(1) प्रथम झूठ तजो सुख पाई।

संत पुरुषों ने कहा है – जो झूठा निर्णय देता है वह राजा नगर में कैद होकर बाहरी दरवाजे पर भूख का कष्ट उठाता हुआ बहुत-से शत्रुओं को देखता है। झूठ बोलने वाला -पशु के लिए झूठ बोलने से पांच पीढ़ियों को, गौ माता के लिए झूठ बोलने पर दस पीढ़ियों को घोड़े के लिए असत्य भाषण करने पर सौ पीढ़ियों को और मनुष्य के लिए झूठ बोलने पर एक हजार पीढ़ियों को नरक में ढकेलता है। सोने के लिए झूठ बोलने वाला भूत और भविष्य सभी पीढ़ियों को नरक में गिराता है। पृथ्वी तथा स्त्री के लिए झूठ कहने वाला तो अपना सर्वनाश ही कर लेता है। इसलिए तुम भूमि या स्त्री के लिए कभी झूठ न बोलना झूठे मनुष्य को सब जगह निरादर होता है और वह संसार में दु:ख को ही प्राप्त होता है। श्री आई माताजी ने कहा- प्रथम झूठ तजो सुख पाई।

2) दूजो तो मद मांस छुड़ाई।

संत पुरुषों ने कहा है – मद्य पीने वालों का यश और बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। यह तो स्पष्ट है कि इस पीने ने,इस पाव भर की बोतल ने लाखों-करोड़ों को डुबो दिया है। शराबी बाप भी वह कभी नहीं चाहता कि उसकी स्नतान शराब पिये। इसका कारण क्या है? शराब से होने वाली बर्बादी की अनुभूति। नशेबाज का परिवार बिखर जाता है व्यापार चौपट हो जाता है। नशेबाज की कहीं भी इज्जत नहीं होती। उसकी बात का कोई विश्वास नहीं करता। इसकी सच्ची बात भी बकवास समझी जाती हैं। इसलिए किसी कचहरी से नशेबाज की गवाही या साक्ष्य नहीं मानी जाती। प्राय: आइए दिन पढ़ते-सुनते हैं शराबी पति ने पत्नी को पीटा, शराबी बाप ने बेटी की इज्जत लूटी। शराबी कहीं नालियों-सड़कों पर रहते हैं और कुत्ते उनका मुंह चाटते हैं। शराब से बुद्धि क्षीण हो जाती है, शरीर की सुंदरता और सुकुमारता नष्ट हो जाती हैं। मद्यपान से यादवों का कुल और स्वर्ग-सी द्वारिका नगरी खत्म हो गई। यदि आप जीवन की शान्ति,परिवार का सुख चैन और समाज में प्रतिष्ठा चाहते हैं तो शराब की बोतल को मत छुइए यह वह शिकारी है जो छूने पर से मनुष्य की मनुष्यता की हत्या कर देता है। श्री आईजी ने कहा- दूजो तो मद मांस छुड़ाई

(3) तीजो धन पर ब्याज न लेवो।

संत पुरुषों ने कहा है – यदि एक साथ ही सूद और मूल धन लिया जाता है तो मूल धन से अधिक ब्याज नहीं लेना चाहिए। अनाज पेड़ों के फूल, ऊन और बैल घोड़े आदि कर्ज लेने पर उनके दाम के १/४ प्रतिशत से ज्यादा ब्याज नहीं लेना चाहिए। निश्चित ब्याज को दर से से अधिक ब्याज नहीं लेना चाहिए। अधिक ब्याज लेने की कुसीद भी कहते हैं। मेहनत मजूरी के रूप में ब्याज लेना(कायिक) और कष्ट देकर ब्याज बढ़ावा देना (कारिक)- ऐसा ब्याज न लेना चाहिए। लेकिन काल समय में वरिष्ठ ने धन बढ़ाने के निमित्त जितना ब्याज देने को कहा है ब्याज पर जीने वाला उतना ही ब्याज ले। वह भूखा न रहे। लोभ को पाप का बाप कहां गया है।

(4) चौथे जुआ कभी नहीं खेलो।

संत पुरुषों ने कहा- जुए में आसक्त व्यक्ति के धन का नाश हो जाता है। जुआ चाहे छोटा हो या बड़ा, वह जहरीला कांटा ही है। जुआरी हमेशा बड़े-बड़े सपना देखता है रातों-रात लखपति करोड़पति बनने की कल्पना करता है। धीरे-धीरे उसका मानस दिवास्वप्न देखने लगता है। जुए से नल राजा और पाण्डव राजा भ्रष्ट हो गए।
जुआरी के सिर पर गरीबी की तलवार हमेशा लटकी रहती है जुए का भयानक परिणाम।

