व्यवस्था एवं नियम

समाज में रहने से ही मनुष्य एक सामाजिक प्राणी कहलाता है। समाज के बिना मनुष्य का कोई पृथक अस्तित्व नहीं रहता। मनुष्य समाज द्वारा बनाई गई प्रथाओं, परम्पराओं, रीति-रिवाजों, परिपाटियों और मान्य-मर्यादाओं का पालन करते हुए अपना जीवन यापन करता है। समाज की मर्यादाओं का तात्पर्य उन व्यावहारिक नियमों से है, जो लोक रीतियों, परम्पराओं, प्रथाओं, लोकचारों, रीति-रिवाजों और धार्मिक मान्यताओं पर आधारित होते है। जिन्हें हम समाज का संविधान भी कह सकते है सीरवी समाज ग्राम सभा बगेची (उचियार्डा), बिलाडा़ में सीरवी समाज परगना समिति बिलाडा़, जैतारण, रापपुर व सोजत (पूर्व व पश्चिम ) के दिनांक २७, रविवार और २८.१०.२००२, सोमवार दो दिवसीय महा सम्मेलन में पारित किए गए नियमों एवं समाज की स्थिति सुदृढ करने हेतु श्री आई-पंथ के ग्यारह नियमों को ध्यान में रखते हुए समाज में कुछ सर्वमान्य नियमों की व्यवस्था का संक्षेप में वर्णन लिखा जा रहा है। जिनसे समाज की व्यवस्था का संचालन होता है।

(१) – श्रीआईजी की अक्षय उपासना करने वाले सीरवी (क्षत्रिय) समाज खारडियामें समाज की स्थिति सुदृढ बनाने के लिए श्रीआईपंथ के ग्यारह नियमों एवं समाज में परस्पर वार्तालाप, विश्वास , सहयोग व सभा सम्मेलनों में चिन्तन-मन्थन कर समय की मांग के अनुरुप सर्वमान्य नियमों व रीति-रिवाजों को समाज में प्रेषित करना परगना समितियों और महासभा का दायित्व होता है।

(२) समाज में मद्य, मांस का सेवन करना वर्जित है। विशेष-कर शादी-विवाह, आणा-मुकलावा, बालुन्दा, नाता, दोयटन, झडुला उतारना, माताजी की बीज, अनन्त चौदहस, पूर्णिमा व्रत उद्यापन (उजवणा) एवं ढूंढ सहित अन्य उत्सवों व किसी देवी, देवताओं के मंदिर जाने और समस्त हिन्दू धर्म के पर्वों पर किसी प्रकार के नशीले द्रवों और मांस का सेवन करने पर पूर्ण रुप से समाज द्वारा प्रतिबंध लगाया गया है।

(३) समाज में दहेज प्रथा का चलन नहीं है। यथा शक्ति गहने व कपडों का लेन-देन किया जाता है, मगर दहेज के नाम पर पलंग, गादी, बर्तन वगैरह वस्तुएं देने का रिवाज समाज में नहीं है और श्री आई-पंथ के नियमों की पालना करते हुए अपनी बहन-बेटियों से (धन) ₹ का ब्याज नहीं लिया जाता है।

(४) सम्बंध-विच्छेद के मामले में यदि समाज में कोई कारणवश किसी विवाहित लडका-लडकी के आपसी सम्बंधों में दरार पड जाए और परिवार के समझानें से भी न समझने पर प्रथम निर्णय दोनों गनायत आपस में बैठकर, दूसरा निर्णय दोनों पक्षों के भाईपा में होता है और तीसरा निर्णय सम्बंधित पक्ष के क्षेत्र ग्राम सभा स्तर पर, चौथा निर्णय अपनी बडेर या परगना समिति में जाकर प्राप्त करते है। वहां पर भी यदि पंचायती निर्णय नहीं निकले तो सम्बधित दोनो पक्ष महासभा की शरण लेते है। महासभा का फैसला (अन्तिम निर्णय) दोनो पक्षों का मान्य होता है। समाज के आदेश की पालना करते हुए दोनों पक्ष अपनी गलती का एहसास करते और इष्टदेवी से क्षमा याचना होने पर आपस में हुक्का, केसर पान करते है। सम्बंध विच्छेद का निर्णय हुए बिना ‘हवेरी’ अर्थात् गहना सहित लडकी-लडका का सम्बंध दूसरी जगह नहीं किया जाता। समाज नियमों की अनदेखी करने या सट्टेबाजी करने पर वह ‘ आदमी आम न्यात का दोषी माना जाता है। सम्बंध विच्छेद होने पर लडका-लडकी दोनों पक्षों से बडेर में नारियल देने का रिवाज है।

