(11) ग्यारह सत्मारग चलना।

जो मनुष्य सत्यावादि होते है, वे कभी धोखा की बात नहीं करते और एक बार जो कह देते हैं। उसको कभी पलटते नहीं है, चाहे उन्हें कितना भी लोभ दिया जाय और कितना ही डर दिखाया जाय। चाहे कितनी ही विपत्तियाँ उन पर पड़े, यहाँ तक कि उनके प्राण ही भले जाएं। जैसे राजा हरिशचन्द्र ने अपना राज्य स्त्री और पुत्र के छुट जाने पर भी सत्य को नहीं छोड़ा और अंत में स्वर्ग को गए।

तीन वस्तु प्यारी सबै, धन-नारी-सन्तान।
हरिशचन्द्र तीनो तजे, सत्य न दिनों जान।।
सत्य न दिनो जान, बिके कासी की नगरी।
राज-पाट परिवार तज्यो, धन संपति सगरी।।
विश्वामित्र ने उन्हें, विविध बहु संकट दिनो।
नृपति सत्य नहीं तज्यो, तजे अति प्यारे तीनो।।
सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाके ह्रदय सांच है, ताके ह्रदय आप।।

सत्यवादी मनुष्य का सब विशवास करते हैं, उसका आदर अधिक होता है और सत्य बोलने में उसकी आत्मा सर्वदा प्रसन्न रहती हैं।

सत् मत छोड़ो हे नरा! सत् छोडियो पत जाय।
सत् की बांधी लक्ष्मी, फेर मिलेगी आय।।

माताजी ने कहा – सत्य जीवन का प्रकाश है, वाणी का सार है, संसार का उपहार है समाज का उत्थान है, राजा की शोभा है और प्रजा का कल्याण है। संक्षिप्त में मानव जीवन का प्रत्येक पहलु सत्य की ज्योति से ज्योतिर्मय है। जहाँ सत्य है, वहीँ जीवन का प्रसार है। व्यावहारिक जीवन में सत्य परमावश्यक है। सत्य में दया, क्षमा, शील, संयम, तप, त्याग आदि सर्व गुण सामहित है। सत्य हमारे शरीर एवं परिवार की रक्षार्थ एक अमोघ यंत्र है। यदि हम इसे मन, वचन और काया से पालन करे तो हम दैहिक, भौतिक एवं दैविक प्रकोपों से बच सकते हैं। एक दूसरों को भी बचा सकते हैं। सत्य वह कवच है जिसे धारण करने से दुनिया की सारी आपदाओं एवं विपत्तियों से मुक्ति मिल सकती है। इसलिए श्री आई माताजी ने कहा- गाँठ ग्यारह सत्मारग चलना।।

 

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