हमारा सीरवी (क्षत्रिय) समाज खारड़िया एक क्षत्रिय कृषक जाती है। समाज क्षत्रिय से राजपूत और आज से लगभग ७०३ वर्ष पूर्व राजपूत जाति से अलग होकर समाज (खारड़िया), जो राजस्थान के मारवाड़ी व गोडवाड क्षेत्र में बशीवान हुए। समाज में किसी भाई के यहां राव भाटो द्वारा बही बचाने पर समाज का सराहनीय इतिहास हमें सुनने को मिलता है। मगर समाज के खाते में सीरवी (क्षत्रिय) समाज खारड़िया के इतिहास का प्रमाण बहुत कम उपलब्ध है। जाति – भास्कर, मरदुमशुमारी राज मारवाड़ १८११ ईसवी में व राजपूत वंशावली से मिली जानकारी के अनुसार – हिन्दू धर्म विशेषकर क्षत्रिय राजपूतों के नियम और उपनियम बहुत कठोर होते थे। ईसवी सन् आठवीं शताब्दी के बाद तो इतने कठोर हो गए कि किसी भी क्षत्रिय की जरा सी चूक होने, गलती कर देने पर उसे जाती मुखियाओं द्वारा जाती से बाहर कर दिया जाता था या आपसी मन- मुटाव व विचार न मिलने से, उनके बनाए नियमों को मान्यता न देते हुए जाती से बाहर हो जाता था और किसी जाति से किसी का बाहर हो जाने का यह एक ही कारण नहीं होता, बल्कि जाती व्यवस्था का यह ढांचा समय परिस्थितियों, प्राकृतिक विपदाओं अतिवृष्टि, अनावृष्टि, महामारी, बाहरी आक्रमणों व विभिन्न धर्म मत के प्रचारकों एवम् पंथों के सृजनो से विभिन्न जातियों में बंटता ही गया। वैसे जाति व्यवस्था का यह ढांचा तो महर्षि परशुराम जी के समय से ही लड़खड़ा गया था। क्षत्रियों के प्रति परशुराम जी का संकल्प हमारे भारतवर्ष के हित में कुछ ज्यादा लाभदायक नहीं रहा। जब ब्राह्मण देवता परशुराम जी ज्यादा आक्रोशित हो गए तो ब्राह्मण देवता से सामना करना उचित न समझ कर क्षत्रियों ने अपने नामकरण बदल दिए, अपनी जाति व व्यवसाय बदल कर अपने आप में सीमित हो गए हैं। स्वाभाविक है कि जब कभी दो भाइयों में अनबन हो जाती है, तो तीसरा लाभ उठाता है। धीरे – धीरे बाहरी शत्रुओं को मौका मिला तो तुर्कों, अफगानों, मुगलों का आक्रमण बढ़ता गया और उसी तरह जाति व्यवस्था का यह सिलसिला १०वी शताब्दी से और भी ज्यादा प्रभावित हुआ। ‘राजपूत वंशावली पृष्ठ ९’ जब देश में बौद्ध और जैन धर्म प्रचारकों ने अहिंसा प्रचार करना शुरू किया, तो इसका लाभ विदेशियों ने उठाया और ७ वीं शताब्दी के आस-पास हर्षवर्धन के बाद देश जब छोटी छोटी रियासतों में बंटता गया तो विदेशियों ने इन रियासतों पर आक्रमण करना शुरू कर दिया। उनके आक्रमण इतने जोरदार होते थे, इनमें वे तबाही मचा कर रख देते थे। ऐसे अवसर पर वरिष्ठ पीठ के किसी ऋषि ने क्षत्रियों का रक संघ बनाया और उसने उन विदेशियों को यहां से खदेड़ कर पुनः शांति स्थापित की।

हमारे समाज के राव – भाटो की बहियो में भी सीरवी समाज खारडिया की कुछ गोत्रों परिहार, सोलंकी, परमार, चौहान वगैरह को अग्निवंशीय ( अग्नि कुण्ड से उत्पन्न ) होने का वर्णन मिलता हैं। उपर्यक्त चार वंश (गौत्र) इस संघ में सम्मिलित हुए थे। अग्निवास का रहस्य – परिहार, सोलंकी, पंवार, चौहान इन चारों वंशो को कई इतिहासकार अग्निवंशी मानते हैं। इस मत का उल्लेख प्रथम बार चन्द्र बरदाई ने अपने ग्रंथ ‘पृथ्वीराज रासौ’ में किया हैं। चंद्रबरदाई का मत है कि जब परशुराम ने पृथ्वी को 21 बार शत्रुओं से शून्य कर दिया, तो राक्षसों ने ऋषियों को सताना आरंभ कर दिया। ऋषियों द्वारा रचाये गए यज्ञो में राक्षसों ने हाड – मांस आदि डालकर अपवित्र कर कर दिया करते थे। ऐसी स्थिति में वरिष्ठ आदि कई ऋषियों ने आबू पर्वत पर एक यज्ञ रचाया और प्रभु से प्रार्थना की कि हमारी रक्षा के लिए एक शक्ति-शाली जाती उत्पन्न की जाए। कहते हैं उस यज्ञ में 4 शक्तिशाली पुरुष उत्पन्न हुए। जिन्होंने अपने अपने नाम पर उपर्युक्त चार वंशों को चलाया। ’मुहणोत नेणसी’ ने अपनी ख्यात में, सूर्यमल्ल मिश्रण ने ‘वंशभास्कर’ में, कवि जोधराज ने ‘हम्मीर रासो’ में, तथा पद्मागुप्त ने ‘नव साहसांक चरित्र’ में, कवि धनपाल ने ‘तिलक मंजरी’ में, अबुल फजल ने ‘आईना – ए – अकबरी’ में इस मत की पुष्टि की है। इस मत का प्रतिपादन करने वाले कहते हैं, कि जहां यज्ञ हुआ था, वहां ‘क्षत्रियत्व अभिमंत्रित’ चरु था इसलिए उसमें से उत्पन्न पुरुष अग्निवंशी क्षत्रिय कहलाए। ‘भविष्यपुराण’ ३-६ में भी वर्णन आता हैं कि जिस समय बौद्ध और जैन धर्म का पूर्णतः विकास हुआ, तो वैदिक मंत्रो से हवन- कुंड में ब्रहा होम नामक यज्ञ किया था और उपर्युक्त चारों वंश उसमें दीक्षित हुए थे। उपर्युक्त मत के संदर्भ में उस समय भारत सीमांत के अंतर्गत के कुछ राज्यों में यानी गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश के कुल क्षेत्रफल पर परिहार, सोलंकी, चौहान और परमार गौत्र क्षत्रिय का शासन था और यहीं पर हुण आदि विदेशी जातियां मिलकर आक्रमण किया करती थी। अतः उन विदेशीयों से लड़ने हेतु इन सब ने मिलकर एक संघ बनाया और मिल जुलकर देश की शत्रुओं से रक्षा की। यह संघ ठीक उसी प्रकार था। जैसा कि सिखों के दसवें गुरु श्री गोविंद सिंह जी ने समाज के कट्टर देशभक्तों तथा वीरो को एकत्रित करके उन्हें शत्रुओं के विरुद्ध तैयार किया। उसी प्रकार इन सभी चारों गौत्र के वंशों ने अग्नि को साक्षी मानकर देश, धर्म की रक्षा का व्रत लिया था। ऋषियों द्वारा अग्निवंशी उपाधि से विभूषित चार गौत्र परिहार, सोलंकी, परमार और चौहान थी। यह चारों गौत्र सीरवी ( क्षत्रिय ) समाज खारड़िया में वर्तमान में भी हैं। ‘मरदुमशुमारी’ के अनुसार १० वीं शताब्दी में कई विदेशी आक्रमणकारी आंधी की भांति आए और यहां की अपार धन संपदा को लूटकर सामाजिक व्यवस्था एवं धार्मिक भावना को छिन्न-भिन्न कर तूफान की भांति वापस चले गए। इससे भी ज्यादा उन विदेशी जातियों ने हमारी प्राचीन व्यवस्था को प्रभावित किया, जो यहां अपने धर्म और शासन का विस्तार करने के लिए स्थाई रूप से निवास करने लगे। इस प्रकार जातियों वह उप जातियों के बनने एवं बिगड़ने का क्रम निरंतर चलता रहा। कुछ ऐसे पराक्रमी, शूरवीर एवम् युग पुरुष भी हुए, जिन्होंने अपने बाहुबल एवम् पराक्रम से प्रचलित समाज व्यवस्था के अनुकूल न बनकर समाज व्यवस्था को अपने अनुकूल बनाया। दूसरी तरफ से कुछ ऐसे संत, दार्शनिक, योगी महापुरुष भी हुए, जिन्होंने अपने उपदेश एवम् विचारों से समाज के कलेवर को ही बदल दिया और अपनी ओर से नवीनता देने का प्रयास किया।

