समाज के विवाह प्रक्रिया

सीरवी खारड़िया : विवाह प्रक्रिया

मनुष्य जीवन में विवाह संस्कार के तीन प्रमुख उद्देश्य प्राप्त होते हैं। प्रथम, धर्म कार्यों को करने के लिए विवाह किया जाता है। द्धितीय, पुत्र प्राप्ति के लिए विवाह आवश्यक है। तृतीय, स्वाभाविक कामतृप्ति अथवा रतिक्रिया भी विवाह का एक प्रयोजन है। तीनों प्रयोजन हिंदुस्तान अध्यात्म प्रधान देश हैं। अत: धर्म का प्रथम स्थान स्वाभाविक ही है। मनुष्य अपने विवाह संस्कार के तीसरे स्थान पर रति का उपयोग जीवनकाल में केवल सन्तानोत्पति के लिए ही अपनी पत्नी के साथ मेथुन का भाव रखते हुए ब्रह्मचर्य की पालना करने वाला गृहस्थ में रहते हुए भी वह ब्रह्मचारी होता है। ऐसा करने पर विवाह संस्कार के तीनों उद्देश्य और सुदृढ़ होते है। विवाह के समय संतान उत्पन्न के अर्थ और गृहस्थ धर्माचारण के विषे अधिकार के अर्थ और श्रीपरमेश्वर की प्रीति के अर्थ विवाह संस्कार करता हूं और विवाह के संपूर्ण निर्विघ्न पूर्वक समाप्त होने के अर्थ गणेश पूजन स्वस्तिवाचन, नवग्रह पूजन आदि कर्म करता हूं। ऐसे उच्चारण करके गणेश आदि देवों का “ॐसुमुखश्चैक दंतश्य” इत्यादि मन्त्रों को पढके पूजन किया जाता है।

सगपण-

समाज में विवाह के पहले लड़का- लड़की का सगपण की रस्म पूर्ण की जाती है। हमारे समाज में सगपण दो तरह के होते हैं। एक इकेवडा़, दूसरा दौवडा़। पहला इकेवडा़ यानि (खुला सगपण) लड़की देते हैं मगर बदले में उसी घर में वापस लड़की लेते नहीं। अपनी बेटी को कन्यादान कर देने, ससुराल भेज देने के बाद से माता पिता बेटी को यथा संभव दान अथवा सहायता देने की इच्छा रखते हुए बेटी के घर से अन्न जल तक ग्रहण नहीं करने के व्रत की पालना रखते हैं और दूसरा सगपण दोवडा़ मतलब (सामा-सामी) लड़की देखकर बदले में उसी परिवार या उनके नजदीक रिश्ते से लड़की लेते हैं सगपण मैं माता-पिता की गोत्र टाली जाती हैं कभी कभार माता की गोत्र में जो पिछले सात पीढियों से किसी प्रकार का नजदीक रिश्ता न होने पर सगपण कर दिया जाता है। सगाई पक्की करने के लिए शुभ दिवस पर पहले लड़के वालों की तरफ से परिवार के दो आदमी और आज के युग के अनुसार दो औरतें भी लड़की वालों के वहां जाकर अपनी मांग रखते हुए लड़की को पाट पर बैठाकर औरतों द्वारा फूल माला, तिलक करके खोपरा (नारियल) पांच ₹ लड़के के पिता या उसके परिवार में से आदमी देते हैं। साथ में लड़की के लिए एक जोडा़ वेश, शृंगार की वस्तुएं, गुड़ अथवा फल मेवा भी देते हैं। इतना देन लेन करने पर भी जब तक दोनों लड़की व लड़के के परिवार वाले आपस में गुड़ रोटी का भोजन न पा लेते, तब तक सगाई पूर्ण नहीं मानी जाती । उसी तरह लड़की वालों की तरफ से अपना दामाद पक्का करने के लिए शुभ दिवस पर दो आदमी व साथ में औरतों को बुलाने पर लड़के वालो के वहां जाकर विधि विधान पूर्वक धोती, कुर्ता व साफे से सजा लड़के को पाट पर बैठाकर लड़की की भूआ, काकी अथवा परिवार से तिलक करके ललाट पर चावल लगाए जाते हैं और लड़की का भाई काका या पिता जो उस समय उपस्थित है लड़के को नारियल ₹10 देकर जवांई थापण करते हैं। कुछ समाज भाई अपनी इच्छा से लड़के व लड़की वालों की तरफ से मिष्ठान, फल ,कपड़े व गहने भी लेकर जाते है। मगर गहनें की रीत भांत अलग से की जाती हे। इस तरह अपना रिश्ता बनाकर दोनों पक्ष के सम्बन्धी गुड़ रोटी का भोजन पाकर स्थानीय बडेर में यह सम्बंध दर्ज कराते हैं।

गहना मंगवाना

लड़की वाले जब लड़की के लिए गहना मंगवाते हैं तब भी लड़के वाले गहना लाते हैं लड़की वालों की तरफ से गहनों में लड़की के लिए मुख्य गहना मांग की पहचान बोर और पांवों में कड़िया (पायल) व कपड़ों से (लाल) कुन्कुम रंग का वेष इसके अलावा लड़के वालों की इच्छा अनुसार सोना व चांदी के गहने जैसे कंदोरी, गले का हार ,कानों की बालियां, भीणि, अंगूठियां बाजूबंद वगैरह और साथ मे लड़के वालों की तरफ से खुशी जाहिर करने के लिए भी गुड मिष्ठान मोतीचूर के लड्डू आदि भी साथ में लाते हैं। वह मोतीचुर लड्डू भाईपा में हांती के रूप में दिया जाता है। उपस्थित परिवार के भाई बंधुओं व समाज के महानुभावों के समक्ष लड़की वाले उपर्युक्त गहनों को सहर्ष स्वीकार करते हुए लड़की को पहनाते हैं और लड़की वालों की तरफ से वरपक्ष वालों को मर्यादा के रूप में जवांईजी के लिए नारियल व कपड़े और लड़की के सास के वेश दादी सासू के ओरना, नणद के वेश भूआ सासूजी के ओरना एवं ससुराल परिवार भाईपा में शक्ति मुजब ओरना व चूरमा प्रसाद के साथ मेहमानों को तिलक लगा गहरे लाल रंग से रंगकर उन्हें सीख (विदाई) दी जाती है लड़की वालों की तरफ से जो चूरमा का भाता बंदाया जाता है वह लड़के वाले के भाईपा में हांती के रूप में वितरण किया जाता है
सगाई के पीछे पहले से ही कोई विवाह के लिए समय तय नहीं किया जाता । नए युग के अनुसार व सरकारी कानून शारदा एक्ट को मर्यादा देते हुए समाज में बाल विवाह नहीं किया जाता । विवाह के वक्त लड़की लड़के की उम्र 18 से 21 वर्ष तक होती है और कभी कम ज्यादा लड़की व लड़के की शारीरिक स्थिति पर निर्भर होती हैं हमारे समाज में सगपण के मामले में एक विशेष बात है कि बालक, बालिका का यदि छोटी अवस्था से सगपण कर दिया गया है तो वाग्दान के पीछे पलट फेरे नहीं होता है ।इसलिए कहावत है कि परणी छुटे तो छुटे पर मांग नहीं छुटे।

