सीरवी समाज की आराध्य देवी श्री आईमाता जी ने एक पंथ चलाया जिसे “श्री आईपंथ” के नाम से जानते है।सभी पंथ के अपने नियम व सिद्धान्त होते है जो मानव जीवन को उच्च नैतिक मूल्यों से प्रस्फुटित करते है।धर्म व आध्यात्म को नैतिकता की नींव बताया गया है। जब मनुज श्रेष्ठ नैतिक मूल्यों को आत्मसात कर जीवन जीता है तो उसका मनुज जीवन सार्थकता को प्राप्त होता है। जीवन उन्ही का धन्य है जो उच्च मानवीय मूल्यों को लेकर जीवन जीते हैं।यह उच्च मानवीय मूल्य हमें धर्म व आध्यात्म को धारण करने से मिलते है।हम सभी श्री आईपंथ से जुड़े है।अपने पंथ के आराध्य देवी श्री आईमाता ने “श्री आईपंथ” के ग्यारह नियम बताए है।यह ग्यारह नियम सभी धर्म शास्त्रों का सार तत्व है। श्री आईपंथ के अनुयायी अपने जीवन में”श्री आईपंथ के नियमों” के अनुरूप जीवन जी लेवे तो उनका जीवन सुख-समृद्धि से सुवासित होते देर नही होती है।श्री आईमाता जी ने धर्म की शिक्षा के लिए ही “श्री आईमाता जी भेल(धर्मरथ) की शुरुआत की जो एक युगान्तकारी पहल बनी।आज भी श्री आईमाता जी का भेल(धर्म रथ) अपने उद्देश्यों को लेकर चल रहा है।हम सब का दायित्व बनता है कि हम श्री आईपंथ के नियमों की पालना करे और अपने जीवन को यशस्वी व कीर्तिमय बनाए।
श्री आईपंथ का प्रथम नियम है:-“प्रथम झूठ तजो सुख पाई।” जो व्यक्ति सत्य की राह पर चलता है और झूठ-फरेब की दुनिया से दूर रहता है वह सदा सुखी रहता है। जीवन में सत्य की अपनी महिमा है। राजा हरिश्चन्द्र,राजा युधिष्ठिर,स्वामी विवेकानंद जी और महात्मा गाँधी जी जैसे महान संत-महात्माओं ने सत्य को अपने जीवन का अटूट हिस्सा बनाया और वे जगत में अमर हो गए। सत्य को धर्म की संज्ञा दी गयी है। सत्य की महिमा अपरम्पार है।
सत्य की राह पर चलने वाले व्यक्ति को कोई अवसाद नही होता है। वह जीवन में सदा तनावमुक्त रहता है। जिस व्यक्ति के जीवन में तनाव नही होता है उसका जीवन सुखी हो जाता है। सत्य बोलने में लाभ ही लाभ है। सत्य बोलने वाले को किसी प्रकार सफाई देने की जरूरत नही होती है जबकि एक झूठ को छिपाने के लिए अनेको झूठ बोलना पड़ता है। जीवन में झूठ बोलकर ऐसा पाप नही करे जिससे श्री आईमाता जी की कृपा से वंचित हो जाय। जो व्यक्ति सच्चाई व ईमानदारी की राह पर सदा गतिमान रहता है वह अपने जीवन को सुखमय व आनंदमय बना जाता है।
धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि:-
“सत्यहीना वृथा पूजा सत्यहीनो वृथा जपः।
सत्यहीनं तपो व्यर्थमूषरे वपनं यथा॥”
भावार्थ यह है कि उज्जड(बंजर) जमीन में बीज बोना जैसे व्यर्थ है, वैसे बिना सत्य की पूजा, जप और तप भी व्यर्थ है। हम सत्य की डगर पर चलकर ही श्री आईमाता जी की कृपा प्राप्त कर सकते है।
आइये आप और हम सब श्री आईपंथ के प्रथम नियम-“प्रथम झूठ तजो सुख पाई।” को अपनी जिंदगी का अहम हिस्सा बनाए और उस पर चलने का दृढ़ संकल्प लेवे।
श्री आईपंथ के सभी श्रेष्ठजनों को मेरा सादर वन्दन-अभिनंदन सा।
आपका अपना
हीराराम गेहलोत
संपादक
श्री आई ज्योति पत्रिका।