इस तरह राजपूतों (क्षत्रिय) से निकले परिवार ने लम्बे समय तक अपनी पहचान गौत्र से ही बनाए रखते हुए जैसे आज भी हम देखते हैं कि आम तौर पर मनुष्य अपनी पहचान के लिए जाती से ज्यादा गौत्र का उपयोग करते हैै। समय परिस्थितियों के कारण राजपूत जाति से निकले हुए परिवार को भी अपने – अपने उसी वर्ग में मिला दिया जाता था। इस प्रकार राजपूतों के सभी वंशों में ऐसे अनेक परिवार थे। जिनकी धीरे-धीरे एक अलग ही कौम, जो १४ वीं शताब्दी के आस-पास, जिसमें एक हमारा समाज भी, जो आज सीरवी (क्षत्रिय) समाज खारड़िया नाम से परिचित हैं। सम्भवतः वि.संवत् १३६५ में अपनी जाति की पहचान बन गई थी। १२ वीं शताब्दी में हिन्दू समाज दोहरी मार से पीड़ित था। एक ओर तो देशी राजा आपस मे लड़-भिड़कर अपनी शक्ति नष्ट कर रहे थे, तो दूसरी ओर विदेशी यवन मुसलमान एक हाथ में तलवार तो दूसरे हाथ में धर्म की पताका लिए इस्लाम धर्म का प्रचार कर रहे थे। यह लोग अपने साम्राज्य विस्तार के साथ हिंदुओं को जबरन मुसलमान बनाते थे। जो हिन्दू लोग इस्लाम धर्म स्वीकार नहीं करते तो उन्हें मुस्लिम शासकों को जजिया कर देना पड़ता था या फिर युद्ध करना होता था। विक्रम संवत् १३६८ में अलाउद्दीन ख़िलजी ने जालौर पर आक्रमण किया, तब जालौर के राजा राव कान्हड़ देव के साथ खारड़िया राजपूत बड़ी बहादुरी से लड़े। परन्तु बादशाह की सेना संख्या में कई गुणा अधिक थी एवं अच्छे हत्यारों से सुसज्जित थी जबकि राजपूतों की संख्या कम एवं साधन सीमित थे। फिर भी उन्होंने काफी दिन तक बादशाह की सेना का बड़ी वीरता से सामना किया। लंबे समय तक युद्ध चलते रहने के कारण जालौर के किले में रसद सामग्री खत्म होने लगी। बाहर से रसद सामग्री आने के सभी रास्ते बन्द थे। अतः वैशाख सुदी ५ विक्रम संवत् १३६८ के निर्णायक युद्ध (साका) में खारड़िया राजपूत (सीरवी) सम्मिलित थे, जो इतिहास में जालौर के साका के नाम से चर्चित हैं। वैसे राजपूत हजारों वर्षों तक भीषण युद्धों में संलिप्त रहे। ई.स. से कई सौ वर्ष पूर्व ही यूनानियों ने भारत पर आक्रमण किये थे और उसके बाद शक, हूण, कुषाण, अरब, तुर्क, मंगोल आदि निरंतर इस देश पर आक्रमण करते रहे। एक के बाद एक सारा का सारा समय व मुस्लिम युग भी युद्धकाल बना रहा। ऐसे भीषण आक्रमणों और युद्धों में लिप्त रहने के कारण राजपूतों को देश, धर्म, संस्कृति और अपनी जान कि रक्षा करना ही कठीन हो गया। इस प्रकार भीषण युद्धों के कारण कई राजपूत वंशों की गौत्र, परंपरा और कब, कहां शासन किया? कब कहा से कहा गए? सब भूल भुलैया में पड़ गए। इसलिए किसी जाति की उत्पति व इतिहास के बारे में प्रमाणिकता का दावा करना कठीन हैं। फिर भी उपलब्ध प्राचीन इतिहास, साहित्य, शिलालेख, भितिचित्र, पौराणिक गाथाएं, राव-भाट के पास उपलब्ध इतिहास, दंतकथाएं एवम् किवदंतियों के आधार पर ही किसी जाती की उत्पत्ति एवम् विकास के इतिहास तक पहुंचा जा सकता है। सारांश रूप में ऐसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि सभी जातियों एवम् उपजातियों का उद्भव वैदिक कालीन में आर्यों की समाज व्यवस्था के चारों वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र ही रहे हैं।

