जब संसार में धर्म का नाश होने लगता है और पाप चरम सीमा तक बढ़ जाता है तो ऐसे समय में कोई महान आत्मा इस धरती पर मानव रूप में अवतार लेकर मनुष्य मात्र को धर्म की राह बता कर पापियों का नाश करती हैं, ऐसे ही समय जब धर्म का नाश होने लगा वह पाप चरम सीमा लांगने लगा तो भारत की पावन भूमि पर नवदुर्गा ने ‘ आईमाता ‘ के रूप में अवतार लेकर मनुष्य मात्र का कल्याण किया वह धर्म की राह बताकर प्राणियों का नाश किया। राजस्थान की सीमावर्ती जिले बाड़मेर के बालोतरा कस्बे से 8 मील  की दूरी पर प्राचीन काल में खेड़ नामक राज्य था। खैङ का प्राचीन और ऐतिहासिक नाम श्रीरपुर था, जो मारवाड़ परगने की विख्यात राजधानी थी। उस समय खेङ राज्य के अधीन 560 गांव थे। मगर कालांतर में लङाइयों और झंझावतों को सहता हुआ खेङ राज्य छिन्न-भिन्न हो गया, और उधर सा गया । उजड़ने के बावजूद भी वहां संवत 1135 में बना रणछोड़ राय ( भगवान विष्णु ) का मंदिर ( जिसमें रणछोड़राय जी की मूर्ति स्थापना संवत 1232 में फागुन सुदी दूज को की गई थी । आज दिन भी विद्यमान है । जहां हर वर्ष भादवा सुदी अष्टमी को भव्य मेला भरता है । खेड़ सड़क व रेलमार्ग से जुड़ा हुआ है । संवत 1250 के आसपास के खेङ राज्य पर मोहिल जाति के कल्याण सिंह के पुत्र प्रतापसिंह का शासन था । प्रतापसिंह के एक अयोग्य शासक होने के कारण तमाम सरदार व जनता परेशान थी । उस समय वहां का मंत्री डाबी जाति का सावंतसिंह था , जो प्रतापसिंह से नाखुश था तथा प्रतापसिंह को मरवाना चाहता था। एक बार डाबी सावंतसिंह गुप्त रूप से पाली के शासक राव आसधानजी (राव सिहांजी के पुत्र ) से पाली की राजधानी गुंदोज में जाकर मिला और आसधानजी को विवाह के बहाने खेड़  लाकर प्रतापसिंह को मरवा डाला तथा संवत 1337 मैं खेड़ गधी पर राव आसधानजी को बैठा दिया राव आसधानजी, राव सिहांजी के पुत्र थे जो जोधपुर के वंशज थे । उन्होंने खेङ को मारवाड़ परगने की राजधानी बनाया । राव आसधानजी जब खेङ के शासक बन गये तो सोचा कि मंत्री सावंतसिंह ने अपने स्वामी के साथ विश्वासघात कर मुझे गद्दी पर बैठाया है तो भविष्य में मेरे साथ भी धोखा कर सकता है। यह सोच कर एक दिन मंत्री सावंतसिंह को मरवा डाला। इस घटना से मोहिल जाति के व डाबी जाति के अन्य परिवार भी खेल छोड़कर गुजरात में काठियावाड़ और अंबापुर में जाकर बस गये । डाबी परिवार अंबापुर में बसे ।

 

संवत् 1440 के आसपास डाबी सावंतसिंह के परिवार में एक करामाती पुरुष का जन्म हुआ जिसका नाम बीका रखा गया । बीका बचपन से ही मां का परम भक्त था। जब बीका की आयु विवाह योग्य हुई तो उनके माता-पिता ने सुयोग्य कन्या के साथ बीका का विवाह कर दिया। मां अंबा की कृपा से बिका को पत्नी भी मां अंबा की वक्त मिली। अब दोनों पति-पत्नी मां अंम्बा की भक्ति करने लगे । सुबह शाम दोनों मां अंम्बा के मंदिर जाते व अपने घर के एक कोने में बनाये मां अंम्बा के छोटे से मंदिर में पूजा पाठ करते । समय बीतता गया। बीकाजी के विवाह के 10-12 साल बीतने पर भी उन्हें संतान सुख प्राप्त नहीं हुआ। दोनों पति-पत्नी रात दिन संतान प्राप्ति के लिए दुखी रहने लगे और मां अंम्बा से संतान प्राप्ति की प्रार्थना करते रहें । मन में विचार करते कि यदि हमारे संतान नहीं हुई तो हमारा वंश कैसे चलेगा। इस गवाङी का रखवाला कौन होगा । संतान प्राप्ति के लिए दुखी मन से कहीं तीर्थ यात्राएं की, कई साधु संतों की शरण में गये , लेकिन उनकी मनोकामना पूर्ण नहीं हुई । एक दिन सवेरे बीकाजी अपने मकान के बाहर दुखी मन से बैठे थे कि एक साधु उनके सामने आया और भिक्षा मांगी बीकाजी ने साधु की आव भगत की और अपनी व्यथा सुनाई । इस पर साधु ने कहा बीका तू चिंता मत कर और अपने सच्चे मन से मां की भक्ति कर तेरी मनोकामना अवश्य पूर्ण होगी । इतना कह साधु तो चला गया । बीकाजी व उसकी पत्नी अब अंम्बा की भक्ति करने में तल्लीन हो गए । इस पर भी समय बीतते उनके संतान नहीं हुई एक दिन संध्या के समय बीकाजी मां अंम्बा के सामने से नाराज हो कर उठ गये और मां अंम्बा से कहा मां आज के बाद मैं तेरा नाम भी नहीं लूंगा तूने इतने वर्षों से मेरी एक विनती भी नहीं सुनी। इतना कहकर पूजा स्थल से उठकर चले गये । और बिना खाए पिए सो गये। बीकाजी डाबी की भक्ति से मां अंम्बा खुश तो थी ही उसी रात मा अंम्बा ने विचार किया आज मेरा वक़्त हताश होकर नाराज हो गया हे। अब इसकी मनोकामना पूर्ण करनी चाहिए ‌ यह विचार का मां अंम्बा ने रात में प्रत्यक्ष रुप से बीकाजी डाबी को दर्शन दिये । मां अंम्बा के दर्शन होते ही बीकाजी मां के चरणों में गिर कर विनती करने लगे। इस पर मां अंम्बा ने बीकाजी को कहा कि ‘ बीका मैं तेरी भक्ति से अति प्रसन्न हूं । तेरी मनोकामना अवश्य पूर्ण होगी। अब बता तेरी इच्छा क्या है । मां अंम्बा का वचन सुन बीकाजी ने हाथ जोड़कर निवेदन किया कि है मां मुझे धन, दौलत कुछ नहीं चाहिए। आपके दर्शनों से मेरी सर्व मनोकामना पूर्ण हो गी हे। आप मुझ पर इतने कृपालु है तो मेरी एक इच्छा है कि आप मेरे घर में वास करो जिससे मैं रात-दिन आपके दर्शन कर सकूं । बस मेरी यही मनोकामना है। मां अंम्बा ने खुश होकर का बीका तेरी इच्छा जरुर पूरी करूंगी मैं तेरे घर में कन्या के रूप में आऊंगी। मां अंबा का वचन सुन बीकाजी ने हाथ जोड़कर निवेदन किया कि हे मां आगमन का पता कैसे चलेगा। मेरा संशय दूर करें। बीकाजी की बात सुन मां अंम्बा ने कहा कि सुन बीका जिस दिन तेरा बाग़ हरा-भरा होगा फुलों से डालिया झुक जाएगी, कोयल, मोर, पपीहा बोलेंगे। आकाश में घनघोर बादल गरजेंगे । बाग में भंवरे गूंजेंगे । उस समय तेरे घर में पूजा स्थल की दीवार पर कुमकुम का त्रिशूल बना हुआ मिलेगा ‌। यही मेरे आगमन का संकेत है। इतना वरदान दे मां अंम्बा अलोप हो गी । बीकाजी ने झट खुशी खुशी अपनी पत्नी को जगाकर सारा हाल बताया ‌। दोनों अपार खुशी से झूम उठे।

 