विवाह का श्रेष्ठ सावा

समाज में अक्षय तृतीय (अाखा तीज) वैशाख सुदी ३ का दिवस सर्वश्रेष्ठ माना जाता रहा है। गांव में एक मुहूर्त पर एक ही परिवार का विवाह करने के भाव से विवाह के लिए लड़की का पिता ब्राह्मण से श्रेष्ठ सावा निकलवाकर (शुभ विवाह का निर्धारित समय) परिवार मुखिया के साथ सावा लिखवाने की दिनांक व विवाह की सीरवी समाज बडेर में उपस्थित समाज के प्रतिष्ठित महानुभावों और भाईपा के समक्ष घोषणा करता है। कि हमारी परिवार में उक्त भाई की लड़की लड़कियों का विवाह का श्रेष्ठ दिवस पर श्रेष्ठ मुहूर्त है‌। आप श्री समस्त पंचगणों से प्रार्थना है कि उक्त दिवस पर सावा लिखवाने के श्रीगणेश से विवाह के लिए समस्त कार्यों को सीख दिलवाने (विदाई समारोह) तक संपूर्ण व्यवस्था बनाकर इस शुभविवाह कार्य को सफल बनावे। इस तरह विवाह परिवार का मुखिया, विवाह से संबंधित काम काज की जमावारी समाज पर छोड़ देता है और उपर्युक्त विवाह के लिए प्रति समाज कार्यकर्ताओं को यह दायित्व बन जाता है। वह सावा लिखवाने से मुगदडा़ कटवाने, भोजन सामग्री मंगवाने, छाया की व्यवस्था, भोजन बनाने व भोजन परोसने (वितरण करने) समाज नवयुवक मण्डल द्वारा व्यवस्थित ढंग से कार्य को संभालना साम्मेला, डोरिया विवाहित जोड़ो को विदाई व विवाह उत्सव सजावट कार्यकर्ताओं,ब्राह्मण व दूसरे लाग बाग वाले अन्य जाति कौम को सीख देना वगैरह पूर्ण जमावारी से करते है।

सावा लिखना

उक्त समय पर ब्राह्मण द्वारा सावा(कुन्कुम पत्रिका) लिखवाने भाई, बंधु, व ननिहाल पक्ष और वरपक्ष को आमंत्रित किया जाता है, निर्धारित समय पर श्रेष्ठ मुहूर्त मैं लड़की का गहना पहले ना मंगवाया हो तो उस दिन गहना भी मंगवाते हैं। सावा (कुन्कु पत्रिका) लिखवाने आए मेहमानों का स्वागत बीते समय में कभी अफीम की मनुहार से होता था। आज के समय में ड्राई फ्रुट का बोल बाला है बादाम, किश मिश, काजु, पिस्ता व फलों अथवा केसर पान द्वारा मनुहार होती है। श्रेष्ठ समय पर कुंकूम पत्रिका सर्वप्रथम रिद्धि सिद्धि के दातार विघ्न-निवृत्यर्थ गणेशजी के नाम लिखी जाती हैं। फिर कुलदेवी, देव/ईष्ट देवी देवताओं को कुम्कुम पत्रिका लिखी जाती हैं। और एक से ज्यादा लड़कियों का सावा लिखना हो तो जिस वधू/वर के नाम से सावा का मुहरत निकला हो पहले उनके नाम की कुन्कम पत्रिका लिखते है। उसके बाद सभी कुन्कुम पत्रिका लिखी जाने पर समस्त मेहमानों को मोटी मोटी रोटियां,गुड़ व गौ के घी से चक्का-चक्क चूरमा का भौजन जिमाया जाता हैं और मेहमानों को सीख भी उसी खुशी के अंदाज में दी जाती हैं सभा में विराजमान सभी भाई बंधुओं को कुन्कुम तिलक व रंगों की वर्षा जो पुरानी परंपराओं मै से एक आज भी उसका चलन हैं। सावा में लिखी कुन्कूम पत्रिका के साथ एक नुम्बका नारियल मौली से सुरक्षित बांधकर उसी शाम वधु का भाई,मामा,फुफाजी( भुरोसा) या नजदीक रिश्तेदारों में से कोई भी वरपक्ष वालो के वहां लेकर जाते हैं। उस समय वर उपस्थित है तो वर को अन्यथा उनके परिवार के मुखिया को नारियल दिया जाता है। और बारात मोठी बणाय ने समय पर पधारने का निवेदन किया जाता हैं। विवाह के १० या १२ दिनो पहले या कम ज्यादा दिनों में भी सुविधानुसार सावा भेजा जा सकता हैं। इसकी कोई समय सीमा निर्धारित नही की जाती हैं।

बिन्दोले बैठाना

सावा( कुन्कुम पत्रिका) भेजे जाने व सावा आ जाने पर वधु व वर को बिन्दोले(भाने) बैठाने का दिन निश्चित कर घर के मुखिया ५,७,९,११ दिनो का तय कर देते है या ब्राह्मण से पूछ लेते हैं। मगर बिन्दोले (भाने) बैठाने की रस्म तो ब्राह्मण द्वारा ही पूरी कि जाती हैं। बींद बिंदणी का बिन्दोले बैठने के बाद के दिन से बहुत लाड प्यार और बनाव श्रृंगार मैं बितते हैं। उनको हर रोज पीठी यानी उबटन लगाना, फूलों के हार पहनाना और पान मेवा खिलाते हैं। भाई बंधु उनको एवं उनके परिवार वालों को गाजे बाजे, ढोल और नाच कुद के साथ अपने घर बुलाकर भौजन(भन्दोला) खिलाते है। बिन्दोला खिलाने की पहल (अपने घर से भोजन सामग्री ले जाकर) ब्राह्मण के घर से होती हे। साथ ही मुगदड़ा बधावा व उखड़ी पूजा का समय भी ब्राह्मण से पूछ लिया जाता है। विवाह में व प्रतिभोज (जीमण) में निमंत्रित न्योता करने गांव में आदमी द्वारा कहलाया जाता है और गांव से बाहर कुन्कुम पत्रिका भेज दी जाती हैं। लड़की वालो कि तरफ से विवाह के दिवस पर प्रतिभोज के लिए पुरे गाँव को सिगरी (धुंवा बन्द) भी सपरिवार नियन्त्रित किया जाता है और खाने मंगलेश के रूप में लापसी बनाना ही उचित (विधान) होता हैं।

