समाज के लोक संत

भक्त श्री ईसरजी (ईशरदासजी) सैणचा

संत ईसरजी सैणचा ( ईशवरदासजी ) सैणचा का जन्म ग्राम अटबड़ा (जिला पाली) विक्रम संवत् 1671 गुरुवार माघ सुदी नवमी को हुआ। इनके पिता का नाम महेशदासजी सैणचा था, जो अटबड़ा से सपरिवार ग्राम पीपलाज आ गये। महेशदासजी के भाई विशनदासजी अटबड़ा से पिपलिया आये। ईसरजी के दादा का नाम सूरतानदासजी सैणचा था, जो अटबड़ा में रहते थे। इनके पूर्वज हनुमान जी की पूजा करते थे। सूरतानदासजी ने ठाकुरजी की पूजा शुरु की। ईसरजी के पिता ने गांव में मामाजी का चौतरा (स्मारक) बनाया। महेशदासजी के पांच पुत्र थे जिनमें से ईसरजी सबसे बड़े पुत्र थे। ईसरजी का प्रथम विवाह विक्रम संवत् 1692 में कुन्नीबाई के संग हुआ तथा दूसरा विवाह विक्रम संवत् 1697 को तंवराई बाई के साथ हुआ।यह द्वारकाधीश श्री कृष्ण के परम् भक्त थे। इनका ध्यान श्रीकृष्ण भक्ति में लग गया। वे हमेशा झीतडा़ गांव में श्रीकृष्ण मंदिर जाने लगे। वहां ध्यान में उनका मिलन द्वारकाधीश श्रीकृष्ण से होने लगा। जब द्वारकाधीश श्रीकृष्ण कुछ दिनों के लिए द्वारका चले गए तो ईशरजी व्याकुल रहने लगे। अत: ईसरजी “पवन गुटखा साधकर”( हवा के माध्यम से) द्वारका गये। श्रीकृष्ण ने इनकी भक्ति से प्रसन्न होकर कहा कि है भगत्! में स्वयं वहां आकर तुम्हें दर्शन दूंगा। तुम जाओ और भक्ति करो। ईसरजी ने कहां की आपके आने का पता मुझे कैसे लगेगा? तब द्वारकाधीश श्रीकृष्ण ने कहा कि बेरा पिपलिया (रामसागर) कुआं को गहरा करवाना। उसमें मैं तुम्हारी भक्ति जानकर प्रकट हो जाऊंगा। ईसरजी वापस लौटे। उन्होंने कुआं गहरा करना शुरू किया। तभी अंदर से राधा कृष्ण की मूर्ति निकली और आकाशवाणी हुई कि भगत् जानकर आया हूं, तुम भूल गए ? मैं तुम्हारी भक्ति जानकर आया हूं इसलिए जानरायजी कहलाऊंगा। ईसरजी को मालूम हुआ। उन्होंने मूर्ति बाहर निकालकर हाथ जोड़कर प्रार्थना की, तभी द्वारकाधीश ने उन्हें साक्षात दर्शन दिए तथा प्रसाद करवाने को कहा। ईसरजी के पास एक रोटी व प्याज था उनहोंने रोटी व प्याज परोसा। प्याज उछलकर दूर गिर गया। द्वारकाधीश ने भोजन किया। तत्पश्चात् उन्होंने ईसरजी को उपदेश दिये। जिनमें तुलसी कंठी धारण करना, मांस-मदिरा, प्याज लहसुन का त्याग करना भी शामिल थे। द्वारकाधीश ने गांव में मामाजी के स्थान पर कूएँ से मिली मूर्ति स्थापित कर मन्दिर बनवाकर पूजा करने की बात कही। ईसरजी ने उन्हें पुन: प्रणाम किया। अलोप हो गये।बेरे से गांव आने पर पता चला कि मामाजी के पद्चिन्ह (पगलिया) गांव के बाहर खेजड़ी के नीचे स्वत: चले गये। जो आज भी वहां मौजूद है। अंत: बताए गए स्थान पर ईसरजी ने विधिपूर्वक मूर्ति स्थापित कर पूजा शुरु की। ध्यान में हमेशा द्वारकाधीश श्री कृष्ण से बात करते थे।ईश्वर जी को मंदिर बनाने की चिंता थी। उन्हीं दिनों में बगड़ी के मठ में चौरों ने डाका डालने के लिए प्रवेश किया। मठाधीश ने भगवान जानरायजी को याद कर प्रार्थना की ‘अगर मेरा खजाना बच गया तो मैं,1.25 (सवा) गधा भरकर रुपये आपको चढ़ाऊंगा। ज्योही चोर मठ में आते अंधे हो जाते, बाहर जाते सही हो जाते। इससे चोर खाली हाथ भाग गये एवं मठ का धन बच गया।प्राप्त: मठाधीश ने रुपए मंदिर में चढ़ाए। मंदिर का निर्माण हुआ। इसके अतिरिक्त बगड़ी ठाकुर को परचा देना,गहलोतों को परचा देना, पोणतियें को दर्शन देकर बेरा लाडकी ग्राम पीपलाद में देवनारायण की स्थापना करना आदि अनेक परचे दिये। श्री ईसरजी सैणचा ने द्वारकाधीश की भक्ती व ध्यान में की भक्ति उद्यान में अपना जीवन व्यतीत किया। इनके अभियान “सैणचा भगत्” कहलाते है। आज भी प्याज व लहसुन का सेवन नही करते है। ईसरजी के उपदेशों का पालन करते है। सैणचा भगत् के लगभग 500 परिवार है जो राजस्थान तथा दक्षिण भारत में आवासित है। इन्होंने जेठ सुदी पाँचम,गुरुवार दिनांक 05-06-2003 को पीपलाद (बगड़ी) में विशाल व भव्य मन्दिर बनाकर उसकी प्राण-प्रतिष्ठा की। इनके मन्दिर का प्रधान पुजारी सीरवी तथा सहायक पुजारी वैष्णव होता है।


यहां पर संक्षिप्त जानकारी लिखी गई हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए “सीरवी समाज का उद्भव एवं विकास” नामक पुस्तक ( बिलाडा़ मंदिर में उपलब्ध है ) पुस्तक लेखक – श्री रतनलाल सीरवी (आगलेचा) एम.ए (भूगोल),बी.एड.(शिक्षक)