समय बीतता गया । दोनों पति-पत्नी मां अंम्बा की भक्ति में लीन रहने लगे। मां अंम्बा के दिये वरदान अनुसार संवत 1472 के आसपास एक दिन अचानक आकाश में घनघोर बादल गरजने लगे। वर्षा होने लगी। बिजलियां चमकने लगी । मोर, पपीहा, कोयल मधुर वाणी में बोलने लगे। ऐसे समय में बीकाजी अपने बाग में गये तो देखा बाग़ हरा भरा हो गया रंग बिरंगे फूल खिले गये । फूलों पर भंवरे गूंज रहे हैं ‌। बीकाजी बाग में घूमते घूमते गये तो उस समय उन्हें मां अंम्बा का वचन याद आया और झट फूलों की क्यारीयां के पास गये तो क्या देखते हैं कि फूलों की डालियों के नीचे एक नवजात कन्या किलकारियां कर रही हैं । बीकाजी अत्यंत प्रसन्न हुए । और मां अंम्बा का स्मरण कर झट से कन्या को गोद में उठा लिया‌। कन्या को लेकर दौड़े दौड़े अपने घर गए और पूजा स्थल पर पहुंचे । क्या देखते हैं कि दीवार पर कुमकुम का त्रिशूल बना हुआ है। बीकाजी को विश्वास हो गया कि सचमुच मां अंम्बा कन्या के रूप में मेरे यहां पधारी हैं कन्या को अपने आंगन में सुलाकर झटपट अपनी पत्नी को आवाज दी ‘ देखो अपने आंगन में कौन आया है ‘ इतना सुनते ही बीकाजी की पत्नी झटपट आंगन में आकर क्या देखती है कि एक नवजात कन्या सोई हुई है। मारे खुशी के बीकाजी की पत्नी ने कन्या को गोदी में उठा लिया । ज्योही कन्या को गोदी में उठाया तो बीकाजी की पत्नी के स्तनों के थनों‌ से दूध की धारा निकली । दोनों पति-पत्नी अत्यंत प्रसन्न हुए और कन्या का लालन पोषण करने लगे । दिन खुशी खुशी बीतने लगे । एक दिन घर में छोटा सा नामकरण उत्सव रखा । जोशीजी को बुलाया व कन्या के नामकरण को कहा जोशीजी ने कुंडली बनाई तो वह आश्चर्यचकित रह गये। उन्होंने कहा कि मैंने ऐसी कुंडली किसी की नहीं देखी । यह कन्या तो बड़ी तेजस्वी और चमत्कारी होगी साक्षात मां अंम्बा का रूप है। यह कह कर जोशीजी ने अपना शीश नवाया और कन्या का नाम जीजी रखा । बीकाजी ने जोशीजी को खूब दान दक्षिणा देकर विदा किया। उस दिन से कन्या को सब लोग जीजी के नाम से पुकारने लगे। जीजी बचपन से ही भक्ति में लगी रहती थी । जीजी का तेज रुप उदय होते सूरज के समान था, जो भी जीजी को देखता बीकाजी को धन्य समझता था कि देखो बीकाजी के घर साक्षात मां अंम्बा प्रकट हुई है‌। दिन बीते रहे, महीने बीते, बरस बीतते रहे । अब जीजी की उम्र 12 वर्ष हुई तब उनके रूप की खबर आस-पास के गांव में फैलने लगी । लोग जीजी के रूप को देखने आते और बिका जी को धन्य समझते। उन्हीं दिनों मालवा में मांडू पर मुगल बादशाह महमुद शाह शासन करता था । महमुदशाह एक दुष्ट बादशाह था। हिंदुओं पर अत्याचार करता था हिंदुओं की बहू बेटियों को जबरदस्ती अपने महलों में डाल देता था । तथा हिंदुओं पर कई तरह के लगान लगाता था। आम जनता दुखी थी। जीजी के रूप का बखान जब बादशाह महमूद शाह के कानों में पड़ा तो वह‌ जीजी को पाने के लिए उतावला होने लगा लेकिन मंत्रियों के समझाने पर अपनी सात नोकरानियों को जीजी के रूप के बारे में जानने भेजा । नौकरानियां अंबापुर जाकर जीजी का रूप देख दंग रह गयी । उल्टे पांव वापस आकर बादशाह का कहा की ऐसा रूप हमने तो आज तक नहीं देखा । आप के महल में जितनी बैगमें है उनमें जीजी के सामने कुछ नहीं है। जीजी की इतनी तारीफ सुनकर बादशाह ने अपने मंत्री को आदेश दिया कि जल्द से जल्द जीजी को लाया जाए । मंत्री समझदार वह बुड्ढा आदमी था । हाथ जोड़कर बोला ‘  हुजूर जीजी एक क्षत्रिय राजपूत की लड़की है जीते जी राजपूत अपनी कन्या को जबरदस्ती नहीं जाने देंगे । अच्छा यही है कि बीका को यहां बुलाकर उसके सामने विवाह का प्रस्ताव रखे। बीका मान जाए तब तो ठीक है अन्यथा आगे सोचेंगे । मंत्री की बात मानकर बादशाह ने तुरंत एक घुड़सवार को अंबापुर बीकाजी को बुलाने भेजा । घुड़सवार ने बीकाजी को लाकर बादशाह के सामने खड़ा कर दिया । बादशाह बड़े मीठे शब्दों से बीकाजी को कहा कि तुम्हारे एक बेटी है उससे हम शादी करना चाहते हैं । बीकाजी के कानों में ये शब्द पिघले शीशे के समान पहुंचे तन-बदन में आग की लपटें उठने लगी। इतना गुस्सा आया कि बादशाह की जबान खींच ले । लेकिन अपने क्रोध पर काबू कर बादशाह से कहा कि हुजूर यह कार्य मेरी लड़की का है, सो मैं मेरी पत्नी और पुत्री को पूछ कर जवाब दूंगा । बादशाह ने कहा ठीक है तुम शीघ्र अपनी पत्नी को पूछकर आवो । हम तुम्हारा इंतजार करते हैं । इतना सुन बीका वापस अपने घर आ गये । उस समय उनका दुखी मन और कुम्हलाया चेहरा देखकर उनकी पत्नी ने पूछा कि क्या कहा बादशाह ने जो आप इतना उदास हो रहे हे। बीकाजी अपनी पत्नी को सारी जानकारी बताई और कहा कि मेरे जीते जी तो ऐसा नहीं हो सकता यदि हो गया तो मैं मां अंबे के आगे शीश चढ़ा दूंगा और तुम मेरे पीछे सती हो जाना । मैं अपना क्षत्रिय धर्म नष्ट नहीं होने दूंगा । उस समय जीजी अपने घर में बैठी अपने पिता की बातें सुन रही थी । झट दौड़कर पिता के पास पहुंची और हाथ जोड़कर बोली पिताजी आप दुखी क्यों हो रहे हो । यह कोई अनहोनी नहीं है । उस दुष्ट बादशाह के अत्याचारों का घड़ा भर चुका है । आपके सामने मेरे साथ विवाह का प्रस्ताव उसके नाश का कारण बनेगा । आप दुखी ना हो और निशंक जाकर बादशाह को कह दो कि जीजी ब्याह करने को तैयार हैं। साथ ही कह देना की विवाह हिंदू रीति रिवाज से करना पड़ेगा तथा विवाह से पहले का भोजन मेरे यहां आकर करना पड़ेगा। बारात में जितनी चाहे उतनी फौज ले आना। सबको खाना यहां आकर खाना होगा । जीजी की बात सुनकर भीकाजी सन्न रह गये और जीजी से कहा देख बेटी हमारा क्षत्रिय कुल है और बादशाह मुगल है भला यह कैसे हो सकता है तूने यह बात सोचे बिना कह दी। यह कोई बच्चों का खेल थोड़े ही हैं ।मैं यह दाग अपने कूल में नहीं लगने दूंगा । बीकाजी की बात सुनकर जीजी ने अपने माता पिता से कहा कि देखिए मेरा आपके घर आने का कारण मानव मात्र को पापियों से छुड़ाना है। बादशाह का पाप का घड़ा भर गया है। उसे फोड़ना है ।आप निश्चिंत होकर बादशाह के पास जाइए और विवाह की तिथि तय कर आइए । जीजी के मुख से यह बात सुनते ही बिकाजी और उनकी पत्नी जीजी के पांवो में शीश नवाया और कहने लगे हे देवी मां हम प्यार में इतने अंधे हो गए थे कि आपकी असली रूप को पहचान ना सके। हमें माफ करना मैं अभी बादशाह के पास जाता हूं। बीकाजी अंबापुर से रवाना होकर मांडू के बादशाह महमुदशाह के सामने हाजिर हुए । बीकाजी को देखकर बादशाह बहुत खुश हुआ । और झटपट पूछा कहो बिका तुम्हारी पुत्री और पत्नी ने क्या कहा हे। इस पर बिकाजी ने कहा हुजूर मेरी पुत्री जीजी आपके साथ विवाह करने को तैयार है । लेकिन उसकी शर्त है जो आपको माननी होगी । बीकाजी की बात सुनकर बादशाह अत्यंत प्रसन्न हुआ और क्या मैं तुम्हारी सब शर्तें मानने को तैयार हूं । क्या शर्त है । तुरंत कहो। इस पर बीकाजी ने कहा विवाह हिंदू रीति से होगा । निकाह नहीं होगी। तथा मेरे वहां आने पर समस्त बारातियों को पहले भोजन करना होगा। बीकाजी की बात सुन बादशाह ने कहा मुझे शर्तें मंजूर है। लेकिन मेरे साथ बारात में हजारों की फोज आयेगी । उन सब के भोजन का खर्चा तुम बर्दाश्त कर सकोगे इसलिए तुम हमारे खजाने से धन माल व जिस चीज की जरूरत हो ले जावो । इतना सुनते ही बिकाजी ने कहा हुजूर मैं क्षत्रिय राजपूत हूं । कन्या के विवाह हेतु आपसे एक पैसा भी लेना अपने क्षत्रिय धर्म के विरुद्ध समझता हूं इतना कहकर विवाह की तिथि तय कर वापस अपने गांव आ गए । और सारा हाल जीजी को सुनाया। बादशाह बहुत खुश और विवाह की तैयारी करने लगा । महलों व  शहर में जोरदार जश्न मनाए जाने लगे । विवाह की तिथि आई तो बादशाह बन ठन कर हजारों की फौज के साथ बारात बनाकर अंबापुर हेतु प्रस्थान किया । जब पूरी बारात अंबापुर पहुंची तो गांव वाले इतनी सारी फोज को देखकर घबरा गये । बारात को गांव के पास तालाब के किनारे ठहराया गया । उस समय ऐसा लग रहा था मानो अम्बापुर एक फोजी छावनी बन गई हे । इतनी सारी फोज़ देखकर अंबापुर के ग्रामवासी दौड़े-दौड़े जीजी के पास गए और जीजी व बीकाजी से कहने लगे आपने यह क्या किया इतने लोगों के लिए खाना कहां से लाओगे। इनको पिलाने के लिए गांव के तालाब का पानी कम पड़ जाएगा । फिर क्या होगा ।वगांव वालों की बात सुनकर जीजी ने लोगों को धीरज बंधाया और कहा कि आप लोग किसी प्रकार की चिंता ना करें। मैंने सब इंतजाम कर लिया है । इस कार्य में जैसा मैं कहूं आप लोग उसमें मेरा सहयोग करें, घबराने की कोई बात नहीं । मां अंम्बा सब ठीक करेगी ।

