आदर्श किसान एवं विकास यात्रा

सीरवी (क्षत्रिय) समाज खारडि़या की वीरता का इतिहास देखने पर हमें यह शुकून होता है कि जब कभी अपने देश या प्रजा पर संकट आते देखा। तब तब अपना क्षत्रियता का दायित्व अपने अपने तन-मन-धन से निभाया। समाज ने वि.सं. १३६५ से कृषि व्यवसाय अपनाया। जब से समाज खेती के प्रति अपना परिश्रम, लगन के साथ पूर्ण रूप से समर्पित होकर आदर्श किसान की भूमिका निभा रहा है और समाज जमाने के अनुसार वर्षा और पैदावर के बारें में पूर्वानुमान में भी पारंगत रहा है। जैसे जमीन पर मौसम के अनुसार हळ चलाना, हवा के रुख को देखकर जुताई (कमाई) करना, जमीन (खेत) को विश्राम देना।निर्धारित जमीन पर कितान गोबर (खात) डालना। गोबर नया, पुराना, किस जानवर का गोबर कितना कारगर होता है, मिट्टी काली, भूरी  वगैरह होने पर मिट्टी के गुणों के अनुसार बीज की बुवाई करना। बीज बुवाई के वक्त मिट्टी में उचित नमी (पानी की मात्रा) का अनुमान लगाना। एक बीघा जमीन में किस किस्म का बीज, कितना गहरा, कितनी दूरी पर बुवाई करना। निर्धारित खेत में उचित मात्रा तक बीज की बुवाई करने की सटीक तथ्य पूर्ण जानकारी अशिक्षित सीरवी किसान वर्ग में होना भी विल-क्षण बात है। समाज बांडेरु कृषि व्यवसाय को पूर्ण श्रद्धा से अपनाते हुए मौसम की गतिविधियों और कृषि व्यवसाय पर प्रभावित होने वाले पवन व अन्य पेड़ पौधों के लक्षणों की जानकारी भी रखते है। जैसे आम का पेड़ अच्छा फलता है, तो अच्छी वर्षा की संभावना रहती है। केर अच्छा फूलता फलता है तो  कपास की फसल अच्छी है। कपास की फसल अच्छी होती है तो उस वर्ष खरीफ की फसल कमजोर रहती है। खेजडा़ी का पेड़ अच्छा फूलता (सांगरियां आना) फलता है तो बाजरे की फसल अच्छी होती है। झाळकी अच्छी पकने पर ज्वार अच्छी होती है। नीम का वृक्ष (जोरदार अच्छी खिचड़ व गून्टा लगना) अच्छी तरह फूलने फलने पर तिलहन की फसल अच्छी होती है। समाज के बुजुर्ग चाँद को देखकर पूर्वानुमान लगाते थे। जैसे चाँद के चारों तरफ गोलाकार हल्का आसमान रंग का घेरा होने पर (अच्छे शगुन माने जाते) वर्षा होने की सम्भावना रहती है। ठीक इसी प्रकार शुक्रवार का बादल शनिवार का सूर्य देख लें तो वर्षा होने की पूर्ण सम्भावना रहती है। बांडेरु वाणी –

शुक्रवार की बादली, शनिचर तक रह जाय।
मेहर मानों इन्द्र की, बरसींया बगैर नहीं जाय।।

बुजुर्गों का कहना है कि उत्तर-पूर्व दिशा की हवा वर्षा होने के संकेत देती है। मगर दक्षिण-पूर्व दिशा की हवा चली तो मान लीजिए कि बरखा के बदरा का बिखेर देगी। श्रावण में ‘हूरिया’ हवा, जो उत्तर दिशा से चलने वाली अच्छी बारिश (वर्षा) लाती है। भाद्रवा में ‘परवाई’ (पुरवाई) हवा, जा पूर्व उत्तर कोण से चलती है, उससे अच्छी (वह बारिश लाती) वर्षा होती है। परवाई हवा के साथ वर्षा न होने पर वह ज़हरीली होती है। कच्ची फ़सलों, फूल-फल के लिए नुकसानदायक होती है। परवाई हवा चलने के साथ वर्षा होने पर उसका जहर मिट जाता है, फ़सलों के लिए अच्छी होती है। सर्द ऋतु मं रबी की फ़सलों में गेहूं, जौ, सरसों, जीरा, रायडा़ अ, सोंफ, अजवायन, धनिया, अल्लसी, ईस बगोल, तारामीरा, सूर्यमुखी वगैरह बुवाई की जाती है। सर्द ऋतु में ज्यादातर पूर्व उत्तर की तरफ से हवा (परवाई) चलती है। बुजुर्गों का कहना है कि यह हवा खाली मानी जाती है। यह एक हाथ जमीन के अन्दर तक चलती है। इस हवा के चलने से फ़सलों कमजोर होती है। ज्यादातर रबि की फसलों की सिंचाई होने पर इस हवा का प्रकोप कम हो जाता है। ग्रीष्म ऋतु के आगमन पर जो पश्चिम से हवा चलती है, उस हवा से फ़सलों को अच्छी पौष्टिकता व अन्न के दानों को पकने में मदद मिलती है। सर्द ऋतु के प्रारम्भ काल में बुवाई की जाने वाली फ़सलों में, जिसकी सिंचाई नहीं के बराबर की जाती या नहीं की जाती जो हैवज होती है। जैसे चना, सरसों, रायरा, तारामीरा वगैरह।