‘राजपूत वंशावली पृष्ठ ४’ यदि किसी वंश में कोई अत्यंत महान पुरुष उत्पन्न हो जाता है तो उसके वंशज आगे उसे अपना गौत्र धारण कर लेते हैं। जैसे प्रतिहारो का मूल गौत्र तो कश्यप है, किन्तु इस वंश में लक्ष्मण अत्यंत ही महान पुरुष हुए, जिन्हें स्वयं भगवान राम ने प्रतिहार की उपाधि से विभूषित किया था। जिससे लक्ष्मण और उनके वंशज प्रतिहार से पड़ियार, परिहार कहलाने लगे। लक्ष्मण के दो पुत्र अंगद व चंद्रकेतु थे और परमारो (पंवार) का गौत्र वरिष्ठ हैं। इसका तात्पर्य है कि जितने भी परमार, पंवार वंशीय क्षत्रिय हैै, वे सभी महर्षि वरिष्ठ की संतान हैं व चौहान (महर्षि वत्स), सोलंकी (चालुक्य महाराजा उदयन) गौत्र भी श्री राम के लघु भ्राता लक्ष्मण की संतान हैं। इसी प्रकार राठौर भगवान राम के पुत्र कुश और गहलोत के पूर्वज गुहिल लव की संतान हैं। उपलब्धि प्राचीन इतिहास का अध्ययन करने से पता चलता है कि हमारा समाज क्षत्रिय वंशी सीरवी (खारड़िया) जाती हम सभी मूल रूप से आर्यों की संतान है। सीरवी (खारड़िया) जाती का उदगम भी वैदिक क्षत्रिय राजपूत जाति से ही हुआ हैं। हमारे सीरवी खारड़िया जाती की ६ मुख्य गौत्र, १८ उप गौत्र , २५ नक कहा जाता हैं। जो ४६ गौत्र (खापे) हैं। वह क्षत्रिय राजपूतों से मिलती है तथा सीरवी जाति का उपलब्ध प्राचीन इतिहास इस बात का प्रबल प्रमाण है कि हमारे बांडेरू (पूर्वज) आर्य (क्षत्रिय) राजपूत है। राजपूत वंशावली व राव द्वारा मिली जानकारी से, बारहवीं शताब्दी के आस-पास भारत में राजतंत्रीय शासन व्यवस्था चल रही थी। विभिन्न राज्यों में अलग-अलग राजा अपना-अपना शासन चला रहे थे। वे बहुत ही महत्वकांशी होते थे। जिनके कारण आपस में लड़ते रहते थे। ऐसी रियासतें गुजरात राज्य में भी थी। वहां के शासक भी राज्य विस्तार एवं आपसी मन-मुटाव के कारण युद्ध करते रहते थे। सीरवी जाति के इतिहास से यह पता चलता है कि गुजरात प्रांत में जूनागढ़, राजकोट के आसपास एक राज्य संभवत (सौराष्ट्र) में गिरनार के राजा का अपने पड़ोस के किसी राजा से बड़ा भयानक युद्ध हुआ था। जिसमें हजारों सैनिक रण क्षेत्र में खेत रहे एवं कुछ बंदी बना लिए गए और जो क्षत्रिय बच गए थे, उन्होंने गुजरात को त्याग कर राजपूताना प्रांत जालौर राज्य, जो गुजरात की सीमा पर ही था। वहां आकर बस गए। उस समय जालौर पर चौहान वंशीय राजा कान्हडदेव सोनगरा का शासन था। सीरवी श्री चंद्रसिंह जी (अटबड़ा) द्वारा लिखित खारड़िया सीरवियों रो इतिहास से पता चलता है कि गुजरात प्रांत के उत्तरी भाग की भूमि खारी व खाबड़ खुबड़ होने से उसे खारी खाबड़ कहा जाता हैं। सौराष्ट्र के दक्षिण में स्थित वेरावल बंदरगाह के पास में प्रभास-पाटन में कोयलपुर (दीप द्वीप) राज्य था। जिसके शासनकर्ता अनंत राय सांखला (पंवार) खारी – खाबड़ (जहां हमारे पूर्वजों का शासन रहा हो) एवम् जूनागढ़, राजकोट के आस पास गिरनार राज्य था, जिसका राजा कहवाट थे। एक बार इनके मध्य मनमुटाव होने से युद्ध हुआ। अनंतराय में कहवाट को युद्ध में हराकर जेल में डाल दिया। उक्त समाचार राजा कहवाट ने अपने भाणेज उका तक गुप्त रूप से पहुंचाई। कहवाट का भाणजा सैनिकों सहित धोखे से अनंतराय सांखला के किले में घुस गया। इनके मध्य घमासान युद्ध हुआ। अनंतराय की हार हुई। हजारों सैनिक रण क्षेत्र में खेत रहे एवम् जान माल की अपार क्षति हुई। कोयलपुर युद्ध के दरम्यान हारे हुए अनंतराय व कोयलिया सैनिक उका द्वारा पकड़ लिए गए और अनंतराय के कारागार से कहवाट और सौ राजाओं को बाहर निकाल दिया गया। युद्ध में शहीद हुए दोनों तरह के योद्धाओं का दाह संस्कार किया गया ओर उका द्वारा अनंतराय को बेड़ी, बेड़ियां, हथकड़ियां पहना कर दरबार में कहवाट के सामने पेश किया गया। दरबार में मंगल द्वारा मंगवाए गए चणे (भूंगड़े) अनंतराय को चुगाए गए। पूर्व में कहवाट व अन्य राजाओं पर अनंतराय ने बहुत अत्याचार किए थे। लेकीन कहवाट ने उसे माफ करके अनंतराय को फिर से गादी पर आसीन किया।

अनंतराय ने कहवाट का आभार प्रकट करते हुए सांखला परिवार से अपने बेटे, भाइयों की लड़कियों का तोरण थांबला स्थापित कर एक सौ राजा एवं कहवाट के साथ विवाह कर सम्मान पूर्वक सीख दी गई। कहवाट सौ राजाओं को अपना मेहमान और कोयलिया कैदी राजपूतों के साथ गिरनार पहुंचता है। गिरनार पहुंचते ही उका कोयलिया राजपूतों को कैद कर कारागार में डाल देता हैं। महल के झरोखे से कैदियों पर होते अत्याचार देखकर दुखी होती गहरांदे कोयलिया राजपूतों का साहस पढ़ाती हुई करती है ‘भाइयों! वह दिन दूर नहीं जब आप भी अपने घर जायेंगे और आपको मेरे भाई के कारागार से मुक्ति मिलेगी। कोयलपुर युद्ध में हारे हुए कोयलिया सैनिकों को उका द्वारा पकड़ लिया जाना और कोयलपुर में बन्दी बनाएं गए कैदियों को अनंतराय की अपनी हार के बाद कैद से छूटे राजाओं व कहवाट के साथ अपने सांखला परिवार से लड़कियों का विवाह भी कर दिया। मगर अनंतराय ने कोयलिया सैनिकों को छुड़वाने का प्रयास तक नहीं किया। इस कारण गिरनार के कारागार में कैदी कोयलिया राजपूत अपने राजा अनंतराय से नाराज थे। आभारी तो कहावट की बहन गहरांदे थे। जिसने कोयलिया राजपूतों को कैद से रिहा करवाया था। गहरांदे ने अपने हथलेवा कन्यादान में सोने के सिक्के देने आए भाई कहवाट से कन्यादान में गिरनार के कारागार में बंदी बनाए गए कोयलिया सैनिकों की रिहाई मांगी थी। चंवरिया में बैठी गहरांदे के मर्मस्पर्शी विचारों को चंद्रसिंह जी ने सुंदर शब्दों में बयां किया हैं।