 

ग्रामीणों को समझा कर वापस भेज दिया और उन्हें अलग-अलग कार्य का जिम्मा सौंप दिया। सब गांव वाले जीजी के बताए अनुसार काम में लग गए । जीजी खुद गांव के बाहर एक झोपड़ी में विराजमान हो गई और अपनी एक खास सहेली को झोपड़ी के बाहर बैठा दिया। इसके बाद अपने आदमियों को बादशाह के पास भेजा और कहलवाया कि भोजन तैयार है समस्त बाराति आकर पहले भोजन कर ले , फिर विवाह का कार्यक्रम होगा । बादशाह को खबर मिलते ही अपनी फौज को आदेश दिया कि सब लोग जा कर पहले भोजन कर लो । बादशाह के कहने से समस्त बाराती जो हजारों की संख्या में थे। भोजन करने हेतु जीजी की झोपड़ी के सामने पहुंचे । ग्रामीणों को कुछ समझ में नहीं आया की जीजी की झोपड़ी में अन्न का एक दाना भी नहीं है भला जीजी इतने लोगों को क्या भोजन कराएगी । लोग आपस में कानाफूसी करते और बड़े आश्चर्य से जीजी की झोपड़ी के आसपास का माहौल देखते रहे। जब सब बाराति आकर बैठ गए तो जीजी अपनी झोपड़ी से अनेक व्यंजनों के भरे थाल जो कि सोने चांदी के थे, बाहर भेजने लगी । बाराती खुब आनन्द से भोजन करने लगे । ग्रामीणों ने देखा कि जो जिस चीज की मांग करता जीजी वो ही चीज़ अपनी झोपड़ी से बाहर भेजती । इस चमत्कार से ग्रामीण नत मस्तक हुये ।जन भोजन कर लोग उढते तो खाली सोने चांदी के थाल का अम्बार लगता गया । बाराती और गांव वाले यह रचना देख बहुत अचम्भित हुए । इस अनोखी घटना की खबर जब बादशाह को हुई तो बाहशाह ने सोचा इसमें कोई चाल है या जीजी कोई जादूगरनी हे । इस रहस्य को गुप्त रूप से चलकर देखना चाहिए । जिससे उसको भी देख लेंगे । यह विचार कर बादशाह एक फकीर का रूप बनाकर संध्या के समय लुकता छुपता  जीजी की झोपड़ी के पास जा पहुंचा और अपनी आंखों से सब रहस्य देखने लगा । झोपड़ी में बैठी जीजी को ज्ञात हो गया की बादशाह फकीर का रुप बनाकर आया है ज्ञात क्यों ना हो जीजी जो साक्षात मां अम्बा का रूप थी उन्हें सब ज्ञात हो गया और सोचा कि अब समय आ गया है बादशाह को सबक सिखाने का । इतना सोच कर जीजी अपनी झोपड़ी से बाहर आई। बाहर आते ही ज्योंही बादशाह की नजर जीजी के अलौकिक व तेजस्वी रुप पङी तो बादशाह की आंख चौंधिया गई और वह मूर्छित होकर जमीन पर गिर पड़ा । जब बादशाह की मूर्छा टुटी ओर उठ बैठा तो सामने सिंह वाहिनी चंडी रूप मां अंबा को देखकर थरथराने लगा । और वहां से भागने लगा । उसी समय मां अंम्बा ने बादशाह को ललकारा और सिंह ने जोर से गर्जना कि । जीजी ने बादशाह को कहा ऐ दुष्ट भागता कहा है । अभी तो विवाह की रीति बाकी है । बादशाह तुरंत झुककर जीजी के चरणों में गिर पड़ा। जमीन पर पड़ा पड़ा गिड़गिड़ाने लगा। हे मां जगत जननी मैंने आपको पहचाना नहीं मेरी भारी भूल थी‌। आप मेरी मां है मैं आपसे माफी मांगता हूं मुझे आप जीवनदान दीजिए ।

 