(५) – देवी देवताओं में प्रथम पूजनीय श्री गणेश जी का प्रथम ज्ञान माता पिता की सेवा ही था और इसी ज्ञान के पीछे समस्त ज्ञान को समझते हुए देवताओं द्वारा गणेश जी सर्व ज्ञान के सागर रुप में पूजनीय हुए। हमारे समाज में पुत्र द्वारा अपने माता-पिता की सेवा पर विशेष ध्यान दिया जाता है। यदि किसी बन्धु का अपने माता-पिता की सेवा न करना जैसे बूढ़े माता-पिता को खुद से असहाय जगह पर रखना, अपने जन्म दाता की नौकरों से सेवा करवाना, वृद्धाश्रम में भर्ती करवाने की समाज में सूचना मिलने पर उक्त आदमी/ परिवार को दोषी करार कर समाज से बाहर तक कर दिया जाता है।

(६) अतिथि देवो भव: समाज में एक कहावत है “घर आया, वह माँ जाया बराबर” अपने घर आए मेहमान जैसे- कोई मनुष्य भूखा, प्यासा, अनजान राहगीर, असहाय, ब्राह्मण के रूप मैं भगवान अथवा गऊ के रूप में कामधेनु पर समाज में पूर्ण विश्वास के साथ शुद्ध शब्दों का व्यवहार, जलपान, अन्नग्रास वगैरह अपनी यथा शक्ति सेवा भाव से अपना धर्म निभाते हैं।

(७) समाज बडेरों में माताजी के धर्मरथ भैल का आगमन होने पर समस्त समाज भाई-बन्धु अपनी अपनी मंशानुसार नारियल एवं समाज में रिवाज के अनुसार डोरा बन्द प्रति घर एक पायली (एक किला) धान या पाँच ₹ रुपए अथवा दस ₹ देकर जात कराना एवं अन्य भाई एक पायली धान या पाँच ₹ देते हैं और (डांगरिया) बाबा द्वारा बडेर में बेले दे दी जाती हैं सो समाज के भाइयों को जरूरत होने पर ले जाते हैं। समाज में किसी भाई के यहां जैसे बीज उजवना, विवाह, मुकलावा या किसी अन्य उत्सव पर बैल निमन्त्रण करने हेतु स्थानीय बडेर के कोटवाल, जमादारी को साथ रखकर नारियल दिया जाता है। धर्मरथ के आगमन पर विधि-विधान से बधावा होने व उत्सव कार्य सम्पर्ण होने पर सीख में बैल की जात कराई ₹ हजार से पांच हजार तक और जतिबाबा को ₹ ग्यारह सो और कपड़े, अन्य बाबा मण्डली को उतार-चढ़ाव से पचास, सौ,पांच सौ ₹ दिए जाते हैं।

(८) समाज बडेरों में किसी उत्सव पर श्री आई-पंथ के श्री दीवान निमन्त्रण पर बांड़ेरुओ का कहना हैं कि पुराने समय में दिवानजी को निमन्त्रित करने पर श्री दीवान के साथ पांच सात घोड़े जिसमें एक घोड़े पर नगाड़े बजते हुए और धोन्गों (जिसमें एक बैल की जोड़ी लगी होती) में बाबा मंडली साथ बैलगाड़ियों में समाज के बावन पंचों एवं एक बड़ा काफिला लाव लश्कर के साथ आगमन होता था। आज समाज में आई-पंथ की परम्पराअनुसार भव्य बधावा होता है। और कार्यक्रम सम्पूर्ण होने पर समाज के पदाधिकारियों द्वारा ₹ इक्कीस, इक्कावन् हजार एक लाख तक नजराने किए जाते हैं।

(९) समाज मे किसी भाई-बंधुओं द्वारा अपने निजी उत्सव जैसे विवाह, गृहप्रवेश व बीजपर्व पर समाज के कोटवाल जमादार के समक्ष निमन्त्रित श्री आई-पंथ के श्री दीवान का आगमन होने पर उक्त परिवार द्वारा बधावा किया जाने से पहले समाज बांड़ेरुओ का कहना हैं कि दीवानजी से पहले श्री भैल (धर्मरथ) का बधावा जरूरी होता हैं। विधि विधान के साथ बधावा एवं उत्सव सम्पूर्ण होने पर उक्त परिवार के मुखिया द्वारा बैल की जात करवाना व सीख देने पर दिवान साहब को रुपये ₹ इक्कीस, इक्कावन् , हजार नजराने किये जाते हैं।