संत श्री रोहितदास जी

भगवती श्री आईजी के साक्षात् दर्शन करने वाले जाणोजी राठौड़ के वंशज भक्त रोहितदास थे। रोहितदास जी का जन्म 16 वीं शताब्दी में माना जाता है। रोहितदास जी के पिता श्री का नाम कर्मसिंह जी था। कर्मसिंह जी जोधपुर के तात्कालिक महाराजा चन्द्रसेन के पक्षधर थे। अकबर ने चन्द्रसेन को पराजित करने के लिए विशाल सेना भेजी थी। अकबर की सेना का सेनापति हसन कुली खां था। कर्मसिंह जी ने चन्द्रसेन की परोक्ष सहायता के लिए मारवाड़ के समस्त कर्मठ सीरवी किसान बन्धुओं को मारवाड़ छोड़ने के लिए उकसाया। कर्मसिंह जी अपने साथियों के साथ मेवाड़ जाने की तैयारी कर रहे थे। इस घटना से क्षुब्ध होकर हसन कुली खां ने कर्मसिंह जी को धांगड़वास पाली नामक स्थान पर मार गिराया। रोहितदास जी का पालन पोषण एक विधवा सुनारी ने संथलाणा नामक स्थान पर किया। रोहितदासजी सं. 1637 माघ सुदी 5 को श्री आई माता बडेर बिलाड़ा में उपस्थित हुए। रोहितदास जी ने श्री आई माता द्वारा प्रज्ज्वलित अखंड ज्योति के सामने अनेक सालों तक एक पांव पर खड़े होकर कठोर व अखंड तपस्या की। उन्होंने अखंड ज्योति के सामने एक सांकल जड़कर देह को नाना प्रकार से सीधा खड़ा रखकर ओंकर का सतत् ध्यान किया। अंत में उन्हें भगवती श्री आईजी के साक्षात् दर्शन हुए। उन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। रोहितदास जी एक महान संत के रूप में विख्यात हुए। वे सादा जीवन जीते थे। उन्होंने अनेक लोगों को आई पंथ के सरल भक्ति पथ से अवगत कराया। इनके समय मारवाड़, गोड़वाड़, मालवा, मेवाड़ तथा गुजरात में लाखों लोग डोराबन्ध बने। उन्होंने श्री आईजी की नीति, भक्ति तथा मुक्ति की हकीकत का प्रचार-प्रसार कर दीन-दुखियों का उपकार किया। जोधपुर तात्कालीन महाराजा गजसिंह जी को बिलाड़ा के इस संत के बारे में किसी चुगलखोर ने उल्टे-सीधे कान भर दिये। जोधपुर महाराजा ने उन्हें गिरफ्तार करवाकर जेल में डाल दिया । जनश्रुति के मुताबिक ऐसा माना जाता हे की रोहितदासजी को जेल मे डालने के बाद जेल के दरवाजे स्वतः ही खुल गये। रोहितदासजी के पावों के लिए बनाई गई बेड़ियां या तो बहुत बड़ी हो गई अथवा बहुत छोटी। उधर बिलाड़ा में रोहितदासजी के भक्तों ने रोहितदासजी को कैद करने की घटना से क्षुब्ध होकर श्री आईमाता बडेर के मुख्य द्वार के सामने करीबन 150 डोराबन्ध शहीद हो गये। इन सभी घटनाओं को सुनकर गजसिंह ने रोहितदासजी को ह्रदय से नमस्कार किया। जोधपुर महाराजा ने भगवती श्री आईजी बडेर बिलाड़ा की व्यवस्था के लिए आधा जोड़ तथा पिपलिया बेरा रोहितदासजी को भेंट किया। उन्होंने रोहितदासजी को बिलाड़ा में भगवती श्री आईजी की बडेर बनाने की मंजूरी भी प्रदान की। रोहितदासजी ने भगवती श्री आईजी की भव्य बडेर बनाई। रोहितदासजी की नजर में उंच-नीच, गरीब-श्रीमंत, स्त्री-पुरुष, साक्षर-निरक्षर आदि का कोई भेद नहीं था। वे भगवती श्री आईजी की तरह प्रवचन करते थे तथा साधकों को नाम मंत्र देते थे। वे श्री आईजी के रथ के साथ नियमित भ्रमण करते थे। भगवती श्री आईजी द्वारा स्थापित इबादत पद्धति में आध्यात्मिकता तथा सांसारिकता दोनों के समान विकास की हकीकत के दर्शन है। समाज से हटकर कोई भी इंसान आध्यात्मिक नहीं हो सकता है। माताजी ने सामाजिक व्यवस्था में साम्यवाद के सिद्धान्त को व्यावहारिक स्वरूप प्रदान किया। भगवती श्री आईजी के मन्दिर को बडेर कहा जाता है। बडेर का अर्थ है- बांडेरुओं (पूर्वजों) द्वारा स्थापित आध्यात्मिक पद्धति। बडेर में कोई एक डोराबन्ध इंसान को अन्य सभी लोग सर्वसम्मति से कोटवाल चुनते हैं। कोटवाल के दो कार्य प्रमुख होते हैं। प्रथम धार्मिक रस्मों का निर्वहन तथा द्वितीय सामाजिक एकता के लिए सामाजिकता के कार्य का जिम्मेदारी से निबटारे में सहयोग करना। इस प्रकार वह एक तरफ से राजा भी है लेकिन दूसरी तरफ से धर्म-कर्म का नोकर भी है। दूसरा व्यक्ति जमाधारी कहलाता है। जमाधारी का कार्य आध्यात्मिक अधिक व सामाजिक कम होता है। जमाधारी पद करीब-करीब परम्परागत होता है। लेकिन कोटवाल चयन प्रक्रिया से बनाया जाता है। ये दोनों इंसान बडेर की देखरेख के लिए मुकर तथा जिम्मेदार होते है। बडेर धार्मिक रस्मों के निर्वहन का स्थान तो है ही लेकिन ध्यानादि के लिए भी उत्तम स्थान होता हैं। माताजी के अनुयायियों में सर्वाधिक संख्या सीरवियों की है। सीरवियों में कोटवाल जमाधारी पद का खास महत्व है। कोटवाल-जमादारी एक तरह से पुरे समाज के प्रतिनिधि होते हैं। माताजी ने कोटवाल जमाधारी पद सूजना ब्राह्राणों के आडम्बरों तथा स्वार्थवान से बचने एवं उन्मूलन के लिए की थी। अपना एक भाई अपने को परमार्थ की नसीहत देता है, इससे इंसान की स्वस्ति बढ़ती हैं। माताजी की बडेर में हनुमानजी, चारभुजा, गजानन्दजी, दुर्गा आदि प्रतिमाएं भी स्थापित की जाती है। इस प्रकार बडेर निराकार तथा साकार के दर्शन का पावन तिर्थ स्थल होता है। || श्री आइनाथार्पनमस्मू || शुभं भवतु ||

यहां पर संक्षिप्त जानकारी लिखी गई हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए “सीरवी समाज का उद्भव एवं विकास” नामक पुस्तक ( बिलाडा़ मंदिर में उपलब्ध है ) पुस्तक लेखक – श्री रतनलाल सीरवी (आगलेचा) एम.ए (भूगोल),बी.एड.(शिक्षक)

पीर गुमानसिंहजी –

संवत् 1734 से संवत् 1792 में श्री आईजी बडेर बिलाड़ा में कल्याणदासजी मुख्य पुजारी थे। कल्याणदासजी की मृत्यु के बाद उनके पुत्र दौलतसिंहजी मुख्य पुजारी बने। दौलतसिंहजी श्री आईजीके परमभक्त थे। वे क्रांतिकारी विचारधारा के किसान नेता थे। मारवाड़ के समस्त किसान उनको अपना नेता मानते थे। उन्होंने कृषि के लाग-भाग के मामले में जोधपुर के महाराजा तथा मेवाड़ के महाराजा का जोरदार विरोध किया। इन दोनों शासकों ने मिलकर दोलतसिंहजी के अनुज पदमसिंहजी को जागीर का लालच देकर मानपुरा पाली के पास में इनको मरवा डाला। दोलतसिंहजी की धर्मपत्नी नाड़ोल की पीहर बेटी थी। उनकी पत्नी गंवरादे एक साधारण सीरवी किसान की पुत्री थी। दौलतसिंहजी की हत्या के समय वह गर्भवती थी। वह भय तथा खुद की हत्या की आशंका के कारण चुपके से बिलाड़ा से अपने पीहर नाड़ोल आ गई। गंवरादे ने नाड़ोल में ही एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम गुमानसिंह रखा गया। गुमानसिंह बचपन से ही भगवती श्रीआईजी के परमभक्त थे। उनमें बचपन से ही लोकोपकारी गुण थे। खेतलाजी सारंगवास पाली पहाड़ी के पीछे उन्होंने एक बावड़ी बनवाई जिसमें आज भी अखूट जल है। वे बचपन से ही श्री आईजी के धर्म के बारे में प्रचवन किया करते थर। वे दीन दुखियों की सेवा के लिए सदैव तत्पर रहते थे। गुमानसिंह जी तब 12-13 वर्ष के हुए तब उनके खुनी चाचा पदमसिंहजी से चिंता होने लगी । पदमसिंहजी गुमानसिंहजी का भी खून करना चाहते थे। पदमसिंहजी ने साजिश करके माताजीवाड़ा निवासी लखसिंह भौमिया तथा मेहरामा ढोली से पीर गुमानसिंहजी को मरवा डाला। पीर गुमानसिंहजी की हत्या नाड़ोल गाँव के तालाब के किनारे की गई थी। गुमानसिंह की हत्या की खबर सुनकर उनकी दुखियारी मां गंवरादे ने प्राण त्याग दिये। गुमानसिंहजी की जीवन्द कला पाली के हेमारामजी गहलोत की बेटी लाछा से सगाई की हुई थी। जब उसे अपने कुंवारे पीटीआई की हत्या की खबर लगी तब वह भी गुमानसिंह के पीछे सती हो गई। कहते है कि पिर गुमानसिंह की बददुआ से हत्यारे तथा चालबाज पदमसिंह को जीते जी बहुत कष्ट सहन करने पड़े थे। पिर गुमानसिंह की भव्य तथा चमत्कारी छतरी नाड़ोल के कपूरिया तालाब के किनारे बनी हुई है। नाड़ोल में इनके जन्म स्थल पर भव्य मंदिर बना हुआ है, जहाँ अखण्ड ज्योति प्रज्ज्वलित है।