जीजी ने बादशाह से कहा कि हे दुष्ट तुने आम जनता पर बहुत अत्याचार किया है । भविष्य में अपना अत्याचार बंद कर दे और हर नारी को आदर भाव से देखना । नहीं तो तेरा सर्वनाश हो जाएगा । इतनी बात सुन बादशाह ने गिड़गिड़ाते हुए जीजी के सामने हाथ जोड़कर अरदास की हे‌ मां ! मैं मूर्ख अज्ञानी राजमद मैं अपने आपको भूल गया था मैं कुरान की सौगंध खाकर कहता हूं कि जैसा आप हुकुम देंगे वैसा ही करूंगा। आप मुझे माफ करें । तथा भीकाजी को अपना गुरु बनाया तथा अंबापुर में मां के भव्य मंदिर की नीव रखवाकर वापसी अपनी फौज लेकर अपने राज्य मांडू के लिए रवाना हुआ ।
जीजी के चमत्कारों से गांव में आस-पास के गांवों के लोग बड़ी संख्या में जीजी के चरणों में शीश नवाकर अपने आपको धन्य समझने लगे । अब तो रात दिन अंबापुर में भीड़ भाड़ रहने लगी । लोग दूर दूर से जीजी के दर्शनार्थ  को आने लगे । अंबापुर एक धाम बन गया । बड़े दीन दुखियों के दुख दूर हुए । जीजी के पास रात दिन लोगों की भीड़ जमी रहती थी । जिसे जीजी की तपस्या में बाधा आती थी । इस प्रकार कई वर्ष बीतने पर जीजी ने अपने पिता बीकाजी डाबी से निवेदन किया कि पिताजी श्रध्दालुओं की भक्ति देख मेरा मन तो बहुत खुश है लेकिन लोगों की रात दिन की भीड़भाड़ से मेरी तपस्या में बाधा उत्पन्न हो रही है । अब कहीं अन्य एकांत स्थान में चलकर तपस्या करनी चाहिए । दोनों पिता-पुत्री ने आपस में मंत्रणा कर तपस्या के लिए एकांत स्थान के बारे में सोचने लगे । सोच विचार के बाद तय किया कि कि मारवाड़ के बीलपुर नामक स्थान जहां पर राजा बलि ने 99 यज्ञ किए थे और जहां बाण गंगा जैसी पवित्र नदी बहती है वह स्थान तपस्या के लिए अच्छा रहेगा ‌। दोनों को स्थान पसंद आया और बीलपुर आने की तैयारी की । एक दिन सवेरे जीजी माता ने अपनी जरूरत की चीजें धार्मिक पुस्तकें एक पोठिये ( बोल ) पर लादकर अंबापुर से बीलपुर आने के लिए प्रस्थान किया रास्ते चलते हुए जीजी माता कभी अपना वृध्द रूप धारण कर लेती , कभी कन्या का रूप धारण कर लेती इसी प्रकार अपने पोठिये को कभी बूढ़ा बैल बना देते कभी छोटा बछड़ा । इस प्रकार रूप बदलते हुए सर्वप्रथम मेवाड़ राज्य के गांव नारलाई  ( जो अरावली पर्वतमाला की तलहटी में बसा हुआ है । ) जा पहुंचे । ग्राम नारलाई में पहाङी के ऊपर एक बहुत पुराना जैकल जी ( महादेव ) का मंदिर बना हुआ था पुरानी दंत कथाओं के अनुसार नारलाई गांव नारद मुनि द्वारा बसाया जाना बतलाते है । और ऊपर पहाङी पर जेकलीजी ( महादेव ) का जो पुराना मंदिर है उस मंदिर में औरतों का जाना मना है । ऐसी स्थिति में जीजी माता ने अपने बेल को पहाड़ की तलहटी में एक खुंटे से बांधकर पहाड़ी पर बने जैकलजी के मंदिर में पधारी । वहां के पुजारी ने जब भी जीजी को अलौकिक रूप में देखा तो स्वत: ही  नतमस्तक हो गया और हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगा कि हे मातेश्वरी इस मंदिर में नारी प्रवेश निषेध है आप मुझे कोई देवी प्रतीत हो रही है और यहां रूकना चाहे तो मंदिर के पास एक पहाड़ी चट्टान है उसे हटाकर गुफा बनाकर उसमें चलती हवा में ज्योति जलाकर रह सकते हैं । जो मंदिर के पास ही हैं । पुजारी जी की बात जीजी माता को उचित लगे। उन्होंने अपने हाथ में पकङी छड़ी ( सोहन चिटिया ) सामने वाली चटटान के लगाई तो चटटान अपने आप सरकी और एक गुफा बन गई , उसी गुफा में जीजी माता ने अपने हाथ से एक ज्योत जलाई और उस गुफा में कायम की । हवा तेज होने के बावजूद भी ज्योति जलती रही । जलती ज्योति के ऊपर काजल न आकर केसर पङने लगा । यह चमत्कार देख पुजारी को पक्का विश्वास हो गया कि यह कोई साधारण नारी नही हे । साक्षात नवदुर्गा का रुप हे । फिर पुजारी जीजी माता के चरणों मे गिर कर निवेदन करने लगा कि हे मां अब आप इसी गुफा मे विराजमान होकर हमें दर्शनों से कृतार्थ करें । जीजी माता उस गुफा मे तपस्या करने लगे । लोगों को ज्यों ज्यों इस बात की खबर मिलती तो भारी संख्या मे जीजी के दर्शन करने आने लगे । रात दिन मेला भरा रहता । जीजी माता लोगों को धार्मिक उपदेश देते । ओर दीन दुखियों का दुख दुर करते । एक दिन पुजारी जी ने जीजी माता से निवेदन किया की हे माहेश्वरी आपका क्या धर्म व नियम हे , कृपया कर हमें बतावे ।  पुजारी जी की श्रध्दा देख जीजी माता ने कहा पुजारी जी ‘ जोत केसर मेरा रुप हे इसे पहले आप आसापुरी धुम से पुजा करना तथा सदा व्रत मीठा भोजन का प्रथम कांसा ( भोग ) लगाना । यही मेरा धर्म व नियम हे । इतनी बात सुन पुजारी जी नतमस्तक हुये । जिस स्थान पर पहाङ की तलहटी मे जीजी माता ने अपने बेल को बांधा था। उस खुंटे का नाम खुटिया बाबजी रखा वो खुंटा आज भी पूजा जाता है जो कि नारलाई में सीरवी जाति के पङियार गोत्र की गवाड़ी में मौजूद हैं । आई भक्त डोराबन्द आज भी उस खुंटे की पूजा करते हैं । बच्चों के झङोले उतारते हैं और शादी के अवसर पर खुटिंया बाबजी की जात देते हैं । पहाङी पर बनी गुफा में मंदिर बना दिया गया । जहां पर आज तक अखंड ज्योति जलती हैं । लोगों का आज भी तीर्थ स्थल बना हुआ है अखंड ज्योति पर केसर पड़ता है ।

 