विनायक

शुभ विवाह में रिद्धि- सिद्धि के दातार श्री विनायक जी महाराज को 5 दिनों के पहले ही कुम्हार के वहां गेहूं, घी, गुड़, तेल व पूजा सामग्री के साथ जाकर चाॅक की पूजा करके ढोल ढमाकों के साथ औरतें नाचती हुई लाती है और कुलदेवी देवता के मंदिर में जिसे माया कहते हैं वहां खूरखुणिये रखे जाते हैं। उसमे समस्त परिवार की औरते पतासा, खारकों, गुड व पैसे डालती हैं। उसी दिन बीन्द- बीनणी को अपने अपने घर में उबटन के बाद माया के सामने परिवार की सुहागन औरतों द्वारा पांच पांच बार तेल चढ़ाया व उतारा जाता है और तेल चढ़ाने के पीछे कांकण डोरा बीन्द बीन्दणी के दाहिने हाथ वह पांव में बांधते हैं। वह मौली के धागे का बटकर बनाया जाता है। उसमेे एक मेन्दल जो छोटा सा फल होता है छेंदते हैं, एक मरोड़ फली और एक,दो छोटे-छोटे छल्ले लाख के और लोहे के बान्धते हैं और ऐसा ही एक जोड़ा कांकण डोरा का बनाकर मौर बीन्दणी के वास्ते भी बरी के साथ ले जाते हैं। और उसी दिन बीन्द बीन्दणी के सिर पर मौड (मौर) भी बांधते हैं । मोड जो कागज, कपड़े और सोने-चांदी का भी होता है। उसमें झूंटे या सच्चे मोतियों का जड़ाव होता है।

जान जिमण

लड़के वालों की तरफ से विवाह के पहले दिन जान- जीमण रखा जाता है। उसी दिन ननिहाल से बीन्द व उसके परिवार के लिए कपड़ा व गहने और कुछ रु. जिसे हम (भीन्द भागा) भरना कहते हैं । बीन्द को कपड़ों,गहनों, व फूलों से सजाने की जिम्मेदारी ननिहाल पक्ष की होती है। बीन्द के साथ रहकर परणाने तक का जिम्मा मामा का ही होता है। मामा उपस्थित ना रहने पर बीन्द का फूफाजी (भूरोसा) या बहनोई वह प्ररकणियां की भूमिका निभाते हैं। मायरा कि तरह बीन्द भागा का भी विवाह मे महत्वपूर्ण स्थान रहता है। बीन्द भागा छोटा हो या बड़ा इससे कोई फर्क नही पड़ता । बीन्द की माता का हौसला बुलंद रहता है उसे विवाह की खुशी से ज्यादा अपने प्रियजनों माता, पिता,भाई भोजाई अथवा कुटुम्बियों का स्वागत करने की उत्सुकता रहती हैं। बीन्द भागे वालों के आगमन की राह देखती हैं प्यारी बहना। बीन्द भागा, मायरा वालो के आगमन पर जल पान की व्यवस्था करवा के उन्हें कुन्कु से तिलक लगाकर घी और गुड़ खिलाया जाता हैं। पूरे परिवार के साथ उनकी आरती उतारकर बधावा किया जाता है। और ढोल-नगाड़ों की गुंजन से स्वागत करते हुए उन्हें अपने आंगन में विराजमान कराते हैं भीन्द भागे की प्रक्रिया पूरी होते ही समस्त मेहमानों को भोजन जिमाया जाता है। जान-जीवन में अक्सर हीरा पुरी ही बनाया जाता है। आज के इस युग में कुछ अलग सी तैयारीयां की जाती है जिसे पांच पकवान कहते हैं। सो बनाया जाता है। जो निमंत्रित मेहमान आते हैं वह सभी बिन्द को आशीर्वाद के रूप में सोब के बीस रु. देते हैं।

बड़ी बन्दोली

विवाह के निमित्त वर-पक्ष वालों के द्वारा आयोजन प्रीतिभोज (जान जीमण) के दिन ही और आजकल पहले भी सुविधा अनुसार कर दिया जाता है। शाम को बड़ी बंदोली का कार्यक्रम रहता है, हर रोज की बंदोली तो छोटे रूप में होती हैं। इस दिन की बंदोली को विशेष महारथी बंदोली कहते हैं। यह बंदोली परिवार व पूरे गांव वालों के साथ बीन्द को घोड़े पर सवार कर विशेष तैयारियों से बैंड बाजों व ढोल नगाड़ो से गाँव मे निकाली जाती हैं। इसी प्रकार बीन्दणी के परिवार में भी खुशी की लहर रहती हैं। बीन्दणी के भुआजी, बहनों व नजदीकी रिश्तेदारों का रोज ढोल के साथ नाच, गाने और सहेलियो द्वारा बीन्दणी को खुश करने ठहाके लगाना कई तरह का रंग रंगीला खुशियों भरा माहौल रहता है। बीन्दणी के वहा भी विवाह के पहले दिन की शाम को ही महारथी बंदोली का उत्सव रहता है। बड़ी बंदोली के लिए विशेष रथ या ट्रैक्टर की सुविधा कि जाती है इसे भी वैसे ही बैंड -बाजों ढोल नगारों के साथ बड़ी धूम-धाम से गांव में महारथी बंदोली निकाली जाती है और देर रात तक नाच – गान चलते रहते हैं!