दीवान हरिदासजी –

नवदुर्गावतार माँ भगवती श्री आईजी द्वारा चलाए गए आई-पंथ के धर्म अधिष्ठाता दीवान परंपरा में माँ आईजी के परमभक्त तपस्वी और दिव्य शक्तियों के धनी व वचन सिद्ध दीवान हुए है। उनका अपनी कुलदेवी में अटूट विश्वास अपार श्रद्धा तथा अनन्य भक्ति थी। उन्होंने अपनी परोपकारी वाणी और चमत्कारी शक्ति के बल पर अनेक दीन-दुखियों का कष्ट दूर किया और जन-मानस में सिद्ध पुरुष और पीर के रूप में विख्यात हुए। जिनमें दीवान रोहितदासजी और दीवान हरिदासजी का नाम विशेष उल्लेखनीय है। जिनके बारे में कहा जाता है कि- “अवतरां रै संग रमै, कभी नहीं राखी काय। पीराई प्रकट कीनी, चार खूंट रे माय॥ आई-पंथ के दसवें दीवान श्री हरिदासजी का जन्म विक्रम सम्वत् 1791 दीवान श्री पदमसिंहजी उर्फ मोहनदास जी की रानी की कोख से हुआ था। आप बचपन से ही बड़े तेजस्वी और उन्नत भाल के प्रतिभाशाली बालक थे। पिता के समान वीर, साहसी और प्रत्युत्पन्नमती के थे। माँ आईजी का नित्य ध्यान करते हुए आपने प्रारम्भिक शिक्षा के साथ ही अस्त्र-शस्त्र संचालन का कौशल भी सीखा। दीवान श्री पसमसिंहजी अपने कुंवर हरिदास से अथाह स्नेह रखते थे। कुंवर हरिदासजी कई बार दीवान पदमसिंहजी के साथ इंदौर गये थे। मल्हार राव भी हरिदास जी को बहुत चाहते थे । वे कहते थे कि यह बड़ा होनहार और वीर पुरुष होगा।विक्रम संवत् 1812 में मेवाड़ महाराणा विजेसिंह ने अपने जन्मदिन के उपलक्ष्य में दीवान पदमसिंहजी को उदयपुर बुलाया। तब दीवानजी अपने कुंवर हरिदासजी को साथ लेकर पालकी में विराजमान होकर उदयपुर गए थे। महाराणा ने पिता-पुत्र दोनों की खूब आवभगत की दीवान हरिदासजी इंदौर का होल्कर शासक मल्हारराव की फौज में तीन-चार साल तक रहे और कई बार युद्ध में वीरता भी दिखाई थी। फौज में बहुत नाम कमाकर आप बिलाड़ा पधारें। आपका विवाह हीरादे (कागणजी) और बाघेलीजी के साथ हुआ था। लेकिन आप हीरादे (कागणजी) के प्रति सदैव उदासीन रहे।

अपने माता पिता दीवान श्री पदमसिंहजी के देहांत के बाद विक्रम सावंत 1824 को श्री हरिदासजी दीवान बने। दीवान बनते ही आपको विजेसिंहजी के साथ युद्ध में जाना पड़ा। मातमपुरसी में महाराज से सिरोपाव, खीनखाब का पाग, जरंकस की पोतिया, जरी का कडा़ (हेम का) और एक मोती नाम का घोड़ा प्राप्त कर आप बिलाड़ा आए। बिलाड़ा आकर आपने अपने पिता श्री पदमसिंहजी के पीछे बहुत बड़ा ज्याग किया। जिसमें लाखों लोग आए। बाद में इंदौर के शासक मल्हारराव के बुलावे पर आप इंदौर पधारे तथा वहाँ कई दिन रहकर आपने अपनी जागीर के गाँव अल्हेर,आमद और हासलपुर के पट्टे वापिस प्राप्त किए। इन्दौर शासक ने दीवान हरिदासजी को राजश्री व “ठाकुर” की पदवी प्रदान की थी। दीवान हरिदासजी को पालखी की सवारी का बहुत शौक था। संवत् 1833 में आपने गोड़वाड़ के” बाबा गांव” के सीरवी, जो वहाँ के ठाकुर से मनमुटाव हो जाने पर गांव छोड़कर चले गए थे, उन्होंने समझाकर वापस लाकर बसाया था। इस पर वहाँ के ठाकुर ने श्री आईमाताजी के धूप-दीप हेतु एक बेरा भेंट किया था। कहते हैं दीवान हरिदासजी बाहर कहीं दौरे पर जाते थे तो पूरे लवाजमे के साथ बड़े ठाठ-बाट से जाते थे। इंदौर के मल्हारराव तो हरिदासजी का खूब आदर करते थे। लेकिन रावजी के देहान्त के बात जब अहिल्या बाई इंदौर के सिंहासन पर विराजमान हुई तो उन्होंने हरिदासजी के संबंध में कुछ भी मालूम नहीं था। एक बार दीवान श्री हरिदास जी अपने लवाजमे के साथ हाथी पर सवार होकर पांव में सोने का लंकर पहनकर साथ में नगारा निशाना के साथ बिना किसी रोक-टोक के इन्दौर राज्य की चोली में(महेश्‍वर) नामक स्थान से गुजर रहे थे। अपने महलों में बैठी अहिल्याबाई के कानों में नगाड़े की आवाज पड़ी तो तत्काल उन्होंने अपने मंत्री को बुलाकर पूछा कि- ” मेरे राज्य में यह नगारा निशाना लेकर कौन आया है, जाकर तुरन्त उनके नगारे रोको और उन्हें मेरे सामने उपस्थित करो।” मंत्री के तुरंत जाकर अहिल्याबाई का संदेश दीवान श्री हरिदासजी को सुनाया देवी भक्त और विनम्र स्वभाव के दीवान हरिदासजी रानी अहिल्याबाई के संदेशनुसार अपने घोड़े पर सवार होकर जाने को तैयार हुए लेकिन अहिल्याबाई के महलों के पास नर्मदा नदी उपनती हुई बह रही थी। महलों में बैठी अहिल्याबाई ने कहा तुम मेरे राज्य में किसकी इजाजत से नगारा निशाने लेकर आए हो, इस पर दीवान श्री हरिदासजी ने विनम्रता से कहा कि “मैं बिलाड़ा श्री आईमाताजी का दीवान हूं और मेरे पूर्वजों को दिल्ली के बादशाह द्वारा बेरोकटोक नगारा निशाना लेकर घूमने की आज्ञा प्रदान की हुई है।” इस पर अहिल्याबाई ने कहा की:- “यदि तुम आईमाता के दीवान और उनके भक्त हो तो इस बहती नर्मदा नदी को घोड़े पर बैठकर पार कर मेरे पास आओ तो मैं समझूगी तुम आई माता के भक्त व दीवान हो।

इतना सुनते ही हरिदासजी ने पहले मां श्री आईजी को स्मरण किया। तब श्री आई माताजी ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन देकर आशीर्वाद देते हुए कहा “मैं तुम्हारे साथ हूं। तुम निडर हो। मां का आशीर्वाद व संबल प्राप्त कर दीवानजी नर्मदा नदी को सादर प्रणाम किया और घोड़े पर सवार होकर नदी नर्मदा नदी में उतर गए। श्री आईमाताजी के चमत्कार से नर्मदा नदी का पानी दो भागों में बट गया और दीवानजी का घोड़ा सरपट नदी पार कर अहिल्याबाई के महलों के नीचे जाकर खड़ा हो गया।” यह अद्भुत चमत्कार देखकर अहिल्याबाई झट-पट दौड़ी-दौड़ी महलों से उतरी और दीवान हरिदासजी के पांव में गिरने लगी। उसी समय दीवान हरिदासजी ने अपने घोड़े को मोड़ा और एड लगाकर “महेश्वर के पश्चिम में नर्मदा नदी के उत्तरी तट पर स्थित नरसिंह टेकरी पर जाकर विक्रम संवत् 1842 में अपना शरीर त्याग दिया। ” साथ में दीवानजी के स्वामी भक्त घोड़े ने भी अपनी नश्वर देह त्याग दी रानी। रानी अहिल्याबाई को घोर आश्चर्य हुआ। साथ ही अपने आपसे आत्मग्लानि हुई और प्रायश्चित करते हुए रानी ने कहा कि यह मुझे बड़ी भूल हुई जो घर आए देव-पुरुष का सम्मान न कर सकी और उल्टा उनके देवी भक्तों की परीक्षा लेनी चाहि नर्मदा नदी के उत्तरी घाट पर महेश्वर में नरसिंह टेकरी पर जा दीवान हरिदासजी और उनके घोड़े ने अपने शरीर त्यागे थे, रानी अहिल्याबाई ने भी वहां पर दीवान हरिदासजी की समाधि और छतरी बनवाई तथा घोड़े का चबूतरा भी बनवाया। जो आज दिन भी खण्डहर के रूप में विद्यमान है। जहां लोग आई-भक्त चमत्कारी और वचन सिद्ध दीवान हरिदास जी व उनके स्वामी भक्त घोड़े की पूजा अर्चना कर श्रद्धा व भक्ति के पुष्प अर्पित करते हुए शत् – शत् नमन करते हैं।