(१०) समाज मे बहन, बेटी का मायरा पक्का एक ही बार भरा जाता हैं। दूसरी बार मायरा में केवल जंवाई, बेटी, बहन के कपड़े रखे जाते हैं। बेटी, जंवाई के माता पिता के लिए वेष, नणंदबाई के वेष और सगे भाईपा बहन, बेटी को ओरणा दिया जाता तथा भाईपा वालो की तरफ से केवल शोभ ही दी जाती हैं। दूसरी बार थाली में सोना, चांदी जेवरात एवं नगद राशि पीहर वाले बहन, बेटी के लिए इच्छानुसार रखने पर समाज का कोई प्रतिबंध नही होता।

(११) समाज मे किसी सामाजिक सेवा भावी या समाज के प्रतिष्ठित महानुभावों का कोई बंधु अपने निजी मन-मुटाव या समस्या निवारण सभा (पंच-पंचायत) में पक्ष, विपक्ष का कारण मानकर यदि अनादर करता हैं और समाज व समाज के किसी बंधु के उत्सव पर मद्यपान करके आने पर उसे समाज का दोषी माना जाता हैं।

(१२) बालविवाह – शास्त्रों के अनुसार लड़की का विवाह रजोदर्शन से पूर्व और अवश्य ही स्त्री-पुरुष का संयोग तो स्त्री के रजोदर्शन के बाद ही होना चाहिए। शास्त्रों की मर्यादाअनुसार समाज मे कुछ बीते समय पहले तक बालिकाओं के बाल विवाह किया जाता था। मगर आज कानुन “शारदा एक्ट ” के नियमों की पालन करते हुए समाज में नाबालिग बच्चों का विवाह नही किया जाता हैं। अर्थात समाज मे बाल विवाह पर पूर्ण से प्रतिबंधित हैं।

(१३) समाज मे बालक-बालिकाओं की १२ वर्ष की उम्र तक सगाई नही की जाती । समाज में लड़का -लड़की के संबंध (सगाई) पर पहले लड़का वाले लड़की को खोपरा (नारियल) व पांच ₹ और लड़की वाले लड़के को नारियल व दस ₹ रुपये देते हैं और गुड़-रोटी खिलाकर अपने क्षेत्रीय बड़ेर में सगाई का पंजीकरण इस विवरण से कराते कि सगपण खुला हैं या आमने-सामने (सामा सामी लड़की देना व लेना)। इसका समाज बही में उल्लेख के साथ दोनों पक्षों को वाग्दान् हस्ताक्षर करवाना अनिवार्य होता।

(१४) समाज में विवाह समारोह पर तोरण एवं परिणय वेला के समय दूल्हा , दुल्हन की पोशाक क्षत्रिय एवं मारवाड़ी परंपरागत वेश-भूषा में धोती, गुलाबी कुर्ता (अंगरखि) स्वर्णरंग शेरवानी, केसरिया साफा और हाथ में तलवार, कांधों पर कटारी व गले में हरा-लाल मोतियों जड़ित कन्टहार (कंटों) और दुल्हन के हल्दी युक्त सफेद कोळझोळिया,जो वधु की बुआ द्वारा दिया जाता, उसे पहनना अनिवार्य होता है। इस वेला के पहले व बाद में दूल्हा-दुल्हन अपनी सुविधानुसार वस्त्र पहनते हैं।

(१५) विवाह समारोह पर तोरण मारने(बेदना) की प्रक्रिया समाज में मुख्य मानी जाती हैं । तोरण बेधने बीन्द घोड़े पर चढ़ा और कुछ घोड़ी पर वर्जित मानते हैं अत: अधिकतर बीन्द (दुल्हा) पाट (बाजोटिया) पर खड़ा होकर तोरण को छड़ी के साथ तलवार से बेधने का रिवाज समाज में है। कंवरों-भंवरों के विवाह संबंधी रीति रिवाज जैसे जलामली आरती उतारना पड़ला और दुल्हन को चुनरी ओढ़ाकर चंवरी में बैठाना आदि रिवाजों का चलन अब समाज में नहीं है।

(१६) विवाह के अवसर पर (मारथी)  बड़ी बंदोली में घोड़ा, गाड़ी ,रथ, ट्रेक्टर  सुविधा अनुसार हो सकने पर बैलगाड़ी भी प्रयोग में लाते हैं। मगर एक गांव से दूसरे गांव जाकर बंदोली निकालने की रूढि व बंदोली में नाचने वालों पर विशेषकर औरतों द्वारा अवारनी अब पूर्ण रुप से बन्द है।

