स्वर्गीय श्री शिवसिंह जी चोयल

समाज में कुछ ऐसे ही बिरले युग पुरुष होते है, जिनका जीवन संघर्षों एवं समाज सेवा का पर्याय बन जाता है। जिनका जीवन चरित्र मानव समाज की अमृल्य निधि एवं प्रेरणा का स्त्रोत बन जाता है। ऐसे ही व्यक्तित्व के धनी थे स्व. श्री शिवसिंह जी। सीरवी समाज के प्रथम शिक्षक, इतिहासकार, ऐतिहारीक शोधार्थी, श्रमनिष्ठ कर्मयोगी, सादगी की प्रतिमूर्ति के रूप में आप सदा याद किये जाते रहेंगे। ऐसे जुझारू व्यक्तित्व के धनी स्वर्गीय साहब का जीवन परिचय इस प्रकार है – श्रद्धेय श्री चोयल का जन्म जोधपुर जिले की बिलाड़ा तहसील के ख्यात नाम ग्राम ‘भावी’ के सीरवी जाती के साधारण घर में श्री मल्लारामजी के कुल दीपक के रूप में श्रीमती धनिबाई की कोख से दिनांक 12 जुलाई 1921 को हुआ। देव दुर्योंग से 2 वर्ष की अत्यल्पायु में ही मातृ शोक का दारुण आघात लगा। नानी लिछमीबाई की देखरेख में मामीजी नवलीबाई के प्यार-दुलार में लालन-पालन हुआ। बचपन में ही इनको परंपरागत लोक काव्यों, कथा-बातों में अत्यन्त रूचि रही। अत्यन्त जिज्ञासु प्रवृति के होने से आस-पास में घटनाओं का बारीकी से पूछताछ करते रहते थे। शिक्षा-दीक्षा के क्रम में जीवन के नोवें सावन में भावी ग्राम्य पाठशाला की प्रवेशिका में प्रवेश लिया। पूज्य प्रधानाध्यापक स्व.श्री छगनलालजी उपाध्याय (डीडवाना निवासी) के चरणों में बेठ उनके आशीर्वाद-सद्कृपा से अध्ययन लाभ किया। जिनके अमित ज्ञान भण्डार, अतुल साहित्य-प्रेम एवम् सतत सानिंध्य से आपके मानव में साहित्य-प्रेम का बीज-वपन हुआ। साहित्य चेतना स्फुरण के प्रमाणस्वरूप उल्लेखनीय है की तृतीय कथा में ही आप बनारस से प्रकाशित पाक्षिक पत्र ‘पंडित’ के नियमित पाठक बन गए। सन् 1935 में इलाहाबाद के ‘ बालसखा ‘ पत्र में आपकी कविता में भी ग्राहक बनूंगा’ छपी। यह आपकी प्रथम प्रकाशित रचना थी। जीवन यात्रा के अभावमय बीहड़ो को पार कर सुख-दुख के उबड़-खाबड़ पथ पर चकते हुए किसी प्रकार साहित्य सम्मेलन प्रयाग की ‘ विशारद पास कर शिक्षा की मान्य स्थिति प्राप्त की।  यद्यपि ये आजीवन सदैव विद्यार्थी बनकर ही रहे। शिक्षक होकर भी शिक्षार्थी बने रहे। अर्थाभाव वंश बाधित अध्ययन क्रम से निराश न हो 1937 में जीविकोपार्जन हेतु इन्दोर तक गये। अनुकूलता न पाकर बिलाड़ा प्रत्यागमन किया। सीरवी बोर्डिंग हाऊस में अध्यापन कार्य, रायपुर ठिकाने के वकील श्री बद्रीदानजी के सहकर्मी हिन्दी लेखक का कार्य एवं 1942 में बिलाड़ा के निकटवर्ती कल्पवृक्ष तले सीरवी पाठशाला में अध्यापन कार्य किया। संघर्षशील श्री चोयल ने अन्तत: 1946 में पीपाड़ सिटी के  विद्यालय में  अध्यापक के रूप राजकीय सेवाकर्मी का स्थान बनाया,तब से अपने गांव की पाठशाला में सेवारत रहते हुए 01.08.1976 को सेवानिवृति प्राप्त की। राजकीय सेवानिवृति भले ही ले ली, लेकिन लोकशिक्षक के रूप में कभी सेवानिवृत नहीं हुए।