कहते हैं जब दीवान हरिदासजी ने नर्मदा नदी के घाट पर चोलीमेंसर (महेश्वर) में अपना शरीर त्याग दिया तब श्री आईमाताजी की कृपा से उनकी पहली रानी (सती हीरादे) को बिलाड़ा बैठे ही ज्ञात हो गया था। उन्होंने चोलीमेंसर से दीवानजी का मौलिया मंगाकर बिलाड़ा के माटमोर बाग में मौलिया के साथ (गागणजी) सती हो गई। जिनका स्मारक छतरी के रूप में आज भी बाग में विद्यमान है जहाँ सीरवी समाज के लोग मोड़बंदी जात देकर आशीर्वाद प्राप्त करते है। प्रतिवर्ष हजारो श्रद्धालू भी अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हैं।

चमत्कारी संत महात्‍मा जती‌ भगा बाबाजी पंवार

सीरवी समाज के इतिहास में बहुत से चमत्कारी संत महात्मा हुए हैं जिन्होंने अपनी कठोर तपस्या,ध्यान,चारित्रिक पवित्रता, योग साधना एवं आईमाताजी में प्रगाढ़ आस्था एवं श्रद्धा रखते हुए तथा दिन रात श्री आईमाताजी के नाम की माला जपते हुए अपने जीवन का आत्म कल्याण एवं जन कल्याण की सेवा में समर्पित कर दिया। इन सभी संतो एवं तपस्वी महापुरुषों में से कुछ ऐसे भाग्यशाली संत महात्मा हुए हैं जिनका नाम जन जन की जुबान पर है तथा इतिहास में अपना नाम अमर कर गये मगर कुछ ऐसे बिरले संत महात्मा भी जो गुमनामी के अन्धेरे में है जिनका नाम एवं उनके द्वारा परमार्थ हेतु किये गये कार्य एवं उनकी भक्ति एवं योग साधना से सीरवी समाज अनभिज्ञ है। श्री आईमाताजी के धार्मिक इतिहास में परम तपस्वी एवं चमत्कारी भक्तों में परम पुज्य दीवान रोहितदासजी, परम पुज्य दीवान हरीदासजी, सती कागण मां जी, मिडिया‌ बैलिया एवं जती भगा बाबा जी पंवार जैसे कुछ ऐसे बिरले आई भक्त हुए हैं जिनका नाम इतिहास मे आज भी अमर है। श्री आईमाताजी के पूजा एवं सेवा, आरती करने वाले बाबा मण्डली में संत शिरोमणी जती श्री भगा बाबाजी पंवार एक ऐसे चमत्कारी संत थे जिन्होंने एक साथ, एक ही दिन में एक ही समय पर तीन अलग अलग स्थानों पर जीवित समाधी ली थी । ये तीन पवित्र एवं पावन स्थल है माटमोर का बाग बिलाड़ा, कुक्षी के पास ग्राम कापसी, भगा बाबाजी की‌ जन्म स्थली देव नगरी बगड़ी नगर । पाली जिला के सोजत तहसील का एक प्राचीन ग्राम बगड़ी नगर जो देवनगरी एवं प्रसिद्ध व्यापारिक केंद्र रहा है । इसी देवनगरी बगड़ी नगर में टाकणिया वाला बास में सीधे एवं सरल स्वभाव वाले रामाजी पंवार एवं उनकी धर्मपत्नी धीरी बाई निवास करते थे । विवाह उपरांत कई वर्षों तक उनके कोई संतान नहीं होने के कारण इस आई भक्त दम्पति ने श्री आईमाताजी एवं हिंगलाज माताजी से मन्नत मांगी तथा उनके दर्शनार्थ हेतु पैदल यात्रा की । दस माह की पैदल यात्रा के पश्चात अपने घर लौट कर भादवा सुदी बीज (भादवी बीज) को जागरण (सत्संग) करवाया । श्री आईमाताजी की असीम कृपा से विक्रम संवत 1815 में माघ सुदी 6 मंगलवार को धीरी बाई की कोख से पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई । श्री रामाजी पंवार एवं उनकी धर्मपत्नी धीरी भाई ने अपने पुत्र को श्री आईमाताजी का वरदान एवं आशीर्वाद समझा, जब पांच वर्ष के हो गये तब उन्हें लुटवाने बिलाड़ा श्री आईमाताजी के मंदिर ले गए । वहां पर सती कांगण मां जी के हाथों से झडूला (मान) उतरवाने के पश्चात अपने पुत्र भगा को श्री आईमाताजी के चरणों में बिलाड़ा मंदिर में सौंप दिया । शुरू से भक्ति भाव में लीन रहने वाले भगाबाबाजी ने 12 वर्ष की उम्र में केवल एक समय सूक्ष्म भोजन लेना प्रारम्भ किया। भक्ति भाव में लीन रहने वाले भगाबाबाजी की दिनचर्या निम्न प्रकार थी। 12 घंटे में आईजी का ध्यान, 8 घंटे बैल पर बेले बांटना 4 घंटे शयन  आपने अपने स्वाध्याय, ध्यान आदि में लीन रहते हुए कई भजन, आरती एवं साखी लिखी है जो आज भी प्रसिद्ध हैं । आप वृद्धावस्था में पुन: अपने जन्म स्थल बगड़ी नगर आ गये तथा अपने जन्मस्थान टांकाणिया वाला बास में एक पक्का मकान बनवाया जिसे आज भी तकिया कहते हैं । भगाबाबाजी यहां विराजकर ज्ञान चर्चा एवं धर्म उपदेश दिया करते थे । आपने मारवाड़, गोड़वाड़ एवं मालवा निमाड़ की धार्मिक प्रयोजनार्थ यात्राएँ की । आपने 87 वर्ष की उम्र में विक्रम संवत 1902 जेष्ठ सुदी बीज बुधवार को अपने भक्तों को अंतिम दर्शन देकर तीन स्थानों पर एक साथ जीवित समाधि ली । श्री भगा बाबा पंवार के बारे में एक चारण कवी ने कहा था –

भगो बाबो हुवो भलेरो, जति मरद घणा जाण।  उणहिज ठोड आज दिन, हुवै धरम री हांण। बाबो रे साची लीजो जाण, थने आईनाथ री आंण ।।,

जती भगा बाबा पंवार सच्चे सन्यासी थे। श्रीमद्बभगवत गीता” के अनुसार संन्यासी व योगी वही है जो कर्म फल में आसक्ति त्यागकर कर्तव्य कर्म करता है।