(१७) विवाह उत्सव पर विवाह एवं आशीर्वाद समारोह में मधुर स्वर के वाद्यो या बैंड बैंडवाद्य फोटोग्राफर, वीडियोग्राफी इच्छा अनुसार कर सकते हैं । मगर किसी भी समारोह पर आतिशबाजी भंडुओं के स्वांग, गंदे मजाक की स्त्रियों द्वारा गंदे गीत, सिनेमा दिखलाना आदि पूर्ण रुप से समाज में वर्जित है।

(१८) समाज में विवाह की सीख पर यादि ओलुन्दी का बिन्दणी के साथ आने पर उसको वापस सीख देने के लिए रिवाज तौर पर इच्छा से वेश देना या वेश का ₹२५० और विवाह व अन्य उत्सव पर ओरना देना है तो ₹२० तथा देश के लिए ₹५० देने की राशि तय सुदा होती है। भाईपा में किसी बहन-बेटी को सीख पर वेश का ₹२५० और ओतना के लिए ₹ सौ देने का रिवाज है।

(१९) बाल – विधवा (लड़की) का नाता ! हमारे खारड़िया राजपूत समाज में नाता (धरेजा) करने की परंपरा नहीं थी। समाज के राव-भाटों के अनुसार १३ वीं शताब्दी के आस-पास हमारे समाज की २५ गोत्र में से आठ महारानियां सती हुई थी। उसके बाद का कालचक्र कुछ ऐसा ही था। जो विधवाओं पर धर्म के कठिन नियमों मुसलमानों के अत्याचार व समय परिस्थितियों के कारण पहले पहल जालौर का शासनकर्ता खगड़िया राजपूत राव का कान्हड़देव बाल विधवा पुत्री को तर्क-वितर्क के बाद समाज नें विवाह की नई नाता करने की इजाजत दी थी। उसके बाद से समाज में बाल विधवा का नाता करने का रिवाज बन गया था। उसी परम्परा के अन्तर्गत (धरेजा) यदि लड़की द्धारा नाता करने के लिए इच्छुक होने पर नाते की सीख शनिवार को दी जाती रही थी। नाता के प्रति पुराने रिवाज प्राय: बन्द से हो गए है। आज समाज में कुछ पुरानी परम्परा में बदलाव करके समयानुसार धरेजा (नाता) की सीख जो जिसको ठीक लगे,लगभग मुकलावे की सीख की तरह दी जाती है।

(२०) समाज में डोरिया की रश्म ( चौथाले ) समस्त पट्टियों की होती है। यह प्रथा विवाह के बाद समाज में मुख्य रस्मों मे से मानी जाती है। डोरिया की जाजम पर विराजमान समाज के समस्त सरदारों, वर वधू के परिवारों एवं समाज का कोई भी भाई छोटा या बड़ा सब एक सम्मान समाज के सिर मौर होते हैं। डोरिया की जाजम पर विराजमान समाज के समस्त भाई बंधुओं को साफा बांधना अनिवार्य होता है डोरिया पर भवार के रूप में पुरानी परंपरा के अनुसार वर पक्ष की तरफ से डोरिया की लाग के ₹ ४० थाल में रखकर सभी सरदारों के सामने वधू पक्ष को दिया जाता है। इससे वधू पक्ष वालों की यह पहचान की जाती है कि इन्होंने कन्या को धर्म परणाया है, तो वधुपक्ष वालों की तरफ से उसे थाल में रुपया 11 जोड़कर मेहंदी मझोट सह मर्यादा पूर्वक वापस वरपक्ष को दे दिया जाता है। इसके यह साबित होता है कि वधू पक्ष वालों ने कन्या को धर्म बनाया है और कन्या को धर्म पर आने वाले परिवार का यह दायित्व बनता है कि वह अपने यहां बारात आने से लेकर वापस बारात को सीख देने तक का पूरा का पूरा खर्चा भी वधूपक्ष वालों का होता है। नाते का डोरिया विवाह के डोरिया के मुकाबले आधे के रूप में लेन-देन होता है और प्रति चंवरी  गांव गली के ₹20 और मौबण का एक ₹ वधुपक्ष से लेकर पंच स्थानीय बडेर में जमा कराते हैं।

(२१) समाज में सगपन बचपन में ही हो या लड़क पन में लकड़े-लड़की के संबंध (सगपन) पक्का होने के बाद वाग्दान या उलट-फेर नहीं होता और सगपन के सम्बन्धी किसी प्रकार का ₹ पैसा लेन देन नहीं होता समाज में किसी बंधु का ₹ पैसा लेने या देना जाना पड़ने पर वह आदमी अथवा दोनों पक्ष समाज (न्यात) के दोषी होते हैं।