म्हे कहऊ सो दान दो, मांगू मुख्य सूं आज।

कोयालियो ने छोड़ दो, राखो म्हारी लाज।।

बहन गहरांदे के इन शब्दों को सुन कहवाट को आश्चर्य होता हैं। बाद में उसे मालूम पड़ता है कि गहरांदे ने कैदी भाईयो को कैद से मुक्त कराने का वचन जो दिया था। कहवाट ने अपनी बहन की उचित मांग को मर्यादा पूर्वक स्वीकार कर कारागार में बन्दी कोयलिया सैनिकों को उनके हित की बात रखते हुए कहा “अगर आप लोग शस्त्र धारण नहीं करने की शपथ ग्रहण करते हैं, तो मैं सभी कैदियों को मुक्त कर देता हूं।” कहवाट ने सभी सैनिकों को शस्त्र धारण नहीं करने से वचनबद्ध करके रिहा कर दिया था। कोयलिया राजपूत कहवाट की कैद से मुक्त होकर कोयलपुर आने पर अनंतराय से मिलना और उनसे जवारड़ा करना भी उचित नहीं समझा और सभी राजपूतों ने कोयलपुर छोड़ने का निर्णय कर लिया। विक्रम संवत् १३३५ में एक दिन की प्रभात की पहली किरण निकालने से पहले गाड़ियों में अपने अपने परिवार के साथ दुखी मन से कोयलपुर को पीछे छोड़ कर चल दिए। वहां से उत्तर दिशा में चलते, ठहरते एक दिन जिला कच्छ में आकर सभी जनों ने राज्य अणहिलवाड़ा में निवास किया। कच्छ में लूनी नदी बहती है। लूनी नदी का पानी बालोतरा से आगे खारा होता है। यहां खाबड़ा नगर भी हैं। इस कारण यह क्षेत्र खारी-खाबड़ के नाम से पुकारा जाता हैं। इस क्षेत्र में इन क्षत्रियों के रहने पर आगे वे चलकर ‘खारड़िया राजपूत’ कहलाने लगे। उस समय वहां अणहिलवाड़ा पाटन पर करण बाघेला (सोलंकी) का राज था। खारी खाबड़ क्षेत्र उसी की रियासत में आता था। खारी खाबड़ में राजपूतों का संगम स्थान बनने की कोयलपुर के (कोयलिया) राजपूतों ने पहल की थी। उसके बाद कन्नौज के राठौड़ भी खारी-खाबड़ पहुंचे। ठाकुर बहादुर सिंह बीदासर “क्षत्रिय जाति की सूची” पृष्ठ ८२ के अनुसार, ‘खारडिया सीरवीयों रो इतिहास’ ३६/३ श्री चंद्रसिंह जी लिखते है कि सीरवी राठौर वंश-धुहड़जी के पुत्र चांदपाल के वंशज (बिलाड़ा के राठौर) श्री अाई माता के दीवान कहे जाते है और धुहड़जी के पुत्र शिवपाल के वंशज का वंश यह प्रथम राजपूत राठौड़ थे। अब कृषकों (किसानों) में मिल गए हैं और धुहड़जी के पुत्र चांदपाल एवम् शिवपाल अपने पिताश्री के काका अजयमल जी के साथ १४-१५ वर्ष की उम्र में गुजरात पहुंच गए थे। खारी खाबड़ में कोयलिया राजपूतों के साथ में रहने से यह भी खारड़िया राजपूत कहलाने लगे। बाद में समस्त खारड़िया राजपूत जालौर पहुंचे। चांदपाल व शिवपाल ने जालोर के पास बिठू खेड़ा बसाया। जमींदारों की भूमि में सीर की रीति के अनुसार कृषि व्यवसाय करने व कृषि भूमि के प्रबंधक होने पर यह राठौड़ भी खारड़िया सीरवी कहलाए। उज्जैन के किसी एक स्थान पर सैणक राजा था। उज्जैन पर तुर्कों का अधिकार हो जाने पर कई राजपूत उज्जैन छोड़कर पड़ोसी राज्य पहुंच गए। सैणक के वंशज भी खारी खाबड़ में जाकर खारड़िया राजपूतों के साथ रहे। वहीं से सैणक राजा के नाम पर सैणक खारड़िया राजपूत कहलाए। इसी तरह उज्जैन के ही किसी स्थान के राजा बोडोजी थे। राजा बोडोजी के ऊपर भी तुर्को का आक्रमण हुआ। युद्ध में बोडोजी काम आए। बोडोजी के ज्येष्ठ पुत्र खीवसिंह उज्जैन छोड़कर खीवाड़ा बसाकर वहीं रहने लगे। छोटा पुत्र सांवतसिंह मेवाड़ की सेना में भर्ती हो गए। मेवाड़ के शासक रतनसिंह को भी अलाउद्दीन खिलजी ने मारकर राज्य हथिया लिया। सांवत सिंह ने मेवाड़ को छोड़ा, खारी खाबड़ पहुंचकर खारड़िया राजपूतों के साथ रहने लगे। वह भी खारड़िया राजपूत कहलाने लगे। “क्षत्रिय राजवंश”, रघुनाथ सिंह काली पहाड़ी पृष्ठ १६४, विक्रम संवत् १३५५, ई. १२६८ में अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति उलुग खां और नसरत खां ने गुजरात विजय अभियान किया। उन्होंने जालौर के कान्हड़देव से जालौर राज्य से होकर जाने का रास्ता मांगा, परंतु कान्हड़देव ने यह कह कर मना कर दिया कि विधर्मी गोमांस खाते हैं और ब्राह्मण विरोधी है। अतः कान्हड़देव अपने राज्य से होकर आगे बढ़ने की इजाजत नहीं देता। इस उत्तर का प्रतिकूल प्रभाव हुआ, परंतु पहले गुजरात जीतना अनिवार्य था। अतः मुस्लिम सेना गुजरात की तरफ बढ़ गई और सोमनाथ के मंदिर को तोड़ा। जब मुस्लिम सेना लौट रही थी तब कान्हड़देव ने मुस्लिम सेना पर अचानक आक्रमण किया। मुस्लिम सेना को हार कर भागना पड़ा।