भक्त भलराजजी आगलेचा

भक्त भलराजजी का जन्म जोधपुर क्षेत्र के भावी नामक ग्राम में विक्रम संवत 1595 के लगभग सीरवी जाति की आगलेचा गोत्र में हुआ था। साधु संतों की सत्संग से बाल्यावस्था में ही भक्त थे। इनकी भक्ति से प्रसन्न होकर श्री कृष्ण के अनन्य भलराजजी को उनके द्वार पर दर्शन देने की बात कही। भलराजजी मारवाड़ के तत्कालीन ‘भक्त कूबाजी’ के पक्के मित्र थे। जैसा कि प्रसिद्ध है- “झींतडा़ मे कूबोजी बसे, भावी में भलराजजी” भलराजजी दया के साक्षात् अवतार थे। अपने खेत में गायों या अन्य पशु घुस जाते तो उन्हें बाहर नहीं निकालते थे। भलराजजी संत महात्माओं के अतिथि-सत्कार बड़े प्रेम से करते थे। ऐसी प्रसिद्ध है कि एक बार स्वयं भगवान ब्रह्मा ,विष्णु, महेश साधु का वेष धारण कर बहुत से साधु महात्माओं के साथ भलराजजी आगलेचा के घर पधारे। इसी दिन पहले झीतडा़ गांव मे तालाब पर कूबोजी को द्वारकाधीश ने दर्शन दिए। भलराजजी उन संत महात्माओं को अपनी “हथाई” पर बड़े प्रेम पूर्वक बिठाकर घर में गए और वे भोजन की व्यवस्था करने लगे। किंतु घर में अनाज नहीं था और न पास में पैसा (रुपये) ही। ऐसी विकट परिस्थिति में अपना कर्तव्य निभाते हुए भलराजजी की धर्मपत्नी ने अपने पैरों की “कड़ियां “ (चांदी का गहना) निकाल कर उन्हें दे दी। भगत भलराजजी ने अपनी धर्मपत्नी की कड़ियां भेजकर उनसे प्राप्त हुई राशि से अनाज लाकर घर पर आए हुए संतो को भोजन कराया। रात-भर भलराजजी के यहां साधुओं की सत्संग होती रही। सत्संग में अचानक ही अनेक साधुगण तथा वृद्ध पुरुष आ गये। सुबह वापस जाते समय एक वृद्ध साधु महात्मा (साधु रूप मे श्री कृष्ण) ने अपनी झोली में से मुट्ठी भर अनाज भलराजजी को दिया और कहा कि अनाज को अपनी घर की “कोठी” में डालकर ऊपर ढक्कन लगा देना। तुम्हारे घर आना आज का कभी अभाव नहीं रहेगा। तुम अपने घर के द्वार सदा खुले रखना, मुख्य द्वार कभी बंद मत करना। केवल एक लकड़ी पत्थर पर आडी रख देना, कभी चोरी नहीं होगी। भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि मैंने वचन पूरा किया। श्री भलराजजी ने उनकी और देखा तो उन्हें साक्षात् द्वारकाधीश श्री कृष्ण दिखाई दिये। भलराजजी अपने उनके चरणों में दंडवत प्रणाम कर, उनके चरणों की रज अपने शीश पर लगाकर हाथ जोड़कर खड़े हुए श्री कृष्ण भगवान ने उन्हे उपदेश दिए तथा भगवान श्री ब्राह्मजी व महेशजी के भी दर्शन करवाए। भलराजजी के सिर पर हाथ रखा और वे अलोप हो गए। उन्होंने परिवार की रक्षा के लिए अपने सेवक द्धार पर रहने की बात कही, जो टोडाजी (भूरिया बाबा ) के नाम से पूजे जाते हैं। ऐसा ही हुआ कई वर्षों तक भरपूर अनाज “कोठी” से निकलता रहा, लेकिन किसी ने ऊपर से ढक्कन हटा दिया, जिससें उसके बाद उससे अनाज आना बंद हो गया। एक बार कुछ धाडा़यत (डाकू लोग) भावी ग्राम में लूटमार करने के लिए आये। जब यह भलराजजी आगलेचा के घर में घुसे तो अंधे हो गए। उन्होंने बड़ी कठिनाई से बाहर निकलकर लूटा हुआ सब गहना व रुपया-पैसा आदि धनमाल वापस कर दिया और भविष्य में इस परिवार वालों के यहाँ लूटमार न करने की शपथ ले ली। भलरराजी के वंशज जिन घरों में रहते आए हैं , उनको “आड़ियां वाले घर “कहते हैं, जिसक अर्थ “बिना किवाड़ के घर है” भक्त भलराजजी श्री कृष्ण भगवान के अनन्य भक्त थे। इसी कारण उन्होंने अपने घर के पास श्री चारभुजा जी का एक मंदिर बनवाया था। इस मंदिर का जीर्णोद्धार विक्रम संवत 1996 में हुआ। भलराजजी ने अपने यहां सदाव्रत (गरीबों को भोजन) देने की परंपरा प्रारंभ की की थी। उनके समाधिस्थ होने के बाद महीने में एक बार और फिर वर्ष में एक बार सदाव्रत कई वर्षों तक भलराजजी के वंशजों के द्वारा दिया जाता रहा। सौ वर्ष की आयु भोकर विक्रम संवत 1695 माघ शुक्ला पंचमी के दिन भक्त भलराजजी ने भावी ग्राम के तालाब की पाल पर जीवित समाधि ली। इनके धार्मिक कृत्यों की प्रशंसा में निम्नलिखित पद प्रचलित है :-

” अठी गंगा उठी जमुना, नीचे धरम की पाल।
भक्त कूबोंजी यूं कहे,भावी में भलराज॥

इस प्रकार आगलेचों के बास में भलराजजी के घर के पास जहां भगवान ब्रह्मा ,विष्णु, महेश रात्रिभर भजन-कीर्तन मे रहे, वहां आज चारभुजाजी का मंदिर बना हुआ है तथा भलराजजी के वंशज आज भी चारभुजाजी की पूजा करते हैं। उस दिन से भलराजजी के घर के द्वार पर “भगवान टोडाजी” (भूरिया बाबा) का पूजा स्थल बना हुआ है,जहाँ प्रतिमाह शुक्ल चंद वंश को बड़ा ही दिन माना जाता है और पूजा की जाती है


यहां पर संक्षिप्त जानकारी लिखी गई हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए “सीरवी समाज का उद्भव एवं विकास” नामक पुस्तक ( बिलाडा़ मंदिर में उपलब्ध है ) पुस्तक लेखक – श्री रतनलाल सीरवी (आगलेचा) एम.ए (भूगोल),बी.एड.(शिक्षक)

गुलारामजी महाराज –

श्री गुलारामजी महाराज का जन्म लाम्बिया (जिला पाली) ग्राम में माघ सुदी 13, विक्रम संवत 1925 में हुआ । इनके पिता का नाम गमनारामजी चोयल तथा माता का नाम मुगनी बाई था । इनके एक भाई चंद्रारामजी थे । जब ये 7 वर्ष के थे तब मां बाप का साया उनके सिर से उठ गया । गांव के ठाकुर के यहां इनके पिता मेहनती किसान के रूप में काम करते थे । पिता के स्वर्गवास के बाद ये दोनों भाई ठाकुर के यहां काम करते रहे । इनका विवाह बाणियावास की कसनी बाई से हुआ । यड प्रारम्भ से ही अपने आराध्य की भक्ति भावना करते थे । संतान होने के कुछ वर्षों बाद ये परिवार से अलग रह कर भक्ति करने लगे । इनकी भविष्यवाणी सही होती थी‌ । इनकी भविष्यवाणी के आधार पर कई लोग व्यापार करते थे, मारवाड़ जंक्शन में इन्होंने जहां निशान लगाकर ट्रेन का मार्ग बताया तथा स्टेशन का स्थान बताया वहां आज रेलवे स्टेशन बना हुआ है । बड़ेरावास में सुखे कुएं में पानी आना तथा आज तक रहना आदि अनेक चमत्कार महात्मा जी ने दिखाए, अंत में महाराज ने पोष सुदी 5 विक्रम संवत 2024 में जीवित समाधि ली । लाम्बिया में इस स्थान पर आज छतरी बनी हुई है, जहां हर वर्ष मेला भरता है । लोग इनका नाम बड़ी श्रद्धा से लेते हैं ।

यहां पर संक्षिप्त जानकारी लिखी गई हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए “सीरवी समाज का उद्भव एवं विकास” नामक पुस्तक ( बिलाडा़ मंदिर में उपलब्ध है ) पुस्तक लेखक – श्री रतनलाल सीरवी (आगलेचा) एम.ए (भूगोल),बी.एड.(शिक्षक)

संत श्री रामनाथजी लेरचा-

महान संत एवं समाज सुधारक श्री रामनाथजी का जन्म निम्बाज के खेड़ा गांव में हुआ। इनके पिता का नाम अमरारामजी लेरचा तथा माता का नाम चनणी बाई था। इनका वास्तविक नाम रामलालजी लेरचा (सीरवी) था। इनका मन जन्म से ही ईश्वर भक्ति में था। अत: इन्होंने 30 वर्ष की आयु में गृहस्थ जीवन से वैराग्य अपना लिया। गुरु से दीक्षा लेने पर इनका नाम रामनाथजी हो गया। इन्होंने भक्ति के लिए बिलाडा़ को उपयुक्त समझकर बिलाडा़ आ गए। बिलाडा़ के डीगड़ी माता मंदिर की गुफा में 12 वर्ष तक कठोर तपस्या की। तपस्या से अनेक सिद्धियां प्राप्त कि। इससे ये अपना शरीर बदलने में समक्ष हो गए। संत भाव के साथ प्रबल समाज सुधारक व पर्यावरण में प्रेमी थे। बिलाडा़ क्षेत्र में विशेषत: बेरो पर शिक्षा की कमी को पूरा करने के लिए शिव नगरी, प्रेम नगरी, कल्प वृक्ष, आदर्श नगर, बाणगंगा सहित अनेक विद्यालयों की स्थापना जनता से लड़कर करवाई। अपने हाथों से विद्यालयों में वृक्षारोपण किया, जो आज सघन वन के रूप में आबाद हैं। उस समय जल अभाव को दूर करने के लिए प्याऊ तथा 10 टांकों का निर्माण करवाया। इन्होंने अपना शरीर छोड़ने की घोषणा तीन-दिन पूर्व कर दी और वे माघ शुक्ला सप्तमी विक्रम संवत 2044 दिनांक (11-01- 1988) सोमवार को ब्रहालीन हो गए ।


यहां पर संक्षिप्त जानकारी लिखी गई हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए “सीरवी समाज का उद्भव एवं विकास” नामक पुस्तक ( बिलाडा़ मंदिर में उपलब्ध है ) पुस्तक लेखक – श्री रतनलाल सीरवी (आगलेचा) एम.ए (भूगोल),बी.एड.(शिक्षक)