मोबण या थाम्बला स्थापित करना

विवाह के दिवस में बिन्दणी के घर के चौक (परिसर) में थाम्बला या मौबण स्थापित किया जाता है। एक बेरे या ढाणी में एक से ज्यादा परिवारों में से कन्याओं के लग्न होते हैं तो उस विवाह स्थल के मुख्य द्वार पर मुहरत से मौबण को स्थापित करके उसे सजाया जाता है। और घर के चौक में तणी बांधी जाती है। उसमें एक लाल कपड़े में खोपरा व पाँच खाजे जो मैदा के आटे से बनाते हैं पिरोए जाते हैं। सभी सजावटे पूर्ण हो जाने पर वधू पक्ष के मुख्य द्वार से अलग बारातियों के ठहरने का इंतजाम किया जाता है। उसे “जानीवासा” कहते हैं । उसका अलग के द्वारा रखा जाता है और जहां विवाह मंडप सजाया जाता है उसे “मौंडवास” कहते हैं मौंड के मुख्य द्वार पर पाट पर समाज के गणमान्य पंच विराजमान होते हैं। जो बारातियों के आगमन की जांच कर विवाह स्थल पर आगामी प्रक्रिया की कार्यवाही करने और विवाह स्थल पर मौडियो व बारातियों के द्वारा किसी प्रकार की समाज मर्यादा व नियमों का उल्लंघन ना हो, उन समाज प्रतिनिधियों की जमावारी होती है।

बारात निकासी

बीन्द राजा की बारात निकासी से पहले बीन्द को उबटन लगाकर स्नान के बाद माया के सामने तेल चढ़ाया जाता है और अपने कुल देवी देवता अथवा इष्ट देवी के मंदिर में नारियल अर्पण करके बडेर/घर से बीन्द गले में कटारी, हाथ में तलवार लिए सावा के रूप में भेजा गया नुम्ब का नारियल, जो वधु पक्ष द्वारा जेलाया गया था, उसे कमरबन्धा से बांधा जाता है और सिर पर मौड व कीलंकी, तुरा, तारों की तरह चमकती तुरीया, हरा लाल मोतीयाँ जड़ित कंठहार ( कंठो) से दूल्हा सज धजकर घोड़ी पर सवार होकर श्रेष्ठ चौघड़ियां में बारात निकासी होती है। बारात निकासी के समय पर बीन्द राजा विशेष रुप से अपनी माता से आज्ञा लेता है (स्तनपान करता है) माता की अनुपस्थिति में बड़ी मांँ, काकी, अथवा बड़ी भुजाई से भी विशेष आज्ञा लेने का रिवाज है। बीन्द की बारात मे बीन्द के लिए बीते कुछ समय के पहले तो घोड़ा पर और जानीयों व जानणियों को बैलगाड़ी में बैठाया जाता था । आज के समय मे बारातियों के लिए बैलगाड़ी, ट्रैक्टर, बड़ी मोटरगाड़ी, व ज्यादा दूर तक बारात ले जानी हो तो रेलगाड़ी और बीन्द के लिए घोड़ी, रथ अथवा विशेष कार की व्यवस्था की जाती है।  बारात निकासी के बाद गांव के मुख्य द्वार पर बीन्द घोड़ी से उतरकर पांगड़ा का नारियल जो बारात की गाड़ी कि पीन्ज़णी पर रखा जाता है। बीन्द नारियल पर पांव रखकर बारात की गाड़ी में बैठता हैं। बारात के साथ कुछ सामान भी लिया जाता है। जो परिवार के मुखिया के निर्देशन के अनुसार एक पेटी (बक्सा) में रखा जाता हे। पेटी में बारातियों के लिए खान पान की सामग्री के साथ बीन्दणी के लिए एक मोंड, कांकण डोरा, एक या दो बरियां व श्रृंगार की कुछ वस्तुएं और तोरण पर जरूरत पड़ने वाली एक छड़ी लग्न मंडप में काम आने वाला एक झंवाड़ा व कुछ नारियल, जो वर पक्ष के गांव की सीमा रेखा पर (कांकड़ के सिंवाड़े) बीन्द अपने पितरों (पूर्वजों) से भूल चुक क्षमा याचना करते हुए नारियल बढ़ाकर चारों दिशाओं में नारियल के टुकड़ों का प्रवेश करता है। वधुपक्ष की तरफ से पहले से ही बारातियों के लिए अलग अलग ठहरने की जानीवास में बैठने सोने के लिए बिछोने, पानी, पंखा वगैरह पुर्ण व्यवस्था होती है। वहाँ उक्त स्थान पर बारातियों के साथ बीन्द ठहरते है। और बारात जानीवास मे आ जाने की मौड मे सूचना दे दी जाती है। तब मोड की तरफ से एक नारियल दिया जाता है जो बारात आने का प्रमाण रूप होता है।

बारात स्वागत्

बारात आगमन के समाचार मौड में पहुंचते ही मौडियो द्वारा बारातियों का स्वागत साल्व और फूल मालाओं से किया जाता है। और मौड मे विवाह सम्बंधित लग्न मण्डप सजावट के साथ उबटन के बाद माया के सामने बीन्दणी के पांच तेल चढाते है। और उधर जानीवास मे स्वागत के पीछे बारातियों को‌ मिष्ठान, नमकीन, बादाम दुध व चाय की मुनहार की जाती है।

कंवारा भात

निमंत्रित मेहमानों व गांव वाले जब मौड के पट्टा (भोजन शाला) में भोजन पा चुके हो, तब जानीवास में आदमी भेजकर बारातियों व बीन्द को कंवारी भात जीमण के लिए आमंत्रित किया जाता है । बीब्द व परकणियां और कुछ दो चार आदमी, औरतों को जानीवास में ही जिमाया जाता है बाकी सभी जानियां वह जानणीयां गीत गाती हुई कुंवारा भात का लुफ्त उठाते हुए मौड के पट्टे को गुंजाती हुई कंवारी भात जीमण पाकर वही गीतों की लहरों के साथ वापस जानीवास पहुंचते हैं।

साम्मेला

कंवारी भात पाकर बारातियों का जानीवास पहुंच जाने के पीछे साम्मेला की तैयारी होती है। समाज के कोतवाल /जमादारी ,सरदार,पंचगण व वधू पक्ष के समस्त परिवार वाले साम्मेला में शामिल होते हैं। बड़बेड़िया बिन्दणी के बुआ ,भौजाई अथवा काकी सर पर लेते हैं, बधावा का थाल जिसमें गुड़ घी, कुमकुम, कच्चा सूत ,चावल ,जल से भरा कलश, व गुलाल, नेत्रा सहित चांदी की बाड़ी जो वधू पक्ष परिवार की औरतें लेती हैं । वधू पक्ष की औरतें गीत गाती हुई और सदस्य व पंचगण सदस्य ढोल-नगाड़ों के साथ जानीवास पहुंचते हैं । जानियों व मौडियों की मिलनी के बाद वधू पक्ष परिवार द्वारा वर को कुंवारा भात की मनुहार होती हैं । जानणीयों का गीत (उठो सा सुसरोजी रा जाया भान्दोनी बड़बेड़िया) बीन्द मौडियों के बड़बेड़िया को नमन कर (स्वीकार करता), स्थानीय बडेर के कोतवाल/जमादारी, वर को एक ₹ देते है, जिसे वर कलश में प्रवेश कराता है। फिर सासु द्वारा कुमकुम, चावल का तिलक लगाकर बीन्द को गुड़ घी खिलाया जाता है । उस थाल में भी कोटवाल/जमादारी द्वारा दिया फिर से एक ₹ वर रखता है । बाद में वर कि सासु द्वारा ओरणा के पल्लू( छेड़ा) की चाळ मे नारियल में और तीन बार खारकों, पतासा, सिन्गोड़ा वगेरह से कोटवाल/जमादारी बीन्द की आरती करवाते है। फिर सासु वर का कच्चे सूत, नेत्रा और चांदी की बाड़ी से बधावा करती हे। साम्मेला की प्रक्रिया पुर्ण होने पर पंचगण गुलाल सड समस्त सरदारों का स्वागत करते है।

