केसर-दात्री अखण्ड ज्योति

‘आई पंथ‘ के इतिहास में ‘अखण्ड ज्योति‘ का अपना विशिष्ट महत्व है। ‘अखण्ड ज्योति‘ देवी मंदिरों में दिन-रात निरन्तर जलनेवाली दिप सौ की ऐसी प्रकाशयुक्त आभा हैं, जो देवी वरदान से काजल के स्थान पर केसर प्रदान करती हैं, ‘अखण्ड ज्योति’ की स्थापना नव दुर्गावतार माँ भगवती ‘श्री आई माताजी’ ने स्वयं की थी इस कारण ‘ज्योति-दर्शन’ किए बिना ‘माँ आई जी‘ की पूजा अर्चना अपूर्ण मानी जाती है। कहते हैं कि मांडूगढ़ के आततायी शासक महमूद खिलजी का मान-मर्दन करके जीजी वृद्धा रूप धारण कर अपनी धर्म-यात्रा के रूप में मेवाड़-गोडवाड़ और मारवाड़ की तरफ निकली, तब सर्वप्रथम ‘नारलाई’ में बने जेकलेश्वर महादेव के मन्दिर के पास देवी ने एक गुफा प्रकट कर वहां अधर शिल्ला के निचे प्रथम बार अपने हाथों से ‘अखण्ड ज्योति‘ जलाई। ‘अखण्ड ज्योति’ स्थापना का निज स्थान होने के कारण नए बनने वाले देवी-मंदिरों में नारलाई से ज्योति प्रज्वलित करके वहां प्रतिस्थापिय की हमारे आदिग्रन्थों में कहा गया हैं। तमसो मा ज्योतिर्गमय असतो मा सद्ग्मया।’ हे ईश्वर! हमें अंधकार से प्रकाश की और तथा असत्य से सत्य की और ले चलो।   अन्धकार को हराने की सबसे छोटी इकाई दीपक है, जबकि अज्ञान को हराकर ज्ञान की ज्योति तो ज्ञान-रूपी दीपक ही फैलाता है। दीपक हमारी अलोकिकमयी प्राचीन संस्कृति का प्रतिक है। कहते है- इस सारी सृष्टि को प्रकाश और गर्मी प्रदान करने वाले सूर्यदेव ने दीपक को अधंकार से लड़ने की शक्ति प्रदान कर उसे अपना वारिस बनाकर पूजने की परम्परा शुरू करवाई होगी। तभी से हमारी पावन संस्कृति में जीवन-मरण, विवाह-शादी, अच्छे-बुरे व सामूहिक कार्य करने में दीपक जलाने की परम्परा कायम है। हम घर में, मन्दिर में तथा देवी मूर्ति के समक्ष दीप जलाकर ‘दीपो ज्योति नमः’ कहकर उसे आत्मीय प्रणाम करते हैं।  युगों से कुम्हार की चाक से निखरता हुआ मटमैली चिकनी मिट्टी की उपज यह दीपक कठोर अग्नि-परीक्षा से गुजर कर एक साधारण सी काया लेकर मानव तक पहुंचता है। दीपक जीवन-भर अंधेरे के खिलाफ संघर्षरत रहकर गहन से गहनतम अंधकार को पराजित करने की सामर्थ्य रखता हैं। हजारो बुझे हुए दीपक किसी एक दीपक को प्रज्वलित नहीं कर सकते’ एक रोशन दीपक हजारों बुझे दीपकों में ज्योति का संचार निडर होकर कर सकता है। वैसे तो विज्ञान ने मानव-जाती को प्रकाश के अनेक अदभुत साधन प्रदान किये हैं। बटन दबाते, ताली बजाते और घर के दरवाजे पर कदम रखते ही घर का हर कोना रोशनी से जगमगा जाता है, सारे बल्प जल उठते हैं और अपने आप रोशनी हो जाती हैं। उस समय मानव को ऐसा लगता है, मानो वह स्वर्ग लोक और जादुई दुनिया में विचरण कर रहा हो, उसे कोई नागमणि और अलाद्दीन का चिराग़ मिल गया हो, लेकिन ये सब है- विज्ञान की देन। अंध विशवास के अंधकार से निकले की बुद्धि और तर्क शक्ति का कमाल। लेकिन तेल या घी भरे दीपक में रुई की बाती रखकर उसे जलाने से प्रकाश मिलता है, वह मानव प्राणी को अदभुत सुख-शांति, आत्मिक शुद्धि व सौन्दर्य प्रदान करता है। सूर्य से प्रकाश, चन्र्दमा से चाँदनी, फूल से सुगन्ध, पेड़ो से फल, सीप से मोती, सांप के मुहँ से विष तिलहन से तेल, चकमक पत्थर से चिनगारी, आँख से आंसू, शारीर से रक्त, आग से धुंआं और दीपक की लौ से काजल व बादल से बूंदे पड़ते हुए हम सबने देखा है तथा प्राप्त भी किए हैं। लेकिन एक दीपक की जलती हुई बाती (लौ) से काजल के स्थान पर यदि केसर झड़ता है तो वह दीप-ज्योति न होकर अलौकिक और दैवीय शक्ति का ही प्रतिबिम्ब होती है। वह ज्योति किसी देव-शक्ति के कर-कमलो से प्रतिस्थापित होती है। उसके सामने सूरज-चाँद और सितारे बिजली तक की आभा भी फीकी लगती है। सभी ग्रह-नक्षत्र और पिण्ड भी इसी दिव्य ज्योति पुंज में से ही ज्योति (प्रकाश) पाकर अपने-अपने स्थान पर चमक रहे हैं और सारा जग भी इसी ज्योति से प्रकाशित रहता हैं। समूचा चराचर जगत दीपक की ज्योति में निहित भावों को समझकर अपने जीवन रूपी पथ पर आगे पदार्पण करने लगता। ज्योति उसे अंधकार के जाल से बहार निकाल कर ज्ञान का दिव्य प्रकाश कर इसका पथ प्रदर्शन करती है। जैसा की देव शक्तियों की यह परम्परा रही है की वे नश्वर संसार में दिन दुःखियों का दुःख हरने व दुष्टों का संहार करने के अवतार धारण करते हैं। अपने दैहिक में अपने तेज पराक्रम बाहुबल कटुनीति चमत्कार आदि विभिन्न तरीकों से धर्म की पुनः स्थापना करने के पश्चात पुनः सर्वशक्तिमान ईश्वर में विलीन हो जाती हैं। जब तक ये देव आत्माएं इस भैतिक जगत में अपनी जीवन लीलाएं करती हैं। तब उनके पद कमल जहाँ जहाँ पर पड़ते हैं वे स्थान किसी न किसी कारण से प्रसिद्ध हो जाते हैं जिन्हें मानव जाती युगों युगों तक नमन करती हुई अपनी शक्ति और श्रद्धा के भाव सदा अर्पित करती रहती है। निरन्तर प्रज्वलित रहने वाली