जती मन्ना बाबाजी –

ये आज से करीब 228 वर्ष पूर्व हुए थे। ये आईमाताजी के भेल के जति (मुख्य साधु) थे। ये श्री आईमाताजी के परम भक्त थे। जिससे ये वचन सिद्ध व चमत्कारी संत बन गए। कई वर्षों तक लोगों को अपने सत्य उपदेशों से लाभान्वित कर अंत में समाधि लेली‌ ।


यहां पर संक्षिप्त जानकारी लिखी गई हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए “सीरवी समाज का उद्भव एवं विकास” नामक पुस्तक ( बिलाडा़ मंदिर में उपलब्ध है ) पुस्तक लेखक – श्री रतनलाल सीरवी (आगलेचा) एम.ए (भूगोल),बी.एड.(शिक्षक)

संत स्वामी शाश्वत जी कृष्ण राठौड़

संत स्वामी शाश्वत जी कृष्ण राठौड़ सूरज कहता नहीं किसी से कि हम प्रकाश फैलाते है।  बादल कहता नहीं किसी से की, हम पानी बरसाते है।  बातों से नहीं किन्तु कार्यो से, न्र पहचाने जाते है , डींग मारते रहते कायर, कर्मवीर विजय पा जाते हैं। जिस तरह से सोने को खरा बनने एवं गहने में ढलने से पर्व अग्नि की आंच में तपकर अपनी कड़ी अग्नि परीक्षा देनी होती है , उसी तरह से व्यक्ति का विकास एवं निखार भी उसकी जिन्दगी में आने वाली अनवरत परेशानियों, बाधाओं, तकलीफों की आंच में तपकर इस संघर्षों से विजय हासिल करने पर एक अलग पहचान कायम हो जाती है एवं जिस तरह से सभी धातुओं में सोने के घने की कीमत बढ़ जाती है, उसी तरह व्यक्ति की भी मानव समाज में कदर बढ़ जाती है और लोग उन्हें अपनी पलकों पर बिठाने लगते है व् हर कहीं पर मान-सम्मान करते है बचपन से ही वैराग्य, धीर, गंभीर, मदुभाषी, सरल समय स्वाभाव के धनी संत समाज में अपना कर्म रोशन करने वाले संत स्वामी के नाम से विख्यात स्वामी शाश्वतजी बचपन का नाम कृष का जन्म ग्राम ननोदा तहसील कुक्षि जिला धार मध्य प्रदेश के मन के धनि साधारण किसान परिवार में श्री मोहनजी राठौड़ के घर सन 1985 में हुआ। माता श्रीमती राधा बाई की मधुर लोरियां सुनकर बड़े हुए। ग्राम ननोदा में आप की प्राथमिक शिक्षा हुई, 5 वर्ष की उम्र में ही आपके मन में भागवत के प्रति श्रद्धा अथाह थी, आप राम-राम का जाप करते रहते थे। आपको उच्चा शिक्षा के लिए आपके माता-पिता ने अपनी बहन के घर लोहारी में पढ़ने भेजा, जहाँ आपने 10 वीं तक शिक्षा प्राप्त की। आपके मन में भगवान् के प्रति इतनी ललक जाएगी की पढ़ाई की तरफ ध्यान जाता ही नहीं। पढ़ाई के दौरान ही आप बिना बताये घर, स्कूल छोड़ कर भगवान् को प्राप्त करने की ललक से आप हिमालय की और निकल गये। वहां से आप ऋषिकेश, हरिद्वार होते हुए चित्रकूट में रहने लगें। आप इस दौरान की दिनों से कृष कहा गया कर बड़े भाई बलराम व् माता-पिता चिंता में थे। बलराम ढूढ़ने निकले तो आपसे चित्रकूट में मिलाप हो गया और आपको वापस घर लेकर आ गये। परन्तु आपको तो भगवान् की ललक लगी रहती थी, पुनः आप वहां से बिलाड़ा की और प्रस्थान किया। यहाँ आप और रहने लगे तो दीवान साहब के छोटे भाई श्री गोपालसिंह जी से मुलाकात हो गई। आपने कृष को देखा परखा तो लगा कि यह युवा कुछ अलग ही प्रकार का है। आपने कृष को ध्यान साधना के लिए प्रतिदिन प्रातः 4 बजे से ही रात्रि 10 बजे तक श्री आईमाताजी बडेर के गृभग्रह के पास गुफा मंदिर में पूजा पाठ ध्यान करते थे। आवश्यक कार्य के लिए ही आप बहार आते थे। यहाँ आप गोपालसिंह जी के मार्गदर्शन में लगभग 6 महिने तक रहकर ध्यान, तप साधना की। समय-समय पर आईपंथ के धर्म गुरु से भी मिलते रहते थे। बिलाड़ा निज धाम से धर्म के साक्षी बने कृष शाश्वत जी स्वामी श्री गोपालसिंह जी से आज्ञा लेने पहुंचे तो गोपालसिंह जी ने कहा कि बेटा मन को द्रप्ता साक्षी भाव से देखो। इन्द्रियों के माध्यम से शरीर एवं मन में हो रहा है , उसका अनुभव करों, आप यहाँ से फिर अपने लक्ष्य के लिए निकल गये।

स्वामी शाश्वत जी बचपन में कई घण्टो सुबह-शाम ध्यान में बैठने लगे थे, स्वामीजी के अनुसार उन्हें उस आयु में ऐसे अनुभव होने लगे थे की हम सब मर कर पेड़,पौधें, किट-पतंग अथवा पशु-पक्षी आदि बन जायेंगे। गांव में जब किसी की मृत्यु हो जाती, तो स्वामी जी सोचते की क्या हम भी ऐसे ही एक दिन मृत्यु को प्राप्त हो जायेंगे। इस लिए व् अधिक से अधिक समय तक प्रभु को पुकारते रहते है। 2009 में स्वामीजी नर्मदा परिक्रमा के दौरान मदपुरी नामक स्थान पर शाम के 8 बजे सहज, स्वाभाविक रूप में बैठे थे, की एकाएक आपके चरों और अनंत प्रकाश ही प्रकाश फेल गया। स्वामीजी को वह क्षण मृत्यु जैसा अनुभव हुआ। स्वामीजी के लिए बस वही क्षण बोधि उत्सव का बन गया। वह अनन्त पर्क्ष उनके लिए नव जन्म सिद्ध हुआ। तब से गहन शांति, टी=सतत ठहराव एवं चैतन्य आनंद स्वरूप रस की अनुभूति हो गई। जो कभी बदलती नहीं और जिसमे सहज स्वाभाविक स्थिति बनी रहती है। अब उससे पल भर के लिए भी विरासना नहीं होता है। स्वामीजी कहते है की मेरा कोई नाम, रूप, दल, इन्द्रियों द्वारा जो भी कर्म हो रहे है। उनकी मेरे तक पहुंचे नहीं है, मेरे स्वरूप तक कोई कर्म नहीं पहुंचता और सब कुछ उसके होने से हो रहा है। स्वामीजी अभी ऋषिकेश आश्रम में रहते है। आपने हर पल जीने से स्वयं बोध नामक एक पुस्तक भी लिखी है, जिसके प्रमुख अंश इस प्रकार है:-

1. आत्मबोध :- हे प्यारे ! क्या आप ने स्वयं को पहचानने का प्रयास किया ? नहीं ना ! आप अपने आप को पहचानों। आप शांत एवं आनन्द स्वरूप एक चैतन्य आत्मा हो। जिसकी न कभी मृत्यु होती है, न जन्म आप सदा ही रहोगें।

आप अपने आप को दुखी-सुखी, अच्छा-बुरा, पाप-पुण्य करने वाले समझते हो। अर्थात सुख को अच्छा-बुरा मानते हो। ये सब मन की अवधारणा है, स्वभाव है। आत्मा में न सुख है, न दुःख है, न बुरा है, न पाप है, न पुण्य है। आप अपने अहंकार के कारण स्वयं को कर्ता एवं भोक्ता मानते हो। जो आप नहीं हो।आप अच्छो से भी आसक्त हो सकते हो, जैसे की में सब अच्छा इंसान। बड़े, अच्छे-अच्छे कार्य करता हूँ, मेरे जैसा कोई नहीं है। में इस संसार में दानी हूँ, में परोप कार करता हूँ, में लोगों की सेवा करता हूँ, में धार्मिक स्थानों पर जाता हूँ, में कीर्तन करता हूँ, में पाठ करता हूँ, में इतना जप करता हूँ, मेने इतनी साधना करता हूँ, में तो इतनी तीर्थ यात्रा की है, में तो रोज गंगा नहाता हूँ, आप तो कुछ नहीं करते।