तोरण

विवाह के शुभ अवसर की मान्य रस्मों में से एक विशेष रस्म तोरण की मानी गई है। साम्मेला की प्रकिया पूर्ण होने पर मोडियो व पंचो का वापस मौड में पहुंचने पर ढोल-नगाड़ों के साथ बीन्द राजा घोड़े पर सवार होकर मौड के मुख्य द्वार पर आते हैं । जहां उसी वक्त लोहार/खाती द्वारा बनाकर लाया गया तोरण लगाया जाता है। तोरण के बेधने (भान्दना) बीन्द घोड़े पर चढा और कुछ घोड़ी पर वर्जित मानते हैं ।अतः समाज में बहुतेरे बीन्द पाट पर (बाजोटिया) खड़ा होकर तोरण को छड़ी के साथ तलवार से बेधता है ,फिर बीन्द घोड़े से उतरकर बिन्दणी के घर जाता है । जहां माया के सामने बीन्दणी को भी लाया जाता है। लगन के समय वर वधु के लिए वस्त्रों का ध्यान रखा जाता है। वर के लिए धोती, कुर्ता, बीन्द भागा (शेरवाणी) व साफा और बीन्दणी के लिए ससुराल वालों की तरफ से लायी गयी भरी के उपर भुवाजी द्वारा लाया गया हल्दी युक्त सफेद कपड़े का कोळजोळिया ओढाना (पहनाना) अनिवार्य होता हे। और बीन्द के साथ लाया गया मोड (मोर) व कांकण डोरा और माया के सामने ब्राह्मण बीन्द बीन्दणी के गठजोड़ बांधता है।

पाणिग्रहण संस्कार

बीन्द बिंदनी को गठजोड़ व हथलेवा जुड़ाकर चंवरी के सामने एक झंवाड़ा रखा होता है ,पास पास वर-वधू को पाणीग्रहण संस्कार ग्रहण कराने ब्राह्मण पास लगे आसन पर बैठाता है। धर्म शास्त्रोंकारो द्वारा आठ प्रकार के विवाह निर्धारित किए गए हैं। 1. ब्राह्म विवाह 2. असुर विवाह 3. दैव विवाह 4. आर्ष विवाह 5. प्राजावात्य विवाह 6. गांधर्व विवाह 7. राक्षस विवाह 8. पैशाच विवाह । इन विवाह विधियो में से हमारे सीरवी (क्षत्रिय) समाज खारड़िया ने ब्रह्मा विवाह विधि को ग्रहण करना ही उचित समझा और अपनाया। इस विवाह में कन्या का पिता वर पक्ष वालों को बुलाकर यथाशक्ति कन्या को आभूषणों से आभुषित कर कन्यादान करता है, इस विवाह में कन्या का पिता भी यथाशक्ति कन्या को कुछ वस्तुएं अपनी ओर से भी देता है ताकी उसकी पुत्री सुखमय दाम्पत जीवन व्यतीत कर सके । यह विवाह दोनों पक्ष के अभिभावक तय करते हैं आजकल हिंदुओं में सबसे ज्यादा यही विवाह प्रचलित है। ब्राह्मण देवता मंत्र उच्चारण के साथ सूर्यादि नव ग्रहों का पूजन करके होम करता है बीन्द बीन्दणी का हथलेवा जुड़ा, छेड़ा छेड़ी बान्दा होने से हवन में आहुतियां बीन्द के साथ आने वाला परकंणिया देता है। चंवरी के सामने वर-वधू दांपत्य जीवन की गाड़ी का संतुलन बराबर रहने का प्रतीक गाड़ी का यह झंवाड़ा आसन के पास रखा जाता है। होम के पीछे (बाद) ब्राह्मण बीन्द बीन्दणी को चार फेरे चंवरी के चौफेर फिराकर खिलाता है । तीन फेरों में बिन्दणी आगे होती हैं और चौथे फेरे में बीन्द आगे हो जाता है। उस वक्त ब्राह्मण मंत्र पढता है और औरतें गीत गाती हैं । पहिले फेरे भाभा री बेटी, दुजे फेरे भुवारी भतीजी ‌। तीजे फेरे मामारी भाणजी, चोथे फेरे धी (कन्या) हुई पराई । अग्नि कि साक्षी में फेरों के बाद पूर्णाहुति हो जाने पर वधू को मामा सेवरा, भाई सेवरा दिया जाता है। फिर ब्राह्मण बीन्द बीन्दणी का हथलेवा छुड़वाता है और कोटवाल/जमादारी द्वारा मोड वर्षायी जाती है।

कन्यादान

फेरों के बाद सेवरा दिया जाने के पीछे कन्यादान दिया जाता है । बीते समय में कन्या को दान में पांच दस या इससे भी ज्यादा गौऊएं दी जाती थी। उसके बाद मैं प्रति परिवार से एक गौ या भैंस का देना अनिवार्य था । आज के युग में गहना, रुपये, भूमि वगैरह वधू पक्ष वालों में से जिनको भी कन्या को दान देना है वह वर वधू के हथलेवा जुड़े रहने तक यथाशक्ति व कुछ ज्यादा भी कन्यादान कर दिया जाता है ।

कन्यावळ(व्रत पालाना)