इन फ़सलों की जड़ें गहराई तक जाती है। इसकी बुवाई के लिए खेत का बसन्त काल में घास फूस (खरपतवार) उगने के बाद जमीन की बार-बार जुताई की जाती है। उस खेत में पानी की नमी को सुरक्षित रखने के लिए बारीकी से हळ जुताई की जाती है। बार-बार जुताई करने से और पश्चिम की हवा चलने का लाभ दायक असर जमीन में घुल जाता है। जिसमें फसल का सिंचाई की जरुरत कम रहती है। सर्द ऋतु में एकादश मावट से भी फसल अच्छी पकने की आशा बन जाती है। ग्रीष्म ऋत के पिछले पहर (अंत) में कपास कि फसल की बुवाई की जाती है। ग्रीष्म  काल में अधिकांश काश्तकार (किसान) अपने जमीन में हळ जुताई करके खेत को अगली फसल के तैयार करते है। बसन्त काल में खरीफ की फसल के लिए भी पहले से ग्रीष्म काल में किसी-न-किसी प्रकार की कुछ विषेष तैयारियाँ कर ली जाती है। ग्रीष्म ऋतु में खेत में हळ अथवा आज समयानुसार ट्रेक्टर द्वारा तवियों की जुताई करने से पान पन्नडी वगैरह मिट्टी में दबने से खाद बन जाता है और विशेषकर हळ जुताई पर खेत की मिट्टी उलट-पलट होन से ग्रीष्म काल में सूर्य की तेज गर्मी से खेत को उर्जा (लू भर जाती) मिलती है। मौसम की अच्छी बारिश होने पर ज़मीन में फ़सलों की जरुरत के मुताबिक नमी होने पर ज्वार, बाजरा, मक्का, मूंग-मोठ, उदड-चौला, ग्वार, कुरा, करांगणी, मडुवा, तिलहन आदि अनेक फ़सलों की बुवाई होती है। प्याज की खेती के लिए सर्द ऋतु के पिछले पहर (अंत) में प्याज के बीजों की बुवाई की जाती है। जिसे ग्रीष्म ऋतु के प्रारम्भ काल में तीन चार पत्तियों के हो जाने पर उन्हें दूसरी जगह पर फिर से बुवाई के रूप में लगाया जाता है। इसी तरह मिर्च, मडुवा जैसी फ़सलों को ग्रीष्म काल के अन्तिम पहर में बीजों की बुवाई की जाती है। उन्हें बसन्त काल के पहले पहर में फिर से दूसरी जगह पर बुवाई के रूप में लगाया जाता है। तिलहन और बाजरे जैसी फसलों की कटाई करके उसी खेत में यदि रवि की फसल की बुवाई की चाहत होनें पर बुवाई की जा सकती है और वहां फसल अच्छी भी होती है।

