स्वर्गवासी आत्मा के प्रति विधान

हमारे समाज में किसी जीव का स्वर्गवास होने पर उसके निवास स्थान पर भूमि को पवित्र कर चौका लगाकर सुविधानुसार मृतक को सिर दक्षिण दिशा को छोड़कर किसी भी दिशा में रखकर धरतीयां किया जाता (लेटाया जाता) है । आमतौर पर किसी जीव का देह त्यागने पर मृतक का सिर उत्तर दिशा में रखते हुए सुलाया जाता है और मृतक के शरीर के पास परिवार के सदस्यों का जमावड़ा लग जाता है । यदि रात को ही मृतक की प्राणवायु छूट जाती हैं, तो सूर्य उदय होने से दो घड़ी पहले से ही दुख की चीख का मातम छा जाता है । जिसे बड़ा न्याकण भी कहते हैं । हमारे समाज में धर्म के प्रति अटूट विश्वास से दिवंगत आत्मा के लिए घर में मीठी घाट कि ( लापसी ) बनाकर या लड्डू, कुत्तों व अन्य जानवरों को खिलाया जाना और यथाशक्ति बाद में गायों को चारा (गो ग्रास) दिया जाता है । जबकि बिलाड़ा में किसी डोराबंद की मृत्यु होने पर पहले मिठी घाट बनाकर(मूवा रो काशों) बडेर ले जाया जाता है। “बाद में” गवाडी़ में परिवार वालों द्वारा बड़ा नैखना (रोकर के दुख को जताया) जाता है। “उस लापसी को ऊंचे स्थान पर या चौकी पर रख दिया जाता है जिसे कुत्ते, कौवे जीव उसे खाते हैं और दाह संस्कार के बाद भी उसी तरह लापसी व विशेष भाईपा के वहां से चूरमा बनाकर बडेर लेकर जाने का रिवाज हैं। जिसे भाईपा का काशां कहते हैं। उसे बढेर के पुजारी द्वारा निवेल तैयार कर पूजा करके उस निवेल को भाईपा व उपस्थित डोराबंधो में प्रसाद माताजी रो “निवेल  ‘शिवरोभाईशिवरो” वितरण किया जाता है।

मृतक की अंतिम यात्रा में शामिल होने भाई बंधु , सखा व गांव के लोग आते हैं । मृतक के नजदीकी रिश्तेदार विशेषकर जेष्ट पुत्र कहीं दूर रहता हो तो व ससुराल वालों के आजाने पर मृत शरीर को गर्म पानी से नहलाया जाता है, और औरत की मृत्यु होने पर औरत की पीहर वाले को सूचना होने पर वे विशेषकर कन्यादान करने वाले माता पिता व भाई अपनी बहन बेटी के अंतिम यात्रा के विशेष विमान की सामग्री (अर्थी का सामान) व उसके लिए अंतिम चुन्दड़ी (कपड़े) साथ लाते हैं । दामादजी हो तो उसके लिए अंतिम धोती, कुर्ता, साफा,रुमाल व नारियल लाते हैं । उन कपड़ों से मृतक को पहना सजाकर श्मशान भोम ले जाने की तैयारियां होती है । अर्थी में मृत शरीर के साथ एक बर्तन में आटे के चार पिंडिया बनाकर और एक नारियल रखा जाता है। आजकल चार लड्डू भी रखते हैं आटे की 4 पींडियों को श्मशान भोम के आधे रास्ते पर चारों दिशाओं में प्रवेश कर दिया जाता है।

घर से अर्थी को मृतक के पुत्र/उसके परिवार वाले ही उठाते हैं। मृतक की पत्नी व बेटियां भी अर्थी के हाथ रखती हैं । घर की गवाडी़ के मुख्य द्वार तक आगे-आगे घर की औरतें अपने ओढनी के पल्लू से पंथवाड़ी बुहारती हुई सत्य मार्ग की पहचान के लिए एक दीपक लेकर उल्टे पांव चलती हैं । आगे चलते हुए जितने भी उस यात्रा में सम्मिलित सभी लोग (खान्दिया) उस अर्थी को कंधा देते हैं । राम नाम सत्य हैं, सत्य से ही मुक्ति हैं । मंत्र से सभी मग्न होकर ईश्वरीय सत्ता को धन्यवाद करते हैं और अनुभव करते हैं कि आज हमने अर्थी को कंधा देकर एक पूर्ण का कार्य किया है इस उच्चारण के साथ ही पीछे राई नमक बोते हुए श्मशान घाट पहुंचते हैं । कुछ ग्रह सूत्रों का मानना है की अग्नि दाह संस्कार से आसपास के छोटे-छोटे जीवो को कष्ट पहुंचता है अग्नि में जलकर नष्ट हो जाते हैं । अतः जीव हत्या से बचने के लिए जमीन दाग को ही उचित मानते हैं।

विशेष कर समाज बांडेरों का ऐसा मानना है कि श्री आईजी ने शमस् पीर से शास्त्रार्थकर समस्त सिद्धि प्राप्त की थी, अपने गुरु पीर के लिहाज से अपने स्थान का नाम दरगाह और कामदार का नाम दीवान रखा और अपने अनुयायों को हाथ पर डोरा बांधने और डोराबंद की मृत्यु होने पर गाड़ने का हुक्म दिया था। श्री आईजी के हुक्म की पालना करते हुए डोराबंद की मृत्यु के पीछे मृत शरीर को धरती में दफनाया जाता है । जैसे पहले उल्लेख किया गया, वैसे ही मृतक के जेष्ट पुत्र द्वारा श्मशान घाट पर उपयुक्त भूमि को जल से पवित्र कर भूमि को प्रणाम करके वहां 1 मीटर चौड़ाई 2 मीटर लंबाई और गहराई खड़े मनुष्य की नाभि ऊंचाई तक गड्ढा खोदा जाता है गड्ढे में उत्तर दिशा की तरफ छोटा गढा किया जाता है जिसमें मृतक का सर रखा जाता है फिर जेष्ठ पुत्र मृतक की आंखों में मूंग मोतिया अर्पण कर जल पिलाता है और फिर समाधि मंत्र पढ़ा जाता हैं