“ जालौर एवम् स्वर्णगिरी दुर्ग का ‘सांस्कृतिक इतिहास’ पृष्ठ ६५ अलाउद्दीन खिलजी ने अपने सेनापति उलूग खां को जालौर पर चढ़ाई करने का आदेश दिया। कन्हड़देव के रास्ता नहीं देने के बादशाही फौजें मेवाड़ के रास्तों से बनासकांठा पहुंची, फिर मोड़ासा, कानम, चरोतर, बावनखेड़ा आदि गुजरात के नगरों को तोड़ती-फोड़ती पाटन पहुंची। पाटन की विनाश लीला एवम् वहां के मंदिरों की दुर्दशा का वर्णन करते हुए पद्मनाभ कहता है कि मंदिरों को तोड़कर वहां खुतबे पढ़े गए। सोमनाथ का शिवलिंग तोड़ा एवम् उसे बैल गाड़ियों में भर दिया। पद्मनाभ ने अपनी मानस पीड़ा से मन ही मन सोमनाथ से पूछा “कि आपने कामदेव, त्रिपुर का नाश किया, हनुमान के रूप में लंका को जला दिया, पर अब आपका त्रिशूल कहां गया?” कवि की यह पीड़ा तत्कालीन हिंदू समाज की आपसी विक्रम लीला का दिग्दर्शन है। उसके अनुसार सोमनाथ का लिंग नहीं टूटा, किंतु टूटी थी हिंदू अस्मिता। राजाओं की आपसी फूट है भारत समाज को कोई दिशा नहीं दी।

उलुग खां ने कान्हडदेव को संदेश भिजवा दिया कि तुम्हारे स्वर्णगिरि दुर्ग के पास पहुंच गया हूं। कहा जाता है कि उसी दिन कान्हडदेव को सपना आया। स्वप्न में कान्हड़देव ने गंगा एवं गोरी को विलाप करते देखा। उन्होंने सोमनाथ के लिंग को छुड़ाने की प्रार्थना की एवं यह विश्वास दिलाया कि जीत तुम्हारी होगी। कान्हड़देव ने युद्ध के नगाड़े बजवा दिए। राजपूतों की तैयारी एवं आत्मविश्वास को देखकर उलूग खान ने घेरा उठा दिया एवं बादशाह सेना सिवाना पहुंच गई। वहां जाकर कृत्रिम दुर्ग बनाकर सैन्य तैयारी की। कान्हडदेव ने अपने सरदारों को सैन्य जानकारी के लिए भेजा। वहां उसके सरदारों ने अपना पराक्रम दिखाया, तब उलूग खान ने लक्ष्मण सेपटा से पूछा कि कान्हडदेव की सेना में तुम्हारे जैसे कितने लड़ाके हैं? तब उसने उनकी संख्या २४ हजार बताई। कान्हडदेव के सरदारों के शाही सेना ने बन्दी स्त्री-पुरुषों एवम् बच्चों के साथ क्रूरता की पराकाष्ठा देखी एवम् वहीं ऐलान किया कि कान्हडदेव युद्ध करेगा एवम् इन सबको छुड़ाएगा।

कान्हडदेव ने जब शाही सेना में बंदियों की दुर्दशा की बात सुनी, तो उसने यह प्रतिज्ञा की कि “वह जब तक सोमनाथ के लिंग को एवम् बंदियों को मुक्त नहीं करवा देगा, तब तक वह अन्न ग्रहण नहीं करेगा।” उसने इस युद्ध के लिए मित्र राजाओं को निमंत्रण भेजे। “खारड़िया सीरवियों रो इतिहास” पृष्ठ ४२/२७ विक्रम संवत् १३५५ में सभी खारड़िया राजपूत अपने घर, बाहर की सामग्री लेकर परिवार सहित जालौर पहुंच गए। कान्हडदेव ने इन खारड़िया राजपूतों को जालौर की सेना में भर्ती कर लिया। पद्मनाभ के अनुसार चार लाख तलवार बाज राजपूत सरदार एकत्रित हुए। इनके घोड़ों का वर्णन एवं युद्ध में उनकी साज-सज्जा का वर्णन तत्कालीन राजपूत युद्धशैली का जीवंत वर्णन “कान्हडदे प्रबंध” में हुआ है। अश्व सज्जा एवं उनके गुण धर्म का भी बहुत सुंदर वर्णन पद्मनाभ ने किया है। उस समय जालौर के उस युद्ध में हस्ति-पंक्ति का भी वर्णन हुआ है। हस्ति सेना, अश्व सेना एवं पैदल सेना की युद्ध-प्रणाली का वर्णन करते हुए कवि ने तत्कालीन युद्ध पद्धति का पूर्ण परिचय दिया है।

इन राजपूत योद्धाओं ने मां आशापुरी के दर्शन किए। मां आशापुरी की आज्ञा लेकर राजपुर सेना स्वर्णगिरी से नीचे उतरी। जयंत देवड़ा के सेनापतित्व में राजपूत सेना सन्नद्द हुई। बादशाही सेना का पड़ाव सिवाणा (गढ़ सिवाना) में था। रात के समय राजपूतों ने शाही सेना पर हमला बोल दिया। रात्रि में असावधान बादशाह सेना संभल नहीं सकी एवं पराजित हुई। बंदी छोड़ दिए गए एवं उलूग खां भाग गया। भगवान सोमनाथ के लिंग के टुकड़ों को हस्तगत किया। कान्हडदे की जय जयकार हुई।

हरिशंकर राजपुरोहित “जालौर गढ़ में जौहर पृष्ठ ६४” पर कान्हडदे द्वारा अपने राज्य की सुरक्षा के प्रबंध कुछ इस तरह लिखते हैं। जालौर के महाराज के पास युद्ध के लिए असंख्य हाथी, घोड़े, ऊंट महावत, घुड़सवार तथा ऊंट सवारों के साथ-साथ भरपूर पैदल सेना थी और इसकी सहायता के लिए सुयोग्य संगठन था। कान्हडदेव की घोड़ों की सेना में छत्तीस वर्ण के घोड़े थे, जिसमें उत्तर देश के उतिरा, कन्नौज देश के कुलथा, मध्य देश के महुयड़ा, देवगिरी के देवगरादेषाऊ, बाहड़ देश के बोरिया, उजलागोरा, काला, सिंदूरी, तोरका, भरिजा, अहिबाणा, पहिढाणा, रुबरा, बेबाणा, संभाणी, पाणीपंथा, अराहा, शेराहा, कलिकंठा, किहाड़ा, करड़ा, करड़ागर, नीलड़ा, मलहड़ा, हारियड़ा, शेरषेड़ा, टूंटकना क्षेत्र खुरसानी, लहीटूया, गंगटीसा, हंसजादर, उणनभ्रमर, उधस्यां पोरणा, चपल-चरण विस्तीर्ण, शालिहोत्री, प्रतिष्ठान सिंह, विशेष गति वाले, मन से चलने वाले और हवा में तैरने वाले, पटिये पत्र देकर उतारने वाले, मन में लक्ष्य साध कर चलने वाले, समुद्र में बसने वाले आदि अनेक प्रकार के विलक्षण करतब करने वाले घोड़े तथा घोड़िया अस्तबल में थे।

