राजस्थान (राजपुताना) का इतिहास विशेषकर प्राचीन लोकोक्तियां दोहों गीतों और कहानियों मैं मिलता है हस्तलिखित ऐतिहासिक पुस्तकें नष्ट हो जाने पर भी बहुत सा इतिहास यहाँ के लोक गीतों में मौजूद हैं। राजस्थान के अधिकतर इतिहासकार एक दूसरे को पुस्तक का अवलोकन कर उसके सहारे यहाँ  का इतिहास लिखकर संतुष्ट हो गए, परंतु वास्तविक इतिहास यहाँ के गाम गीतों और शिलालेखों में पाया जाता है जिस पर इतिहास लेखकों ने बहुत कम ध्यान दिया है जो कि महत्वपूर्ण कार्य था। आज मै प्राचीन गीत, ( निसाणी ) के आधार पर मारवाड़ (राजस्थान) की लोकप्रिय सती कागणजी की जीवनी के कुछ अंश भेंट कर रहा हूं। मारवाड़ के देसुरी परगने (तहसील) के ” वरकाणा” नामक ग्राम के सीरजी जाति में काग गोत्र के सीरवी लालाजी के घर वि.संवत् १७६२ के लगभग का कागणजी उर्फ हीरादे का जन्म हुआ था! बाल्यकाल से ही हीरादे कागण बड़ी विलक्षणा बुद्धिवाली ज्ञात होती थी। हीरादे का विवाह बिलाडा के तत्कालीन दीवान के कुवर हरिदासजी ( उर्फ हरिसिंहजी ) राठौड़ के साथ हुआ था वि. संवत् १८२४ के आषाढ़ सुदी ११ के दिन हरिदासजी अपने पिता के उत्तराधिकारी हुए। बडेड की दीवान परम्परा की गादी पर आरूढ़ होने के कुछ वर्षों पश्चात हरिदासजी ने बाघेल गोत्र की कन्या से विवाह कर लिया। विवाह होने के कुछ ही महीनों बाद दीवान हरिदास जी ने अपनी पूर्व विवाहित पत्नी के बहकाने में आकर अप्रसन्न हो गए और कागणजी को मन से उतार दिया अर्थात उनके ( कागणजी) महलों में जाना बंद कर दिया और इस प्रकार कागण हीरादे अपने पति का कोप भजन बन गई। उसको एक कच्चे मकान में रहने और अन्य सुख सुविधाओं से वंचित कर दिया । इरादे पति द्वारा तिरस्कृत हो जाने पर भी अपने कर्तव्य पथ से भ्रष्ट नहीं हुई। वह सदैव अपने इष्टदेव “श्री आई माता” की उकसाना व भक्ति में ही मस्त रहने लगी और पति के प्रति स्त्री का किया कर्तव्य होना चाहिए, इसका विचार करने लगी। पतिव्रता स्त्रियों केकई आख्यानों का वृद्ध महिलाओं से सुनकर हीरादे कागण के दिल मैं अपने पति दीवान हरिदासजी के प्रति किसी भी प्रकार के कटु विचार उत्पन्न नहीं हुए। जब वि.संवत् १८४२ में मालवा प्रान्त के चोली महेसर नामक स्थान पर दीवान हरिदासजी ने अपना शरीर त्याग दिया उसी दिन बिलाडा़ में कागणजी को अपने पवित्र और अलौकिक सतीत्व के प्रभाव से चरखा फेरते समय अकस्मात् ही सत आ गया और माटमोर बाग में जाकर अपने पति के प्रति  अलोकिक भक्ति और प्रेम का परिचय देतीे हुई उनके मोलिया के साथ समाधिरथ हो सतीत्व को प्राप्त हुई। बिलाडा़ नगर में प्रस्थान करके कागणजी बाग जाते में जाते समय मार्ग में एक अरहट पर श्रद्धलुओं के निवेदन करने पर कुछ समय तक ठहरी थी। उस अरहट को आज भी कागणमाँजी की ढींबड़ी के नाम से पुकारते हैं । बाग में सती कागणजी की समाधि के ऊपर उनके पीछे समृति चिन्ह के लिये दीवान उदयसिंहजी ने एक छत्री बनवाई जिसके भीतर लगी हुई। पुतली में यह खुदा हुआ है, दीवानजी राजश्री हरिदासजी लारे कागणजी सती हुआ (दृष्टव्य- राजस्थान भारती (त्रेमासिक) बीकानेर -जुलाई 48 पृष्ठ 37) सती कागणजी के पिता-माता तथा अन्य किसी कारणवश वरकाणा ग्राम को त्याग कर कुछ वर्ष तक डायलाणा नामक ग्राम में रहे और फिर ग्राम को भी सदा के लिये त्याग कर मालवा ( वर्तमान मध्यप्रदेश) के भू.पू “धार” के ग्राम राजगढ़ के पास स्थित ग्राम “छडा़वद” मे जाकर बस गये । इस काग परिवार के वर्तमान सदस्यों में श्री कालुरामजी का विद्यमान है। इनका यहाँ सती कागणजी (हीरादे) की जूतियाँ सूत की कोक़डी और पोशाक आदि वस्तुएं स्मारक के रूप में अभी तक रखी हुई है। चरखे पर सूत कातते समय ही कागणजी को अकस्मात् सत आ गया था। धागे (सूत) की कोक़डी में से धागा तोड़कर उक्त काग परिवार के नवजात शिशु के हाथ में ‘बेल’ के रूप में आज तक बाँधते है, किन्तु कोक़डी उसी रूप में अभी तक विद्यमान है। कागणजी के चौर (ओरणा) के एक भाग को भिगोकर कष्ट पाती हुई गर्भवती महिला को जल पिलाने से शिशु का आसानी से जन्म हो जाता है। कागणजी के पीहरवालों का बही भाट श्री मोहनजी (दोलाजी) भुणाराव ग्राम जेतपुरा (पो.देवली,वाया-आउदा,जिला-पाली) वाले है! सीरवी जाति के श्रद्धालुजन और अन्य जाति की डोराबन्द (आई पंथी) सति कागणजी को बहुत उच्च विभूति  मानते हैं। राजस्थान और मालवा में आईजी के बढेर अथवा मंदिर में कागणजी का गुणगाना (उनकी निशानी के रूप में) श्रद्धा पूर्वक किया जाता है। सती कागणजी गणेशजी का यश जती भग्गाबाबाजी पंवार ने “निशानी” में रुप में जो वर्णन किया है , वह बढेर बिलाडा के पुराने कागजों में मिली एक हस्तलिखित प्रति के आधार पर लिखकर अंगलिखित पंक्तियों में दिया जा रहे हैं।

