इतिहास में उपलब्‍ध सामग्री के आधार पर हम यहां विचार करेंगे । खोज करने से पता चला कि जालोर में हल चलाकर कृषि कार्य अपनाने से सम्भवतः इन्हें ‘सीरवीही या सीरवीही’ कहा गया होगा। जालोर से निकलने के बाद संगठित होकर ये लोग लूनी नदी के आस-पास पूर्व में (पहले से) बसे लोगों के साथ सीर ( साझे) में खेती करने के कारण ‘सीरवी’ कहलाए। गुजरात के ‘ खारी खाबड़ ‘ क्षेत्र से आने के कारण ‘ खारडिया’ कहलाए। कुछ विद्धानों ने खारी क्षेत्र ( लूनी नदी के आस-पास का क्षेत्र) में निवास करने के कारण इन्हें ‘खारड़िया’ कहा है।

सीरवी शब्द की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विभिन्‍न विद्धानों की मान्यताएं इस प्रकार हैं:-

(१) मारवाड़ की आप बोलचाल भाषा में ‘ सीर ‘ साझे को कहते है। हथियार छोड़ परस्पर ‘साझा’ खेती करने ‘सीरवी’ कहलाएँ।

(२) ‘सीर’ को चलाने वाले ‘सीरवीही’ संस्कृत भाषा का शब्द है। सीर का अर्थ हिंदी में हल का अग्रभाग हैं। ‘सीरवीही’ हल को चलाने वाला।

(३) सीरवी शब्द सृज्यति का अपभ्रंश है यानि पैदा करने वाला या मान लीजिए कि ‘ खेती-बाड़ी करने वाली जाति।

(४) ‘सीर’ वह जमीन है जिसे जमीदार स्वयं जोतता है।

(५) हिंदी शब्दकोश में ‘सीरवी’ का समानार्थी शब्द ‘सीरवइवाँ है, जिसका अर्थ ‘भूमि प्रबंध संभालने वाला या सीर में कृषि कार्य करने वाला होता है।

(६) सीरवाह – जमींदार की ओर से खेती का प्रबंध करने वाला कर्मचारी – चन्द्रसिंहजी चोयल

(७) सीरवी शब्द का शुद्ध संस्कृत शब्द है ‘ सीरवही ‘। संस्कृत में ‘सीर’ हल को कहते हैं। जो हल चलावे वही ‘ सीरवही’। – केसरीसिंहजी बारहठ कोटा।

(८) सीरवी वेतीति ‘ सीरवी ‘ अथार्थ हल के बारे में समझने वाला । वास्तव में सीरवी लोग हल की जीविका रखते हैं । यादि इन लोगों की वीरता से संबंध रखने वाली बातें पर ध्यान दिया जाए तो हल को शस्त्र के काम में लाने वाले , यह भी अर्थ हो सकता है।

(९) सीर =हल, वी=वाला

सीरवी हल को चलाने वाली एक विशेष क्षत्रिय जाती है। उपर्युक्त कथनों से यह स्पष्ट होता है कि सिर में कृषि कर्म करने वाला तथा निवास क्षेत्र (खारी खाबड़) के नाम पर इनका नामकरण “सीरवी खगड़िया” हुआ। विक्रम संवत 1365 वैशाख सुद बीज शनिवार को इन्होंने अपने हाथ से हल चलाकर कृषि कार्य प्रारंभ किया। यह दिन एक त्यौहार बन गया।

सी – सीर कियो जद सीरवी, सै जाणे संसार ।
र – रवि कुल है उत्पत्ति, जोधा हा बड़वीर ॥
वी – वीर धणांई जुंझीया, कान्हड़ दे रे साथ ।
जा – जालोर छोड़ निकलया, जी तुर्को रे हाथ ॥
ति – तिथ छोड़ी अपणे वतन री,बीखो पड़ता तांई ।
का – कार राखी क्षत्री कुल री,झकिया नी तुर्कों ताई॥
इ – इतरो विखो भुगततां, फिरता जंगलों मांय ।
ति – तिणवारे से सीरकर, खेत जोतिया जाय ॥
हा – हासियो हल हाथ सूं खेती अन्न निपजाय।
स – सकटी जोते सांत सौ,सरिता लूणी आय॥

यहां पर संक्षिप्त जानकारी लिखी गई हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए “सीरवी समाज का उद्भव एवं विकास” नामक पुस्तक ( बिलाडा़ मंदिर में उपलब्ध है ) पेज दृश्य न: २९/३० पुस्तक लेखक – श्री रतनलाल सीरवी (आगलेचा) एम.ए.(भूगोल),बी.एड.(शिक्षक)

 

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