जाणोजी राठौड़ के परिवार का कल्याण करना

भगवती श्री आईजी बिलाड़ा संवत् १५२१ में आए। इस समय बिलाडे के अधिपति राव जोधाजी के पुत्र भारमलजी अक्सर राव जोधाजी के साथ रहा करते थे। भारमलजी का कामदार राव धुहड़जी के पुत्र चण्डीपाल का वंशज था जाणोजी

बिलाड़ा का प्राचीन नाम बलीपुर था। राजा बलि का शहर। लोक भजनों में लोग गाते हैं :-

 बिलाड़ा बलिराज रो, वठै आईजी रो थान।

 गंगा बैवे गौरवे, नित का करो सनान।

भगवान राम द्वारा द्रमकुल्य सागर को बाण (आग्नेयास्त्र)  द्वारा सुखाकर मरुभूमि बनाने का वर्णन रामायण में है, वह स्थान जोधपुर के निकट बिलाड़ा है तथा भगवान राम का बाण बिलाड़ा के समीप बाणगंगा के कुंड में गिरा था।   जाणो जी राठौड़ के  एक पुत्र था माधवदासजी। माधवदासजी को रामपुरा (मध्यप्रदेश) के शासक राव शिवा ने उसकी काबलियत पर प्रसन्न होकर ५०००० की जागीर इनायत की थी। माधवदासजी रामपुरा के दीवान बनाए गए थे।

जाणोजी ने माताजी को उनका दुखड़ा सुनाया। माताजी की मेहरबानी से माधवदासजी बिलाड़ा आ गए। माताजी की मर्जी से बीला हाम्बड़ की बेटी सोढ़ी से माधवदासजी ने शादी रचाई। माताजी ने इस परिवार को आई धर्म की शिक्षा दी। माताजी ने उनको अनुयायियों को निति,कर्म तथा भक्ति का उपदेश दिया। श्री आई आनंद विलास के अनुसार महामायाजी कहे छै – ओ पंथ चार जुगो रो छे, इण धर्म रो राह गुरुमुखी हुवै जीणनुं  बतावजो, किणी धरम री निंदिया करजो मत्ती, किणी रो मरम छेदन करजो मति, चोरी-जारी करजो मती, करणी आवे तो जीव सूं उपगार करजो, पण किसी जीव नूं कष्ट उपजावजो मती, पराया जीव नु कष्ट करसो, जितरो आपरे जीव नूं कष्ट होसी। कुड बोलजो मती, ब्याज लीजो मती, जुवे रमजो मती अभख भाखजो मती, दारु, भांग, अमल, तमाखू आचरजो मती। झगड़ा-टंटा करजो मती। माता-पिता सूं क्रोध करजो मती। पैसा साटे बेटी परणावजो मती। क्रोध करजो मती। लोभ रा घातिया अकरम करजो मती। आपरा रवारथ रे वास्ते कोई जीव नूं दुख दीजौ मती।पेट में न मावे जिसडी बात हुवै तीका पीण किणी आगे दाखजो मती। धुप खेवजो ने सांझ-सवेरे ध्यान करजो। धरम रे पेंडे चालजो, जीव दया पालजो। मीठा भोजन करने मालिक रो सीवरण ध्यान करजो। थावर री बीज उजाली रि तिथ पालजो। दान देने पछतावजो मती।

 कालांतर में माताजी द्वारा प्रतिपादित धर्म में ग्यारह नियम लोकप्रसिध्द हुए। श्री आई-पंथ की वाणियां, में इन ग्यारह नियमों का एक पद बहुत ही लोकप्रिय है, जो इस प्रकार हैं।

‘प्रथम झूठ तजो सुख पाई। दूजो तो मंद-मांस चुड़ाई। तीजो धन पर ब्याज न लेवो। चोथे जुआ कभी न खेजो। पंचम माता-पिता री सेवा, छठे अभ्यागत हो देवा। सात गुरु की आज्ञा पालो, आठो परहित मारग चालो। नव परनारी माता जाणो, दस कन्या को धरम परणाओ। स्वारथ काज अकरम  न करना, गाँठ ग्यारह सन्मार्ग चलना। माताजी ने ग्यारह नियमों को हर पल याद रखने के लिए पुरुष के दांये हाथ की कलाई पर ग्यारह कच्चे  धागों से गूंथा एक धागा के ग्यारह गाँठ लगाकर बांधने को कहा। भगवती श्री आईजी ने ऐसा ही धागा स्त्री के लिए गले में बाँधने की नसीहत दी। बाद में श्री आईजी के अनुयायी डोराबन्ध कहलाए। सवंत १५३० में माधवजी के एक पुत्र हुआ जिसका नाम गोयन्द रखा। ‘गोयन्द दास को माताजी ने खुद के हाथों से डोराबन्ध बनाया’ माताजी ने गोयन्द दास को सब साधु सेवक मंडली में निति व भक्तिउपदेश दिया।

  दीवान वंश परम्परा-

सीरवी डोराबन्द अनुयायी तथा उपासकों के धर्म गुरू दीवान साहब की वंश परम्परा निम्नानुसार है:-

प्रथम – दीवान श्री गोयन्ददास जी

द्वितीय – दीवान श्री लखधीर सिंह जी

तृतीय – दीवान श्री करमसिंह जी

चतुर्थ – दीवान श्री रोहितदास जी

पंचम – दीवान श्री लिखमीदास जी

छठें – दीवान श्री राजसिंह जी

सातवें – दीवान श्री भगवानदास जी

आठवें – दीवान श्री कल्याणदास जी

नौवें – दीवान श्री पदमसिंह जी

दसवें – दीवान श्री हरिदास जी

ग्यारहवें – दीवान श्री उदेसिंह जी

बारहवें – दीवान श्री अनोपसिंह जी

तेरहवें – दीवान श्री लालसिंह जी

चौदहवें – दीवान श्री शिवदान सिंह जी

पंद्रहवें – दीवान श्री लक्ष्मणसिंह जी

सोलहवें – दीवान श्री शक्तिदान जी

सत्रहवें – दीवान श्री प्रतापसिंह जी

अठारहवें – दीवान श्री हरिसिंह जी

उन्नीसवें वर्तमान – दीवान श्री माधवसिंहजी

बिलाडा बढेर में भी आई माताजी ने अपने हाथों से दीवान गादी की स्थापना की एवं आरंभ से ही एक अनुशासित परंपरा रही बड़ा पुत्र ही दीवान गादी पर बैठेगा।  माताजी के डोराबन्द भी इसी बात को मानते आए हैं। यहाँ उत्तराधिकारी कभी लड़ाई नहीं हुई है यह बात प्रेरणादायक है । गादी पर बैठने वाला किसी भी उम्र का क्यों नहीं बड़ा पुत्र भी गादी पर बैठेगा उस परंपरा का भी एक जगह ही उल्लंघन हुआ है जब चौथजी जो रोहितदासजी के बड़े भाई थे फिर भी छोटे भाई रोहितदासजी की माताजी की भक्ति को देखकर स्वयं अपनी इच्छा से रोहितदास जी को गादि पर बिठाया

।। भगवती श्री आईमातार्पणमस्तु। शुभं भवतु।।

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