समाधि मंत्र –

ओउम् गुरुजी प्रथम माता धरती, द्वितीय आकाश , तीजे से प्रकाश, चतुर से नाद भयों । पंचम से धर्म गुसाईं , छठे में अलील घर स्वामी ।। सात में हम तुम नहीं होता सूसियां भाई । आठ में कता वरताणी, नवखंड पृथ्वी प्रलय भाई ।। नाडे वरदे रुखा बिरखे छाया नहीं होती । हम तुम पूछें योगसरा, आद जुगाद़ का हंसा आई । आद अनंत ओमकार से आई। ब्रह्मा की पुत्री विष्णु कुदाली, ईश्वर गवरादे मिट्टी डाली ।। कितने हाथ का पुतला कितने हाथ की समाध । साढे तीन हाथ का पुतला, साढे तीन हाथ की समाध । सुर नर ध्यान धरे नर सोय । धरती माता प्रसन्न होय ।। ईश्वर गवरादे पूजे धरती । पुतला ने ठोर देरावो ।। हर-हर करता हंसा बसों कैलाश । प्राण पुस्तक तुम्हारे पास ।। समाधि गायत्री जाप संपूर्ण होविया । पार्वती पूछे ने महादेव जी कहिया ।

समाधि जाप के बाद मृत शरीर को धरती में ( समाधिस्थ) दफनाया जाता है ‌। अंतिम यात्रा में सम्मिलित समस्त लोग दाह संस्कार में अपने हाथों से मिट्टी देते हैं । इस तरह दाह कर्म हो जाने पर शव यात्रा में सम्मिलित सभी व्यक्ति किसी निकटवर्ती नदी, सरोवर अथवा जहां पानी का स्रोत हो स्नान करते हैं । मृतक के गुणों का स्मरण करते हैं,‌ और मृतक व्यक्ति के घर तक पुन: वापस आते हैं । मृतक औरत के पीहर वाले तो सीधे ही अपने घर पहुंच कर ही मुँह ऎठते है तथा फिर लोकायत का बिछाना करते हैं । शमशान की अपवित्रता को नष्ट करने के लिए यह विधान किया कि नीम के पत्तों डाबरा के पत्ते आदि का स्पर्श करके या धातु में सोने को जल या गोमूत्र,‌ छिड़काव करके अपने घर में प्रवेश करते हैं । घर आकर दूर से आए कांधिये और नजदीकी भाई बंधु परिवार वाले स्नान करते हैं। और घर में पोछा लगाने पर उस स्वर्गवासी आत्मा की तस्वीर हो तो उसके सामने या पूजा कमरे में दिवंगत आत्मा को ईश्वर शांति प्रदान करें ऐसे भाव के साथ अगरबत्ती व दीपक प्रज्वलित किया जाता है । अपने समूह के सदस्यों का बिछड़ने पर दुखद परिवार को भाई-बंधु सांत्वना दिलाते हैं और फिर आसपास के भाईपा या समाज के परिवार से की गई भोजन व्यवस्था द्वारा दुखद परिवार व शरीक भाई बंधुओं को मुंह ऎठाया (भोजन कराया) जाता है । और समाज में छोटे बालको तथा सन्यासियों का दाह कर्म-क्रिया (छुक्लि की क्रियाऐ) नहीं किया जाता । गांव में दो वर्ष के आसपास आयु के बालक को बेरे (ढाणी) के पाळे में या जानवरों की पहुंच से दूर सुरक्षित धरती में दफनाया जाता है । बालक की उम्र यदि आँठ, दस वर्ष की हैं तो उसके लिए तापड़ की व्यवस्था पाँच या सात दिनों की रखी जाती हैं। और बाल्यावस्था में बालक की शादी कर दी गई हो तो उसके लिए तो दौरे (शौक मिलन) व तापड़़ और दाह कर्म क्रियाएँ भी की जाती हैं और ग्रहस्थ, जीवन यापन करते हुए पूर्ण अवस्था ब्रह्मचर्य की पालना रखने वाला(उम्र भर कँवारा) यदि अपने परिवार से किसी बालक को गोद (खोल्ले) लेता है । तो उस कँवारे की मृत्यु के पीछे बाहरवे के दिन छुक्ली क्रियाएँ की जाती हैं, मगर तागा नहीं तोड़ा जाता । अन्य सभी दाहक्रम, क्रिया की प्रक्रिया करने का समाज का विधान है। जो डोराबंद नहीं है, उन्हें ‘लोक मारगु’ कहते हैं । इनमें अंतिम संस्कार ‘अग्निदाह’ के रूप में किया जाता है । अंतिम यात्रा में ‘बैंकुठी’ मैं बैठाकर ले जाया जाता है , जिनकी अंतिम संस्कार के समय अग्नि में घी के साथ आहुति दी जाती है । इससे पर्यावरण शुद्ध रहता है । अंतिम संस्कार के बाद स्नान करके सरोवर से लौटते समय मंदिर का पुजारी वैष्णव चंदन की बिंदी लगाता है तथा घर पहुंचने पर गंगाजल से सभी पर छांट डाली जाती हैं । निकट परिवार वाले शोकाकुल परिवार व रिश्तेदारों को भोजन कराते है, जिसे ‘मुंह एटाई’ कहते हैं। घर पर लकड़ी की टाटी बनाकर रखी जाती हैं जो शौक का प्रतीक होती है । शौक के दिन आँठ महिला के या बारह पुरुष के रहते है । इनमें पंचक के आधार पर घटत भी होती है। शोक के आठ वें या बारहवें दिन हरिद्वार बाणगंगा, या निकट पवित्र सरोवर में अस्थियां विसर्जन कर घर लौटते हैं तथा हजामत, सिर मुंडन कराया जाता है । तत्पश्चात टाटी (शौक का प्रतीक) हटाकर सभी जन एक साथ खड़े होकर धर्मधार देकर शौक की समाप्ति करते हैं । सभी जन इस दिन दाल व बाटी का भोजन करते हैं । बाद में दूसरे दिन या सुविधानुसार होग भांगना (शौक हटाना) का कार्य किया जाता है । जिसमें लापसी (मीठा) बनाई जाती हैं । प्रथम  त्योहार को सभी मुख्य रिश्तेदार पुन: आते हैं जिसमें वे शोकाकुल परिवार को त्योहार मनाने हेतु प्रेरित करते हैं ।