तिलहन और बाजरे जैसी फसलों की जड़ें झगड़ा जड़ होती है। जिससे जमीन के अन्दर का पोषाहार (उर्जा) जमीन के उपर वालें भाग में आ जाता है। दूसरी फ़सलों की जडें मूसळ जडें होती है। जो अपने आस-पास की मिट्टी से से तीन फुट तक का पूरा रसद चुस लेता है। जमीन (खेत) जुताई के बारें में कहा जाता है कि विशेष-कर सर्द-काल में जमीन में जुताई नहीं की जाती, क्योंकि सर्द ऋतु में ज्यादातर पूर्व उत्तर के कोण की हवा चलती है और यह हवा पुरवाई कहीं जाती है। इस हवा के चलने का बुरा प्रभाव जमीन के अंदर एक फुट तक होता है। यह पुरवाई हवा जमीन के अन्दर करीब एक फुट तक मिट्टी की उर्जा और नमी सुखा देती है। उस जगह फसल बुवाई करने पर गोबर खाद डालने, निराई, गड़ाई करने पर भी वह फसल कमजोर होती है। इस प्रकार हमारा सीरवी समाज कृषि विषयक समग्र जानकारी रखने वाला समाज सर्व गुणों का भण्डार है, हम ईश्वर के आभारी है। टाइपिंग सुरेश सीरवी सिन्दडा़ वि. संवत् २००४ भारत स्वतंत्र होने के पहले कुछ समाज भाइयों द्वारा जमीदारों से जमीन खरीदने या किसान के बल-बूते पर कुअां खोदने व बेरा स्थापित करने और वहाँ वर्षों से बंजर पड़ी भूमि को अपने हाथों से कुओं खोदकर पानी उपलब्ध कराना और हळ जोत-कर जमीन को उपजाऊ रूप दिया था। उस जमीन का भी जागीरदार को बिगोड़ी के तौर पर भागे का छठा हिस्सा देना पडता था। भारत की स्वतंत्रता के बाद जिन भाइयों ने बेरे व खेती की जमीन खरीदकर अपने नाम करवाया। जिसकी बिगोड़ी भूमि कर के रूप में राजस्व आज भारत (हिंदुस्तान) सरकार लेती है।

इस तरह अपने समाज का परिश्रम, लगन एवं ईमानदारी से खेती व्यवसाय के प्रति समर्पित हो जाने के कारण एक आदर्श किसान, अन्नदाता के रूप में हमारे समाज की ख्याति चारों ओर फैलने लगी। इस कारण सीरवी जिस गाँव में खेती करने जाते, वहां के जागीरदार सीरवियों की बाड़ी इज्जत एवं आदरपूर्वक पैदावार बढा़ने की सभी सुविधाएँ उपलब्ध कराते तथा विपत्ति में समाज की हर सम्भव सहायता भी करते थे। यदि कोई जागीरदार काश्तकार सीरवी के साथ धोखा अन्याय, शोषण या किसी प्रकार का दुर्व्यवहार करने पर वह किसान अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए सीरवियों की महा पंचायत में इकरार नामा करके उस गाँव में सीरवियों द्वारा गद्दा रोपा जाता था, यानि उस गाँव को ही छोडकर अन्यत्र प्रस्थान कर देते थे। फिर उस गाँव में या उस जागीरदार के वहां कोई सीरवी, कृषि जोड़ी नहीं करता था। विक्रम संवत २०२५ के आस-पास तक किसानों का खेत सिंचाई का जरिया ढी़मडा (अरहट) मण्डावाकर करीब ४५ मीटर गहरे कूएँ से बैलों द्वारा पानी पिलाई, सिंचाई की व्यवस्था की जाती रही। अरहट उस समय लकड़ी से बनाए जाते थे और कुएँ में से पानी निकालने के लिए ‘माळ’ की आवश्यकता रहती है। माळ जो ऐरा, खींप या पौधों के तनों की बनी होती है। दो समानान्तर रस्सियों को लकड़ी की कीलों से जोड़कर उन पर मिट्टी की घडलियाँं बांध दी जाती है। लकड़ी की एक मजबूत धुरी ‘उबडिया’ जमीन पर खड़ी की जाती है। उसके सहारे के लिए दो लंबी लकड़ी की आडण, जिसे कौढ व पळिसना कहते है, उबडिया के उपर इस प्रकार रखा जाता है कि उबडिया अपने आप उस निश्चित स्थान पर गोल-गोल घूम सके, फिर उस बीम में जमीन के समानान्तर करीब तीन फुट की ऊंचाई पर एक छक्का (धाबडा) उबडिया में लगाया जाता है। टाइपिंग सुरेश सीरवी सिन्दडा़ ठीक उसी नाप का दूसरा चक्का खड़ा (बांगड़ा) आडी लाठ में खड़ा किया जाता है। जो उबडियां वाले धाबड़े के चलने पर वह खड़े बांगड़े से टकरा-कर पूर्व से पश्चिम उपर से नीचे की ओर चलता है। यह बांगडा़ ज़मीन के अन्दर लाठ के द्वारा दूसरे धाबडा़ से जुडी हुई होती है। दूसरे धाबडा़ पर, जो १६ पगियाँ ३२ भोंक एवं ३२ डिन्गारों से जुड़ा होता है, उपर माळ डाली जाती है। खड़े उबड़िया को चलाने के लिए समानान्तर चक्के बांगड़े के एक छोर पर लम्बी लकड़ी की गादेळ में लकड़ी का गोंडा से होते हुए रस्सी या लोहा की सांकळ में झंवाडा़ लगाकर बैलों की एक जोडी़ जोत-कर उसको पूर्व उत्तर, पशिचम दक्षिण गोलघाई घुमाया जाता था।