इन घोड़ों पर डालने के लिए तरह-तरह काठियां थी। विभिन्न ऊटो के लिए तरह-तरह के पलाण बने हुए थे। जिन पर चांदी और पीतल का काम भी था। हाथियों के होदे एक से एक सुंदर थे। जिनमें से कुछ तो विशेष अवसरों पर प्रयुक्त होने वाले थे, जो सोने-चांदी से जड़े थे जालौर राज्य के शस्त्रागार में तरह-तरह के अपार अस्त्र-शस्त्र जमा किए गए थे। विभिन्न तरह के भाले, भिन्न-भिन्न प्रकार की तलवारे, भांति-भांति की ढाले, अलग-अलग प्रकार के बर्छे व बर्छिया तथा तरकस सहित धनुष-बाण भी थे 36 प्रकार के दंडायुद्घ थे। सैनिकों तथा सैनिक अधिकारियों के लिए तरह-तरह की पोशाकें, अंगरखिए थी। अंगों की रक्षा के लिए विभिन्न प्रकार के कपड़ों की पोशाके भी भिन्न भिन्न प्रकार की बनवाई गई थी। जिनसे शत्रु द्वारा अचानक निहत्थे सिपाही पर वार कर देने के बावजूद शरीर को बचाया जा सकता था।

“खारड़िया सीरवियों रो इतिहास” पृष्ठ ४२/२७ जालौर पर अपना अधिकार जमाने के लिए अलाउद्दीन खिलजी ने अपनी सेना जालौर की तरफ रवाना की। आक्रमण की संभावना देख कान्हडदेव ने अपने पड़ोसी राजाओं से सैनिक सहायता मांगी। विक्रम संवत् १३५५ में पाटण पर अलाउद्दीन का शासन स्थापित हो गया था, और कतुबतातार को पाटण का सुल्तान बनाया गया। तुर्को का अत्याचार ज्यादा बढ़ने के कारण खारड़िया राजपूतों ने गुजरात छोड़ने का मानस बना लिया था। यह खारड़िया राजपूत जालौर जाने के इच्छुक थे। उस समय जालौर एक शक्तिशाली राज्य माना जाता था। खारड़िया राजपूतों को गुजरात में हुए अल्लाउद्दीन के अत्याचारों का चिंतन सता रहा था। इस कारण उन्हें जालौर की सहायता करने का अच्छा अवसर मिल गया। सभी खारड़िया राजपूत अपने घर, बाहर की सामग्री लेकर परिवार सहित जालौर पहुंच गए। कान्हड़देव ने इन खारड़िया राजपूतों को जालोर की सेना में भर्ती कर लिया। राजा कान्हडदेव ने प्रसन्न होकर इन सैनिकों को परिवार के साथ रहने के लिए उचित क्षेत्र बता दिया था।

राठौर, परिहार, पंवार, चौहान, सोलंकी, लचेटा, गहलोत, सेपटा, काग, भायल, पिड़ीयारिया, देवड़ा, आगलेचा, भुंभदड़ा, चोयल, हांबड़, सैंणचा, सोनगरा, सींदड़ा, खंडाला, बरफा, मोगरेचा, सियाल्ल, मुलेवा।

यह खारड़िया राजपुर तिलवाड़ा से पश्चिम में थोड़ा आगे खारी नदी के उत्तर किनारे पर खावड़ा गांव बसाकर रहने लगे। इसी क्षेत्र में खारी नदी के दक्षिण किनारे पर जडवा सीरवियों का निवास जणवा गांव है। खारड़िया राजपूत, जो गिरनार की कैद से शस्त्र धारण नहीं करने का वचन देकर रिहा हुए थे। वह गुजरात सीमा तक पूर्ण संकल्पबद्ध रहे और जो कैद में नहीं थे, वह जवान जालौर की सेना में भर्ती हुए। वैसे देखा जाए तो शस्त्र धारण नहीं करने की को शर्त थी, वह गुजरात में रहने तक की थी। इस कारण नौजवानों द्वारा यह बात गूंजने लगी। चंद्रसिंह जी का जोश भरा दोहा :-

गुजरात वा छूट गई, छूट गई वा आण।

नयौ राज, नव राजवी, कान्हडदे चौहाण।।

“खारड़िया सीरवियों रौ इतिहास” पृष्ठ, ४३/२८ के अनुसार कान्हडदे द्वारा सहायता मांगने पर सहायता मिली, रेवंती व धानशा की तरफ से आने वाली शाही सेना को राजपूतों ने खंडाला के पास रोक दिया। शाही सेना तितर-बितर हो गई। खारड़िया राजपूतों ने जालौर की सेना में भर्ती होकर युद्ध के मैदान में अपनी चिर प्रसिद्ध वीरता दिखाई। दिल्ली बादशाह अलाउद्दीन ख़िलजी ने मेवाड़ के शासक रतनसिंह को मारकर मेवाड़ पर अधिकार कर लिया था। रतनसिंह की रानी पद्मिनी ने अपनी सात सौ सहेलियों के साथ जौहर किया। मेवाड़ के राजपूतों ने उज्जैन के सांवतसिंह पंवार, जो राणा रतन सिंह की सेना में योग्य सरदार रहे थे, उनसे मिलकर मेवाड़ के सुल्तान खिजर खां से छुपकर अपनी सेना बनाई। उस समय कुछ वर्षों पहले से सांवतसिंह पंवार खारड़िया राजपूतों के साथ खारी खाबड़ में रह रहे थे। मेवाड़ के सामंत लोगो ने सांवत सिंह पंवार को वापस मेवाड़ बुलाया। मेवाड़ सामंत सांवतसिंह को सैनिक टुकड़ी का सेनापति नियुक्त कर जालौर भेजा गया। सांवतसिंह और उनके सैनिक ने युद्ध में अभूतपूर्व वीरता दिखाई। कान्हडदे के योद्धाओं ने पूरे जोश के साथ युद्ध किया। आखिर मुस्लिम सेना को हार कर भागना पड़ा और कान्हडदे की जीत हुई।