(5) पंचम माता-पिता री सेवा।

सत् पुरुषों ने कहा है- माता-पिता की सेवा पुत्र का प्रथम कर्तव्य है। माता-पिता कभी सन्तान का बुरा नहीं चाहते, इसलिए उनके इरादे की कद्र करनी चाहिए। माता के समान पूजनीय विभूति संसार में दूसरी नहीं होती। माता-पिता का उपकार का बदला अपनी चमड़ी के जूते पहनाने से भी नहीं उतरता है। उनके ऋण सन्तान जन्म भर में नहीं चूका सकती। सन्तान के लिए तो माता-पिता ही प्रथम गुरु और सर्वथा पूज्य हैं।

सुन जननी सोई सूत बड़ भागी।
जो पितु-मात चरण अनुरागी।।

माता तीरथ पिता तीरथ, खरु तीरथ ज्येष्ठ बान्धवा।
वचने वचने गुरु तीरथ, खरु तीरथ परमेश्वरा।।

माता के समान तीर्थ नहीं, माता के समान आश्रय स्थल नहीं। माता के समान कोई रक्षा करनेवाला नहीं, माता समान तृषा को छिपाने वाला कोई स्थान नहीं। माता समान कोई शीतल नहीं, माता के समान कोई छाया नहीं, माता के समान कोई हित करने वाला नहीं। माता गंगा समान तीर्थ है, पिता ये पुष्कर तीर्थ है। इसलिए माता-पिता की सतत सेवा करनी चाहिए। माता-पिता की नित्य सेवा करना उत्तम पुण्य कार्य है।

माता-पिता का वंदन करने से मानव को आयुष्य, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुण्य बल, स्त्री, पुत्र, सुख, धन और धान्य मिलते हैं। माता-पिता के समान दूसरा देव नहीं। इन्हीं कारणों से माता-पिता को हमेशा पूज्य माना जाता है। तीन लोक में माता के समान कोई बड़ा गुरु नहीं, गंगा समान कोई तीर्थ नहीं, भगवान विष्णु समान कोई प्रभु नहीं, शिव समान कोई पूजनीय नहीं।

माता सर्व तीर्थ रूप है, पिता सर्व देव रूप है। इसलिए माता-पिता की सर्व प्रयत्न से पूजा करनी चाहिए। जो माता पिता को सब तरह से संतोष देता है, वह तप और व्रत है। यही सबसे बड़ा धर्म है। माता ने कहा- पंचम माता-पिता की सेवा।

(6) छठे अभ्यागत हो सेवा।

सत् पुरुषों ने कहा है- सेवा शब्द आकार में जितना लघु (छोटा) है, उतना ही प्रकार में, प्रथम में और व्यवहार में विपरीत है। इस शब्द की गुरुता, गम्भीरता और महत्ता उसके अक्षर समूह से कही अधिक व्यापकता लिए हुए हैं। उसके माध्यम से नर और नारायण दोनों की प्राप्ति होती है।

सेवा एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमे ‘ करनेवाला और पानेवाला’ दोनों ही उपकृत होते हैं। जिसकी सेवा होती है, वह तो उपकृत होता ही है, लेकिन जो सेवा करता है उससे भी गुण अधिक उपकृत होता है। सेवा करने के बाद सेवा करनेवाले को जो आत्मिक सुख, संतोष और आनन्द की अनुभूति होती है, उसे न शब्दों में बांधा जा सकता है, न गजो या मीटरों से मापा जा सकता है और न ही जिहा से कहा जा सकता है। इससे भैतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की शांति मिलती है।

इसमें देहिक और देविक दोनों प्रकार की उन्नति सन्निहित हैं और इसके द्वारा सहयोग, सद्कार्य और सद् भाव की त्रिवेणी सुलभ हो जाती है।

समाज के कुछ वर्ग सदा से वैयक्तिक, सामाजिक और आर्थिक स्तरों पर कमजोर रहते हैं। गांवो में रहनेवाले वनवासी, हरिजन और पिछड़े कहे जाने वाले आते हैं। उनके जीवन की ऊंचा उठाने के लिए व्यक्तियों की सेवा करनी चाहिए। जीव सेवा, शिव सेवा शुद्ध ह्रदय से निकले हुए मार्गदर्शन के उद् गार कभी असर किए बिना नहीं रहते हैं। तो श्री आई माताजी ने कहा – छटे अभ्यागत हो सेवा!