जीजी माता को तो मारवाड़ में बीलपुर आना था तो कुछ समय नारलाई में रहने के बाद अपने पोटियो पर सामान लादकर मारवाड़ के लिए प्रस्थान किया नारलाई से रवाना होकर आगे चलते हुए जीजी माता एक दिन भरी दोपहरी में गांव डायलाणा के पास पहुंचे धूप तेज थी कुछ थकावट महसूस कर थोड़ा विश्राम करने का विचार किया लेकिन आस-पास नहीं छायादार पेड़ नजर नहीं आया । पास ही एक खेत में किसान हल चला रहे थे । यह खेत डायलाना गांव से पूर्व दिशा में साधारण नामक बेरे का था । जीजी माता वृध्द जर्जर रूप धारण कर उन किसानों के पास पहुंचे और बड़े प्रेम से कहा भाइयों मैं वृद्ध हूं और काफी थक गई हूं । थोड़ा विश्राम करना चाहती हूं । मेरे लिए थोड़ी छाया कर दो तो मैं आराम करूं । और मेरा यह बुड्ढा बेल प्यासा है इसे भी कहीं से लाकर थोड़ा पानी पिला दो । जीजी माता की बात सुन किसानों ने सोचा बुढ़िया है बेचारी थकी मांदी हैं । इस पर किसानों ने कहा कि इस वर्ष वर्षा नहीं होने से आसपास पानी सूख गया है ‌। भला तुम्हारे बैल को पानी कहां से पिलावे । पास में जो नदी है वह भी सूखी पड़ी है । किसानों की बात सुनकर जीजी माता ने कहा भाइयों मुझे उस नदी में एक खादरा ( खड्डा ) पानी से भरा दिखाई देता है । जरा वहां से पानी पिला दो । किसानों ने कहा बुड़िया तुम्हें दिखाई कम पड़ता है यहां पर तो आस पास पानी नहीं है । ज्यादा कहने पर दो किसान नदी पर जाकर क्या देखते हैं कि नदी के बीच एक खडडा स्वच्छ जल से भरा है किसानों को आश्चर्य हुआ उन्होंने सोचा कि यह बुङिया कोई जादूगरनी यां प्रेतनी है यह सोचकर बैल को पानी तथा जीजी माता के लिए अपना हल खड़ा कर उस पर घास डाल कर छाया कर दी । जिस हल को खड़ा किया था उसमें जुए की सिवल राईण की लकड़ी थी ‌। जीजी माता ने अपने बैल को बांधकर उस हल से बनाई छाया में विश्राम करने हेतु सो गई । जब शाम हुई तो किसान अपने घरों को जाने लगे , तब जीजी माता से कहा कि तुम गांव में चलना चाहो तो चलो यहां रातभर अकेली कैसी रहेगी । इस पर जीजी माता ने कहा कि भाइयों तुम जाओ मैं बुड्ढी यही रात बिता दूंगी ‌। इस पर किसान चले गए । सुबह जब किसानो ने गांव वालों को बताया कि एक जादूगरनी बुढ़िया हमारे खेत में रात को रही थी । उसने हमें नदी में पानी बताया था । ‌यह सुन गांव वाले उत्सुकता से दौड़े-दौड़े साधारण बेरे के खेत में पहुंचे । लेकिन जीजी माता वहां से आगे प्रस्थान कर चुकी थी । गांव वालों ने वहां क्या देखा की जिस जगह हल में छाया की थी । उसी स्थान पर एक छायादार बड़ का पेड़ खड़ा है और उस बङ के पेड़ पर एक राईण का पेड़ खड़ा है । लोग अचंभित हुए और खूब पछताये कि गांव में आई देवी को पहचाने बिना रोक नहीं । लोग पीछे भी भागे लेकिन जीजी माता उन्हें नहीं मिली । जिस हल को खड़ा किया था वह बङ की लकड़ी का बना हुआ था और जुऐ राईण की लकड़ी की सिंवल लगी थी । जीजी माता द्वारा प्रगट किया हुआ बड़ का वृक्ष आज भी डायलाना गांव के पूर्व में मौजूद हैं । गांव वालों ने उस बङ वृक्ष के नीचे जीजी माता का मंदिर बनवा दिया है जो आज तक विद्यमान है । वहां पर अखंड ज्योति जलती है और ज्योति पर केसर पड़ता है । हजारों लोग आज भी दर्शनार्थ आते हैं । बच्चे के झड़ोंले उतारते हैं , विवाह पर जात दी जाती हैं । आज भी वही पर पर्चा हे । लोगों की मनोकामना पूर्ण होती है जो सच्चे मन से भक्ति करते हैं जीजी माता आज भी उनके साथ है ! उस बङ का नाम जीजीबङ हैं। डायलाना में जीजीबङ प्रगटाय कर जीजी माता ने मारवाड़ में बीलपुर आने के लिए प्रस्थान किया । रास्ते में जंगली बस्तियों से होते हुए एक दिन सवेरे सूर्योदय के समय जीजी माता अपने बैल के साथ गांव भेसाना के पास से गुजर रहे थे । उसी समय ग्राम भैसाना का एक ग्वाला अपनी भैंस को लेकर गांव के पास बने तालाब की ओर जा रहा था । ग्राम भैसाना में उस ग्वाले से सब लोग डरते थे । ग्वाला अपनी भेसों को हर एक के खेत में डाल देता , मना करने पर हर किसी से झगड़ा करता और मारपीट करता । ग्वाले के अत्याचार से ग्रामीण बहुत दुखी थे । जब ग्वाले ने जीजी माता को आते देखा तो बोला ऐ बुङिया सुबह-सुबह कहा सामने आ गी । मेरी भेसियों को चमकायेगी ‌। ग्वाले की बात पर जीजी माता ने कोई ध्यान नहीं दिया और अपनी धुन में चलती रही। ग्वाले को गुस्सा आ गया और जीजी माता को ललकार कर उन्हें मारने के लिए इधर-उधर पत्थर ढूंढने लगा । ग्वाले को पत्थर ढूंढते देख जीजी माता ने कहा ‘ तुम्हें पत्थर चाहिए तो पीछे मुड़कर तालाब की ओर देख बहुत बड़े-बड़े पत्थर पड़े हैं । उन्हें उठा ला और मुझे मार ।  ग्वाला ने गुस्से से भरा तालाब की ओर मुड़ कर देखा तो दंग रह गया कि उसकी सारी भैंसे पत्थर बन गई जो तालाब में खड़ी थी । यह लीला देखते ही ग्वाले को होश आया और जीजी माता के चरणों में गिर पड़ा । खूब अनुनय-विनय की माफी मांगी । इसपर जीजी माता ने कहा कि तू गांव वालों के साथ जैसा अत्याचार करता है उसका वैसा ही फल तुझे मिल गया । अब तेरे पास ना तो भेंसे रहेगी और नहीं तु गांव वालों के खेत उजाड़ेगा । तू अब भक्ति में मन लगा जिससे तेरा कल्याण होगा । उसी दिन से ग्वाले ने वही पर एक छोटा सा मंदिर बनाया और भक्ति करने लगा ।

भेसाणे के ग्वाले से गांव वालों को मुक्ति दिलाकर जीजी माता ने आगे प्रस्थान किया ।  चलते चलते जब गांव सहबाज और बगड़ी के बीच पहुंची तो एक पेड़ की छाया में बैठकर थोड़ा विश्राम करने लगी । उसी समय सहवाज के एक बेरे की माली जाति कि एक औरत सिर पर साग सब्जी की टोकरी लेकर गांव बगड़ी में बेचने जा रही थी । जब वह औरत जीजी माता के पास से गुजरी तो जीजी माता ने कहा बहन तेरी टोकरी में क्या है और कहां जा रही है। जीजी माता की बात सुनकर उस औरत ने कहा मेरी टोकरी मे पालके , बथवा आदि हैं और मैं गांव बगड़ी में इसे भी इसे बेचने जा रही हूं । यह सुन जीजी माता ने कहा अपनी टोकरी के पालक , बथवा मेरे बैल को डाल दे, यह भूखा है मैं तुझे एक सोने का टका दूंगी । उस स्त्री ने सारी सब्जी बेल के सामने डाल दी तो जीजी ने सोने का टका दिया और कहा कि अब तू वापस चली जा और आईन्दा सब्जी मत बेचना अपने बेरे पर ही खेती-बाड़ी करना । खूब अच्छी फसल होगी और तुम्हारा परिवार धन-धान्य से परिपूर्ण होगा । इतना सुन वह स्त्री वापिस अपने बेरे ( घर ) पर चली गी । और जीजी माता वही आराम करने लगी ।
जब वह ओरत अपने घर पहुंची तो दिन काफी शेष था उस औरत ने सोचा कि दिन बहुत बड़ा है क्यों ना टोकरी भर कर  सब्जी बेच आऊ ‌। उस बुढ़िया ने मना किया तो क्या हुआ ऐसे तो बहुत आते रहते हैं ‌‌। यह विचार कर अपनी टोकरी भर कर रवाना हुई । रास्ते में जब उसी जगह पर आई तो जीजी माता को वहीं बैठे देखा । तो झट अपने पल्लु से ओट कर कुछ दूरी से आगे निकलने लगी । उसी समय जीजी माता ने आवाज देकर उसे पास बुलाया और कहा कि तूने मेरी बात नहीं मानी तुझे लालच ने अंधा बना दिया है । जो जैसी तेरी भावना है वैसी ही जिंदगी जीयेगी । रोज जाकर साग बेचना और धान लाना उससे परिवार पालना ( रोज लाना ओर खाना ) इससे आगे बढ़ोतरी नहीं होगी । यह वरदान देकर जीजी माता ने आगे प्रस्थान किया । वह स्त्री बहुत पछताई । जब गांव वालों को इस बात की खबर हुई तो सब दौड़े-दौड़े आये । लेकिन जीजी माता  तो वहां से आगे निकल चुकी थी । लोगों ने उस स्थान पर जीजी माता का छोटा मंदिर बना दिया जो आज भी मौजूद है। उसी दिन से उस माली जाति परिवार वाले रोज लाते व खाते हे । दूसरी जातियों के लोग काफी धनी व संपन्न हो गए । लेकिन 500 वर्ष बीतने पर भी सहवाज के मालियों की हालत नहीं सुधरी । संवत 2008 में गांव वालों को जीजी माता के दिए हुए वरदान की याद आई तो सब इकट्टे होकर गांव में माता का मंदिर बनवाया । अखंड ज्योति की और आई माता की भक्ति करने लगे । संवत 2008 के बाद मालियों की माली हालत में काफी सुधार हुआ । आज सहवाज के माली खुब साधन सम्पन हे । यह आई माता का इस कलयुग में प्रत्यक्ष परचा हे । सहवाज से आगे चलते चलते सोजत होते हुए सुकड़ी नदी के किनारे किनारे चल रहे थे। रास्ते में नदी के किनारे एक सीरवी जिसका नाम बीला था उसकी ढाणी आई । बीला ईश्वर भक्त था । अतिथि सत्कार में हमेशा अग्रणी रहता था । जब जीजी माता बीला की ढाणी के पास पहुंचे तो बीला ने प्रणाम कर बङे आदर‌ से अपनी ढाणी के आंगन में बैठाया और बैल को घास डाल दिया । बीला की पत्नी भी धार्मिक प्रवृत्ति की थी वो भी हाथ जोड़ पास बैठ गी । जीजी माता उन दोनों की भक्ति से बहुत खुश हुई और वरदान दिया कि बीला री ढाणी खुब बढ़ेगी तेरे परिवार में किसी बात की कमी नहीं रहेगी । धन धान्य से कोठियां भरी रहेगी तेरा नाम अमर रहेगा । जीजी माता के दिये आशीर्वाद से बीला की ढाणी बढ़कर उनके नाम पर आज बिलावास गांव आबाद हैं । बीला का नाम आज भी अमर है। वहां चलते हुए गांव खारिया नीवं होते हुये बीलपुर के नजदीक पहुंचे और आराम करने लगे । बीलपुर के दक्षिण में करीब 8 किलोमीटर पर विश्राम करने लगे । जीजी माता को देख आसपास गायें चराते हुए बच्चे पास आकर बैठ गए और बातें करने लगे । जीजी माता ने बच्चों को प्रसाद दिया । बच्चे भी अपनी दिवङी में पानी भर कर लाये और जीजी माता को पिलाया । उन दिनों वर्षा का मौसम था । भादरवा का महीना था । उसी समय आकाश में बादल घिर गए और जोरदार गरजना के साथ बरसने लगे । इतना पानी बरसा कि आसपास खुब पानी भर गया । बच्चे घबराए और जीजी माता से कहने लगे मांजी हमें बचाओ हम डूब जाएंगे । इतने में जीजी माता ने अपने पांव की जूती खोलकर उल्टी कि जिससे गिरी हुई रेत से एक बड़ा टिला बन गया । सब बच्चे अपनी गायों के साथ उस टिले पर चढ़ गये । शाम ढल गई । जब बच्चे घर नहीं पहुंचे तो उनके पिता उन्हें ढूंढते-ढूंढते वहीं आ पहुंचे । वहां की रचना देखकर लोग जीजी माता के चरणों में गिर पड़े । आज भी वह पाल ( टिला ) मौजूद है । जिसे जीजी माता की पाल कहते हैं । आजकल वहां जीजी माता का मंदिर बना हुआ है ।