शोक मिलन बैठक –

दूसरे दिन तेजवार को छोड़कर प्रातः काल स्वर्गवासी जीव को दूध या अन्न ग्रास जिसमें  गुड़ घी का चूरमा होता है व जल देने शमशान घाट पर उस जीव का ज्येष्ठ पुत्र और एक परिवार के साथ जाते है और दाह संस्कार होने के पीछे समय रहने पर उसी दिन या दूसरे दिन दिवंगत आत्मा को अंतिम कांसा देने के पश्चात नजदीकी भाई-बंधु आकर तापड़ व छाया की व्यवस्था करते है । जिसमें एक जाजम बिछाते है । जिस पर परिवार का मुखिया और स्वर्गवासी आत्मा का उत्तराधिकारी बारह दिनों तक यानी छुक्ली की क्रियाएँ होने तक वहीं बैठते और सोते हैं। शोक मिलन की जाजम के ठीक ऊपर की तरफ छाया के रूप में एक विशेष टाटी, जो दोरा की पहचान होती हैं, लगाई जाती हैं और पास में पानी का मटका और जर्दा (तंबाकू) रखते हैं और थोड़ी ही दूर पर लकड़ी या गोबर के छाणो को आग से चेतन कर धूणा लगाना भी जरूरी होता हैं। दिवंगत आत्मा जिस दिन अपनी देह त्यागता है । उस दिन से छुक्ली  के दिन तक का बाहरवा माना जाता है और यदि किसी जीव का अल्पायु में प्राणवायु का त्याग होने पर उसके पीछे सात या नो दिनों का दौरा (दुखद दिवस) रखा जाता है। और यदि कोई जीव पूर्ण अवस्था पाकर अपनी देह त्यागता है तो उसके पीछे दस,बारह दिनों का दोरा (शौक ) मिलन रखा जाता है । दाहसंस्कार होने के दिन से प्रति शाम को हरजस और रात्रि में भजन गाए जाते हैं । रवि व मंगल तेज वार को छोड़कर अन्य दिनों में दिवंगत आत्मा के परिवार से दोरा की तापड़ पर शोक मिलन हेतु आने वाले बंधु ईश्वरीय बखान व बान्धुएं हरजस गाते हुए आते हैं । और मृतक के परिवार के घर में भी हरजस गाए जाते हैं । फिर औरते रोते हुए गले मिलकर दुख प्रकट करते हैं।

दोरा की तापड़ –

मृतक के ससुराल परिवार वाले भी अपने घर पर अपनी बहन, बेटी वह दामाद के लिए शौक की तीन या पाँच दिनो की तापड़ रखते हैं । तापड़ पर भी कुछ भाई बंधु व औरते रोते हुए तो कुछ हरजस का गुणगान करते हुए मिलने आते हैं । उस तापड़ पर मृतक के परिवार वालों का आकर शोक मिलन के बाद अपने यहां के समस्त परिवार एवं भाईपा सहित पांच दिनों की तापड़ उठाकर मृतक के परिवार के वहां मृतक का उम्र पाकर जाने पर भी किसी का स्वार्थ तो नहीं मिटता और दुख: भी होता है । ईश्वर से अपनी अपनी विडम्बना करते हुए कोई रोता हुआ तो कोई हरजस (भजन) गाता हुआ दौरा की बैठक पर दुख का इजहार करते हुए शोकाकुल परिवार से मिलते हैं और अपने साथ अपनी शक्ति मुजब गेहूं का आटा, मूंग की दाल, शुद्ध घी और जर्दा भी लेकर जाते हैं । इसी तरह शोकाकुल के परिवार के भाईपा वालों का भी उनके मुजब आटा-दाल व घी दौरे की बैठक पर देने का रिवाज समाज में है।

