाहिए। परमार्थ ही जीवन का यथार्थ है ,यही जिंदगानी का वास्तविक भावार्थ है।हर व्यक्ति को अपनी श्रद्धा-भक्ति के अनुसार परमार्थ के लिए अर्पित जरूर करना चाहिए।वह अपने मन-वचन व कर्म से प्राणी मात्र के प्रति सेवार्थ का भाव रखे और जितना बन पड़े सेवा करे। महान साहित्यकार तुलसीदास जी द्वारा रचित सनातन के महान ग्रंथ-” रामचरित्रमानस” में लिखा है कि:-
“परहित सरिस धर्म नहीं भाई,पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।” भावार्थ यह है कि परहित अर्थात परोपकार से बड़ा कोई धर्म नहीं है तथा पर पीड़ा अर्थात दूसरों को पीड़ा देने से बड़ा कोई अधर्म नही है।परोपकार से पुण्य और दूसरों को पीड़ा देने से पाप मिलता है।
श्री आईमाता जी ने अपने अनुयायियों को श्री आईपंथ के आठवें नियम के माध्यम से सीख दी कि- वे परमार्थ की राह पर चले और तन-मन-धन से परमार्थ कार्य करे। जो व्यक्ति निष्काम सेवा भावना से परमार्थ कार्य करता है वह श्री आईमाता जी की कृपा का पात्र बनता है। वह श्री आईमाता जी के आशीर्वाद से खूब प्रगति करता है और उसका जीवन यशस्वी बनता है। सीरवी समाज के लोगों ने श्री आईमाता जी द्वारा बतलाए नियम की पालना से तथा श्री आईमाता जी के आशीर्वाद से ही अपने व्यवसाय में खूब प्रगति की है।भारतवर्ष में जहाँ-तहाँ बने श्री आईमाता जी के परम धाम”वडेर” तथा परमार्थ के कार्य जैसे गौ-शालायें, शिक्षण संस्थान,अस्पताल,प्याऊ इत्यादि परमार्थ के प्रति अर्पण को स्वयं बया कर रहे है। परमार्थ कार्य से जुड़े हर व्यक्ति बधाई के पात्र है। जो व्यक्ति परमार्थ के प्रति अपना सर्वोत्तम त्याग और अर्पण कर निष्काम सेवा भावना से कर्तव्यकर्म करेगा उसे निश्चित ही श्री आईमाता जी का आशीर्वाद मिलेगा,वह खूब प्रगति करेगा और उसे जीवन में खूब यश मिलेगा।
कहा भी गया है कि:-
“समाज सेवा और परोपकार से,
वह जन-जन की आशीष पाता है।
धर्मानुकूल आचरण से ही,
निज कुल की शान बढ़ाता है।”
श्री आईपंथ के हर अनुयायी को अपना जीवन परहित के प्रति समर्पित करके जीना चाहिए तथा जीवन के श्रेष्ठ मानक मूल्य-ईमानदारी और सच्चाई से जीवन जीना चाहिए। अपने जीवन में पाप की कमाई का कोई भी अंश नहीं हो,इसका विशेष ध्यान रखना चाहिए। हमारे पुरखों ने साफ व स्पष्ट कहा है कि-” ईमानदारी का पैसा टिकता है बेईमानी का नहीं। जो हराम का खाता है उसका पैसा हराम में ही जाता है।”
सारांश यही है कि श्री आईपंथ के हर अनुयायी को आठवें नियम की पालना करके अपने मनुज जीवन को धन्य और सार्थक बनाने का ईमानदारी से कर्तव्यकर्म करना चाहिए।
आप सभी श्रेष्ठजनों को मेरा सादर वन्दन-अभिनंदन सा।🙏🙏
आपका अपना
हीराराम गेहलोत
संपादक
श्री आई ज्योति पत्रिका।