समाज के साहित्यकार

साहित्य समाज का दर्पण है यह जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता हैं। आदि से अन्त तक इन्ही चित्तवृत्तियों को संचित कर उन्हें व्यवस्थित रूप में शब्दों की अटूट श्रृंखला में पिरोकर लिखित रूप देने वाला, साहित्यकार कहलाता है। साहित्य का स्वरूप और समाज साकत्यि किसे कहते हैं, इसका स्वरूप क्या है ? इस संबंध में अनेक मत हो सकता हैं, लेकिन एक तथ्य पर सभी विद्वान सहमत हैं कि साहित्य की मूल चेतना और भावना अथवा आधार मानव और समाज की उन्नति है। मानव समाज द्वेष, घृणा, शोषण और अमानवीय कर्मों को त्याग कर प्रेम, त्याग और समत्व के आधार पर ही विकास की ओर बढ़ता है। इस भौतिक जीवन का लक्ष्य सभी को दुख और पीड़ा से मुक्ति देना, अपने सुख और सुविधाओं को प्राप्त करना ही नहीं है, अपितु आत्मा के विकास से परम सत्ता को जानना और अखंड आनंद या सुख प्राप्त करना भी है। अतः साहित्य इस पक्ष को पोषित करता है। साहित्य शब्द का अर्थ-स $ हित, अर्थात् जो हित की भावना से युक्त हो, किया जाता है। इसलिए साहित्य में मानव और मानव समाज के हित की कामना होती है। साहित्य शब्द से उसके अनेक रूपों और विधाओं का ज्ञान होता है। कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी, निबंध आलोचना आदि विधाएँ साहित्य के ही रूप हैं। साहित्य की रचना समाज से ही होती है। साहित्य और समाज का संबंध आत्मा और शरीर को जो संबंध है, वही संबंध साहित्य और समाज का भी है। सत्य है कि साहित्य की अपेक्षा समाज पहले जन्म लेता है। समाज से ही साहित्यकार जन्म लेते हैं। साहित्यकार के व्यक्तित्व की अलग पहचान यही हो सकती है कि उसकी दृष्टि और चिंतन शक्ति, भावना और संवेदना साधारण व्यक्ति से भिन्न होती है। साधारण शब्दों में वह अधिक चिंतनशील और भावुक होता है। जिस दृष्टि से सर्व साधारण व्यक्ति या आम आदमी देखता और सोचता है, उससे कहीं बढ़कर साहित्यकार गहरी तथा व्यापक दृष्टि और चिंतन रखता है। साहित्यकार जिस साहित्य की रचना करता है, उसकी जड़ें समाज से ही विषय-वस्तु प्राप्त करती हैं और उसी में गहरी जुड़ी होती हैं। लेखक अथवा कवि अपने समाज की परिस्थितियों में ही जीता है, उनसे प्रभावित होता है। वह किसी भी रूप में उनसे अलग नहीं हो सकता है। समाज में जो परिवर्तन होते हैं, उन्हें वह देखता है, उन्हें भोगता है और उनसे प्रभावित होता है। समाज का एक सांस्कृतिक आधार भी होता है। संस्कृति भी समाज की आत्मा और पहचान होती है। जब समाज की संस्कृति किसी अच्छे या बुरे, सुंदर या असुंदर, मंगलकारी या अमंगलकारी रूप में परिवर्तित होने लगती है, उसका आधार, मूल्य या मानदंड बदलने लगते हैं तो साहित्यकार इनकी परख करता है। जो परिवर्तन मनुष्य और समाज के कल्याण के लिए होते हैं, वह उनका समर्थन करता है और जो परिवर्तन समाज को तोड़ते हैं, मर्यादा और संस्कृति का हनन करते हैं, मूल्य और चरित्र को उपेक्षित कर देते हैं, साहित्यकार उनका विरोध करता है। इस दृष्टि से वह समाज का अंग होकर भी पथ-प्रदर्शक होता है।

अंधकार है वहाँ, जहाँ आदित्य नहीं है।
मुर्दा है वह देश, जहाँ साहित्य नहीं है।।

यदि हम अपने सीरवी साहित्य का विवेचन करें तो यह संबंध स्पष्ट हो जाता है। हमारा प्राचीनतम् वैदिक और संस्कृत साहित्य भारत के उन्नत और गौरवशाली समाज का प्रमाण है। इस साहित्य में विश्व मानव और ‘वसुधैव कुटुंबकम्‘ की जो भावना है, मनुष्य के भौतिक और आत्मिक उत्थान की जो कामना है, वह समाज की महान संस्कृति का प्रमाण है।

स्वर्गीय श्री शिवसिंहजी चोयल

स्वर्गीय श्री शिवसिंहजी चोयल” उन साहित्यकारों में से हैं जो विज्ञापनबाजी से दूर रहकर अनवरत् अपनी साहित्य साधना में लीन रहे। ग्रामीण क्षेत्र के बिखरे हुए साहित्य को लिपिबद्ध करने का जो कार्य क्या है वह महत्वपूर्ण है इनका व्यक्तित्व साहित्यकारों एवं इतिहासवेताओं के लिए अनुकरणीय हैं। श्री मोहनलालजी राठौड़ जिन्होंने समाज में फैलने वाली बुराइयों पर लेख प्रकाशित कर आपने इन्हें समाज के सामने उजागर किया। श्री चन्द्रसिंहजी चोयल जिन्होंने सीरवी जाति के इतिहास व प्रसार सम्बन्धी अनेक तत्वों की महत्वपूर्ण खोज कर रचना की। श्री पोमारामजी परिहार श्री आई माताजी पर काफी लिखा है जीवन में सफलता किस प्रकार प्राप्त की जा सकती है यह आपके काव्य में परिलक्षित ही होती हैं सीरवी समाज में धार्मिक जागृत व एकता के लिए आपका कार्य सराहनीय है। श्री हरिराम जी चोयल मैसुर जिन्होंने सदैव अपनी लेखनी से सामाजिक पत्रिकाओं की विशालता में सहयोग दे रहे हैं। विभिन्न समाजों में समय-समय पर अनेक साहित्यकार , रचनाकार, लेखक, कवि हुए है। वैसे साहित्यकार का कोई धर्म या जाति नहीं होती है । सीरवी समाज के अध्यापक वर्ग में इस कार्य में अग्रिम भूमिका निभाई।

हम कौन थे, क्या हो गए, और क्या होंगे अभी।
आओ विचारें आज, मिलकर, ये समस्याएँ सभी।।

आज संस्कृति का जो गहरा संकट और विश्व में भौतिक, वैज्ञानिक, चिंतन, धर्म के क्षेत्र में जो परिवर्तन हुए हैं, साहित्य उन्हें पहचानता है और निष्पक्ष रूप से उसकी परख कर उसकी विसंगतियों को भी प्रकट करता है। अतः साहित्य और समाज का अभिन्न संबंध है।

उपसंहार

साहित्यकार यद्यपि उपदेशक नहीं होता है, तथापि उसका व्यापक चिंतन समाज को नई दिशा देता है। अतः उसका लक्ष्य केवल कल्पना के रंगीन लोक में खोकर रचनाएँ करना नहीं है, अपितु समाज और मानव के कल्याण की दिशा की पहचान कराना भी है। वह उपदेशक नहीं होता है, परंतु उपदेश के मर्म को समझाता हैः-

केवल मनोरंजन ही न कवि का कर्म होना चाहिए।
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।।

 

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