बाहरवे पर छुक्लि –

बारह दिनों तक शोकाकुल परिवार के यहां शोक मिलन को आने वाले समाज के भाई बंधु व औरतें के लिए जलपान, चिलम भरना, चाय व भोजन की व्यवस्था करने हेतु भाईपा वाले तत्पर रहते हैं । भोजन में दाल बाटी व शुद्ध घी ही अपनाया जाता है । और जिस दिन यह मिलने आते हैं उसी दिन विशेष भाई बंधुओं को निर्धारित छुक्ली के दिवस पर निमंत्रित कर दिया जाता है । बीते समय में दोरा पर जर्दा जलाने, हुक्का सुलगाने व (अमल) अफीम का चलन था। आज यह चलन बहुत कम देखने को मिलते हैं या यूं कहें कि यह चलन समाज के प्रतिबंध से प्राय बन्द से हो गए हैं। बाहरवे के दिन छुक्ली की प्रक्रिया ब्राह्मण द्वारा ही पूर्ण की जाती हैं। औरतों द्वारा छुक्ली प्रक्रिया से पहले घर में गाय के गोबर से चौका – पोता कर पवित्र किया जाता है। छुक्ली भरने व जरूरत पड़ने वाली वस्तुओं में मिट्टी से बना कर मटके व छुकलिया कुम्हार (प्रजापत) लेकर आता है और मैदा आटे के फीके खाजे बनाकर मृतक के ससुराल वाले लाते हैं और खोपरा (नारियल) बहन बेटी द्वारा लाया जाता है अन्य कुछ सामग्री जैसे कच्चा सूत का धागा व मीठा (लापसी) घर में बना दिया जाता है । छुक्ली की क्रियाएँ स्वर्गवासी आत्मा के जेष्ठ पुत्र द्वारा ब्राह्मण देवता के निर्देशानुसार संपूर्ण कराई जाती हैं । उपयुक्त क्रियाएँ पूर्ण होने से पहले ब्राह्मण मृतक के परिवार व बहन बेटियों से आग्रह करते हैं की स्वर्गवासी आत्मा के लिए आप किसी में से व्रत पालना रखना चाहते हैं । तो वह अपनी अपनी इच्छाएँ व्यक्त करते हैं । जो परिवार में व बहुओं के लिए ग्यारस का व्रत और बहन बेटियों के लिए बुध्द अष्टमी का व्रत पालना श्रेष्ठ बताते हैं। इस तरह पिण्ड को जल देने और छुक्ली का तागा (धागा) तोड़ने से पहले चीटी, कबूतर व गायों के लिए दाना, चारा, पानी वगेरह यथा शक्ति धर्म- पुण्य करना बोल दिया जाता है । जो इस स्वर्गवासी आत्मा को आगे मिले। छुक्ली का धागा टुटने एवं छुक्ली ढुलने के बाद परिवार के सदस्यों का सिर के बालों का मुंडन होता है। और दो औरतें या आदमी स्वर्गवासी जीव के लिए उस दिन का बनाया विशेष भोजन (कांशा)लेकर जाती हैं। वह दो औरतें एक छोटी माता (काकी) में से और दूसरी बहन होती हैं। उस भोजन को घर से करीब एक सैकड़ा मीटर दूरी पर एकांत जगह पर हरे पत्तों के ऊपर रखकर लोहे के किसी यंत्र के चारों तरफ गोलाई से रेखा (कार) खींच कर जल चढ़ाया जाता है उसे थड़ा जाना चाहते हैं। वैसे दिवंगत आत्मा के नाम पर प्रतिदिन सुबह-शाम लापसी का भोजन बनाया जाता है जिसे कांशा कहते हैं । और वह भोजन बारह दिनों तक बाल कन्याओं को खिलाया जाता था और कुत्तों एवं जानवरों को भी खिलाते हैं। थड़ा से उन औरतों, पुरुषों के वापस आने के बाद दोरा की तापड़, छाया की विशेष टाटी और मृतक परिवार के मुखिया व स्वर्गवासी के उत्तराधिकारी के सिर पर जो दस,बारह  दिनों तक का पल्ला रहता है उसे हटा दिया जाता है। इस तरह शोक मिलन का बारह दिनों का दौरा पूर्ण माना जाता है । बारहवां के मौके पर आए समस्त भाई बंधुओं,बहन बेटियों और परिवार वाले भोजन पा लेने के बाद भाई बंधुओं के साथ शोकाकुल परिवार वाले जो बारह दिनों तक अखराने सोते रहे और चारपाई पर नहीं बैठते थे । इस घड़ी से पलंग या चारपाई (मोचा) पर बैठते हैं और छुक्ली की क्रियाएं पूर्ण होने के बाद दिवंगत आत्मा के ससुराल वालों द्वारा लाया गया कपड़ा (कांचलिया) शोकाकुल के परिवार में औरतों को पहनाया जाता है , और इसके पहले उस स्वर्गवासी की धर्मपत्नी के गहने नाक की बाली,व ललाट से बोरियाँ उतार दिया जाता है और उसका पीला औढना उतारकर लाल या गुलाबी ओढनी व कांचली पहनाई जाती है । जो उसके विधवा होने का प्रतिक बनता है ।