(२२) लेहरका मैं कुंवारा सगणन होने परजंवाई के वेष, भीयानजी के ओरना, यदि बच्ची ससुराल जा रही है तो  बेटी-जंवाई के वेश तथा सासु के ओरना ले जाना होता है। साथ में ही थाली में रोकड़ा व चांदी के जेवरात रखने का समाज में परहेज नहीं होता है। सगे भाईपा वाले बहिन, बेटी के लिए औरना देते हैं । जबकि नजदीक भाईपा वाले केवल शोभा का नारियल या ₹10 देने का रिवाज हें।

(२३) समाज सभाओं में समाज के बंधुओं-बांधुओं को अपने बालक, बालिकाओं के साथ मानसिक विचारों का आदान प्रदान करना होता है । समाज के प्रति ज्ञान और आई पंथ के आचरणौं व समाज की भावी पीढ़ी को संस्कारित बनाने की हिदायत दी जाती रहती है। जिससे समाज के बालक, बालिकाओं को अन्य कौम (जाति ) से आकर्षित होने के भाव नहीं बनते और समाज में पुरुष हो या स्त्री जाति से बाहर विवाह करने की इजाजत नहीं होती

(२४) समाज का कोई बालक-बालिका यदि अपने समाज से बाहर विवाह करने या अन्य किसी धर्म को अपनाने पर उनको वापस समाज में लाने का प्रयास नहीं किया जाता। और उनके नए परिवार के साथ किसी प्रकार का कोई परिवारिक रिश्ता नहीं रखा जाता। यदि समाज में से किसी को उनके साथ व्यवहार करते पाया जाने पर वह आदमी समाज को दोषी करार दिया जाता है

(२५) सामूहिक विवाह समाज के बांडेरूओं सिर में खेती करने से ही हम सीरवी कहलाए , उसी तरह बडेरों के माध्यम से /समाज के सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा सामूहिक विवाह का प्रचलन चलाकर समाज में एकता और सुदृढ़ बनाने का प्रयास जारी है

(२६)  समाज बडेरो में श्री जगदंबे जोगमाया की तस्वीर / मूर्ति के साथ श्री आईजी के पाट एवं अखण्ड ज्योति (दीप) की स्थापना करना और समाज बंधुओं को अपने निवास स्थान पर जितना हो सके वह ठीक कम से कम पूजा कमरे में या छोटी अलमारी में श्री माताजी के नाम से दीपक प्रज्वलित करना अनिवार्य होता है।

(२७) समाज में डोराबन्द परिवार के यहां बालक,बालिका का जन्म होने पर स्त्री द्वारा सूर्य पूजन और झळवा पूजन होने के बाद किसी शुक्ल पक्ष की द्वितीय या शनिवार के दिन उक्त परिवार से नारियल पूजा सामग्री, लापसी व प्रस्तुती माँ (जापायती) के लिए बनाया गया खाने में शुद्ध एक लड्डू निवेल के रूप में बालक व बालक की माता और समस्त परिवार श्री बडेर में श्री आई माताजी की विशेष पूजा अर्चना की जाती है और बालक को श्री आई माता जी के चरण कमलों में लुटाकर श्री आई माताजी के नाम की बेल बांधी जाती है।

(२८)   समाज बडेरों में प्रांत: सायं व संध्या व विशेष प्रार्थना पर नोपत – नगाड़ों के साथ पूजा-आरती प्रक्रिया संपूर्ण करने का विधान है । बडेरों में श्री जगदम्बे आईजी मंदिर का पुजारी ( डांगडिया ) विद्वान ब्राह्मण अथवा सीरवी जाति का ही होता है।

(२९) बडेरों की विगत जानकारी एवं समाज की चल-अचल सम्पत्ति के संरक्षक का दायित्व समाज का केन्द्र (महासभा) श्री आखिल भारतीय सीरवी खारड़िया का होता है।

(३०) समाज के समस्त बडेरों में श्री माताजी की सेवा,पूजा आरती एवं समाज समाज में धार्मिक संचालन “एक समाज एक नियम” के अनुसार समाज व्यवस्था एक ही प्रकार की होती है।

(३१) समाज बडेरों के प्रांगण का वर्त-वर्ताव सिर्फ सीरवी बन्धु ही करते है। अन्य जातियों में खान-पान की ( मद्य,मांस) असमंजस स्थिति होने के कारण अन्य जातियों को बड़ेरों के प्रांगण का वर्त-वर्ताव करने / किराए पर देने कि समाज में इजाजत नहीं होती है।