समर्पित समाजोध्दारक – तत्कालीन प्रगतिशील दीवान श्री हरिसिंहजी की प्रेरणा से तथा क्रांतिकारी समाज सेवी श्री गुमनारामजी के मार्गदर्शन आपने समाज में फैली अशिक्षा, मृत्युभोज, अफीम सेवन, मद्यपान और बालविवाह आदि कुरीतियों को दूर करने के लिए अथक एवं प्रशंसनीय प्रयास किया। आपकी लेखनी में सदैव समग्र ग्रामसमाज के कल्याण की धारा बहती रही।

लगनशील साहित्य सेवक – शहरी कोलाहल से दूर ख्याति की आकांक्षा से रहित रहकर  ग्राम्य संस्कृति के जीवन सौन्दर्य को निबंध, कविता, आख्यायिका के रूप में सरल, सुबोध, लोकभाषा मारवाड़ी एवं राष्ट्र भाषा हिन्दी दोनों में ही लिखकर साहित्य के भंडार में अपूर्व वृद्धि की। कुल 22 ग्रन्थों पुस्तकों का लेखन संपादन प्रकाशन किया और एक दर्जन से भी अधिक अप्रकाशित ग्रन्थ पड़े रहे है। आपने विशेषकर ग्राम्य लोक जीवन में मौखिक रूप में छितरी-बिखरी ग्राम्य साहित्य-सम्पदा का संकलन, लिपि बंधन, सम्पादक आदि किया। जिनमें लोकदेवता राजस्थानी संत, लोककवि एवं लोकजीवन परम्पराएं इनकी विधाओं की विषय वस्तु रही हैं। इनके लेख ‘साहित्य-साधना’, ‘क्षात्रधर्म’ ‘बालसखा’, ‘क्षत्रीय गौरव’  , ‘ कमला’ , ‘ मरुभरती’ , ‘ वरदा’ , ‘सरस्वती’ , ‘विशाल-भारत’ , ‘संघर्ष’ जैसे प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन कस सौभाग्य पा सके।

सहित्य सृजन में ‘आई आणंद विलास’ ‘गुरु-महिमा’ , राजस्थानी लोकगीत, फागण पच्चीसी’ ,  ‘सीरवी जाती की आदर्श विभूतिया, ‘ बुढापा कवियों की नजर में’ कुछ प्रमुख मील के पत्थर रहे हैं।

उत्सुक ऐतिहासिक शोधार्थी – साहित्य के साथ-साथ इतिहास लेखन एवं अन्वेषण उनकी रूचि का विषय रहा। क्षेत्रीय प्राचीन मंदिरों, देवालयों, तीर्थों, शिलालेखों, स्मारकों, राजघरानों अस्त्र-शास्त्रों आदि के अवशेषों का अध्ययन कर ऐतिहासिक तथ्यों की खोज कर शोध-पत्र लिखना, प्रकाशित करना भी इनका । उद् दिष्ट रहा है। श्री आईमाता संबंधी इतिहास, सीरवी जाती का संक्षिप्त इतिहास, बक्षी खुमानसिंह ‘ सितारे हिन्द’ जनरल भवानीसिंह, बढेर (बिलाड़ा) वंश परिचय आदि इनकी ऐतिहासिक कृतियाँ हैं। जिनसे राजस्थानी साहित्य-लेखन में इतिहासकरों को बहुत योगदान मिला एवं सीरवी जाती को समाज में एक सम्माननीय पहचान मिली, एतदर्थ सीरवी समाज इनका कृतज्ञ रहेगा।