अखण्ड ज्योति के पीछे भी कई महात्यम जुड़े हुए हैं।

हमारी आराध्य और कुल देवी नावदुर्गावतार शक्ति स्वरूपा माँ भगवती श्री आई माताजी ने अपने तेज पराक्रम और सदाचार से जन जन का दुःख हरकर लोगों को धर्माचरण की रहा बतायी थी। मांडूगढ़ के आततायी शासक महमूद खिलजी का मान मर्दन करके जीजी मेवाड़ गोड़वाड़ और मारवाड़ की तरफ निकली अपनी इस धर्म यात्रा के दौरान जीजी ने वृद्धारूप धारण करके संग पोठिया नंदी बैल और पावन ग्रंथ लेकर अपना प्रथम चमत्कार नारलाई में ऊँची पर्वत चोटी पर बने जेकलेश्वर महादेव के मन्दिर पुजारी को पर्वत पर ही गुफा प्रकट करके बताया। उसी अधर शीला वाली गुफा में श्री आईजी ने प्रथम अखण्ड ज्योति की स्थापना की थी जहाँ आज भी घी के दीपक की लौ से काजल के स्थान पर केसर पड़ता है ऐसी ही दिव्य ज्योति देवी ने डायलाना ग्राम में भी स्थपित की तथा हलों का वट वृक्ष प्रकटाकर अपना दिव्य चमत्कार दिखाया। उस दिव्य ज्योति से भी केसर पड़ता हैं। कहा भी गया है-