शोक मिटाना –

शोक मिटाने का कार्यक्रम छुक्लि के बाद उसी दिन शाम या दुसरे दिन रख दिया जाता है। जिससे की शोकाकुल परिवार व उनके बहन बेटियों का मंदिर या किसी उत्सव पर नि:संकोच जाना आना हो सके । वेसे बीते कुछ समय पहले शोक मिटाने की रस्म को छुक्लि के बाद किसी बड़े त्योहार ( पर्व ) के मोके पर ही किया जाता था । मगर आज हमारा बड़ा समाज व बड़ा परिवार होने के कारण कुछ छोटे बड़े कार्यक्रम तो होते ही रहने से उक्त परिवार में आज के युग के अनुसार कोई उत्सव या किसी प्रकार का मुख्य कारण अथवा अड़चनों से निजात पाने हेतु दूसरे दिन ही शोक मिटाने का कार्यक्रम रख दिया जाता है। विशेषकर शोक मिटाने कि रस्म को नजदीकी रिश्तेदारों द्वारा ही पुर्ण की जाती है। जिसमें मृतक के ससुराल व लड़के के ससुराल वाले गुड़, गेहूं का दलिया व घी लेकर आते है। जिससे उस दिन विशेष मीठा पकवान बनाया जाता है। उस पकवान से सज्जित थाल को बाझोट पर रखकर समस्‍त भाई बन्धूओं के साथ शोकाकुल परिवार आपसी मनुहार से भोजन पाते है, भोजन में हलवा या लापसी पर शुद्ध घी की आरती से दस्तूर किया जाता है। समस्त भाई बन्धू व बान्धुएं का भोजन ग्रहण करने के बाद सभी भाई बन्धुओं के साथ शोकाकुल परिवार स्थानीय बडेर जाते है। साथ में कुछ कणा मूठ (अनाज) नारियल, घी, अगरबती, पुष्प वगेरह साधारण पूजा साम्रगी लेकर जाते है। पहले श्री गणेश की पूजा करके श्री आईजी का धूप व आरती की जाती है। बाद में बडेर में उपस्थित सभी महानुभावों की सुपारी से मीठी मनुहार हो जाने पर वापस निवास स्थान आकर दिवंगत आत्मा को‌ मोक्ष की प्राप्ति हो व शोक मिटाने का बहन बेटियों को ओढ़नी ओढ़ा कर प्रसाद ( भाता ) के साथ सीख दी जाती है और छुक्लि पर बोला गया धर्म पुण्य का भी उसी दिन चीटियों, कबुतरों व गायों के लिए स्थानीय गौशाला में ( गो ग्रास ) चारा भेज दिया जाता है और शोक मिटाने की रस्म की तरह पहले पर्व ( त्योहार ) पर भी नजदीकी रिश्तेदारों द्वारा उक्त परिवार वालों को वहां जाकर त्यौहार मनाने की हिम्मत बंधाने का रिवाज समाज में है।

कोणा छुड़वाना –

शौक मिटाने से पहले उस स्वर्गवासी जीव की धर्मपत्नी जो बारह दिनों तक एक ही कोने में बैठी रहती हैं । अपने पति के स्वर्गवास के पीछे अपना पवित्रता का दायित्व निभाते हुए जिसके पति के पीछे ही हम सब यह दुनियादारी का बाहरवां का शौक मिलन कार्यक्रम रखते हैं । पहले उसका वह कोणा छुड़वाना जरूरी होता है । छुक्लि के बाद उसी दिन शाम को या दूसरे दिन शौक मिटाना हो, तो उस औरत के पीहर वाले प्रातः काल जल्दी आकर वह कोणा छूड़वाते हैं। पीहर वालों का गांव यदि निकटतम सीमा में है, तो समय रहते वह अपनी बहन बेटी को अपने घर ले जाकर रोना-पीटा दुपराने के बाद स्नान हो जाने पर माथा गुंथाई के पीछे वापस उसे उसी कपड़ों में ससुराल परिवार में लाया जाता है । पीहर वाले दूर रहते हो और किसी कारणवश समय पर नहीं पहुंच पाने पर वहां पीहर वालों में से या उपस्थित दो औरतें आंगन धुलाई व चुल्हा की पोताई करके उस औरत को नजदीकी तालाब, नाडी या मंदिर ले जाती हैं। वहां वह औरत हाथ पैर धोकर साथ लाया गया भोजन गुड़ रोटी का प्रसाद देवी देवता को चढ़ाती हैं, बाद आप भी उस प्रसाद को पाकर देवी देवता को जल चढ़ा कर वापस घर आ जाते है । इस तरह कोणा छुड़ाने की रस्म पूर्ण की जाती है, पन्द्रह दिनों एक महीना या कुछ ज्यादा दिनों के बाद पिहर वाले अपनी विधवा बहन बेटी को अपने यहां ले जाने आते है, उसे माथा धोवण कहते हैं । उस वक्त नये कपड़े पहनाए जाते और मेहंदी की दस्तुरी भी की जाती है और वापस भाता बंधाकर बहन को उसके भाई  घर पहुंचाने आते हैं।

हरीद्वार गंगा में फूल ( मृतक की हस्तियां एवं भस्मी) प्रवेश करना –

समाज में डोराबंद जीव का देह त्याग होने पर हरिद्वार गंगा में फूलों को प्रवेश कराने का रिवाज बहुत कम है और कोई परिवार यह मानस बनाता है, तो उसी दिन या दूसरे दिन समय निर्धारित कर दिया जाता है । जो स्वर्गवासी आत्मा के पीछे बाहरवां के दिन छुक्लि की क्रियाएं व शौक मिटाने की रस्म पूर्ण होने के बाद ही हरिद्वार जाने का समय होता है । दिवंगत आत्मा का   उत्तराधिकारी अपने भाइयों और नजदीकी भाईपा, परिवार के मुखिया एवं बुआ, भाणजी बहन बेटी, बहनोई एक समूह के साथ उन फूलों को, जो डोराबंद जीव का देह त्यागने के बाद (नाखून) एकत्र किए गए थे । उन्हें लेकर ढोल ढमाकों से भाई-बंधु, समाज के प्रतिनिधियों व परिवार के सदस्यों द्वारा विदाई के साथ किसी परिवहन से हरिद्वार जाते है । गंगा में उन फूलों का अनुष्ठान विधि विधान से विसर्जन किया जाता है। वहां गंगा- स्नान करके बाद हरिद्वार से पुष्कर आते है।