 

जीजी पाल प्रगटाय कर आगे जीजी माता बीलपुर के पास नगाजी हाम्बङ की ढाणी में पधारे । नगाजी का छोटा बेटा बीला था जो बड़ा अत्याचारी था । लोगों को खूब लुटता था । लोगों से पैसों का भारी ब्याज वसूल करता था । साधु-संतों को कभी दान नहीं दिया। जीजी माता ने उससे कहा बेटा रात होने वाली है । मैं आगे नहीं जा सकती सो आज रात मुझे तेरी ढाणी में ठहरने दे । धन के घमण्ड मे चुर बीलाजी हाम्बङ ने कहा ऐ जोगणी जा भाग जा यहा से, यहा जगह नही हे । कहीं मेरे बच्चों को डरायेगी । मेरी गाये भेसिये देखकर बिदकेगी । तू अब यहां से हट जा और कहीं जा कर रह । बीलाजी की बात सुनकर जीजी माता ने कहा कि तू धन के कारण अंधा हो रहा है । लेकिन तेरा सारा दिन चोर ले जायेंगे । गाये चोर ले जायेंगे । भैंसियों के पत्थर हो जाएंगे और तेरे बेटे पत्थर की डांग बन जाएंगे, तेरी बहूवें विलाप करेंगी । इतना कहकर जीजी माता वहां से रवाना हुए । बीलाजी ने कहा जा तेरी जैसी बहुत आती है । लेकिन जीजी माता बिना बोले चल दिए । जीजी माता ने गांव बीलपुर में राठौड़ जाणोजी की गवाड़ी के सामने जाकर आवाज दी की माधव री मां बाहर आ । जाणोजी की पत्नी अपने पुत्र का नाम पुकारने पर झट बाहर आई और जीजी माता को प्रणाम कर घर के अंदर ले गयी ।( जाणोजी राठौड़ जोधपुर महाराजा राव जोधाजी के पुत्र भारमलजी के मंत्री थे जो कि बीरपुर में भारमलजी के जागीर को देख-रेख हेतु सम्वत् 1517 के माह वद 2 का  जाणोजी बिलपुर में आए थे ।) जाणोजी और उनकी पत्नी ने जीजी माता की खूब आवभगत की गवाड़ी के बागर एक नीम के पेड़ से पोठिये ( बेल ) को बांध दिया । जीजी माता संवत 1521 के भादरवा सुद बीज शनिवार को जाणोजी की गवाड़ी में पधारे थे । और घास फूस की झोपड़ी बनाकर उसी में भक्ति करने लगे । उस स्थान पर आज दिन झोपड़ी मौजूद हैं । और जहां पर बांधा था उस जगह एक नीम के नीचे आला बनाकर मंदिर बना हुआ है । उसी दिन जब जीजी माता बिलपुर पधारे तो लोग उन्हें ‘आईमाता’ के नाम से पुकारने लगे । अब आई माता राठौड़ जाणोजी की गवाड़ी में झोपड़ी मे  अपनी तपस्या करने लगे । इधर हाम्बङ बीला को दिये श्राप के कारण बीला का धन चोरों ने चुरा लिया । गाये चोर ले गये । भेंसिया के पत्थर बन गये । पुत्र भी पत्थरों की डांगे बन गये । घर में भूख तांडव नृत्य करने लगी । बीला के पुत्र जो पत्थर की डांग बन गए थे वे आज भी पत्थर के बने हैं खड़े हैं । जिससे एक पत्थर बिलाड़ा के राजकीय महिला विद्यालय के पास खारड़ा कुए पर खड़ा है । जिन्हें हांबङ जाती ( सीरवी ) की औरतें आज भी घूंघट निकाल कर सम्मान देती है । बीला हांबङ के एक पुत्री जिसका नाम सोढी था वह धर्मात्मा व बड़ी समझदार थी । घर की यह दशा देखकर सोढी ने अपने पिता बीलाजी से कहा कि आपने एक देवी का अपमान किया है । उसी के श्राप से यह दुर्दशा हुई है । अब उस देवी ( आई माता ) के चरणों में गिर कर माफी मांगो और अपने आचरण को सुधारो तो आई माता आपको माफ कर सकती हैं । पुत्री की बात सुन नगाजी, बीलाजी व उनकी पुत्री सोढी तीनों आई माता के पास राठौड़ जाणोजी की गवाङी पहुंचे और आई माता के चरणों में गिर कर माफी मांगने लगे । तब आई माता ने कहा कि तुम धन के मद में इतने गिर गए कि अपनी करतूतों से अपना ही सर्वनाश कर दिया । अब भविष्य से अपना आचरण सुधारो । मेरा दिया हुआ श्राप तो तुम्हें बोलना ही पड़ेगा । तुम्हारे राक्षसी प्रवृती के घर में तुम्हारी लड़की सोढी समझदार व धर्मात्मा है । उसी के कारण मैं तुम्हें मेरी कोटवाली का पद देती हूं । आज से मेरी कोटवाली हांबङ परिवार ही करेगा । तथा सोढी अब सेवा में यही रहेगी । उस दिन से आज तक आई माता की कोटवाली हांबङ जाति के ही करते हैं । नगाजी व बीलाजी तो वापस अपने घर चले गए और उनकी पुत्री सोढी वही आई माता के पास रह गई और रात दिन आई माता की सेवा में रहती । इधर जाणोजी व उनकी पत्नी भी आई माता की सेवा करते व भक्ति भाव में लीन रहने लगे । लेकिन उनके मन में रात दिन एक दुख खटकता रहता था कि उनका पुत्र माधव 12 वर्ष की उम्र में घर छोड़कर चला गया था । उसका कोई अता पता नहीं चल रहा था । एक दिन दोनों पति-पत्नी ने आई माता से निवेदन किया की जगत जननी आप किसी तरह हमारे पुत्र माधव को वापस लाकर हमारा बुढापा सुधार दो । आप सर्वव्यापी हैं । आपसे कुछ छुपा नहीं है । जाणोजी व उनकी पत्नी की बात सुनकर आईमाता ने कहां चिंता करने की कोई बात नहीं हे । माधव कुशल है और जल्दी मैं उसे बुला दूंगी । जाणोजी ने जानना चाहा कि माधव कहां और किस हाल में है तो आई माता ने ध्यान लगाकर पूरा वृतांत इस प्रकार सुनाएं – माधव घर से निकल कर कहीं स्थानों पर घूमता फिरता मालवा के रामपुरा नामक स्थान पर पहुंचा । उस समय रामपुरा पर राव शिवा शासन करते थे ‌। रामपुरा में तेरहवीं शताब्दी से उदयपुर के चंद्रावत सिसोदिया का अधिकार था । तेरहवीं शताब्दी में सिसोदा गांव के चंद्रसिंह के पुत्र भवनसिंह ने रामपुरा क्षेत्र पर अपना अधिकार जमाया था ‌। रामपुरा के शासन को राव की पदवी मिली हुई थी । उन्हीं के वंशज संवत 1500 राव शिवा रामपुरा के शासक थे । माधव सीधा राव शिवा के पास पहुंचा । राव शिवा ने माधव को होनहार जानकर अपनी सेना में उच्च पद पर नियुक्त कर दिया । एक बार युद्ध में माधव ने अपनी वीरता से दुश्मन के दांत खट्टे कर दिए । जिससे खुश होकर राव शिवा ने माधव को अपनी सेना का सेनापति नियुक्त कर दिया । साथ ही 3 गांव आमद , हासलपुर और अल्हेड़ की जागीर भी माधव को दे दी । तथा अपने खास उमराव बना दिया । इतना सुनते ही जाणोजी ने निवेदन किया कि है मातेश्वरी अब कृपा करके शीघ्र माधव को बुलवा दीजिए । आई माता ने कहा आप चिंता ना करें माधव शीघ्र आने वाला है । यह कहकर एक कच्चे धागे से बना ईग्यारह धागे का डोरा जाणोजी की पत्नी को दिया और कहा कि रोज सुबह स्नान करके पूजा पाठ कर इस डोरे के एक गांठ लगाती रहना। माधव आवे तब तक गांठ लगाती रहना ।