कान्हडदे ने जीत का श्रेय सहायकों को देते हुए उनका आभार प्रकट किया। रेवंती और धानसा सैनिकों का सम्मान के साथ मेवाड़ी वीरों का सम्मान करते हुए उनका लाख लाख धन्यवाद किया और सैनिक टुकड़ी के सेनापति सांवतसिंह का युद्ध में कौशल देख, कान्हडदे ने अपने परिवार सोनगरा में से अपनी पौत्री का विवाह सांवतसिंह के साथ कर दिया। सांवतसिंह ने जालौर में सांवतपूरा गांव बसाया। खारड़िया राजपूतों का अपने देश के प्रति प्रेम और बलिदान देख राजा कान्हडदेव ने बहुत सम्मान किया और कहा कि “अब मै आपके विकास का पूर्ण ध्यान रखूंगा। आप लोग इसी तरह अपने देश में सहायता करते रहना, हमारे राज्य में आपको जो सुविधा चाहिए वह मांगिए। हमारी तरफ से आपको हर तरह की सुविधा मुहैया कराई जाएगी। कुछ इतिहासकारों का इनमें भिन्न मत है। मुंशी देवीप्रसाद कृत ‘मारवाड़ मर्दुमशुमारी रिपोर्ट’ के अनुसार खारड़िया राजपूत जालौर के ही निवासी थे। इतिहासकारों के इन विचारों पर हमारे समाज के बांडेरू एवम् भाट भी सहमत है। जैसे खारड़िया सीरवियों में से एक गौत्र लचेटा (परिहार) के इतिहास से हमें यह जानकारी मिलती है कि विक्रम संवत् ८ वीं शताब्दी के आस- पास हिंदुजी परिहार जो लेसटाजी के पिताश्री थे, जाबालीपुर (जालौर) के पास लेटा गांव बसाया और वहीं रहते थे। इसी तरह राव भाटो के अनुसार उपर्युक्त समय के आस-पास ही सीरवी समाज के पूर्वजों द्वारा २४ खेड़े बसाए गए थे। (जिनका विवरण आगे इसी पुस्तक में लिखा गया है।) खारी क्षेत्र में निवास करने के कारण ही उन्हें खारड़िया राजपूत कहा जाता था। इन्हीं खारड़िया राजपूतों का शासन जालौर पर था तथा चौहान वंशीय राजा कान्हडदेव इन्हीं में से थे।

“खारड़िया सीरवियों रौ इतिहास” पृष्ठ ४४/२९ के अनुसार खारड़िया राजपूतों के प्रधान जांजणदे गहलोत ने अपने साथियों के मन की बात राजा कान्हडदे के सामने रखी। महाराज! हम कृषि व्यवसाय (खेती) करना चाहते है। आप हमें उपर्युक्त कृषि भूमि उपलब्ध कराएं। कान्हडदे प्रसन्न होकर उसी वक़्त सभा में बैठे जालौर के जमीदारो को आदेश जारी किया गया । खारड़िया राजपूतों का आज के दिन जिस क्षेत्र में निवास है, उस क्षेत्र के जमीदार इन खारड़िया राजपूतों को कृषि हेतु भूमि देवे। जिसमें भूमि, पानी, खाद जमीदारों का होगा। जुताई, बीज, बुवाई, निदाण, धान कड़ाई और हाथ मेहनत काश्तकारों का होगा। रबी की फसल की उपज का आधा हिस्सा और खरीफ फसल की उपज का नवा हिस्सा जमीदारों का होगा।

खारड़िया राजपूतों को जमीदारो की तरफ से कोई कष्ट नहीं होना चाहिए। सभी जमीदारों ने राजा के आदेश को प्रसन्न मन से स्वीकार कर लिया। कान्हड़दे ने सभा में कहा कि “हमारे जालौर में सीर री खेती करने वालों को सीरवी कहा जाता हैं।” कान्हड़दे ने खारड़िया राजपूतों से कहा “आज से आपको खारड़िया राजपूत से खारड़िया सीरवी पुकारा जाएगा।” आप मेहनती हो, सीरवी पद की शोभा बढ़ाओगे और आपकी मेहनत की उपज से राज्य की आर्थिक स्थिति और मजबूत होगी। कान्हड़दे का एक और आदेश था कि गणमान्य खारड़िया राजपूतों में से यदि कोई खेती करने में बल पूर्वक शारीरिक प्रयोग नहीं कर सके, उसे आपके कृषि भूमि का प्रबंधक बनाना होगा। कन्हड़दे ने सीरवी शब्द के संदर्भ में अर्थ बताते हुए कहा कि –

भूस्वामी री ओर सूं, परबंधक जो होय।

देखो शब्द सीरवाह, शब्द कोश में जोय।।

सीरवाह को बोल चाल की भाषा में सीरवी कहा जाता है। कान्हड़दे ने आगे कहा, आपकी मांगे स्वीकार कर ली गई है। जोगमाया आपरौ भलौ करेला। खारड़िया सीरवियों ने कान्हड़दे की जयकार लगाई। सांवत सिंह ने राजा साहब से खमा घणी करते हुए अनुरोध किया कि महाराज ! मैं लंबे समय से खारी खाबड़ में इन राजपूतों के साथ रहा हूं। हम सभी राजपूत भाई है। मैं भी इन सभी राजपूत भाइयों के साथ रहकर इनकी तरह कृषि व्यवसाय करना चाहता हूं। मुझे भी सीरवी पद दिलवाने की कृपा करावे। जवाई जी की यह बात सुनकर राजा प्रसन्न होकर सांवत सिंह को भी “सीरवी खारड़िया” पद से नवाजा गया।

कान्हडदेव के मुखारविंद से – आज विक्रम संवत् १३६५ की वैशाख शुक्ला द्वितीया है। आज का यह शुभ दिन आपके लिए “सीरवी जयंती” दिवस हैं। आप और यह सारी सभा विधि विधान से इस दिन को मनाओगे। प्रधान को आदेश देकर एक सजा हुआ हल मंगवाया गया। जांजणदे गहलोत और सांवत सिंह पंवार समस्त खारड़िया सीरवियों की उपस्थिति में जोगमाया, हनुमान, आशापुरी देवी एवम् समस्त देवी-देवताओं का स्मरण करते हुए, अन्नपूर्णा देवी की भी पूजा की गई। देश की जनता के लिए सुख शांति व खारड़िया सीरवियों की एकता बनीं रहे यह कामना करते हुए विधि विधान से हल की पूजा की गई। हल के हत्था पर मुखिया जांजणदे गहलोत का हाथ रखवा कर “सीरवी जयंती” उत्सव का श्रीगणेश हुआ “क्षत्रिय राजवंश” पृष्ठ १६४ से चौहान राजवंश के बाबत ज्ञात होता है कि सांवत सिंह ने अलाउद्दीन खिलजी की बढ़ती हुई शक्ति को देखकर अपने पुत्र कान्हडदेव को जालौर का राज्य दे दिया और जालौर राजवंश क्रम में कान्हडदेव का विक्रम संवत् १३५०-१३६८ तक समय रहा था। विक्रम संवत् १३५५ में कान्हडदेव के आक्रमण का मुकाबला मुस्लिम सेना न कर पाई और मुस्लिम सेना को हार कर भागना पड़ा। बाद में विक्रम संवत् १३६२ में बादशाह ने एेन उल मुल्क सुल्तान के नेतृत्व में एक सेना जालौर भेजी। परन्तु मुस्लिम सेना नायक ने आदरपूर्वक संधि का आश्वासन दिलाकर राजा कान्हडदेव को दिल्ली भेज दिया।