सादगी की प्रतिमूर्ति – घटनों तक लटे की धोती, बोदिया, कुर्ता चमरोधें जूते, जोधपुरी साफा, सदा एक खादी पोशाक,ज़ तड़क-भड़क से कोसों दूर रहने वाले चोयल का व्यक्तित्व साक्षात् सादगी का प्रतिरूप था। अभाव और वैभव दोनों इनकी सादगी के व्रत को भंग नहीं कर पाए। इस सादगी में इतने उच्चाशायता के विचार छिपे है यह तो कोई पैनी दृष्टि वाला  पारखी ही जान पाता। यह सादगी सदाचारजन्य थी, अभावमयी विवशता जन्म नहीं। जो लोकोतोरक प्रशंसाभारी प्रसन्नता का कारण रही है। उनकी मितव्ययिता कभी पुस्तकें खरीदने में आड़े नहीं आई उलटे कुछ पुस्तके खरीदकर उन्होंने कई शोधप्रेमियों को भेंट स्वरूप भी भेजी थी।

अध्यापकीय पैनी दृष्टी – कोई व्यक्ति, वस्तु, संस्था इनकी पारंगत अध्यापकीय सुधारवादी पैनी दृष्टी से बच नहीं पाते। आप जिनसे मिलते, जो पढ़ते, जहां जाते, वहां उनमें जो न्यूनता या श्रुटि पाते, उसे एकान्त में इंगित कर सुधार परिष्कार लानें में न चूकते। मारवाड़ स्टेट में स्कूल इंस्पेक्टर हीरालाल को ‘ पन्नाधाय’ पाठकी श्रेटियां बताकर पुस्तक में संशोधन करवाकर ही राहत पाई।

श्रमनिष्ठ कर्मयोगी – जीवन पर्यन्त प्रमाद से दूर एवं अध्यवसाय में संलग्न रहकर, कृषि जैसे कठोर कर्म से अपूर्व श्रमनिष्ठा के साथ जुटे रहकर आपने हमेशा आने वाले पीढ़ी को निष्काम कर्मयोग का अपूर्व आदर्श प्रस्तुत कर उत्प्रेरित किया। मृत्युपर्यन्त स्वावलम्बी और लेखणधर्मी बने रहे गुरूजी का जीवन अपने आप में गांधीवादी दर्शन की मिसाल हैं।

विनम्र मृदु एवं मिष्ठभावी – आपको व्यक्तित्व का प्रधान गुण, निरहंकार युक्त, विनीत भावमयी कोमल कांत शब्दावली, जो श्रोता के ह्रदय में श्रुतिपुटों के माध्यम से मधुरस घोलती एक सुखद माधुर्य का अनुभाव कराती थी। ऐसी सत्य प्रिय मधुर वाणी के धनी रहे थे आप। श्रोता की कमियों को बड़ी अपणायत से बताते थे जिसका सदैव सकारातक असर पड़ता था।

अलंकरण – व्यक्ति और समाज दोनों ने आपके उदार ‘स्नेहिल’ अनुशासन ग्रेम, सदवारी, कर्मठ व्यक्तित्व एवं मौलिक ऐतिहासिक एवं साहित्यिक व कर्तृत्व को हार्दिक स्वीकृति सम्मान के रूप में कतिपय अलंकारों से विभूषित किया था। गांव भर में ही नहीं, पुरे चौताला समाज में आपकी ‘ माड़साब’ वाली छवि सदैव श्रद्धापूरित और प्रेरणादायी बनी रही। आपको राजस्थानी साहित्य अकादमी की तरफ से एक हजार रूपये के नगद पुरस्कार से सम्मानित किया गया। सीरवी क्षत्रीय समाज मध्यप्रदेश (उज्जैन) द्वारा आपको सम्मानित किया गया। 1978 के शिक्षक दिवस पर बिलाड़ा क्षेत्रीय शिक्षक समाज द्वारा सम्मानित किया गया। सम्मान की इस कड़ी में चोयल को सीरवी नवयुवक मण्डल परगना समिति-बिलाड़ा, अखिल भारतीय सीरवी महासभा में मिलकर उत्कृष्ट साहित्य सृजन के लिए सरोपा (साफा) पहनाकर,शाल ओढाते हुए श्रीफल और स्मृति चिन्ह के रूप में कुलदेवी ‘ श्री आईजी ‘ की मूर्ति भेंटकर उन्हें अलंकृत किया। साथ ही अक्षरे रूपये ग्यारह हजार एक की राशि सीरवी नवयुवक मण्डल परगना समिति बिलाड़ा की तरफ से और ग्यारह हजार एक सौ ग्यारह की राशि अखिल भारतीय सीरवी महासभा द्वारा उन्हें प्रदान की गई। सीरवी नवयुवक मण्डल बिलाड़ा ने बढेर चौक में बने, ‘अमर हुतात्मा स्मारक’ का उद्गघाटन भी चोयल साहब के करकमलों द्वारा करवा कर उन्हें अपनी आस्था व श्रद्धा के भाव अर्पित किये। अप्रैल 1995 तक गंभीर बीमार होने पर भी परिचितों के पत्रों का जवाब लिखकर भिजवाते रहे।