(7) सात गुरु की आज्ञा पालो।

ज्ञानी सत् पुरुषों ने कहा है- गुरु के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। प्राचीन काल में राजकुमार गुरु के आश्रम में शिक्षा लेने जाते थे। गुरु के आश्रम में निवास करते हुए आश्रम में समस्त कार्य करते थे और साथ में विद्याध्ययन करके पारंगत बनते थे। कितने ही शिष्य अपने गुरु से भी ज्ञान में आगे बढ़ जाते थे। फिर भी वे सदैव गुरु की गरिमा को आँच नहीं आने देते थे।

गुरु प्रेरणा देता है, ज्ञान देता है, बुद्धि में वृद्धि करता है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र का ज्ञान प्रदान करता है।

गुरु ब्रम्हा, गुरु विष्णु, गुरु देवो महेश्वरः।
गुरु साक्षात्, पर ब्रम्हा, तस्मै श्री गुरवे नमः।।

गुरु उपदेशक है, गुरु प्रबोधक है, गुरु व्याख्याता है, गुरु की एक अनोखी परंपरा है। गुरु और शिष्य का सम्बन्ध अनोखा है।

धर्म गुरु का समाज में विशिष्ठ स्थान है। ऐसा भी कहा जाता है कि ‘गुरोराज्ञा अविचारणीया’। गुरु के वचन का पालन करना चाहिए। गुरु की बातों में संदेह नहीं करना चाहिए। गुरु के प्रत्येक वचन का पालन करनेवाला ही आर्दश शिष्य होता है। कितनी ही बार शिष्य के मन की बात गुरु जान जाता है। उसे ही सच्चा गुरु कहते हैं।  आज गुरु शिष्य के सम्बन्धों में महान परिवर्तन दिखाई देता है। प्राचीन का में शिष्य गुरु के आश्रमों में विद्याध्ययन करने जाते थे। आश्रम में प्रत्येक नियमों का पालन करते थे और गुरु का आदर-सत्कार करते थे। गुरु को गौरव प्राप्त होता था। आज सब इसके विपरीत है।

गुरु बल का प्रतिक है, ज्ञान का प्रतिक है, गुरु प्रकाश है और गुरु ही जीवन का उद्धारक तथा प्रेरक है।

मूंगा वाचा पामता, पंगु गिरी चढ़ी जाय
गुरु कृपा बल ओर है, अंध देखता थाय
जंगल मां मंगल बने, पापी बने पवित्र
ऐ अचरज नजरे तेरे, मरण बने है मित्र

कुम्भे बाध्यु जल रहे, जल बिना कुम्भ न होय
ज्ञाने बाध्यु मन रहे, गुरुबिन ज्ञान न होय
भव भ्रमण संसार दुःख ताका वार न पार
निर्लोभी सद् गुरु बिना कवण उतारे पार
क्षणों में, उदासीनता में, किसी भी समय अचानक संयोग से मिल जाते हैं। काया स्वरूप में गुरु की प्राप्ति ही शिष्य की सच्ची परीक्षा है। श्री आई माताजी ने कहा -सात गुरु की आज्ञा पालो। सद् गुरु धर्म के जान को करना।

(8) आंठो परहित मार्ग चालो।

सत् पुरुषों ने कहा है – उत्तम साधन : परोपकार। दान दो, तुम्हारे पास जो हो वह श्रद्धापूर्वक दान करो। भक्ति, साधन और सम्पति को परोपकार में लगाने का नाम दान है। इसी का नाम परहित है। पढ़े लिखे हो तो दूसरों को पढ़ाओ। धन ही तो उससे समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए सेवा करो। बुद्धि विशेष हो तो भूले भटकों को मार्ग बताओ। तालाब व कुआ खुदवाओ। दवाखाना खोलो। भूखों को अन्न दो, प्यासे को पानी दो, अनपढ़ को पढ़ाओ। पथिक को आश्रम दो। गायों का पालन करो। निराधार को अन्न-वस्त्र देकर आधार बनो। निरुद्यमी को उद्यम दो, विद्यादान करो। जहाँ तक बने सहायता करो। अभिमान छोड़कर जिन भगवान ने तुम्हे शक्ति, साधन, सम्पति प्रदान की है, वे प्राणिमात्र के ह्रदय में बसते हैं। उनकी सेवा से खर्च करके भगवान की सेवा करो और सब को प्रसन्न करो। जितना हो सके, अच्छा काम करो। बुरा काम मत करो। (श्री आई माताजी ने कहा -आंठो परहित मार्ग चालो) तुलसीदासजी ने कहा है कि

दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छोड़िए, जब लगि घट में प्राण।।