पुष्कर –

पुष्कर का इतिहास की पुस्तकों में उसे ऐसा विगत ज्ञात होता है कि पुष्कर के छोटे गड्ढों में हाथ धोने से नाहर राव का कुष्ठरोग जाता रहा है। तभी देवी प्रेरणा से नाहर राव ने पुष्कर तीर्थ खुदवाकर उसे वर्तमान रूप दिया और वहां ब्रह्मा की चतुर्मुखी मूर्ति स्थापित कर गायत्री , सावित्री तथा रंग वराहजी के मंदिर बनवाए और वहां मेला लगवाना चालू किया जो कि अब भी लगता है । छठी शताब्दी में क्षत्रिय वंशीय नाहर राव परिहार महान शासक हुए थे तभी से पुष्कर में हर वर्ष कार्तिक शुक्ला प्रथम को मेला लगता है । पुष्कर सरोवर मैं नहाकर और पितरों का (विशेष- सर्व पितृ देव तर्पण दिवस आसोज बदी अमावस्या) श्राद्ध कर्म कर लोग अपने को धन्य मानते हैं।

भगवान रामचन्द्रजी की पुष्कर यात्रा एवं पितरों का श्राद्ध –

भगवान राम के वनवास जाने पर उनके पिता राजा दशरथ उस दुख को सहन नहीं कर पाए एवं पुत्र वियोग में उनकी मृत्यु हो गयी । 14 वर्ष के वनवास के दौरान पिता दशरथ की मृत्यु के समाचार से भगवान राम का भी मन विचलित ही रहा था। पूर्व काल में श्री रामचंद्र जी जब सीता एवं लक्ष्मण के साथ चित्रकूट से चलकर महर्षि अत्रि के आश्रम पहुंचे, तब वहां उन्होंने मुनिश्रेष्ठ अत्रिजी से पूछा- महामुने- इस पृथ्वी पर कौन सा पुण्यमय तीर्थ है, जहां जाकर मनुष्य को अपने बंधुओं के वियोग का दुख नहीं उठाना पड़ता है | अत्रीजी बोले – रघुवंश शिरोमणि राम सुनो ! मेरे पिता ब्रह्मा जी द्वारा निर्मित उत्तम तीर्थ ‘पुष्कर’ से विख्यात हैं। वहां मर्यादा-पर्वत एवं यज्ञ पर्वत के मध्य तीन कुंड हैं ज्येष्ठ पुष्कर, मध्य पुष्कर एवं कनिष्ठ पुष्कर । अपने पिता दशरथ को तुम वही जाकर पिंडदान से तृप्त करो वह तीर्थों में श्रेष्ठ तीर्थ और क्षेत्रों में उत्तम क्षेत्र हैं । वहा अवियोग नाम की चौकर बावड़ी हैं एवं सौभाग्य कूप है। (सुधाभाय-गयाकुण्ड) वहां पिंडदान करने से पितरों की मुक्ति हो जाती हैं । वह तीर्थ प्रलय पर्यंत तक रहता हैं, ऐसा ब्रह्मा जी का कथन हैं। ऋषि अत्रीजी की आज्ञा से भगवान रामचंद्र जी ने लक्ष्मण व सीता सहित पुष्कर तीर्थ जाने का विचार बनाया। वे ऋक्षवान पर्वत, विदिशा नगरी तथा चर्मण्वती नदी को पार करके यज्ञ पर्वत के पास जा पहुंचे, फिर उस पर्वत को पार करके ‘मध्य पुष्कर’ गए। वहां स्नान करके उन्होंने समस्त देवताओं एवं पित्रों का तर्पण किया । उसी समय मुनिश्रेष्ठ मार्कंडेयजी अपने शिष्यों के साथ वहां आए । उन्हें देखकर भगवान राम ने उन्हें प्रणाम किया एवं बड़े आदर से कहा-मुने! मैं राजा दशरथ का पुत्र राम हूँ, महषि अत्री की आज्ञा से ‘अवियोग’ बावड़ी का दर्शन, स्नान व पितरों का श्राद्ध करना चाहता हूँ। मार्कण्डेयजी ने कहां – रघुनंदन ! आप का कल्याण हो । आपने तीर्थ यात्रा के प्रसंग में यहां आकर बड़ा ही पुण्य कार्य किया है । मार्कण्डेयजी उनके साथ आगे चले एवं अवियोग नाम की बावड़ी के दर्शन करवाएं एवं उनसे कहा- यह वही स्थान है जहां सभी आत्मीय जनों के साथ संयोग होता है। इहलोक (मृत्यु लोक) में स्थित जीवित या मृत सभी बंधुओं से भेंट होती हैं। संध्या काल का समय हो गया ‌। भगवान राम ने संध्या उपासना करके रात्रि में भाई व पत्नी सीता के साथ वही शयन किया। उन्हें ऋषि के वचन याद आए एवं राजा दशरथ व भरत, शत्रुघ्न माताओं एवं अन्य पूरवासी जनों का स्मरण हो आया। रात्रि के अंतिम प्रहर भगवान राम ने स्वप्न देखा “ पिता दशरथ सभी ऋषि-मुनियों के एवं बंधु-बांधवों के साथ अयोध्या में राज पाठ संभाल रहे हैं । राम के साथ लक्ष्मण व सीताजी ने भी ऐसा ही स्वप्न देखा। सवेरा होते ही मार्कण्डेय ऋषि से स्वप्न की सारी बात उन्हें बताई । “ मार्कण्डेयजी ने कहा आपका स्वप्न सत्य हैं -परंतु मृत व्यक्ति के यदि स्वप्न में दर्शन हो तो उनका श्राद्ध करना चाहिए। श्री राम ! अब आप राजा दशरथ का श्राद्ध कीजिए। ये सभी ऋषि महर्षि आप के भक्त हैं शुभ कार्य में आपका सहयोग करेंगे । मैं (मार्कण्डेय) जमदग्नि ,भारद्वाज लोमस, देवरात और शमिक श्रेष्ठ व्दिज श्राद्ध में उपस्थित रहेंगे। आप श्राद्ध हेतु सामान (लिसोड़े की खली, बेर, आंवले,पके हुए बेल, भांति भांति के कंद मूल) इकट्ठा करवाए । तब तक हम ज्येष्ठ पुष्कर में स्नान करके वापस आते हैं । संतान द्वारा पुष्कर वन में पितरों का श्राद्ध कर उन्हें तृप्त करने वाले प्राणी अश्वमेध यज्ञ के फल पाते हैं। सभी ऋषियों ने कहा – श्रीराम की आज्ञा पाकर लक्ष्मणजी ने श्राद्ध के लिए अच्छे अच्छे संतरे, कटहल, पारद, मीठे बेर, शालुक,केसस, पीली काबरा, अच्छे अच्छे कैर, मीठे सिंधाड़े फल श्राद्ध की अन्य सामग्री इकट्ठा की। जानकी ने भोजन तैयार किया एवं ऋषियों के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे। भगवान राम ने अवियोग नामक बावरी मैं स्नान किया तथा दोपहर बाद निमंत्रित सभी ऋषि वहां आ पहुंचे। उन्हें भोजन करवाया । उसी समय विदेही कुमारी सीता वहां से दूर जाकर झाड़ियों के पीछे छुप गई । श्राद्ध के लिए ऋषियों द्वारा बतलाई गई वैदिक किया पूर्ण की। ब्राह्मणों ने भोजन किया, रामचंद्रजी में पिंड दान किया एवं ब्राह्मणों को दक्षिणा दे विदा किया। उनके चले जाने पर भगवान रामचंद्र जी ने सीता से पूछा – “ जब ब्राह्मण भोजन करने आए, तब तुम झाड़ियों के पीछे क्यों छुप गई? “ सीता बोली – नाथ ! मैंने आश्चर्य देखा, जैसे ही आपने स्वर्गीय महाराज का नामोच्चार किया, वो यहां आकर उपस्थित हो गये।  उनके समान रूप आभूषण वाले दो पुरुष और वहां उपस्थित थे, ब्राह्मणों के अंगों में मुझे पितरों के दर्शन हुए । भला आप ही बताइए? मैं स्वर्गीय महाराज के सामने कैसे खड़ी होती ? अत: जो आपने विधिपूर्वक यहां पितरों का श्राद्ध किया वह संपन्न हुआ।