2. अहंकार:- असली जीवन का आनंद अहंकार के त्याग में है। अहंकार से भरने में नहीं। अहंकार बहुत सूक्ष्म होता है। पता भी नहीं चलता है की कब और कहाँ अहंकार आप में आ जाता है। यह आपका अहंकार बहुत चालाक है। जब आप कहते हो की में अहंकार नहीं करता। इससे जब आप नहीं कहते हो। उसके पीछे भी कर्तापन है और कर्तापन ही अहंकार है। इसलिए जागो ! अब अपने में जियों। कब तक आप दूसरों को देखते रहोगें ? कब तक आप बहार खोजते रहोगे या बहार देखते रहोगें ? आप बहार की चीजों-वस्तुओं को देखते रहते हो, जो बदलने वाली है। जो कभी टिकती नहीं है। जो अभी इसी क्षण है। वो कभी बदलता नहीं वो हमेशा नित्य नया होता है। जो भी दॄश्य पदार्थ है। वो बदलता रहता है। अहंकार के विलीन होने से ही जीवन का शुभ आरम्भ होता है। जिसका आप सहज आनन्द ले सकते हो। यही सहज आनन्द जीवन का असली स्वरूप है।

3. इस क्षण में जिये :- अभी जो वर्तमान क्षण में, इन सब बनने बिगड़ने वाले को देख रहा है। वो कभी बनता-बिगड़ता नहीं वो सदा एकरस रहता है। एक रस रहने के लिए आप जहाँ हो,

जती देवाजी –

ये सोजत परगना के थे । ये बडेर बिलाड़ा के श्री आई माताजी के परम भक्त थे । इन्होंने श्री आई माताजी की भक्ति में अपनी पत्नी को त्याग दिया । 27 वर्षों तक सेवा करने के पश्चात इन्होंने बिलाडा में ‘माटमोर’ नामक बाग में जीवित समाधि ले ली ।


यहां पर संक्षिप्त जानकारी लिखी गई हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए “सीरवी समाज का उद्भव एवं विकास” नामक पुस्तक ( बिलाडा़ मंदिर में उपलब्ध है ) पुस्तक लेखक – श्री रतनलाल सीरवी (आगलेचा) एम.ए (भूगोल),बी.एड.(शिक्षक)

जती खेता बाबाजी –

ये मन्नाबाबाजी के कुछ वर्षों बाद ही हुए थे । ये आई-पंथी साधु थे और बडेर बिलाड़ा की ओर से धार्मिक प्रचार करने और लाल-बाग वसूल करने के लिए बाड़मेर क्षेत्र में जती नियुक्त किए गए थे । ये उपदेश दिया करते थे तथा चमत्कारी थे । इन्होंने एक दिन जीवित समाधि ले ली‌ ।


यहां पर संक्षिप्त जानकारी लिखी गई हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए “सीरवी समाज का उद्भव एवं विकास” नामक पुस्तक ( बिलाडा़ मंदिर में उपलब्ध है ) पुस्तक लेखक – श्री रतनलाल सीरवी (आगलेचा) एम.ए (भूगोल),बी.एड.(शिक्षक)

परम तपस्वी श्री आई भक्त भँवर महाराज

बचपन से ही एकांतप्रिय श्री भंवर महाराज का जन्म श्री आई माताजी का निज धाम ग्राम बिलाडा में बेरा-कागो का अरट पर आज से करीब 67 वर्ष पूर्व एक साधारण किसान श्री पन्नारामजी काग श्र के घर हुआ। आपके माता पिता के कोई सन्तान नहीं हुई इसलिए उन्होंने श्री आई माताजी से मन्नत मांगी थी एवं श्री आई माताजी के समक्ष संकल्प लिया था। कि हमारे सन्तान पुत्र रत्न होने पर उसे आपकी सेवा के लिए मन्दिर में भेट चढ़ा देंगे। श्री आई माता ने सच्चे मन से की गई भक्तों की पुकार सुनी एवं श्री पन्नारामजी काग को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। ब्राह्मणों से पूछने पर इनका नामकरण किया गया और इनका नाम भंवर रखा गया।

पन्नारामजी काग एवं श्रीमती झमूबाई के लाडले सुपुत्र आप भँवर महाराज जी श्री आई माताजी के आशीर्वाद से ही प्राप्त हुए थे। आप बचपन से ही एकान्त प्रिय एवं श्री आई माता जी की भक्ति में ही लीन रहते थे। बाल्यकाल से ही बेरे पर एकान्त कोठरी में ही निवास करते थे। श्री आई माता जी की कृपा से आपने 5 वर्ष की आयु में ही भविष्यवाणी करनी शुरू कर दी थी। विशेषकर कुएं में पानी के बारे में सटीक भविष्यवाणी करते थे

5 वर्ष की अल्पआयु आप पढ़ने के लिए अपने बेरे के पास ही लकुड़ी मगरी में शंकरनाथजी की पोशाक में जाते थे वहां पर आपने दो-तीन वर्ष तक पढ़ाई की इसके पश्चात आदर्श नगरी स्कूल में पांचवी तक शिक्षा प्राप्त की। इसी दौरान बिलाडा बडेर में श्री आई माताजी की सेवा करने वाले श्री शोभा बाबाजी की प्रेरणा से ही बिलाडा बडेर में पधार गये। शोभा बाबाजी के सान्निध्य में रहते हुए ही ज्ञान प्राप्ति हेतु धार्मिक पुस्तकों का स्वाध्याय एवं ध्यान योग करना सीखा। आपने बिलाडा बडेर में रहते हुए भी अपनी पढ़ाई जारी रखी। बिलाडा हाई स्कूल में 6 वीं कक्षा में पढ़ना जारी रखा। पढ़ाई का 2 वर्ष का खर्च पूजनीय दौला बाबाजी ने तथा बाकी समय पढ़ाई का सारा खर्च उस समय के जती पूजनीय मोती बाबाजी ने उठाया। बिलाडा बडेर में रहते हुए ही 9वीं तक पढ़ाई की एवं साहब श्री आई माताजी की पाठ पूजा में अपना समय व्यतीत करते थे। जब बचपन में घर पर रहते थे तब एक वक्त ही फिकी रोटी खाते थे। बिलाडा़ बडेर में आने पर अन्न पूर्ण रूप से त्याग कर दिया। केवल भेंट-पूजा में आये हुए फल एवं दूध का सेवन करते रहे। नवरात्रि में अखण्ड नवरात्रा करते थे। पानी दूध फल इत्यदि कुछ भी आहार में नहीं लेते थे। बिलाडा़ बडेर में रहते हुए श्री आई माता की 12 वर्ष तक एकाग्रचित होकर पूजा करते समय एवं ध्यान धारण करते समय श्री आई माताजी प्रकाश रूप में दर्शन देती थी। जिसका आप पर गहरा प्रभाव पड़ा अपना सम्पूर्ण जीवन ही श्री आई माताजी की सेवा में समर्पित कर दिया।

पूजनीय भगा बाबाजी जो वर्तमान में जती पद को सुशोभित कर रहे है आपके गुरु है कोई भी गुरु अपने शिष्य बनाते साधु-सन्यासी की परम्परा के अनुसार शिखा चोंटी काटना, लंगोटी देना, भभूति लगाना एवं कंठी-माला इत्यादि रस्म अपनायी जाती हैं आपकी शिखा पूजनीय भगाबाजी ने काटी। लंगोटी की रस्म पूजनीय वेना बाबाजी द्वारा भभूती की रस्म पूजनीय लूम्बा बाबाजी द्वारा एवं कंठी गुरु रस्म पूजनीय भगाबाबाजी द्वारा अदा की गई। आप 12 वर्ष बिलाडा़ बडेर में रहने के पश्चात नारलाई धाम ज्येष्ठ मास में आ गए। उस समय पूजनीय वेना बाबाजी नारलाई मंदिर में पूजा करते थे। और रात्रि के समय नीचे नोहरे में रहते थे। मगर जब आप नारलाई पधारे तब से ही आप मंदिर में ही ऊपर ही रहते हैं एकान्त में माला जपते हैं। और ध्यान करते हैं, पूजा-पाठ करते हैं । श्री भंवर महाराज पिछले करीब 40 वर्षों से नारलाई में निवास कर रहे हैं आपके त्याग तपस्या नि:स्वार्थ सेवा भाव, पूजा-पाठ, उपासना निरा आहार से प्रभावित होकर धीरे-धीरे लोग आपसे प्रभावित होने लगे और आपके शिष्य बनने लगे। लोगों में आप के प्रति श्रद्धा एवं आस्था बढ़ने लगी और आपके कहने पर लोग लाखों रुपए नारलाई धाम के नव निर्माण एवं काया-कल्प में लगाने लगे है।