(३२) सीरवी महासभा द्वारा चलाए जा रहे हैं शिक्षा अभियान तहत शिक्षा कोष में प्रतिदिन एक रुपए हिसाब से प्रति बडेर के क्षेत्र अधिकारी द्वारा वसूल कर महासभा में जमा कराया जाता है। इन रूपये का अखिल भारतीय सीरवी महासभा द्वारा सीरवी समाज विकास, सीरवी स्कूल, सीरवी महाविद्यालय एवं शिक्षा संबंधित समाज के बालक बालिकाओं को प्रोत्साहित करने हेतु खर्च करने का अधिकार होता है।

(३३) समाज में किसी वृद्ध व्यक्ति (पूर्व -अवस्था प्राप्त) स्वर्गवासी आत्मा के पीछे औरतों द्वारा हरियश (हर-जस) गाए जाते हैं।

(३४) समाज में विवाहित औरत की मृत्यु पर दाह संस्कार ससुराल के नियमानुसार एवं नातरायत औरतों को भी ससुराल पक्ष के नियमानुसार दाह संस्कार किया जाता है और अंतिम चुंदड़ी (ओरना कपड़े ) केवल पीहर पक्ष द्वारा ही लाकर ओढाने का रिवाज है।

(३५) स्वर्गवासी आत्मा के पीछे शोक बहरवा (छुकलीं) अथार्थ , शोक की जाजम पर 12 दिन तक बीड़ी ,  सिगरेट पान , गुटखा व अफीम के सेवन पर पूर्ण रुप से प्रतिबंध रहता है। दौरा पर पुराण कथा अथवा रात्रि जागरण (भजन) में भी इनका सेवन नहीं किया जाता।

(३६) शोक मिलन बैठक पर मृत्यु के दिन अंतिम संस्कार के बाद मुंह ऐंठाई के पश्चात 12 दिन तागा तोड़ने व छाया बिखेरने तक खाना दाल-बाटी बनाना होता है एवं मृत्यु भोज पर लापसी को अन्य मीठे व्यंचन का भोजन नहीं बनाया जाता।

(३७) अल्पायु मृत्यु पर, शोक प्रथा यानी छाया बिखेरने के  दूसरे दिन अलग से शोक मिटाने का कार्यक्रम नहीं किया जाता। पुराने रीति रिवाज के अनुसार पहले आने वाले त्योहार पर ही चांदनी बीच के दिन भाईपा व सगे-संबंधी रिश्तेदार मिलनकर मिट्टीघाट बनाकर शोक मिटाने की रस्म निभाते है।

(३८) समाज में शोक मिटाने के बाद माथा-धोवण के लिए केवल बहन-बेटी को ही पीहर वाले ले जाने का रिवाज है। ससुराल पक्ष में से अन्य किसी को भी माथा धोवण हेतु नही ले जाया जाता।

(३९) बारहवां के बाद गंगा प्रसादी और गंगाजल बर्ताने  पर भोजन रुप में दाल-बाटी एवं लापसी बनाने का समाज में चलन है। अन्य पकवान बनाने हेतु समाज की इजाजत नहीं होती हैं

(४०) स्वर्गवासी आत्मा के पीछे शोक मिलन (बैठक) के प्रति आज समाज में असमंजस की स्थिति है। स्वर्गवासी  आत्मा का दोरा बाहरवां का शौक मिलन या तापड़ की बैठक। राजस्थान या दिशावर में काण-मुकाण,शोक मिलन एक ही जगह पर रखने की समाज की इजाजत होती है।