किसान (सीरवियाे) द्वारा बैलों का रख-रखाव पुत्र की तरह किया जाता था। बैलों के रहने, खाने, सोने व विश्राम के लिए अलग से मकान, जिसे (ओडि) कहते है, ओडि के अन्दर गोबर के चूरे का बिछावना करना व गीला होने पर उसे बार-बार धूप में सुखाना, मौसम के अनुसार उनके लिए व्यवस्था की जाती थी। उनक खाने के लिए ज्वार, बाजरा, मीठे मळिचेका चारा के अलावा गेहूँ  का खाखला, हरि-ये, मोंठों की पनडी़, हरी घास, रिझगा, काशमीरा, जौ, मेथी वगैरह के अलावा वर्षा के समय गुड फिटकड़ी का जावा (मिश्रण) सर्दी में अनाज बाजरा, जौ के दाणों का दलिया, तेल, गुड़ और तिल्ली का किचरीया (बाण्टा) व ऋतु के अनुसार खुराक दी जाती थी। बैलों की सजावट के लिए सींगों को रंगीन द्रवो से रंगना, छडा़ लगाना, मुंह पर मुहरा, गले में टोकरिया जडित गळगोर पहनाई जाती थी। बैलों के खुरों की रक्षा के लिए जहां जिस गोलाई में बैल घूमते है, वहां गोबर की परत व कन्धों पर गीधि जमाई जाती है। उसके घूमने पर धाबडा़ व बांगड़े तीनों घूमते रहते है। बांगडा़ चलने पर घडलियां उपर से नीचे करीब ४५ मीटर गहरें कुएं में पानी के अन्दर से चलती है। पानी में जाने के कारण वह पानी से भर जाती है और भरी हुई घडियां उपर आती है, जो पुनः नीचे जाते वक्त एक खेली ‘पाराशा’ में खाली हो जाती है। इस प्रकार यह चक्कर यह चक्कर चलता रहता है। धाबडें पर एक लकड़ी का अंकुश पानडियां के साथ डूवा लगा होता है, जो सुरीली आवाज देता है और वह धाबडे को विपरीत दिशा में घूमने से रोकता है। इसमें किसी को भी ताकत नहीं लगानी पडती और पानी का वेग बराबर चलता रहता है। जिससे सिंचाई सरल व अधिक होती है।

अरहट के उबडिये पर दो चरखियां लगी हुई होती है। जिनमें से एक पर डोरा (पतली रस्सी) लपेटा हुआ रहता है। अरहट चलने पर चरखियां घूमती है और चरखी से डोरा दूसरी चरखी पर स्वत: लिपतटा जाता है। यह गोरा निश्चित नाप व निश्चित समय का होता है। जब पहली चरखी खाली हो जाती है तो सागडी़ एवं बैलों की जोड़ी बदल दी जाती है, ताकि निश्चित समय तक कार्य करने के पश्चात् वे आराम कर सकें। इस प्रकार यह क्रम चलता रहता है। इससे स्पष्ट होता है कि किसानों ने अपने आराम के साथ-साथ पशुओं के आराम को भी अपने ध्यान में रखा था। उपर्युक्त समय के बाद से करीब ८० मीटर गहराई से डि-जल पम्पसेट और विद्युत यन्त्रों के माध्यम से फ़सलों की सिंचाई की जा रही है। यदि खर्च का हिसाब देखा जाए तो उपज के पांच में से दूसरा हिस्सा बिजली बिल का होता है और कुएँ में पानी नहीं, पिछले दो-तीन दशकों से मानसून की कमी के कारण मारवाड़ में पर्याप्त वर्षा नहीं होने के कारण नदियों में पानी नहीं बहता और पानी की कमी की वजह से जमीन में रूखा-पन एवं मिट्टी में नमी न होने से मारवाड़ की धरोहर कैर, बवंळिया, खेजडी तो सूखते ही है मगर किसानों की जो पूंजी पशुओं , मुख्य तौर पर गायों के लिए चारा तक नहीं पनपता। एक वर्ष ठीक-ठीक वर्षा हो जाती है तो फिर तीन वर्ष तक अकाल की छाया मण्डराती रहती है। लिखने का तात्पर्य यह है कि किसान का हम-दर्द कोई नहीं, देश आज़ाद होने के पहले राजा, रजवाड़े किसानों का खून चूसते थे और आज जनमत से बनी हुई सरकारें।