(9) नव पर नारी माता जाणो।

भक्त नरसी ने भी कहा- वैष्णव जन तो मेने कहिये, जो पीड पराई जाने रे।
पर हित सरिस धर्म नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।।

नव पर नारी माता जाणो

सत् पुरुषों ने कहा है- पर स्त्री का मतलब ही है जो आपकी नहीं है। तो जो आपकी नहीं है, उसे आप अपनी क्यों मानते है? क्यों उसके रूप-रंग पर ललचाते हैं? क्यों इसके तन का सौदा करते हो? सोचिए, जैसे आप अन्य स्त्री के प्रति आकर्षक होकर अपनी धर्मपत्नी के साथ धोखा और विश्वासघात कर रहे हैं, उसी प्रकार वह स्त्री भी तो अपने पतिदेव को धोखा देकर आपसे आँखे मिला रही हो। तो यह तो विश्वासघातियों का धोखेबाजों का मिलन नहीं हुआ क्या? राजस्थानी कहावत है- ठग ठगारे पहुणा-धूर्त धूर्त का मेहमान बनता है। यहाँ कहाँ प्रीति है, कहाँ प्रेम है, कहां सुख हैं?
पर स्त्री-गामी पुरुष अपने बुजुर्गो की नजर में कुत्ता समझा जाता है, पत्नी की नजर में वह महापापी है और अपनी सन्तान की नजर में एक नीच पिता है। पर स्त्री का प्रेम क्षणिक है। वह एक ऐसा भयानक आग है, जो परिवार की स्थाई शान्ति को जला देती है। बड़े बड़े सम्राट महाराज और धनी-मानी पर स्त्री की आँखों के जहर से नष्ट ही गए। कई मंत्रियों को बेइज्जत होकर कुर्सी छोड़नी पड़ी। कई अधिकारियों को सेवा से निकाल दिया गया। पर स्त्रीगामी पुरुष चाहे कितना भी बड़ा आदमी हो, वह स्त्री की नजर में कुत्ता, लुटेरा और नीच ही है। उसके मित्र भी उस पर विशवास नहीं करते, घर में आने नहीं देते। कहीं घर पर आ भी गया तो सभी संशकित हो जाते हैं, जैसे कोई जहरीला नाग आ गया हो। एक अनुभवी ने कहा है- पर स्त्री ऐसी फूटी नाव है जो बैठने वालो को मझधार में डुबो देती है। पर स्त्री के कारण रावण जैसे पराक्रमी भी संसार में बदनाम होकर मरा। तो इस भयंकर दुःख से बचने के लिए माताजी ने कहा- नव पर नारी माता जाण।

(10) दस कन्या को धर्म परणाओ।

श्री कृष्ण उवाच – हे अर्जुन! सोभाग्यकांक्षी कन्या को बेचनेवाला सतत् रोगी रहता है। कन्या का पैसा लेने वाले को कर्म रूपी खुजली हो जाती है, जिससे वह नरक ही भोगता रहता है। कन्या तो प्रत्येक काम में शुभ शकुन मानी जाती हैं और यह घर की लक्ष्मी है। घर की लक्ष्मी को बेचनेवाला कभी आगे बढ़ नहीं सकता है और वह कभी सुख से जी नहीं सकता है। तो माताजी ने कहा -दस कन्या को धर्म परणाओ।

स्वार्थ काजन अकरम करना गाँठ ग्यारह सत्मारग चलना
सत् पुरुषों ने कहा है- स्वार्थ भयंकर जहर है। दूध के भरे हुए घड़े में जैसे जहर की एक बूंद गिरने से वह प्राणदारी पथ प्राणनाशी बन जाता हैं। इसी प्रकार हम जो भी कार्य करते हैं, उसमे स्वार्थ का जहर मिलने से वह कार्य अकार्य हो जाता है और स्वार्थपूर्ण कृत्य दूसरों के लिए निशिचत रूप से दुःखदाई ही होता है

स्वार्थ के जल से सींची हुई बेल पर जहरीले फल लगते हैं और उन फलों का रस रस नहीं, मानवता का रक्त होता है। स्वार्थ का मतलब ही है अपना लाभ, अपना हित, अपनी आकांक्षा, महत्वाकांक्षा या इच्छा की पूर्ति का प्रयत्न।

स्वार्थ की दृष्टी बहुत क्षुद्र दृष्टि है। स्वार्थ का वश हुआ मनुष्य सिर्फ अपना और केवल अपना ही लाभ देखता है। जहाँ चिन्तन का दायरा इतना शुद्र हो जाता है कि व्यक्ति अपने सिवाया किसी को देख नहीं सकता। वहाँ वह अपने हित के लिए दूसरों की केवल उपक्षेा ही नहीं करता। उनका अनिष्ट करते हुए भी संकोच नहीं करता।