(४१) गोडा झवार- समाज में कुंवारे लड़के का सगपण किसी विवाहित लड़की के साथ होने या किसी कुंवारे लड़के का बाल-विधवा को अपना जीवन साथी बनाने के लिए गोडा़ झंवार करने का रिवाज अपनाया जाता है। लड़का अपने परिवार व कुछ बारातियों के साथ बरात के रुप में अपने ससुराल दुल्हन को लाने जाता है। वहाँ लड़की का नाता ( धरेजा) की सीख देने से पहले लड़की वालों की यह सोच पर कि कुंवारे लड़के के साथ लड़की को भेजना धार्मिक दृष्टि से उचित न मानते हुए करीब मानते हुए करीब 3 दिन पहले ही मिट्टी के बर्तन में गेहूं का झंवारा लगाया जाता है और बारात आने पर बरातियों को अलग से ठहरने की व्यवस्था भी लड़की वालों की तरफ से कर दी जाती है । 3 दिनों पहले लगाया गए जवारों की कपूर, अगर होम-हवन यथा शक्ति पूजा अर्चना करके अपने पितरों से क्षमा याचना करते हुए दूल्हा-दुल्हन को उस झंवारा के फेरे दिलवाए जाते हैं या लड़के की कुंवार उतारने के लिए बडेर के पूजारी (डांगड़ियों) के द्वारा विवाह प्रक्रिया साम्मेला व चंवरी मण्डवा कर लड़के को लड़की की जगह तलवार के साथ फेरे कराए जाते हैं बाद मे समाज कस डोरिया रस्म भी पुरी की जाती है और आज नए युग के अनुसार विवाह में (आणा) मुकलावा सीख कि तरह ही दूसरे दिन नाते की सीख दी जाती है। दुल्हा दुल्हन को अपने घर लेकर आने पर विवाह रिवाज की तरह देवी देवताओं के स्थान पर जात दिलवाई जाती है। लड़का कुंवार होने के कारण विवाहित /बाल-विधवा लड़की का पुनर्विवाह करने का रिवाज समाज में नहीं है। ऐसा करने वाला अपने धर्म से बेमुख होता ही है और वह परिवार समाज का दोषी होता है।

(४२) समाज में स्थानीय बडेर के गांव में किसी भी जाति से संबंधित मानव जीव का देह त्यागने पर उसके पार्थिव शरीर का दाह संस्कार होने तक मन्दिर के पट् नहीं दिए के ( दरवाजे ) बंद रखे जाते है।

(४३) समाज में एकता प्रतीक में से एक रिवाज जो सैकड़ों वर्षो से चला आ रहा है जो सनातन (हिन्दू) आर्य सीरवी खारडिया धर्म के त्योहारों में से जैसे दीपावली होली वगैरह एवं विक्रम संवत चैत्र शुक्ल प्रतिपदा नव वर्ष प्रारंभ शुभ दिवस और चैत्र वैशाख , माघ,भादवा चारों मास की शुक्ल पक्ष की द्धितीय पर समाज के बंध-बांधुए द्वारा लाया गया विशेष मिष्ठान लापसी, चूरमा घी, गुड़ रोटी का श्री बडेर में पुजारी या कोटवाल,जमादार द्वारा एक बड़े बर्तन (थाल) में सबको एक रूप करके निवेल बनाकर समाज इष्ट देवी श्री आईजी को विशेष प्रसाद का भोग लगाया जाता है। उस प्रसाद को समाज में निवेल कहा जाता है । और समस्त समाज बन्धु-बांधुएं में श्री माताजी रो निवेल शिवरो भाई शिवरो  वितरण किया जाता है।

(४४) समाज में किसी लड़के का विवाह के लिए जाने पर बारात निकासी से पहले अपने कुलदेवी-देवताओं के मंदिर नारियल अर्णन करने और विभाग के तत्पश्चात स्थानीय बड़ेर माँ जगदम्बै (श्रीआईजी) से सोलह संस्कारों की प्राप्ति की कामना के लिए बढेर में जात देने दूल्हन-दूल्हे को कटारी व तलवार के साथ मंदिर में जाने की इजाजत नहीं होती है।

(४५) समाज में किसी बालक बालिका का जन्म ढूंढ, विवाह, आणा के उत्सव का नारियल बडेर में देने का रिवाज है। और उन नारियल के साथ विवाह के अवसर पर बडेर में अर्पण किए गए नारियलों का होली मिलन के दिन अथवा चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (नव वर्ष) शुभ दिवस मिलन या चैत्र सुदी बीज के दिन प्रसाद के रूप में वितरण किया जाता है।