इस तरह बार-बार अकाल पड़ने के कारण साधारण कृषि वर्ग हमारे समाज को अपने जीवन निर्वाह करने के लिए देश-प्रदेश की दौड़ तो दौड़नी ही पड़ती है। हमारा समाज राजस्थान के अलावा मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, पश्चिम बंगाल, आन्ध्रप्रदेश, दिल्ली, तमिलनाडु विशेषकर दक्षिण भारत में वि. संवत् १९८० के आस-पास से परिवार की स्थिति के अनुसार कुछ भाइयों का अपना निजी छोटा व्यवसाय आर कुछ जैन व सेठ साहूकारों के यहां नौकरी करने लगे थे। समयानुसार धीरे-धीरे हर तरह के व्यवसायगुर सीख-कर अपने जातिगत स्वभाव संस्कार के साथ लगन, परिश्रम एवं ईमानदारी के कारण स्वयं सेठ बनकर स्वतंत्र रुप से अपना व्यवसाय शुरू किया। आज मां श्री आई जी की असीम कृपा से समस्त भारत के नगरों में अधिकांश सीरवी बंधुओं के व्यवसाय फल-फूल रहे है और साथ ही इन नगरों में सीरवी समाज द्वारा श्री आईमाताजी के भव्य मंदिरों (बड़ेर) का निर्माण और उनकी प्राण-प्रतिष्ठा के कार्य सतत्-प्रगति पर है। राजस्थान व मध्यप्रदेश के अलावा वि. संवत् २०३९ के आस पास दक्षिण भारत में समाज संगठन शुभारम्भ हुआ था। चेन्नई में समाज का एक महासंघ बनाने का प्रयास करने वाले समस्त बंधुओं के नाम न लिख पाने के लिए खेद है, क्योंकि समाज का संगठन करना एक महायज्ञ करने समान होता है। कुछ अग्रणी बंधु जैसे श्री भंवरलाल सोलंकी (रिसाणिया), श्री मेघाराम राठौड़ (करमावास पट्टा) का अथक प्रयास रहा। दक्षिण भारत में यह पहले पहल बड़ेर निर्माण हेतु संगठन होने के कारण समस्त तमिलनाडु सीरवी समाज के भाई बन्धुओं ने समाज में बढ़-चढ़कर अपने तन-मन और धन से सहयोग किया था। समाज बड़ेर भवन एवं मन्दिर निर्माण कार्य सम्पूर्ण होने पर वि. संवत् २०५५ शुक्रवार दिनांक २२.१.१९९९ श्री सीरवी समाज तमिलनाडु महानगर चेन्नई ट्रिप्लिकेन् में जो हिन्द महासागर से करीब 1 किलोमीटर दूर पर स्थित बड़ेर (मंदिर) में मां ज्योतेश्वरी (श्री आईजी) का पाट्, श्रीराम भक्त हनुमान मूर्ति एवं मां श्री जगदम्बा की मूर्ति स्थापित कर प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव बडे हर्षोल्लास के साथ किया गया और सीरवी समाज में मुख्य चैत्र सुदी बीज, वैशाख सुदी बीज, भादवा सुदी बीज, माघ सुदी बीज ये बीज-पर्व परंपरागत रूप से मनाए जाते हैं। ’भादवी बीज’ का पर्व मां श्री आईजी के अवतार दिवस, बिलाडा़ आगमन दिवस और बिलाडा़ में प्रथम अखण्ड ज्योति स्थापना दिवस के रूप में समाज बन्धुओं द्वारा अपने व्यवसाय का अवकाश रखते हुए अपने-अपने क्षेत्रीय बडेरों में प्रतिवर्ष श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाया जाता है।