पाणिग्रहण संस्कार व कन्या का दान हो जाने पर कन्या पराई हो जाती हैं । औरतें गीत गाती हुई ढोल धमाकों से दूल्हा दुल्हन के साथ अपने डेरे (जानीवास) में पहुंचते हैं। कुछ ही देर बाद मौडिए पंचों को साथ लिए कन्या को वापस मोड में लाने के लिए जाते हैं। जानीवास पहुंचते ही पंचों व समस्त मौडियों का स्वागत होता है । पंच दूल्हा दुल्हन के गठजोड़ को खोलकर कन्या की खोळ भराई रस्म पूरी करके कन्या को गाजों बाजों से मोड में ले आते हैं। कन्या का वापस घर आ जाने पर जो विवाह के पहले दिन से कन्यादान होने तक कन्या के परिवार वालों का व्रत (कन्यावळ) होता है । उसे समाज के गणमान्य सदस्यों बीन्द के परिवार के मुखिया, अथवा भाई बंधुओं के साथ व्रत पालना (कन्यावळ खोलना) पूर्ण की जाती हैं । और गांव में भी कुछ भाई बहनों का कन्यादान तक यह व्रत करने का नियम होता है बाद में उनका भी कन्यावल खोला जाता है।

डोरिया (समाज की रस्म)

डोरिया की रस्म समाज में समस्त पट्टियों (चौताला) की होती हैं । यह प्रथा विवाह के बाद समाज में मुख्य रसम मानी जाती है । डोरिया की जाजम पर विराजमान समाज के समस्त सरदारों, वर वधु के परिवारों एवं समाज का कोई भी भाई छोटा या बड़ा सब एक समान समाज के सिरमौर होते हैं । डोरिया की जाजम पर विराजमान समाज के समस्त भाई बंधुओं को साफा पहनना अनिवार्य होता है । समाज के प्रतिष्ठित महानुभाव स्वजातीय बंधुओं,‌बांधुओं की वेशभूषा, बोली व्यवहार, समाज के प्रति मर्यादा अथवा समाज द्वारा बनाए गए नियमों की पालना किस तरह करते हैं जैसे कोई भाई खड़ा होना या बोलना भी चाहता है तो उससे सभा से इजाजत लेनी होती है। इन सब का अवलोकन करते हैं । चिंतन मन्तन करते हैं की समाज के भाई बंधु अपने बांडेरु व धर्म के प्रति कितने जागरुक हैं । इस तरह डोरिया की जाजम पर चिन्तन मन्तन के बाद उक्त विवाह के सम्बंध में यदि कोई बारातियों में से या मौडियों में से अथवा समाज का कोई भी भाई दोषी पाया जाता है तो उन्हें उसी जाजम पर उनके द्वारा की गई गलती का एहसास करवा कर उनको समाज के नियमों का उल्लंघन करने का चौथाले की जाजम का नेक नाका के हिसाब सुं एक थाली या इससे ज्यादा पतासों की थाली भरने की हिदायत दी जाती है । इस तरह समाज सुधारक कार्यवाही के बाद वर पक्ष की तरफ से डोरिया की लाग के ₹40 ध्यान में रखकर सभी सरदारों के सामने वधू पक्ष को दिया जाता है। इससे वधू पक्ष वालों की यह पहचान की जाती है कि इन्होंने कन्या को धर्म परणाया है तो वधू पक्ष वालों की तरफ से उस थाल में 11 रू. जोड़कर मेहंदी मझीट सह मर्यादा पूर्वक वापस वर पक्ष को दे दिया जाता है। इससे यह साबित होता है कि वधू पक्ष वालों ने कन्या को धर्म परणाया है। और कन्या को धर्म परणाने वाले परिवार का यह दायित्व बनता है कि अपने यहां बारात आने से लेकर वापस बारात को सीख देने तक का पूरा का पुरा खर्च भी वधू पक्ष वालों का होता है और प्रति चंवरी गांव गली के ₹20 और मोबाइल का ₹1 वधू पक्ष से लेकर पंच स्थानीय बडेर में जमा कराते हैं । उपयुक्त सभा में समाज के समस्त सरदारों द्वारा आने वाले समय में समाज की स्थिति और सुदृढ़ हो यह कामना करते हुए डोरिया (चौथले) कि सभा का विसर्जन करने से पहले सबको इंतजार रहता है, मौड वर्षा का और स्थानीय बडेर का कोतवाल या जमीदार सभा से इजाजत लेकर खड़ा होकर किसी प्रकार की भूल चूक ना रही हो तो मौड वर्षाता है । कुछ प्रसाद के रूप में वितरण की जाती है, जिसमें पतासा, खारका, सीन्गोड़े मिश्री वगैरह होते हैं । डोरिया जाजम पर समस्त सरदारों के तिलक करने का फदिया फुळी का जो भी रुपया आता है । वह कोतवाल जमीदार का हक होता है और कोटवाल जमादार द्वारा सभी सरदारों का गुलाल से स्वागत करके सभा का विसर्जन किया जाता है ।

कंवर कळेवा

फेरों के बाद समाज का डोरिया वह पीछे-पीछे पंचों के कार्यक्रम में कंवर कलेवा का विशेष ध्यान रखते हुए जानीवास में खेलावट के वास्ते जाना जो बारातियों को शक्कर,चाय,गेहूं का आटा, सब्जी और हुक्का भरने के लिए तंबाकू व पतासों का वितरण करना और पुराने समय में बारातियों के साथ यदि कोई अमलदार होने पर उनके लिए तिजारा, अमल भी दिया जाता था । यह रिवाज प्राय: लुप्त हो चुके हैं । आज के समय में जानीवासा में कलेवा के लिए कहलवा दिया जाता है और बीन्,द बारातियों, मौडियो व समस्त मेहमानों के लिए एक ही तरह का कलेवा व भोजन, जिसमे दो, चार तरह का मिष्ठान, रोटी, पूरी, सब्जी, दाल चावल और आजकल पुराने रिवाज के तंदूरी रोटी, मक्की व बाजरा का रोठ (सोगरा) पकवान बनाया जाता है । जिसे प्रीतिभोज भी कहते हैं ।

जात दिलवाना

कलेवा हो जाने के बाद बीन्द, बीन्दणी की वधू पक्ष के कुल देवी देवता व इष्ठ देवी देवताओं के स्थान पर नमन करवाना ही याद दिलाना होता है। सर्वप्रथम बडेर में श्री आई जी के चरण कमलों में नमन कर नारियल गुड़ाया जाता है । उसे पुजारी आकर धूप करता है । बडेर में श्री आई जी के पाठ/मूर्ति के सामने बीन्द को कटारी तलवार साथ ले जाने की इजाजत नहीं होती । कटारी व तलवार को बाहर सुरक्षित स्थान पर रखकर बीन्द बिंदनी मंदिर में प्रवेश होते हैं । गठजोड़ बांधे हुए वर-वधु धुप ध्यान कर श्री आईजी से उन्हें सोलह संस्कारों की प्राप्ति हो कामना करते हैं और बाद में जिन जिन देवी देवताओं पर आस्था रहती हैं वहां जात देते हैं । जात दिलवाने पर परिक्रमा करना व नारियल चढ़ा कर आशीर्वाद लिया जाता है । जो इन दाम्पत्य जोड़े को यदि जीवन में कोई दुख आप पड़े तो यह देवी देवता दुख दूर करने मे सहाय होते हैं । जात दिलवाना यानी अपने पितृ व देवी देवताओं से इन नव दंपत्तियों का परिचय करवाना करें तो भी गलत नहीं होगा ।