“जालौर गढ़ में जौहर” में हरिशंकर जी लिखते हैं कि दिल्ली सुल्तान के सेनानायक मुल्तानी केवल अच्छा सेनापति ही नहीं था, बल्कि वह बहुत अच्छा तार्किक व विद्वान व्यक्ति भी था। जालौर के कुल शिरोमणि पूर्व महाराज सामंत सिंह से उसकी पुरानी पहचान व दोस्ती थी। एक रोज जुम्मे के दिन (ग्यारस का दिन भी था) दोनों ओर की फौजें आपसी सहमति से अपने-अपने धार्मिक उत्सव और कार्य में व्यस्त थीं और लड़ाई को ढील दी हुई थी। तब पुरानी दोस्ती की बात कहकर सिपहसालार मुल्तानी ने पूर्व महाराज से मुलाकात की इच्छा जाहिर की तो महाराज सामंत सिंह की स्वीकृति पर दोनों “बड़ो” की मुलाकात की व्यवस्था जालौर राज्य की सीमा में कर दी गई। दोनों ही मिलकर बहुत प्रसन्न हुए। पुरानी यादें और वर्तमान परिस्थितियों में शांति बनाए रखने की इच्छा दोनों ओर से व्यक्त की गई। पूर्व महाराज सामंत सिंह तो शांति चाहते थे। फिर उनका पुराना साथी, जो एक होशियार व बुद्धिमान सिपहसालार बनकर आया था। उसकी ओर से भी पूरा विश्वास दिलाया जा रहा था कि जालौर की गरिमा तथा सीमा को किसी भी प्रकार से नीचा दिखाने की बात नहीं थी। तब रावल कान्हडदेव को पिता महाराज की सलाह मानने पर विवश होना पड़ा। आपसी बातचीत व समझौते के लिए दूतो के द्वारा सिपहसालार मुल्तानी और जालौर के अधिपति रावल कान्हडदेव की वार्ता का आयोजन कराया गया। जिसमें रावल कान्हडदेव को दिल्ली सुल्तान के दरबार में उचित सम्मान दिए जाने का वचन दिया गया। दोनों पक्षों की ओर से कोई हर्जाना या नजराना, कोई लेन-देन न करने की बात मान ली गई और भविष्य में शांति बनाए रखने के लिए जालौर-दिल्ली संधि सम्मानजनक रूप से स्वीकार कर ली गई।

निष्कर्षत:

उपर्युक्त लिखे अनुसार विक्रम संवत् १३५५ के युद्ध में अलाउद्दीन खिलजी की सेना का हारना और विक्रम संवत् १३६२ में अलाउद्दीन खिलजी का राजा कान्हडदेव के साथ संधि करना यह दर्शाता है कि राजतंत्रीय विद्या के समय में कान्हडदेव ने अलाउद्दीन खिलजी द्वारा की गई संधि के विश्वास से सैन्य बल पर कम और अपनी आर्थिक स्थिति पर ज्यादा ध्यान दिया, इसी दरम्यान खारड़िया राजपूतों के साथ कृषि व्यवसाय हेतु विक्रम संवत् १३६५ में ताम्र-पत्र (लिखित आदेश) जारी किया जाना प्रतीत होता है और खेती एक दूसरे के सहयोग व सीर में ही होती है। अतः सीरवियों के साथ एवम् अपने बंधुओं के साथ आपसी सीर में खेती करने से खारड़िया राजपूत भी खारड़िया सीरवी कहलाने लगे और हमारे पूर्वजों ने भी अपनी कौम का नाम “सीरवी खारड़िया” स्वीकार कर लिया था।

समाज के राव-भाट बंशीलाल जी, राणाराम जी भैरावत एवम् गांव लेटा मीणो के राव दौलतराम जी के अनुसार जालौर (जाबालीपुर) नरेश कान्हडदेव के समय से पहले समाज पूर्वजों (खारड़िया राजपूतों) ने (जो वि. सं. १३६५ में कौम सीरवी (क्षत्रिय) समाज खारड़िया के नाम मुकर्रर हुई) जालौर, आहोर, सिरोही के अास-पास पहाड़ी इलाकों में व कुछ आज पाली जिले में है, २४ खेड़े बसाये, जो निम्न है :- १. राठौड़ (बिठू द्वितीय), २. परिहार (नाचोली), ३.पंवार (मानपुरा), ४. चौहान (बिठुड़ा), ५. सोलंकी (उकरला), ६. गहलोत (कुरजिया), ७. लचेटा (लेटा), ८. सेपटा (हींगोला), ९. काग (कुक्षी), १०. भायल (खेजडिया), ११. परिहारिया (जोगणी), १२. देवड़ा (आका थुम्बा), १३. आगलेचा (आकों रा पादरला), १४. भुम्भाड़िया (बागोड़ा), १५. चोयल (पादरला), १६. हाम्बड़ (जेतपुरा), १७. सेणचा (केरला प्रथम), १८. सोनगरा (सामतीपुरा), १९. सींदड़ा (सोदरा), २०. खंडाला (मंडवला), २१. बर्फा (गोखडू), २२. मोगरेचा (केरला द्वितीय), २३. सियाल्ल (बड़ली) २४. मूलेवा (मूलेवा) ।

पुस्तक ;- सीरवी क्षत्रिय समाज खारड़िया का इतिहास एवं बांडेरूवाणी

लेखक एवम् प्रकाशक

सीरवी जसाराम जी लचेटा

( रामपुरा कलां )रामापुरम, चेन्नई

 

COPYRIGHT

Note:- संस्थापक की अनुमति बिना इस वेबसाइट में से किसी भी प्रकार की लेखक सामग्री  की नकल या उदृघृत किया जाना कानून गलत होगा,जिसके लियें नियमानुसार कार्यवाही की जा सकती है।

Recent Posts