सीरवी (क्षत्रिय) समाज खारडिया अनेक राज्यों से भटकते हुए उतार-चढाव की परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए समाज आज अपने विकास की मंजिल तक पहुचा है। जिसमें घाट-घाट का पानी और गांव गांव की बोली के अनुसार अपने आप का ढा़लने हुए अलग अलग क्षेत्र के अडो़स पड़ोस में सुख-दुःख की भागीदारी निभाते हुए, बुद्धि-जीवों का कहना है कि आप अपने गांव के देवता का स्नेह एवं पड़ोसी के बालक को एक निवाला (ग्रास) देने से आपका बालक अपने आप बडा़ हो जाएगा। उसी अन्दाज में समाज ने अपने पड़ोसी से सहायता लेना व देना और आध्यात्मिकता पर विश्वास रखने वाला हमारा समाज का दुःख-सुख में मांगी गई किसी देवी, देवता से मन्नत के पूर्ण होने के विश्वास से भीड़ पड़िया बेल आए देवी देवताओं को अपना आराध्य देव माना विक्रम संवत् १४७२ में भादवा सुदी बीज शनिवार को गुजरात के अम्बापुर में बीकाजी डाबी की भक्ति-भावना से प्रसन्न होकर मां दुर्गा के शैल-पुत्री रूप में एक कन्या बगीचे में अवतरित हुई। अद्भूत-रूप-लावण्य के कारण यह कन्या ‘जीजी’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। ‘जीजी’ बचपन से ही मां अम्बे की भक्ति-तप-ध्यान-वेद-विद्या में निपुण और सिद्धि प्राप्त थी। अम्बापुर में रहते हुए जीजी ने अनेक चमत्कार दिखा-कर दीन-दुखियों का दुःख दूर किया। माण्डू के आततायी शासक महमूद खिलजी का मान-मर्दन करने के बाद जीजी ने एक पोठिया (नंदी) और धर्म-शास्त्र लेकर वि.सं. १५१२ में अम्बापूर से आबू पर्वत-माला क्षेत्र की ओर प्रस्थान किया। आबू के पहाड़ों में तपस्यारत और सिद्धि प्राप्त शमसपीर के बारे में ‘जीजी’ ने सुन रखा था। जीजी के मन में शमसपीर से शीघ्र भेंटकर आशीर्वाद प्राप्त करने की जिज्ञासा हुई। यद्यपि धरती पर अवतरित होने वाली ईश्वरीय शक्तियां समस्त कलाओं में सर्वज्ञ होती है फिर भी धरती पर ‘गुरु बिन ज्ञान नहीं’ की कहावत को चरितार्थ करने और गुरु-पद की महिमा बढा़ने के लिए ही श्रीराम ने गुरु वशिष्ठ और श्री कृष्ण ने गुरु सान्दीपन से ज्ञान प्राप्त कर आशीर्वाद प्राप्त किया था। ‘जीजी’ ने भी इसी परम्परा का पालन किया था। शमस-पीर, जो जैसलमेर के राजपूत शमशेरसिंह भाटी थे। जालौर के शासक कान्हडदे की सेना के सेनापति थे। दिल्ली के शासक अलाउद्दीन खिलजी के जालौर पर आक्रमण के समय शाही सेना ने शमशेरसिंह को पकड़ लिया और उसे जबरन इस्लाम स्वीकार करने को विवश किया, लेकिन दृढ संकल्प शमशेरसिंह अपने गृहस्थ-जीवन को त्याग-कर संन्यासी बन गए और कठोर तपस्या और ईश्वर भक्ति करते हुए समस्त प्रकार की सिद्धियां प्राप्त की। सिद्धियां प्राप्त करने के कारण ही शमशेरसिंह ‘शमसपीर’ के नाम से विख्यात हुए।

जब ‘जीजी’ तपस्यारत शमसपीर के पास पहुंची तो शमसपीर अपनी दिव्य-शक्ति और योग विद्या से ‘जीजी’ को मां अम्बा के अवतार रूप में पहचान गए। ‘जीजी’ को अपने पास बैठा देख शमसपीर ने श्री जीजी से विनय-पूर्वक कहा – जीजी! आपको दीक्षा देने का साहस मुझमें कहां? आप तो स्वयं मां श्री अम्बा है। कहा जाता है कि गुरु का आशीर्वाद पाने के लिए जीजी अपनी योग शक्तियों से पहाड़ों में अलोप रही। एक दिन धूणे पर साधुओं के लिए कडा़व में खीर पक रही थी, जीजी मेंढक की तरह भाड का रूप बनाकर उस कडा़व की कोर पर बैठ गए। गर्म कडा़व की कोर पर बैठे भाड़ पर जैसे ही शमसपीर की नजर पडी, वह भाड़ उस खीर में कूद पडा। खीर में पडे उस जीव को बचाने के शिष्यों के साथ महाराज उस कडा़व के पास पहुंच-कर उबलती हुई खीर में ज्योहिं हाथ डाला, जीजी एक कन्या का रूप धारण कर लिया। जैसे ही शमश पीर का हाथ उस कन्या के सिर पर लगा, उस भाड़ को भूल गए और अचानक उनके मुख से आई-आई पुकारने लगे। यह सत्य है कि उबलती हुई खीर में से हाथ से किसी को सिद्धि प्राप्त गुरु ही बचा सकते है, शमश-पीर के मुख से ‘आई’ शब्द सुनते ही जीजी ने बडे सन्तोष से कहा – ‘मुझे आपका आशीर्वाद मिल गया।’ तब ‘श्री जीजी’ को ‘आईजी’ कहते है। मां अम्बा का अवतार होने के कारण ‘जीजी’ को ‘आईमाताजी’ कहा जाता है। शमसपीर का आशीर्वाद मिलते ही ‘जीजी’ की योग शक्तियों में दिव्यता आ गई। विक्रम संवत् १५१५ के आस-पास ‘जीजी’ वृद्धा रूप धारण करके पोठिया साथ लेकर पाली जिले के नाडोल के पास गांव नारलाई पधारे। मां जीजी का नारलाई पधारने का मुख्य यहां सदियों से स्थापित देवों के देव महादेव (श्री जैकलजी) के दर्शन कर अपने भक्ति-भाव को सार्थक करना था। कहते है कि पुजारी द्वारा मां जीजी को महादेवजी के दर्षन करने से मना करने पर जीजी ने अपनी योग-शक्ति से अपने चिटिये से भाखर फौड एक गुफा बनाकर उपर अधर सिला प्रकटाकर चमत्कार दिखाया तथा जैकलजी की गुफा के पास ही अपना स्थान बनाया और वहां अखण्ड ज्योति स्थापित की। जहां आज भी केसर झरता है। यहां रहकर माताजी ने तपस्या के साथ दीन-दुःखियों के दुःख दूर किए तथा उन्हें आत्मिक ज्ञान देकर भी लाभान्वित किया।

