(13) सीरवी लचेटा गौत्र का उदभव :

सीरवी लचेटा गौत्र का उदभव :–

लचेटा – किवदंतियों के मतानुसार विक्रमी संवत की ८ वीं शताब्दी में प्रतिहार (परिहार) हिन्दुजी (सिन्धुजी) ने एक ढाणी बसाई जिसे आज लेता गाँव (पुराना) के नाम से जाना जाता हैं | हिन्दुजी (सिन्धुजी) ने यह ढाणी जाबालिपुर (जालोर) से कई दशकों पहले बसाई थी इसलिए यह माना जाता हैं कि भीनमाल(श्रीमाल) क्षेत्र प्रतिहारों के अधीन होने में हिन्दुजी की मुख्य भूमिका रही थी | जालोर गढ़ में जौहर पृष्ठ स. १८ – प्राचीन नगरों में भीनमाल (श्रीमाल शहर) का नाम आता हैं, जो जालोर का ही भाग तथा उपखंड हैं मौर्यों के बाद इस क्षेत्र पर क्षत्रिय राज्य करने लगे | भीनमाल से क्षत्रियों के सिक्के मिले हैं | भीनमाल (श्रीमाल) के पतन के बाद पर्वतीय सुरक्षा की दृष्टी से जाबालि आश्रम के पास स्वर्नगिरी की गोद में गुर्जर प्रतिहारों (गुजरात में शासन करने के कारण गुर्जर नाम) ने अपनी राजधानी यहां बनाकर इस क्षेत्र का नाम जाबालिपुर (जालोर) रखा । भीनमाल यह क्षेत्र बाद में गुजरात के चावडों ने जीत लिया । महाकवि माघ जो भीनमाल (जालोर) के ही थे, उनके दादा सुप्रभदेव इन गुर्जर राजाओं के मंत्री थे। ई. सन ७४० विक्रमी सम्वत ७९७ में श्रीमाल क्षेत्र चावड़ो से प्रतिहारों के पास आ गया था । प्रतिहार नागभत्त ने विक्रमी संवत ८१७ के आस पास अपना बहुत बड़ा साम्राज्य स्थापित कर लिया था | ये प्रतिहार लक्ष्मण के वंशज रघुवंशी थे | इस प्रकार यही जालोर प्रतिहारों की कर्मभूमि रहा | इसी नागभत्त ने विदेशी हमलों से रक्षा के लिए सीमा पर प्रतिहारी (द्वारपाल) बनना स्वीकार किया था | इसलिए भी यह सीमा रक्षक वंश, प्रतिहार वंश कहलाया ! जालोर का साम्राज्य भारत की पश्चिमी सीमाओं का प्रहरी था | इसके वंशजों ने आगे चलकर अपनी राजधानी जालोर से हटाकर कनौज कर ली । राजा भोज के समय में भी जालोर राज्य उसके अधीन था तथा भीनमाल उसकी राजधानी थी | जालोर पर थोड़े समय के लिए मंडोर के प्रतिहारों का भी राज्य रहा हैं | ऐसा माना जाता हैं कि भीनमाल पर सिंध के गवर्नर जुनेद द्वारा किये गये हमले के बाद नित्य होने वाले हमलो से बचने के लिए जालोर की राजधानी स्वर्नगीरी पर बना दी गई | उसके बाद जालोर प्रगति की ओर बढ़ा तथा मुख्य व्यापारिक केंद्र बन गया था। यहां अठारह वर्ग के लोग रहते थे | अठारह देशों के लोग आकर के अठारह भाषा बोलते थे | जिसमे गोवा, मगध, लाट, मालवा, कर्नाटक, कोसल, महाराष्ट्र, आंध्र मारूगुर्जर के साथ तापिक, टके, कीर, अंतर्वेद आदि देश के व्यापारी होते थे। हिन्दुजी पडियार नागभत्त के वंशजों में से थे। प्रतिहार (पड़ियार) नागभत्त के साथ प्रतिहार हिन्दुजी का क्या रिश्ता था ? यह ज्ञात नहीं हुआ | हिन्दुजी की यह ढाणी सुंदरा बाव (जालोर तालाब) के पूर्व दिशा में लगभग छ: किलोमीटर दुरी पर हैं | जिसके उत्तर में एक बड़ा