मायरा

वधु वर वधू पक्ष के ननिहाल का विवाह उत्सव पर विशेष ध्यान रखा जाता है। बिन्दनी को बिन्दोले बैठाकर अपने वधू के माता-पिता द्वारा वधू के ननिहाल व वधू पक्ष के ननिहाल को शुभ विवाह का निमंत्रण देने गुड़ लेकर जाते हैं। उसे बत्ती ले जाना कहते हैं बत्ती (बत्तीसी) जहां बुजुर्ग रहते हैं या ज्येष्ठ भाई के घर दूसरे सभी भाइयों को एकत्र कर जो ननिहाल पक्ष में मुखिया (बड़ा) होता है उसको तिलक लगाकर बत्ती झेलाई जाती है और विवाह के समस्त कार्यक्रमों से अवगत करा दिया जाता है । बीते समय में कुछ परिवार की स्थिति कमजोर होने पर कन्या (भाणजी) को मामाजी ही परणाते थे । इसलिए ननिहाल पक्ष से बड़ी उम्मीद रहती है व बत्ती का शुद्ध अर्थ यही होता है कि पक्का मायरा भरना है । ननिहाल पक्ष वाले विवाह के दिन ठीक समय पर आ जाते हैं । उनके लिए अलग से ठहरने की व्यवस्था विवाह पक्ष वाले कर देते हैं । इसे मायरा डेरा कहते हैं । फेरों के दूसरे दिन में ढोल-नगाड़ों से स्वागत के साथ मायरा वालों का बधावा होता है । मायरा में साथ आने वाले सभी को कुमकुम तिलक व चावल लगाकर गुड़ घी से मीठा मुंह किया जाता है और समाज के गणमान्य सदस्यों को परिवार के समस्त भाई बंधुओं के साथ बहन बेटी द्वारा मायरा पक्ष का कच्चे धागे और नेत्रा के साथ गले में पहने जाने वाली चांदी की भार्डि से बधावा किया जाता है । “बधावा के बाद बीन्दणी की माता के स्वर्गवासी पिता, भाई के पीछे रोने की परंपरा सीरवियों (खारड़िया राजपूतों) में नहीं थी । कुछ समय से अड़ोस-पड़ोस अन्य जातियों के देखा देखी कहीं कहीं रोना चालू हो गया । जिस पर प्रतिबंध लगाना समाज में विचाराधीन है”। और उनको ढोल नगाड़े बजाते हुए धूमधाम से अपने घर के आंगन में जहां पहले से सभा चालू रहती है, बैठाया जाता है । एक बार फिर मायरा सभा में विराजमान समस्त महानुभावों की शर्बत व जल सेवा की जाती है । मायरा की गांठे खुलने लगती हैं, मगर सबसे पहले वधू पक्ष के ननिहाल के द्वारा लाए गए वेश व कपड़े लिए जाते हैं । फिर ननिहाल पक्ष के और अन्य समस्त पक्षों के कपड़े व सोब भी तब ही ली जाती हैं । मायरा में बेटी, जवांई और उनके समस्त परिवार के लिए कपड़े दिए जाते हैं । और मायरा में कपड़ों के साथ अलग से थाल मंडवाया जाता है । जिसमें सोने का तिमणिया, मगर आज के युग में सोने के भिन्न-भिन्न गड़त के गहने, चांदी के बर्तन और रोकड़ा रुपए भी रखते हैं । साथ उनको दलित सेवक वर्ग की लाग बाग व कपड़े भी देते हैं । और कोटवाल/जमादार को पाग पहनाई जाती हैं या आज के समय में ₹10 दिया जाता है । समाज में मायरा एक बार ही पक्का भरने का रिवाज है । मगर भाई बहन का रिश्ता ही कुछ ऐसा है । जो मायरा के नाम की खुशी के साथ कोई भाई दुबारा भी पक्का मायरा भरता है । वैसे मायरा भरने की कोई सीमा नहीं होती, मायरा हजारों में भी होता है और लाखों में भी भरते हैं ।

लेहरका

मायरा के साथ लेहरका वालों का भी उसी अंदाज में स्वागत किया जाता है । बेटी छोटी हो या बड़ी अपने पीहर पक्ष वालों का तिलक टीका करके घी गुड़ खिलाकर बधावा करती है। लेहरका मैं कुंवारा सगपण होने पर बेटी, जवांई के वेश, भींयाणजी के औरना देते हैं । यदि लड़की को परनाकर ससुराल भेज दी गई हो तो बेटी जवांई के वेश तथा सासू व बहन बेटी को ओरना देते हैं और लेहरका वाले अपनी खुशी से सोना चांदी के जेवरात एवं रुपए भी रखते हैं। मगर मायरा वालों से कम । और लेहरका में नजदीक के भाईपा वाले केवल शोब का नारियल देते हैं ।

प्रतिभोज

मायरा पहनने हो जाने के बाद भोजन की व्यवस्था की जाती है। विवाह समारोह पर पहले बारातियों को दो, तीन या कुछ ज्यादा दिनों तक भी मेहमान नवाजी की जाती थी । उसके बाद तीन, दो से एक दिन हो गया और विवाह भोज के मामले में बहुत शुद्धता बरती जाती थी । चाहे वह एक ही लापसी हो या बाजरे का खीच ही क्यों ना हो और दूसरे वक्त को खाना बदलाया जाता जैसे शाम को लापसी तो सुबह सीरा (हलवा) बनाया जाता है । और जो भी पकवान बनता हुआ, वह शुद्ध घी से ही बनाया जाता है । आजकल बारातियों को एक दिन या सुबह बुलाना और शाम को सीख देना ऐसा भी माहौल चल रहा है। मगर भोजन बफर्स रिवाज, जो जूते पहनकर खड़े-खड़े मांगकर खाने का रिवाज समाज में नहीं है । भोजन खिलाने की वही पुरानी परंपरा बाझोट (पाट,पाटीये) व एक दूसरे को खिलाते हुए मेहमानों की मनुहार की जाती है। आज के युग में फटे हुए दूध के खोवे का व मसालों को ज्यादा प्रयोग में लाया जाता है और कुछ काजू बादाम का मिष्ठान व पकवान भी बनाया जाता है ।