गिरी प्रचण्ड की तलहटी पर आईजी ने गुफा प्रकटाई थी।
नारलाई संग डायलाणा में अखण्ड ज्योति जलाई थी।।
केसर पड़ता जिस ज्योति से, वह आई का वरदान है।
तेज पराक्रम चमत्कार का प्रत्यक्ष यह प्रणाम है।।

राजा बलि की यज्ञ स्थली और आई पंथ की उदभव स्थली बिलाड़ा में श्री आईजी ने संवत 1524 में भादवा सुदी बीज शनिवार के दिन जाणोजी राठौड़ के घर अखण्ड ज्योति की स्थापना की थी जहाँ आज श्री आईमाताजी का निज मंदिर बना हुआ है। इस मन्दिर में जलती ज्योति से भी केसर पड़ता है। विक्रम संवत 1551 चैत्र सुदी बीज शनिवार के दिन श्री आईजी अन्तधर्यान होकर इसी अखण्ड ज्योति में विलीन हो गई। कहटर भी हैं।

भादवी बीज को आई माता ने, ज्योति अखण्ड जलाई थी।
चैत्र सुदी बीज का आईजी, दिव्य ज्योति में समाई थी।।

इस तरह श्री आईमाताजी ने अपने कर कमलों से सूर्य की देदीप्यमान किरणों के समान अखण्ड ज्योति की स्थापना करके अपने भक्तों का मार्ग प्रशस्त किया और अपनी पूरी योग माया की दिव्य शक्ति इसी ज्योति में समाहित कर दी, जो आज भी केसर रूप में हमारे समक्ष प्रतिबिम्बित है। यह ज्योति मानव के ह्रदय में अन्तः प्रकाश को प्रेरित करती हैं। हम तो यही कह सकते है की –

जिस दीपक ने हमे जलाया, आज उसी का गुण गाते हैं।
ज्योति प्रकाश में रहा निहारकर, जीवन सफल बनाते हैं।।

आज हमारी सभ्यता और संस्कृति बहुत ही संकटापत्र स्थिति से गुजर रही है, मानव में अज्ञानान्धकार छाया हुआ है। आज घर घर में कलह, प्रमाद और अशांति का वातावरण है। आज जब प्रत्येक वर्ग अपने धर्म कर्तव्य और जिम्मेदारी से दूर हट रहा है, तब निराशा के अंधरे में डूबे लोगों को इस अखण्ड ज्योति का दिव्य प्रकाश ही आत्म विस्मृत मूर्छित जीवन को उत्साह उमंग के साथ कर्तव्य बोध का निरन्तर संदेश दे रहा है। आज देश के दूरस्थ भागों में भी श्री आईजी के स्वरूप को इस ज्योति में समाए रहने की बात को प्रमाणित करती है, वहीँ यह ज्योति जीवन में हमेशा गतिशील रहते हुए अज्ञानान्धकार से निकल कर प्रकाश की और अग्रसर होने की प्रेरणा देती है। जब हम मन्दिर में जाते है तो हमें सर्वप्रथम दर्पण के माध्यम से अपना ही प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता है उसके बाद माँ आईजी और अखण्ड ज्योति के दर्शन होते हैं। मंदिर में लगा हुआ दर्पण हमें यह ज्ञान देता है कि मनुष्य! अपने आप को पहचान ले कि में क्या हूँ और कौन हूँ? यदि यह बात प्रत्येक मनुष्य की समझ में आ जाये तो किसी को गुरु और शिष्य बनने बनाने की आवश्यकता नहीं रहेगी। लेकिन आज सब उल्टा ही हो रहा हैं। भक्तगण दर्शन हेतु जाते है और दर्पण के बाद मंदिर में हमारा ध्यान माँ आईजी की मूर्ति और अखण्ड ज्योति की और जाता है। हम देखते है कि एक दीपक चाहे वह मिट्टी चांदी या किसी अन्य धातु का क्यों न हो उसमे घी घृत टा तेल रुई की एक बाती ऊपर छत्र और फिर फलों की सुगंधित माला उस पर अर्पित की हुई होती हैं। देखने में तो यह सारा प्रतिरूप साधारण सा लगता है लेकिन वास्तव में यह दिव्य ज्योति अपने हर एक चीज के साथ दिव्य प्रेरणा संजोये हुए है। जैसे दीपक यह साधन का प्रतिक है पृत घी कर्म का रूप है।