निशानी (राखी)

शारदा माता म्हू थने सिवरूं, गणपति लागू पाया।

निसाणी कहिजै कागण मायरी, आखर लीजो उउठा।

घुर विनायक वींदवू,  लागू गुरों रे पाय।

अधर दलिचों बिराज्या,गादी ततियाँ रा रखवाल।।

घिन माता रे औदर उपना, पड़िया पाँखों बाहर।

सोने री छरियों सू नाला मोरिया,सूता पालणिया रे माय।

घर घर आन्नद बधावणा,  घर घर मंगलाचरण ।

प्रेम रो पोतरो पलेटिया, धाया इमरत धार॥

तिल बधन्तां जब बंधे, रतियन जामें फेरी।

मोटा घरों से मन किया, मेलिया लीलोडा़ नालैर ॥

नालेर नाकारो नही कहिजै, हेत कर भैलियो हाथ।

आप राज कुली राठौड़, मैं कागण कन्या जात॥

लेख तो बेमाता लिखिया, रुप दियो करतार।

आप घणी परणीजे बेग पधारजो, म्हारे कंकु कन्या तैयार।

जामे पहरजो जडा़वरो, मचकत बांधजो मौर।

पाग राठौड़ी तुरो सोवणों, उपर फूलों रो सौल॥

जान जुगत सू सोचरे, डेरा कीधा जाय।

बधउड़ो जाय बधई दीनी, जान लीजो बबधय॥

सैंया सामेलो हद कियो, मोतियों लिया बधाय ।

तोरण ठेको पाड़ियों आगे आई है जान॥

आप घणी चंवरी माडनं पराणिज्या, जांगो गोपी न कान।

मोहतणारीपूर परणीज नै सांचेर, माया आगे जाय।

तीन दिन धणी बरकाणे रहिया, मोतियाँ मांड़ो बणाय।।

उठा सूंपाठा पधारिया, तखत बिलाडा़ रे मांय ।

भर मोतियाँ गज थाल भुआ उतारे आरती॥

सेयां गावे सौलमो, घर घर मंगलाचर,

उठा सूं पाछा पधारिया, आई माता रे जाय।

धूपेड़ों मंगायने धूप खेवायों , इदकी जोत कराय।।

जोड़ी अधर सरुप खशेलो कांकण डोरडा़ बनङी हैं बरजोडं


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