वाला बहता था, जिसमे डोडयाली (डोडगढ) के आस पास का पानी आता था | जो उस वाला में होकर जालोर के सुंदरा बाव (सुन्दरला तालाब) में गिरता था आज उस वाला ने “जवाई नदी” का रूप ले लिया हैं | उसके पास ही पानी की व्यवस्था को देखते हुए हिन्दुजी और उसका बेटा लेसटा ने अपना आशियाना बसाया | उसके समुदाय में आजणा जाति के एक रेबारियों का भी डेरा (घर) था | उसी भूमि पर उनका समुदाय पशुपालन और खेती बाड़ी कर अपना जीवन यापन करने लगा | इसी काल में हिन्दुजी के स्वर्ग सिधारने पर उनकी याद में लेसटा ने (हिन्दुजी) सिन्धु नाडी खुदवाई | जो आज लेटा का बड़ा तालाब कहलाता हैं | परिहार लेसटा ने अपनी माँ लक्मी की याद में भी एक नाडी खुदवाई, जो वह “नकमी” (लकमी) नाम से आज भी लेटा में मौजूद हैं | लेटा के कवि बगसू व दौलतराम राव और गाँव के ही कुछ बुद्धिजीवियों से मिली जानकारी के अनुसार लेसटाजी धर्मात्मा, परोपकारी व भगवान शिव के सच्चे भक्त थे | लेसटाजी अपनी ढाणी से दूर बाग में शिव लिंग की स्थापना कर शिव-उपासना करते थे जहां पर नीम वगैरह के पेड़ लगाए थे, जिसे लेसटा बाग़ कहा जाता हैं | जो आज भी पुराना लेटा गाँव भगवान शिव मंदिर के परिसर में स्थित हैं | श्री लेसटा का देवलोक गमन विक्रमी सम्वत ०९६४ चैत्र सुदी १० था | इन्हीं महान पुरुष श्री लेसटा की स्मृति में पूर्वजों ने अपनी ढाणी का नाम लेसटा ढाणी रखा | जो बाद में ढाणी ने अपना नाम लेटा गाँव का रूप लिया | लेटा गांव वर्तमान में राजस्थान के जालोर जिले में स्थित हैं | जिसको आज प्रतिहारों (चौधरियों) का गांव कहते हैं | लेसटा के बाद उनके तीनों पुत्रों ने अपने अपने हिस्से की जमीन में “खाड़” (कुए) खुदवाये। जो आज भी नदी के पास लेटा गांव में स्थित हैं | उसी समय शासक गुरोसा को लेसटा की ढाणी से आतमणि (पश्चिम) दिशा में जमीन भेंट की थी | जिसे गुरोसा का “ढिंमड़ा” कहते थे | आज भी यह जमीन इसी नाम से बोली जाती हैं | उनके परिवार का एक घर आज भी मौजूद हैं “पारसमलजी गुरोसा” उसी खानदान के लोग आज भी लेटा में निवास करते हैं | लेसटाजी के परिवार वालों ने किसी कारणवश यह ढाणी (लेटा गांव) छोड़ते वक्त आंजणा जाति की बहु को, जो अपनी धर्म बहन बनाई हुई थी उसको तीनो कुओं की जमीन, जो वर्तमान में पतालिया, गजावा, नौकड़ा के नाम से जानी जाती हैं | वह भेंट देकर विक्रमी सम्वत की दशवी शताब्दी के बाद लेटा गांव छोडकर अपनी प्रतिहार (परिहार) मुख्य शाखा से उप शाखा (गौत्र) की पहचान अपने पूर्वजों के नाम लेसटा (लचेटा) बनाते हुए वहां से उगमणी (पूर्व) दिशा में जाने के संकेत मिलते हैं | आगे भी बताते हैं कि लचेटा (लेसटा) परिवार किसी राजा के बुलावे पर गये थे | इसी तरह समाज के शेष मुख्य शाखाओं से उपशाखाओं का उद्भव भी अपने-अपने पूर्वजों एवं मुख्य स्थान के नाम से हुआ |

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