घोर विपदा में वृद्धावस्था – अपने अंतिम दिनों में खुद बीमार पड़े ही साथ ही पुत्र मगसिंह की शारीरिक कमजोरी के कारण पारिवारिक अव्यवस्थाऐं झेलनी पड़ी। अपने बीमार पुत्र मगसिंह और छोटे-छोटे दो पौत्रों जगदीश और खुमाणसिंह के साथ अंतिम दिनों में भारी अर्थाभाव और निरंतर दवाखर्च की दोहरी मार झेलते हुए शिवसिंहजी अंतत: टूटने-से लगे थे। इन दिनों सीरवी समाज और राजस्थानी भाषा साहित्य संस्कृति अकादमी की आर्थिक सहायता भी इनको बिखरते घर को बचा नहीं पाई। इस प्रकार अपने जीवन के 74 बसन्त देखने के बाद दिनांक 2 अगस्त 1995 के दिन दोपहर बाद 2.37 पर इस महान् आत्मा का देहान्त हो गया। समाज ने अपना सजग प्रहरी और इतिहासकार खो दिया। जिससे सीरवी समाज को ही नहीं, सम्पूर्ण ग्राम समाज को भी अपूरणीय क्षति हुई हैं। अखिल भारतीय सीरवी महासभा, राजस्थान सीरवी नवयुवक, मण्डल और आई पंथ के समस्त अनुयायी ने दिवंगत आत्मा को अपनी भावभीनी अश्रुपरित श्रध्दांजली अर्पित करते हुए ईश्वर से कामना की कि भगवान इनकी आत्मा को शान्ति प्रदान करें। भावी गांव सहित बिलाड़ा परगना आपके पदचिन्हों का अनुकरण करके विकास करना चाहता है।

सहृदयी शोध मार्गदर्शक – आप खुद इतिहासप्रेमि साहित्यसेवी होने के साथ सदैव शोधार्थियों के मार्गदर्शन हेतु तैयार रहे। एक छोटे-से गांव भावी में साधारण अध्यापक पद पर रहते  हुए भी विश्ववविद्यालयी प्रोफेसरों, लेक्चररों और शोध संस्थानों में शोध निदेशकों की नजरों में शिवसिंहजी खुद किसी शोध निर्देशक से कम नहीं थे। आपकी घरेलू फाइलों में मिले पत्रों से पता चलता है कि करीब दो दर्जन से भी ज्यादा शोधार्थियों ने आपकी सहायता ली है। इनमे जी.पी. पिलानिया, भंवर भादानी, वी. एस भार्गव, फतह मानव, श्री आसनानि, डी. शाला खान, साधनाशीला रस्तोगी आदि के उल्लेख प्रासंगिक है। बीकानेर, अलीगढ़, जयपुर, उज्जैन, सीतामऊ और अजमेर से प्राप्त दर्जनों पत्रों की नियमिति श्रंखला इस बात की परिचायक है कि आपने शोधप्रेमियों को वाछिंत सहायक सामग्री उपलब्ध करवाने में कभी ढिलाई नहीं बरती

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