नारलाई में मां जीजी जग्गा परिहार के घर पधारे। जग्गाजी ने श्रद्धा-भाव से मां जीजी की आवभागत की। जिस स्थान पर माताजी ने अपना पोठिया बाँधा वहां आज ‘खूटिया बाबजी’ आईमाता मन्दिर बना हुआ है। नारलाई पहाड़ी पर ‘श्री जैकलजी आई माताजी मन्दिर’ स्थित है। आज भी मां श्री आईजी के अनुयायी अपने ज्येष्ठ पुत्र झडूला (चोटी पट्टिया) जैकलजी महादेव ने नाम से रखते है तथा ज्येष्ठ पुत्र का विवाह होने पर वर-वधू मौड़ बन्धी जात देकर नाक-नमन करते है। नारलाई से माताजी डायलाणा में परिहारों के घर पधारते हैं और हलों का बड़ला बनाकर अपना दिव्य चमत्कार दिखाया। डायलाणा से आगे माँ जीजी वृद्धारूप में ही नंदी को साथ लेकर भैंसाणा पधारे। यहां अहंकारी ग्वालों का घमंड चूर करते हुए भैसियों रा भाटा बणाया । भैसाणा मे माताजी हाम्बड़ों की गवाड़ी में रहे। यहाँ से आगे बढ़ते हुए  माँ जीजी बिलावास गांव पधारे। यहां बीलोजी गहलोत के यहां लगभग तीन वर्ष तक रहे। बीलोजी के सेवा भाव से प्रसन्न होकर माताजी ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि – ‘बीला थारी ढाणी बढे सवाई। बिलावास से चलते-चलते पतालियावास में किसानों का दुःख-दर्द दूर करने के साथ ही तेज वर्षा से वहां हो रहे भूमि-कटाव को राकने और भूमि को ऊसर होने से बचाने के लिए अपनी मोजरी की धूल से विशाल पाळ का निर्माण कर अनुठा चमत्कार दिखाया। वही चमत्कारी पाळ आज भी मौजूद है, जहां भव्य मन्दिर बना हुआ है। साथ ही यहां ‘जंगल में मंगल’ जैसा चमत्कार होता जा रहा है। विक्रम संवत् १५२१ भादवा सुुदी बीज शनिवार को मां जीजी बलिपुर (बिलाडा) पधारे। किंवदन्ती के अनुसार जीजी के बलिपुर आने से ही लोग उन्हें ‘आईमाताजी’ के नाम से पुकारने लगे, अर्थात् मां जो दूर से आई है, वही आईमाताजी कहलाई। बलिपूर (बिलाडा) में सर्व प्रथम नगोजी हाम्बड़ की गवाडी़ में आते है। जहां ग्यारह दिन में जाणोजी के बिछुड़े पुत्र माधव का मेल कराते है। साथ ही कच्च सूत के ग्यारह धागों से बनी ग्यारह गांठो से आबाद ग्यारह नियमों की प्रतीक रूप में ‘बेल’ बाँधकर माता-जी अपने अनुयायियों को धर्माेपदेश देते है। फिर माताजी की आज्ञा से जाणोजी राठौड़ के पुत्र माधवजी ने एक (गाडीनुमा) धर्म-रथ ‘माताजी की भैल’ बनवाया। जिसमें बैठकर श्री आई माताजी गांव-गांव आई पंथ का प्रचार प्रसार करते रहें। वही धर्म-रथ माताजी की भैल आज भी मालवा-निमाड, गोड़वाड और मारवाड के सीरवी आबाद गांव-गांव धर्म-प्रचार हेतु जाती है।