स्वार्थ अपने पर केन्द्रित होता है, फिर चाहे वह किसी भी दृष्टि से केन्द्रित है। राम ने अपनी बदनामी या लोकापवाद के भय से सीता जैसी महासती को भी घर से निकाल दिया,इसमें राम का स्वार्थ ही तो था? राम को भी अपने यश की निर्मलता का स्वार्थ और इस कारण एक गर्ववती कोमलांगी सती को भी जंगल-जंगल भटकने पर मजबूर करने से वे रुके नहीं। सीता के अगणित कष्टों का कारण और क्या था?

सती न सीता सरकी, रती न राम समान
जती न जम्बू सारका, गति न मोक्ष समान

महाभारत का भयंकर युद्ध क्यों हुआ? दुर्योधन का स्वार्थ। संपूर्ण भारतवर्ष का एक छत्र शासन बनने का क्रूर स्वार्थ ही तो महाभारत का मूल है।

स्वार्थ ने संसार में आतंक व नरसंहार मचाया। दूसरों को सदा पीड़ित-उत्पीड़ित किया। सृष्टि में भयानक कोई जहर है तो वह स्वार्थ।

आई माताजी ने कहा – स्वार्थ कारज अकरम न करना। स्वार्थ का मन कुटिल रहता है, वचन असत्य से भरा हुआ, काम कुचेष्ठाओं के बल से टेडी। उस परिस्थिति में जीवन का सौन्दर्य किस प्रकार चमक सकता है? उज्जवल भविष्य की शान्त-शीतल सुखद किरणें किस प्रकार बिखर सकती हैं? स्वार्थ स्वयं अन्धा है। इसलिए आई माताजी ने कहा – स्वार्थ कारज अकरम करना गाँठ।

(11) ग्यारह सत्मारग चलना।

जो मनुष्य सत्यावादि होते है, वे कभी धोखा की बात नहीं करते और एक बार जो कह देते हैं। उसको कभी पलटते नहीं है, चाहे उन्हें कितना भी लोभ दिया जाय और कितना ही डर दिखाया जाय। चाहे कितनी ही विपत्तियाँ उन पर पड़े, यहाँ तक कि उनके प्राण ही भले जाएं। जैसे राजा हरिशचन्द्र ने अपना राज्य स्त्री और पुत्र के छुट जाने पर भी सत्य को नहीं छोड़ा और अंत में स्वर्ग को गए।

तीन वस्तु प्यारी सबै, धन-नारी-सन्तान।
हरिशचन्द्र तीनो तजे, सत्य न दिनों जान।।
सत्य न दिनो जान, बिके कासी की नगरी।
राज-पाट परिवार तज्यो, धन संपति सगरी।।
विश्वामित्र ने उन्हें, विविध बहु संकट दिनो।
नृपति सत्य नहीं तज्यो, तजे अति प्यारे तीनो।।
सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाके ह्रदय सांच है, ताके ह्रदय आप।।

सत्यवादी मनुष्य का सब विशवास करते हैं, उसका आदर अधिक होता है और सत्य बोलने में उसकी आत्मा सर्वदा प्रसन्न रहती हैं।

सत् मत छोड़ो हे नरा! सत् छोडियो पत जाय।
सत् की बांधी लक्ष्मी, फेर मिलेगी आय।।

माताजी ने कहा – सत्य जीवन का प्रकाश है, वाणी का सार है, संसार का उपहार है समाज का उत्थान है, राजा की शोभा है और प्रजा का कल्याण है। संक्षिप्त में मानव जीवन का प्रत्येक पहलु सत्य की ज्योति से ज्योतिर्मय है। जहाँ सत्य है, वहीँ जीवन का प्रसार है। व्यावहारिक जीवन में सत्य परमावश्यक है। सत्य में दया, क्षमा, शील, संयम, तप, त्याग आदि सर्व गुण सामहित है। सत्य हमारे शरीर एवं परिवार की रक्षार्थ एक अमोघ यंत्र है। यदि हम इसे मन, वचन और काया से पालन करे तो हम दैहिक, भौतिक एवं दैविक प्रकोपों से बच सकते हैं। एक दूसरों को भी बचा सकते हैं। सत्य वह कवच है जिसे धारण करने से दुनिया की सारी आपदाओं एवं विपत्तियों से मुक्ति मिल सकती है। इसलिए श्री आई माताजी ने कहा- गाँठ ग्यारह सत्मारग चलना।।

 

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