बाती यह योग का प्रतिक है। ज्योति लौ ज्ञान का रूप है।
केसर आत्मा और मोक्ष का प्रतिक है। छत्र जीवन का रूप है।
माला यह प्रेम श्रद्धा भक्ति का प्रतिक है।

अर्थात् एक दीपक रूपी साधन अपने छत्र रूपी जीवन यात्रा में माला रूपी प्रेम श्रद्धा भक्ति और निष्ठा से घृत घी रूपी कर्म कर्तव्य करते हुए बाती रूपी योग साधना से ज्योति रूपी ज्ञान विवेक और बुद्धि द्वारा केसर रूप में आत्मा को मोक्ष मुक्ति दिलाता है। इस जगमगाती अखण्ड ज्योति में अदृश्य रूप में समाई हुई आईजी आज भी हमें मन वचन और कर्म से धर्मानुकूल जीवन जीने का दिव्य सन्देश दे रही है। हमे अधर्म कुकर्मों से बचाती हैं। जान जान में व्याप्त अज्ञान को हर कर सबके जीवन में केसर के समान दिव्य ज्ञान ज्योति प्रदान कर रही हैं। जैसे यह अखण्ड ज्योति साक्षात् रूप में नित्य कर रही है, ज्योति जब जलती है तो गर्म और प्रकाशवान रहती है। हमे भी ज्योति की तरह आजीवन गर्म अर्थात् क्रियाशील रहना चाहिए। ज्योति का सिर लौ सदा ऊंचा रहता है। अतः हमे भी उच्च चिन्तन के सहारे ऊँचा मस्तक करके स्वाभिमान का जीवन जीना चाहिए। ज्योति में अशुद्ध वस्तु भी शुद्ध और निर्मल हो जाती है। अतः अपने सम्पर्क में आए बुरे लोग भी अच्छे बनकर सद्कर्म करने लग जाएं हमारा जीवन व चिंतन निर्मल होना चाहिए। ज्योति में जो भी डालें वह आपने लिए बचाती नहीं। दूसरे के निर्मित ही खर्च कर देती है। हमे भी कृपण और संग्रही नहीं बनना चाहिए। सदा परोपकारी व पुरुषार्थी बनना चाहिए। ज्योति की अंतिम परिणति भस्म रूप में होती है। इसी तरह मानव जीवन का अंत भी दो मुट्टी भस्मी के रूप में होने वाला है। यह मनुष्य शारीर नश्वर और क्षण भंगुर है। यह ज्योति हमें आत्मावालेकन की बात भी कहती हैं। आओ हम सब अथाह श्रद्धा और भक्ति से इस अखण्ड ज्योति स्वरूप में माँ श्री आईजी का नित्य ध्यान कर यह प्रार्थना करें कि हे माता! तेरे इस दिव्य आलोक से हमारा ह्रदय भी जगमगा उठे और उसी प्रकाश से हमारी बुद्धि सद्कर्मों से प्रवृत होकर भक्ति भाव से संतृप्ति पाकर परम पिता परमात्मा की स्तुति में नित्य लगा रहे सच भी है-

जगमगाती इस ज्योति में, घृप केसर की यश गाथा हैं।
आईजी का प्रतिरूप मानकर, सारा जग शीश नवाता है।।

धर्म अर्थ काम और मोक्ष की अक्षय साधना करते हुए हम सब इस दिव्य प्रकाश पुंज केसरदात्री अखण्ड ज्योति को सदैव ही अपना श्रद्धा भक्ति और आस्था के सुगन्धित पुष्प चढ़ाते हुए नमन करते रहेंगे।

शत-शत नमन तुझे हैं- अखण्ड ज्योति!

 

 

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