श्राद्ध पुष्पमियं प्रोक्तफलं ब्राह्मसमागम:। आयु:पुत्रान्धनं विघां स्वर्ग मोक्षं सुखानि च।।
सभी पित्र प्रमाणिना पिण्डा दध्यत्रि पुष्करे। उध्दरे सप्त गोत्रणां-कुल में को उध्दरम सर्व ।।

जो जीवन यात्री पुष्कर तीर्थ में श्रद्धा पूर्वक अपने पितरों का श्राद्ध एवं पिंडदान करता है उनके पितृ पीढियो पर्यंत मोक्ष को प्राप्त होते हैं । हरिद्वार गंगा में अपने परिवार के स्वर्गवासी आत्मा के फूलों का प्रवेश करके हरिद्वार से आए सीरवी (क्षत्रिय) समाज खारडिया, डोराबंद सभी जनों की यही आशा रहती हैं कि कोई भी मनुष्य अपने जीवन में अज्ञानवश किसी प्रकार का दोष पा लिया हो तो उनका समाधान पुष्कर राज के चरणों में मिलता है । इसी आशा के साथ जनसमूह पुष्कर में आकर उस दैविक जलाशय मैं स्नान करके अपने तन मन की शुध्दि प्राप्ति करते हैं । इस तरह सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा, प्रज्ञा की देवी गायत्री, समस्त जीवो के पालनहार श्री विष्णु अवतारी रंग वराहजी, समस्त जीवों का दुख हरने वाले देवों के देव महादेव एवं सत्यता की प्रतीक देवी सावित्री के दर्शन करके आशीर्वाद प्राप्त कर वापस अपने गांव आने पर जिस मर्यादा से विदाई दी गई थी, उसी अंदाज में ढोल – ढमाकों से उन पवित्र जनसमूह के आगमन पर स्वागत किया जाता हैं।