(४६)  समाज में किसी परिवार के सदस्य का देवलोक हो जाने के बाद शोक मिलन व पूर्ण विधि विधान के साथ उस आत्मा के लिए क्रिया क्रम (बारहवां) हो जाने के बाद उक्त परिवार में शोक मिटाने का कार्यक्रम छुकली के बाद उसी दिन शाम या दूसरे दिन रख दिया जाता है। जिससे कि शोकाकुल परिवार व उनके बहन बेटियों का मंदिर या किसी उत्सव पर नि:संकोच जाना आना हो सके । वैसे बीते कुछ समय पहले शोक मिटाने की रसम को छुकली के बाद किसी बड़े त्यौहार ( पर्व ) के मौके पर ही किया जाता था। मगर आज हमारी बड़ी समाज बड़ा परिवार होने के कारण कुछ छोटे बड़े कार्यक्रम होते ही रहते है, उक्त परिवार में आज के युग के अनुसार कोई उत्सव या किसी प्रकार का मुख्य कारण अथवा अड़चनों के निवारण के लिए दूसरे दिन ही शोक मिटाने का कार्यक्रम रख दिया जाता है। शोक मिटाने की  रस्म को नजदीकी रिश्तेदारों द्वारा ही पूर्ण की जाती है। जिसमें मृतक के ससुराल व लड़के के ससुराल वाले गुड़,गेहूँ, का दलिया व घी लेकर आते हैं। जिससे उस दिन विशेष मीठा पकवान बनाया जाता है। उस पकवान से सजित थाल को बाझोट रखकर समस्त भाई बंधुओं के साथ शोकाकुल परिवार आपसी मनुहार से भोजन पाते हैं । भोजन में लापसी या हलवा बनाया जाता है। लापसी पर शुद्ध घी की आरती से दस्तूरी भी की जाती है। समस्त भाई बंधुओं द्वारा भोजन ग्रहन के बाद सभी भाई बंधुओं के साथ कुछ कणा मुठ (अनाज) नारियल घी,अगरबत्ती, पुष्प, वगैहरा साधारण पूजा सामग्री लेकर शोकाकुल परिवार द्धारा स्थानीय बडेर (मन्दिर) में पूजा करवाकर शोक मिटाने कि प्रक्रिया सम्पूर्ण किया जाता है।

(४७) समाज में किसी दंपत्ति के संपत्ति की प्राप्ति ना होने या किसी बंदू का ब्रह्मचर्य जीवन व्यापम करने पर उक्त बंधु को अपने उत्तराधिकारी की चाहत पर अपने परिवार से किसी बालक बालिका को गोद लेने का रिवाज है। (लड़की को गोद लेने पर उसे कांचली में दिया माना जाता है)

(४८) समाज में सार्वजनिक नियमों में से एक खाड़ि ,नाड़ी,  तालाब झील और कुएँ से निकला गया बहता पानी या वर्षा के रूप में बहते पानी में मल मूत्र का त्याग करना वर्जित है।

(४९) समाज में कृषि व्यवसाय का मुख्य साधना हल होता है। हल मुकुल पर लोहे का मुहरा उसके समाधान के लिए दान पुण्य के विषय में प्रथम विधान फसल की  कटाई करने पर कुछ क्यारियों को गायों (सांड गेरिया) के लिए छोड़ दिया जाता है। धान (अनाज) ताली में आने पर कुछ प्रतिशत धर्मादा के निमित्त अलग-कर दिया जाता है। हट्टी में पिसाई करने पर प्रतिदिन एक मुट्ठी अनाज कबूतरों एवं चीटियों (कीडी-चूहा) के निमित अलग रखकर उसे चुका दिया जाता है । अनाज की पिसाई  हो जाने पर कुछ आटा साद् ब्राह्मण को दिया जाता है। और आटे की रोटी बनाने पर पहली रोटी कुत्ते के लिए बनाई जाती हैं समाज में दान पुण्य कर्म में कुछ इस तरह के विधान भी हैं।

(५०) समाज में तोरण प्रक्रिया के समय किसी कारण वंश कोई बिन्द (दुल्हा) पीछे रह जाता है तो बेधे हुए तोरण को दोबारा नहीं बांधा जाता है पीछे रहे बिन्द को तोरण की जगह बार्डि को तोरण मानकर बेधना होता है यदि लड़की वाले की तरफ से आशीर्वाद आयोजन रखना हो तो तोरण बांधने के बाद ही समारोह करने का विधान है।

(५१) समाज में विवाह उत्सव पर बारात आने पर लडंकी वालों की तरफ कंवारी बरात ( फेरों से पहले) को भोजन देना अनिवार्य होता है।

(५२) समाज में शुक्ल पक्ष की चार बीजों का विशेष महत्व होता है। प्रथम -चैत्र शुक्ल द्वितीय। द्वितीय – वैशाख शुक्ल द्वितीय। तृतीय – भाद्रपद शुक्ल द्वितीय। चतुर्थ -माघ शुक्ल द्वितीय। इन चारों बीजों के दिन समाज बन्धुओं द्धारा अपने प्रतिष्ठान (हम जुताई भी नही करते)  को अवकाश देते हुए पूर्ण रूप से पालना की जाती है।

पुस्तक ;- सीरवी क्षत्रिय समाज खारड़िया का इतिहास एवं बांडेरूवाणी

लेखक एवम् प्रकाशक ;- सीरवी जसाराम जी लचेटा

( रामपुरा कलां ) रामापुरम, चेन्नई

 

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