 

डोरा देकर आई माता अपना दूसरा रूप धारण करके रामपुरा पहुंची । रामपुरा के बाहर एक निर्जन कुए पर अपना चीर ओढा कर अधर आसन बनाया और आप स्वयं बाल बिखेर कर अत्यंत  वृध्द विकराल रुप धारण कर उस अधर आसन पर विराजमान हो गयी । यह रचना देखकर ग्रामीण भयभीत हो गए । ( उधर महलों में राव शिवा रात को पलंग पर से नीचे गिर पड़ा ) और सामने विकराल रूप में अम्बा को देखा । थोड़ी देर बाद मां अलोप हो गये । शिवा खूब घबरा गया । इधर ग्रामीण घबराए हुए रावजी के पास पहुंचे और सारा हाल कह सुनाया । उसी समय राव शिवा ग्रामीणों के साथ नंगे पांव दोड़ा दोड़ा उस कुएं पर आया और आई माता के चरणों में गिरकर प्रार्थना करने लगा हे ! देवी मुझसे क्या अपराध हुआ हे जो आप इतना विकराल रुप धारण कर यहां विराजमान है । शिवा की बात सुन आई माता ने शिवा से का कि तुम्हारे यहां माधव रहता है उसे इसी समय मेरे साथ वापिस अपने माता पिता के पास भेज दे । राव शिवा ने उसी समय माधव को बुलाकर सारा वृत्तांत सुनाया और उसे बीलपुर जाने को कहा । इस पर आई माता तो अंतर ध्यान हो गई और माधव ने बिलपुर के लिए प्रस्थान किया । इधर जाणोजी की पत्नी आई माता के दिए डोरे में रोज एक गांठ लगाती रही । जब उस डोरे के ग्यारहवीं गांठ लगाई तो सामने माधव खड़ा पाया । माधव ने माता-पिता को प्रणाम किया और आई माता के चरणों में शीश नवाया । तब आई माता ने वह 11 धागे का 11 गांठ लगा डोरा माधव के दाहिने हाथ मे बांधा और कहा कि यह मेरे धर्म का डोरा है । जो मेरे अनुयायी होंगे वे डोराबन्द कहलायेंगे । आदमी के दाहिने हाथ और औरत के गले में 11तारे ग्यारह गांठ का डोरा बंधा होगा । डोराबन्ध आईपंथी कहलायेंगे । उसी दिन से आई पंथ चला । आज लाखों की संख्या में आईपंथी डोराबन्द पूरे भारत हे । माधवजी ने आई पंथ  के अनेक अनुयायी बनाये जिसमे सभी जाति के लोग हैं । ऊंच नीच का कोई भेदभाव नहीं है‌। हर जाति का चाहे वह अनुसुचित जाती है । हर एक आई माता के मंदिर में बेरोक टोक जा सकते हैं और डोराबन्द भी हे

फिर आई माता ने डोरे का भेद बताया! काकंण कांचो सुत रो, तार ईग्यारह ताम ।
गांठ ईग्यारह फावता, बान्धिजे गुरु नाम ।। हाथ जीमणे पुरुष रे , स्त्री गले अनुप ।
हनुमान अवतार जस , अति हति चित चुप । । डोरो आई माता रो, साजे बान्धे सोय ।
मन चाह्रा कारज सरे , विघन न व्यापे कोय । । भुत प्रेत जख्य डाकणी, देव पितर कोई दोश ।
डोरो बान्धो मात रो , जम करे नही जोश । मिले अपुत्रा पुत्र बहु, निर्धनिया धन माल । कोढ कलंक सारा टले, सही टले जमसाल । ।

 

डोरे का भेद बताय आई माता ने माधव से कहा कि अब तुम मेरे शिष्य हो और मेरे पंथ का प्रचार कर डोराबंद बनाओ और किसी जाति से भेदभाव मत करना । साथ ही डोरे के 11 नियम भी बताएं ।

बे – बेटी ने परणाजो , पयेसो लेजो मत एक ।
ल – लक्ष्मी थारे घणो बढला , विचार राखजो नेक ।
के – केणो करजो गुरों रो , मारग बताया प्रमाण ।
ई – इतरो ध्यान सदाई राखो , पर नारी मां जाण ।।
ग् – ग्यानी सुं लेजो ज्ञान , करो अतिथि रो सम्मान ।
या – यातना मत देवो किणी ने , देता रेवो दान । ।
र – रक्षा करजो जीवों री , हिंसा सुं रो दुर ।
ह – हर दम ध्यान धरो आई रो , कण मुंठ नित पुर ‌। ।
नि – निंदा किणी धर्म री मद , करजो दिल माय । ।
य – यदा कदा झुठ मत बोलो , चोरी जारी छिटकाय ।
म – मत छोङो धर्म रो मारग , केणो दिवाण रो मान ।।