बिलाडा में श्री आईजी का प्राचीन भव्य मन्दिर (बडेर) है। वहीं से बैल (धर्मरथ) द्वारा श्री आईपंथ धर्म का प्रचार, प्रसार एवं समाज में आध्यात्मिक ज्ञान का चिन्तन किया जाता है। बिलाडा में श्री आईजी का पधारने पर जाणोजी राठौड़ के साथ लक्षमणजी पंवार (जो उनके भाणेज थे) भी श्रीमाताजी के अनन्य भक्त थे तथा उनकी सेवा में तल्लीन थे। वर्तमान पीरान् साहब से मिली जानकारी से ऐसा ज्ञात होता है कि श्री आईजी ने युवावस्था में तपस्या के प्रारंभिक स्तर पर योग साधना से रिद्ध-सिद्धि चमत्कारिक शक्तियां प्राप्त की थी। श्री आईजी ने अपने दोनों अनन्य भक्तों को चमत्कारी रिद्धि व सिद्धि की शक्ति प्रदान् करने हेतु ब्रह्म मुहूर्त में बुलाया था। श्री आईजी से मांत्रिक शक्तियां प्राप्त करने के लिए पहले जाणोजी राठौड़ को पहुंचने पर उन्हें ‘रिद्धि’ तथा बाद में पहुंचे लक्ष्मण-जी पंवार को श्रीमाताजी से ‘सिद्धि’ की शक्तियां प्राप्त हुई। श्री आईजी के वि.सं. १५६१ अन्तध्र्यान (ज्योति में विलीन्) होने के बाद दीवान् साहब, और पीरान् साहब के बीच मन मुटाव के कारण लक्ष्मणजी पंवार पीरान् साहब बिलाडा़ से बिलावास होते हुए चाणौद जागीर में बिठूडा पीरान् नाम से गांव बसाकर रहने लगे। पीरान् साहब वचन सिद्धि थे। बिलाडा दीवान् को रिद्धि की प्राप्ति थी। रिद्धि में सुख-समृद्धि लालिमा माने जाने पर बिलाडा़ में श्री आईजी की लाल रंग की गादी होती है। बिलाडा श्री आईजी मंदिर के वर्तमान दीवान् साहब श्री माधव सिंहजी राठौड है। पीरान् साहब श्री आईजी की सफेद रंग की गादी पर विश्वास रखते है। पीरान् साहब (पीरोंसा) के पास सिद्धि है अर्थात् तपस्या की सफेदी उज्ज्वलता है। बिठूडा पीरान् श्रीआईजी मंदिर के वर्तमान पीरान् साहब श्री रावतसिंहजी पंवार है। श्री आईजी के मुख्य मंदिरों में से एक बिजोवा बडेर भी माना जाता है। समाज के इतिहासानुसार बिजोवा बडेर की स्थापना आज से लगभग ३७५  वर्ष पूर्व पीरान् (पीरोसा) श्री कर्मसिंहजी द्वारा की गई। बिजोवा के वर्तमान पीरोंसा के मुखारविन्द से ऐसा ज्ञात होता है कि बिठूडा़ पीरान् के वंशज में श्रीमाताजी के वरदान के अनुसार बीदोजी व लखजी दोनों भाई धार्मिक प्रवृत्ति व देवी के परम भक्त थे। सेवा व धर्म में तल्लीनता के दरम्यान लखाजी व बिदोजी के आपस में मतभेद होने के कारण लखाजी ने श्री माताजी की आज्ञानुसार अपने चारों भाइयों सहित रथ में श्री आईजी का पाठ, पूजा सामग्री व ज़रूरतमंद सामान लेकर बिठूडा़ से प्रस्थान कर दिया था। उपर्युक्त मुजब बिजोवा में बडेर व श्री आईजी के पाठ की स्थापना हुई। पीरान् साहब श्री कर्मसिंहजी महान् पुरुष हुए। उनके आदेशानुसार बिजोवा बडेर के खारडिया सीरवियों में मृत शरीर को अग्नि दाह संस्कार किया जाने लगा। बिजोवा श्री आइजी मंदिर (बडेर) के वर्तमान पीरान् साहब श्री भंवरसिंहजी पंवार है।

पुस्तक ;- सीरवी क्षत्रिय समाज खारड़िया का इतिहास एवं बांडेरूवाणी

लेखक एवम् प्रकाशक ;- सीरवी जसाराम जी लचेटा

( रामपुरा कलां )रामापुरम, चेन्नई

 

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