मेरी माँ की सूरत फकीरों सी,
जो दे गई लकीरें वाजूदों सी,
मैं कितनी बात लिखूँ उसकी,
लफ्ज़ खत्म हो जाए अमीरी के।
जो अतुल्य दर्द कहा जाता है ज़माने भर में,
वो गर्भ का दर्द है माँ के पाले में।
जो पानी सूख जाए सर्दी की रातों में,
वो तप्त है माँ के पैरों के छालों में।
पैदल न चलने देती पल भर भी,
हमसफ़र थी जो राह के काँटों की,
सीने से लगा कर रखा बचपन में,
कि छू न जाए नजर ज़माने भर की।
भूखा मरता देख अपने लाल,
ले हाथ कटोरा खड़ी हो जाए।
जो न हो बात पल भर भी,
वो रात भर भूखी सो जाए।
क्या वजूद लिखूँ मैं इस खुदा का,
जो लिखूँ तो स्याही खत्म हो जाए।
अग़र लिखा दर्द उसके गर्भ का,
तो सात जन्म कम पड़ जाए।
©सीरवी प्रकाश पंवार