सीख (विदाई समारोह)

सीख देने का कार्यक्रम भी किसी समारोह से कम नहीं होता । इसलिए इसे विदाई समारोह भी कहते हैं । भोजन पा लेने के पश्चात विवाह समारोह में पधारे समस्त महानुभावों, वधू पक्ष के, जिसमें ननिहाल, भुआ, बहन, भाई के ससुराल पक्ष और वर पक्ष के परिवार में उपस्थित बाराती जाजम पर विराजमान होते हैं और वर को एक ऊंचे स्थान यानी चारपाई, पलंग या कुर्सी पर बैठाते हैं । वधू को मोरबन्धी सीख देनी है, तो वर पक्ष वाले एक गुड़ की भेली व ₹5 और वधु के लिए कुमकुम रंग वेष एक सभा में देते हैं जिसमें से वधु के कपड़ों के साथ शुगन रूपी थोड़ा गुड़ लेकर वधू पक्ष वाले शेष गुड़ के साथ ₹11 रखकर वापस वर पक्ष को दे देते हैं, और भरी/गहनों को घर में भेज दिया जाता है। जो वधू को गहने व कपड़े पहना सीख के लिए तैयार किया जाता है । सभा में विराजमान महानुभावों के बीच कन्या का पिता वह वस्तुएं लाकर रखता है, जो कन्यादान मे देना चाहता है । जिसमें एक पेटी (बक्सा) और कुछ कपड़े 11 या 21 वेष व नाक, कान, गले के गहने और कुछ कपड़े जवांईजी के लिए व अंगूठी, चैन उस वक्त पहना दी जाती हैं । मोरबंदी सीख का मतलब मुकलावा (आणा) की सीख । इसलिए वधू पक्ष द्वारा वर पक्ष के परिवार में माता, दादी, भुआ, बहन, भुजाई के लिए वेश और परिवार के खुन्ट में वैश व ओरना भेजा जाता है। वधू पक्ष द्वारा सभा में कपड़ों का लेन-देन संपूर्ण होने पर मौड से कुछ औरतें जानिवास पर जाकर जानणियों से माठ भरने के लिए आमंत्रित करती हैं । बीन्द के कमरबंदा से नूम्ब के नारियल की जगह दूसरा नारियल बांध नूम्ब नारियल को लेकर जानीवास से दो औरतें माठ भराने के लिए मौड में आती है । मांडणियों के साथ उस नुम्ब के नारियल को व पतासा,‌खारकों, सिंघाड़ा, खाजा, लापसी या थोड़ा दलिया से माठ भरा जाता है । माठ भराई के बाद मौड ढकाई के लिए जानीवास से आये भीयाणयों को औरना ओढाया जाता है । बाद में परिवार की औरतों के साथ सासु और जवांईजी को कुमकुम चावल से तिलक करके सीख का नारियल दिया जाता है । पीछे सभा में लाकर रख गया कुमकुम रंग से रंगा सफेद कपड़े में बांधा विशेष चूरमा के दो भाता (प्रसाद) सबसे पहले उसको कुमकुम तिलक किया जाता है। फिर सभा में बैठे सभी जनों के तिलक होता है और खुशी का इजहार करते गुलाल या लाल रंग को पानी में घोलकर मेहमानों को रंग से रंगा जाता है । इस तरह वधू पक्ष व आए हुए सभी निकट के रिश्तेदार का वर वधू को कोई रु. तो कोई सीख का नारियल देते हैं । गीत गाती हुई औरतें वह आदमी गांव के मुख्य द्वार तक जाकर वर-वधू को सीख (विदाई) देते हैं । गांव के मुख्य द्वार पर हरिजन को प्रति कन्या शगुन व फदिया के दस रुपए देकर समाज सरदारों का पंच गणों की अवारनी होती हैं । अवारनी में दो बार रुमाल से व र तीन बार रु. से ढोल ढका जाता है । कभी बारातियों की तरफ से भी अवारनी कर दी जाती है। इस प्रकार बहन बेटियों को गाजों बाजों बड़ी ही धूमधाम और खुशी के साथ सीख (विदाई) दी जाती हैं । सीख लेकर बीन्द गठजोड़ खोलाकर बीन्दणी को बारात के साथ विशेष गाड़ी में बैठाकर गांव के मुख्य द्वार से वापस आता है । परकंणियों ज्येष्ठ वर को आग्रह करता है जो विवाह के पहले चौक (विवाह मंडप) में तनी बांधी गई थी, उसे वर एक हाथ से खोलता है। तणी खुलवाई की वर को अलग से सासूजी द्वारा नारियल देने का रिवाज है ।

विनायक प्रसाद

शुभ विवाह का कार्यक्रम रिद्धि सिद्धि के दातार विध्न-निवृत्यर्थ गणेश जी की इजाजत लेकर ही शुरू किया गया था और श्री गणेश को ही इस विवाह की जमावारी सौपी जाती है और श्री गणेश जी के आशीर्वाद से शुभ विवाह का सकल कार्य रिद्धि सिद्धि से संपूर्ण होते हैं। इसी तरह गणेश जी की शुभ कृपा दृष्टि हमारे परिवार व समाज पर बनी रहे ऐसी आशा के साथ विनायक प्रसाद (विनायक थाली) की जाती है । विनायक प्रसादी में वर वधु पक्ष के समस्त परिवार बहन-बेटियां और ननिहाल पक्ष व समाज के गणमान्य महानुभाव सम्मिलित होते हैं। समस्त मेहमानों का भोजन प्राप्ति के बाद वधू पक्ष वाले अपने बहन, बेटी, ब्राह्मण,कुम्हार, नाई, खाती व कारू जात को सीख एवं भाट (राव) जो अपने कुल का लेखा जोखा रखते हैं बही खाते में परिवार के नाम लिखवाने कपड़े गहना पशु (गाय या भैंस) या रुपए रोकड़े श्रद्धा अनुसार वर्षाद के रावजी को दिए जाते हैं ।

टाइपिंगकर्ता- महेन्द्र सीरवी लेरचा ( चैन्नई विल्लीवाक्कम )

पुस्तक ;-  सीरवी क्षत्रिय समाज खारड़िया का इतिहास एवं बांडेरूवाणी

लेखक एवम् प्रकाशक

सीरवी जसाराम जी लचेटा

( रामपुरा कलां )रामापुरम, चेन्नई

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