साथ में यह भी कहा कि इस पवित्र डोरे को हर दम बांधे रखना । यदि टूट जाए तो उसी समय दूसरा बांध देना । इसका नाम बैल रखा गया । इस प्रकार माधवजी हर जाति के लोगों को डोराबंद बनाने लगे । कई लोग आई माता के धर्म को मानने लगे और आई माता के अनुयायी बन गए । एक बार वर्षा होने पर आई माता ने माधव से कहा की वर्षा हो गई है जाकर खेतों में बुवाई करो । थोड़ी ज्वार मेरे बैल के चारे के लिए भी बो देना । तुम अपने आदमियों को हल लेकर खेत में जावों । मैं तुम्हारे लिए दोपहरी का खाना लेकर आ‌ जाऊंगी । आई माता की बात सुनकर माधव जी 15-20 आदमियों को हलों के साथ लेकर बीलपुर गांव के दक्षिण में ( जहा आजकल बेरा बङा अरट है ) खेत में हल जोतने चले गये । दोपहर में आई माता एक छोटी सी टोकरी में रोटियां ओर एक छोटे बर्तन में पानी लेकर खेत में गये । खेत मे मेङ पर एक पेड़ की छाया में बैठकर सबको आवाज दी की सब आकर दोपहरी करलो । सब लोग हल छोड़कर आई माता के पास आकर बैठ गए । इस पर माधवजी ने कहा कि हे मां आप इस छोटी टोकरी में एक आदमी के लिए रोटियां लाई भला 15-20 आदमी को क्या खिलाओगी । इस पर आई माता ने कहा तुम सब बैठो मैं तुम्हें दोपहरी कराती हूं ‌ तब सब आदमी बैठ गए ‌। आई माता ने सबको टोकरी से रोटियां निकाल कर खिलाती रही । सब ने खूब आराम से पेट भर भोजन किया । यह देखकर सब आदमी हैरान रह गए और आई माता के चरणों में गिरकर वंदना करने लगे । शाम को सब अपने-अपने घर आ गये । उन्हीं दिनों मेवाड़ में राणा कुंभा शासन करते थे राणा कुंभा के दो पुत्र थे । एक का नाम उदयसिंह ( उदल ) ओर दूसरे का नाम रायमल था । उदयसिंह वीर तथा घमंडी था उसे हर समय मेवाड़ के शासन की लालसा रहती थी । लेकिन परंपरा अनुसार कुंभा के जीते जी उदयसिंह शासन का अधिकारी नहीं बन सकता था । इस पर उसने विचार किया कि यदि अपने पिता को मार दिया जाए तो शासन की बागडोर हाथ में आ सकती हैं । एक रात अपने 8 आदमियों के साथ सोये हुए कुंभा पर हमला कर दिया कुम्भां तो अपरबली था । झट जाग गया और आठों आदमियों को मार दिया । और उदय को पुत्र जान छोड़ दिया । उस समय रायमल अपने महलों में सोया हुआ था । उसे इस कांड का पता नहीं पता नहीं था । कुंम्भा ने उसी समय रायमल को बुलाया और पूछा तो रायमल ने अपनी अनभिज्ञता प्रकट की लेकिन कुंम्भा को विश्वास नहीं आया और कहा मुझे तुझ पर भरोसा नही था‌। तू मुझे मुंह दिखाने लायक भी नहीं रहा मेरी आज्ञा हे ” तू मेरे राज्य से बाहर चला जा । ” रायमल तो सीधा साधा था अपने पिता की आज्ञा अनुसार मेवाड़ से चला गया । और इधर-उधर फिरने लगा । फिरते – फिरते से फिर एक दिन सोजत शहर में आया । सोजत में रायमल ने बीलपुर में आई माता के चमत्कारों के बारे में सुना तो झट वहां से आई माता के पास जाकर चरणों में शीश नवाया और रात दिन आई माता की सेवा करने लगा । रायमल ने आई माता को अपना दुख सुनाया ‌‌। आई माता रायमल की सेवा भक्ति से खुश होकर एक दिन वरदान दिया कि ‘ रायमल जा तुझे मेवाड़ का राज दिया ‘ लेकिन पहले एक माह मेड़ता शहर में जाकर रहना होगा । इतना वरदान सुन रायमल मेड़ता में रहने के लिए रवाना हुआ । और मेड़ता जाकर निवास किया

छप्पय
राणा या रायमल , मात सुख हुंता दक्खे ।
त्यारीकी तसलीम , वचन वन्दिये परक्खे । ।
पाट कठे मुझनू , अरज कुँवर गुदराई । ‌।
तो दिधो चितोङ एम , मुख अक्ख आई । ‌‌।
उन्ही दिनों मे मेवाङ के राणा कुंम्भा का देहांत हो गया । अब मेवाड़ की गद्दी पर बैठाने के लिए मंत्री ने रायमल को मेड़ता कागज भेजा ।

छप्पय
कागल ले काशीद , जाय मेङते सपत्रो ।
धर प्यारी तुं धणी , पिता बेकुण्ड पोहतो । ।
रायमल ता अस चढे , मात घोङे फिर आयो ।
राज तणो प्रताप , पाट पित हन्दो पायो । ।
हव राण साथ महारे चलो , इण विध सु किधा अरज ।
फिर मात कहे मल कुँवर नुतु जाय भोगो पित रज । ।
आई रो सुण वचन , कुँवर कुम्भ गिर सिधायो ।
हरख धमस बहु हुआ , पाट पित हन्दो पायो । ।
आई सुं अरज गामं , दस माहरा लीजे ।
रायमल कहे मात , वास मेवाङ करीजे । ।

कागज मिलते ही रायमल मेङता से रवाना होकर पहले बीलपुर आकर आई माता के चरणों में शीश नवाया । आई माता ने आशीर्वाद दिया कि जावो और मेवाड़ का राज करो । रायमल ने आई माता से निवेदन किया कि है मातेश्वरी आप मेरे साथ मेवाड़ में चल कर वास करो । और मैं आपको 10 गांव भेंट करता हूं । इस पर आई माता ने कहा मुझे गांव लेकर क्या करना है । तो भी रायमल ने अपने राज्य मेवाड़ के गांव डायलाना में 50 बीघा जमीन धूप दीप के खर्चे हेतू भेंट की साथ ही यह प्रतिज्ञा की कि मेरे वंश में जो मेवाड़ की गद्दी पर बैठेगा वो 50 बीघा जमीन आपको भेंट चढायेगा ।

होसी आई पाट जको , कमधज अवतारी ।
बीघा घर पचास , राण देसी छत्रधारी । ।
वले बङी मोहताद , राणा लिख अवचल ढप्पे ।
पडहर जाता तरण , गांव डायलाणे ढप्पे । ।
मोहताद बीघा पचास री , कीधी पीढी वृत करे ।
धन न दे तको कुपुत्र घर , इम राणा रायमल उच्चरे । ।

इसके बाद रायमल मेवाड़ पहुंचा और मेवाड़ की गद्दी पर बैठते ही पहले 50 बीघा जमीन ग्राम डायलाना में आई माता को भेंट कि । उस समय मैं जो भी राणा मेवाड़ की गद्दी पर बैठे । सबने 50 बीघा जमीन भेंट कि । इधर माधव जी रात दिन आई माता की सेवा करते थे । साथ ही बीलाजी हांबङ की बेटी सोढी भी सेवा करती थी । एक दिन आई माता ने सोचा कि क्यों ना सोढी का विवाह माधव से कर दिया जाए । यह सोचकर माधव से कहा कि तुम्हारा विवाह सोढी के साथ करना चाहती हूं । तुम्हारी क्या मर्जी है । इस पर माधवजी ने हाथ जोड़कर निवेदन किया कि हे ! मातेश्वरी मेरा विवाह तो रामपुरा में सोढी जाति की स्त्री के साथ हो चुका है अब मैं विवाह कैसे कर सकता हूं । और सोढी भी जाति कि सीरवी और मैं राजपूत भला विवाह कैसे होगा । इस पर आई माता ने माधव को समझाया कि सोढी सुलक्षणी है । और सीरवी भी राजपूत ही है तु संशय मत कर । इनमें तु भेद-भाव मत जान ।

कुल उत्पत तोने कहु , सुन माधव चितधार ।
विप्र आदि च्यारु वरण , स्वधाता संसार । ।
क्षत्री कुल में प्रगटना , धरा थम्म रनधीर ।
यामें भेद न जानिये , जुध स्वारथी बडवीर । ।
सोवनगढ़ सिर कोप किये , अलाउद्दीन सुयताण ।
रजपुता सांका किया , बिखो भयो रा जाण । ।
भाज गया केता भिड , अमल किये असुआय ।
छोङ धरा जालोर दिश , मरुधर बसे जु आय ‌। ।
सकटी जोते सांत सो , सरिता लुणी आय ।
सीर करे हल हासियो , खेती अन्न निपजाय । ।
बङ सारना सोहङ बङे , शुरवीर दातार ।
सीर कियो तव सीरवी , स‌ऊ दाखे संसार । ‌।

:: दोहा ::
असल जात क्षित भुज सदा , मैं समझाऊं तोहि।
अन्तर इनसे जिन करो , सगत भगत जे होहि । ।

पुस्तक :- श्री आई माताजी  का इतिहास

लेखक एवम् प्रकाशक :- सीरवी नारायणराम लेरचा

बड़ेर  बिलाडा राजस्थान

 


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