गंगा प्रसादी –

अपने पूर्वजों के फूलों को गंगा (हरिद्वार) में विसर्जन होने पर परिवार में आत्म तृप्ति से ईश्वर का धन्यवाद करते हुए निर्धारित दिवस पर गंगा प्रसादी के दो दिनों पहले अपने भाई बंधुओं एवं बहन बेटियों को निमंत्रित कर दिया जाता हैं। जिसमें स्थानीय गांव में समाज को सपरिवार, अन्य कौमे में श्रीमान /श्रीमती और आस-पास के गांवों ( सामै फिले ) में पांच, सात, नौ बढेरों में प्रतिनिधियों को निमंत्रण भेजा जाता हैं। बीते कुछ समय पहले हमारे समाज में गंगा प्रसादी निमंत्रण में भाई-बंधु बहन-बेटी समाज, सामै फिले बढेरों और गांव धुंआबंद किया जाता था। जिसमें हरिजन को सोने का टक्का यानी स्वर्ण का बना झाड़ू व छाबड़ी देकर भोजन दिया जाता था और गांव की सीमा रेखा के अंदर रास्ते चलते (रास्ता रोकना) मनुष्य मात्र को मेहमान का रूप मानकर उससे भी प्रसाद पाने का आग्रह किया जाता था। आज के युग के अनुसार निमंत्रण में कुछ सीमाएं बना दी जाती हैं और प्रसाद में हलवा, पूड़ी, लापसी अथवा पांच पकवान भी बना दिए जाते हैं। मेहमानों को भोजन खिलाने से पहले सभी मेहमानों को हरिद्वार से लाए गए माला, फुलिया, मकाणा व गंगाजल का प्रसाद दिया जाता है और  पुष्कर से लाए गए खुण्डिये बुजुर्गों में वितरण कर दिए जाते हैं । और समस्त मेहमानों के भोजन (प्रसाद) पा लेने के बाद बहन बेटियों को कपड़े (वैश) दिए जाते हैं और ब्राह्मण को भी उसी दिन सीख दी जाती हैं । जिसमें ब्राह्मण- ब्राह्मणी दोनों के लिए (चप्पल) पगरखी सहित पूर्ण छुक्लि पेटिया,अन्न, रूपए और गौदान दिया जाता है, और कहीं कुछ भाइयों द्वारा ब्राह्मण को सुख सेज का दान भी दिया जाता है । जिसमें ब्राह्मण को दान दक्षिणा देखकर चारपाई या झूले में बैठाकर बुलाया जाता है इस तरह पूर्वजों के फूल हरिद्वार गंगा में प्रवेश करने का कार्यक्रम गंगाप्रसादी वितरण के बाद संपूर्ण होता हैं।

दिशावर में देहान्त होने पर परिवार में स्थिति –

समाज में किसी मनुष्य का देहांत होने पर मृतक के परिवार को दुख होना तो लाजमी है । यदि दिशावर में किसी जीव का देहत्याग हो जाए, तो उक्त परिवार में दुख दो गुना अधिक हो जाता है । अपने परिवार में एक सदस्य का बिछड़ने का दुख तो पहले ही घर कर लेता है, मृतक की उम्र कम थी या पूर्ण उम्र पाकर अपनी देह त्यागी हो, परिवार के लिए तो वह मार्गदर्शक था और दुख तब और बढ़ जाता है कि जब मृत शरीर का दाह संस्कार करने का स्थान निश्चित करने में कुछ बुद्धिजीवों का कहना होता है कि उक्त जीव ने अपने इस शरीर को त्याग दिया है, तो इसमें इस शरीर का तो कोई दोष नहीं है, यह तो कुदरत का एक खेल है । किसी ने ठीक ही कहा है (राणा, राजा, छत्रपति हथियन के असवार सबको एक दिन जाना है, अपनी अपनी बार) जो किसी को जल्दी, तो किसी को देर से । इस देह को त्यागना ही होता है । तो हम इस मृत शरीर को इधर-उधर ले जाकर इसका क्यों अपमान करें ? किसी जीव द्वारा जहां देह त्याग हुआ, उस मृत शरीर का वही अपने गांव के शमशान भोम में दाह संस्कार करना ही उचित होता है । कुछ पूर्वजों का कहना होता है कि अपने जन्म भोम पर ही उक्त जीव के मृत शरीर का दाह संस्कार करना चाहिए । इस तरह के विचार सामने आने पर वह शोक संतप्त दुखी परिवार धर्म संकट में आकर कोई बंधु तो हिम्मत जुटाकर जहां रहते हैं, उसी गांव के श्मशान भोम में दाह संस्कार कर देते हैं और कोई भाई हिम्मत करके उस मृत शरीर को अपने जन्म भोम लाकर दाह संस्कार करते हैं । समाज में दुखमय बात यह होती है कि दिसावर में मृतक का दाह संस्कार करने पर भी उसके पीछे ज्यादातर भाई-बंधु दिसावर में ना रहते हुए दौरा की बैठक का कार्यक्रम रखने जन्म भूमि के नाम पर वहां जा कर रखते हैं । यह जानते हुए भी कि उनके एक तिहाई से ज्यादा परिवार वाले दिसावर में रहते हैं । इसलिए कई भाइयों की ऐसी परिस्थिति बन जाती है कि जन्म भोम पर बारहवां व शोक मिटाने तक का कार्यक्रम पूर्ण होने पर भी वापस दिसावर आकर बैठक रखना होता है, क्योंकि आज जन्म भोम से ज्यादा भाई बंधु मिलनसार परिवार दिसावर में रहते हैं, वह आकर मिलते हैं । इस तरह दुबारा बैठक ना हो, समाज में कई बार चिंतन किया जा चुका है और धर्म भी यही है कि जहां देह त्याग होता है, वहीं पर दाह संस्कार होना चाहिए एवं शोक मिलन की बैठक भी वही रखी जानी चाहिए, जहां उक्त परिवार के भाई बंधु मिलने वाले रहते हो ।

पुस्तक ;- सीरवी क्षत्रिय समाज खारड़िया का इतिहास एवं बांडेरूवाणी

लेखक एवम् प्रकाशक ;- सीरवी जसाराम जी लचेटा

( रामपुरा कलां )रामापुरम, चेन्नई

 

COPYRIGHT

Note:- संस्थापक की अनुमति बिना इस वेबसाइट में से किसी भी प्रकार की लेखक सामग्री  की नकल या उदृघृत किया जाना कानून गलत होगा,जिसके लियें नियमानुसार कार्यवाही की जा सकती है।

Recent Posts