श्री श्री 108 पूजनीय वंदनीय श्री सखा महाराज

श्री श्री 108 पूजनीय वंदनीय श्री सखा महाराज ( सीरवी ) बड़ौद आश्रम पाली राजस्थान !! आपका मन बचपन से ही धर्म, वैराग्य वह साधु – संतों की संगत में ही बीता इसलिए बचपन से ही आपका मन सन्यास की तरफ आकर्षित होने लगा कुछ वर्षों की प्राथमिक स्कूल की पढ़ाई के बाद आपका मन वैराग्य की तरफ अत्यधिक आकर्षित हो गया थोड़े बड़े हुए तब घर वालों ने सोचा कि उनकी सगाई कर दी जाए ताकि उनका मन वापस सांसारिक जीवन में लग जाएगा परंतु विधाता की लेखनी अलग ही थी उन्होंने 26 वर्ष की उम्र में ही सन्यास आश्रम यानी घर का परित्याग कर दिया इस अवसर पर उनके परिवार व ससुराल वाले ने उनको बहुत समझाया की यह राह आसान नहीं है परंतु अापने मन में यह ध्यय उत्पन्न कर लिया था कि मुझे सांसारिक जीवन से दूर सन्यास का जीवन ही जीना है आज माहाज श्री 45 वर्ष के हो गए हैं इनके चरित्र पर ऐसा कोई दाग नहीं जिससे हम जैसे भक्तों को शर्मिंदा होना पड़े आप तीन लोक के देवता ओम महाशिव के परम भक्त हैं वह मॉ आई जी की परम भक्ति में लीन रहते हैं वर्तमान में आप का निवास राजस्थान के पाली जिले के एक छोटे से गांव बड़ोद में है, वहां आपका एक बहुत ही सुंदर आश्रम है जो आपने बड़े ही हृदय से बनाया इस आश्रम में सभी जाति और सभी वर्गों के भक्तों का सहृदय स्वागत रहता है श्री श्री 108 सखा महाराज “जूना अखाड़ा ” से संबंधित है आज वर्तमान समय में सखा महाराज के संख्य भक्त हैं श्री सखा महाराज सभी भक्तों को हमेशा सदाचार व माता जी के 11 नियमों पर चलने की सीख देते हैं श्री सखा महाराज जी की एक विशेषता यह भी है कि यह कभी भी बड़े – बड़े पैसे वालों के घर पर नहीं ठहरते हैं लगभग संभव हो वहां तक “वडेर” में ही रहने की व्यवस्था करते हैं और वहीं पर सत्संग रखते हैं ताकि वडेर में सभी भक्तों का आना हो मॉ आई जी के दर्शन हो सत्संग हो और वही महाप्रसाद हो ताकि किसी के मन में यह भेदभाव न रहे कि साधु-संत बड़े और पैसे वाले लोगों के घर पर ही रहते है या उनको ही आशीर्वाद प्रदान करते हैं आपका जीवन बड़ा ही सादा है वह सरल है , जब आप के सत्संग सुनते हैं तो सीधा हृदय में प्रवेश करते हैं सत्संग में महाराजश्री हमेशा साधारण सी बातों पर ध्यान देते हैं जिससे जीवन को उच्चतम बनाया जाए छोटी-छोटी बातों से ही जीवन को कैसे बनाया जाए ? यह सीखने के लिए हमें माराज श्री का सत्संग अवश्य सुनना चाहिए महाराज श्री कुछ वर्षों तक डायलाना के जीजवड़ धाम में भी रहे वहां पर आपने बहुत ही सुंदर सुंदर व्यवस्था करवाई जिसमें भोजनशाला की व्यवस्था श्रीमान रामलाल जी सैणचा साहब ने करवाई थी जिसका संचालन श्री महाराज जी बहुत ही उचित ढंग से किया और यह भोजनशाला आज भी सुव्यवस्थित रूप से चल रही है महाराज श्री ने डायलाना आश्रम में बहुत से अच्छे नियम बनाए जिससे उस पवित्र धाम की शोभा बढ़ गई उसके बाद वह अपने अपने गांव के पैतृक आश्रम् बड़ोद में पधार गए और अभी वहीं पर हैं …!!

श्रीमती जिमनी बाई खारिया नींव

युग निर्मात्री आई भक्त  ;- श्रीमती जिमनी बाई (धर्मपत्नी श्री तेजारामजी पंवार, बेरा खाण्डा, खारिया नींव, तहसील-सोजत) माँ श्री आईजी की अनन्य भक्त, सरल सौम्य स्वभाव, जिहवा पर सदैव माँ जगदम्बा और राम का नाम, बिना धुप-ध्यान के लोगों के मन की पीड़ा को समझकर अपनी देवी भक्ति से कष्ट निवारण करने वाली श्रीमती जिमनी बाई का जीवन नारी जाती के लिए प्रेरणा स्त्रोत्र है। जिमनी बाई का जीवन परिचय इस प्रकार है। अपने जीवन के 70 बसंत देख चुकी श्रीमती जिमनी बाई का जन्म खारिया नींव के ही श्री वालारामजी बर्फा के घर माता श्रीमती सोनी बाई की कोख से चैत्र बदी 12 विक्रम संवत 1996 को बेरा नवोड़ा पर हुआ। अपने माता-पिता के स्नेहिल आँचल में पलकर अपने बचपन की किलकारियों से माता-पिता के घर आंगन की गुंजायमान करते हुए केवल पांच वर्ष की उम्र में ही समाज में चल रहे सामूहिक एवं बाल विवाह की प्रथा के तहत बेरा खांडा ग्राम खारिया नींव के ही श्री तेजारामजी पंवार पुत्र श्री नवलारामजी पंवार के संग पवितर अग्नि के समक्ष सात फेरे लिए एवं पंवार परिवार की बहु के रूप में आप तेजारामजी की जीवन संगिनी बन गई। आप विवाह के उन लम्हों को आज भी याद करते हुए बताती है की उस समय मां ने नया चूड़ा पहनाया था एवं कौन-कौनसी बालिकाओं के साथ में शादी हुई थी और कैसे बैलगाड़ियों से बारात चली थी, वह ज़माना तो मात्र बीती बात रह गया है। आपके विवाह के पश्चात् आपकी माताजी का देहान्त हो गया इसलिए पिताजी ने ही आपका पालन पोषण किया।

बाल विवाह के बावजूद आपका 20 वर्ष की अवस्था में गौना हुआ एवं पंवार परिवार में आपने चार पुत्र रत्न श्री भंवरलाल, श्री केसाराम, श्री चेनाराम, एवं श्री भवराराम तथा दो पुत्री रत्न मिसिया एवं किनिया को जन्म दिया, चरों पत्र आज भी हर समय आपकी सेवा में तत्पर है तथा पुत्रियां भी अपने ससुराल में परिवार का नाम रोशन करते हुए समय-समय पर माताजी की सेवा भी कर रही है। श्रीमती जिमनी बाई का बाल्यकाल से ही ईश्वर भक्ति में मन लगने गल गया, लेकिन जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गई, आपकी भक्ति भी बढ़ती गई, लेकिन भक्ति के लिए आपने किसी तरह से लोगों को एह्साह नहींहोने दिया, परन्तु गोने के पश्चात ससुराल में सासुजी के तेज स्वभाव के कारण भक्ति में व्यवधान की आशंका हुई, लेकिन उसमें भी आपने रास्ता निकाल लिया और आपने अपनी नींद का समय कम कर प्रातः प्रतिदिन जगने का समय 5 बजे के स्थान 4 बजे कर एक घंटे ईश्वर भक्ति एवं रात्रि सोने से पूर्व भक्ति प्रारम्भ कर दी एवं किसी प्रकार से काम में कमी नहीं होने दी। विशेषकर-लोगों को आज भी यही कहते है की मेने कोई मला नहीं फेरी है एवं मेरी कोई भक्ति नहीं है। भक्त के आगे भगवान् भी नतमस्तक होते है, भक्ति से प्रसन्न हो श्रीराम-लक्षण ने आपको मुस्कराते हुए दर्शन दिये एवं वरदान मांगने को कहा, तब आपने कहा की मुझे संसार से ले चलो, मुझे कोई वरदान नहीं चाहिये, आपका नाम चाहिये। इस पर श्रीराम लक्ष्ज्म मुस्कराते हुए अलोप हो गए। इसके पश्चात आपने अपनी कुल देवी श्री आईमाताजी का नाम स्मरण करना प्रारम्भ किया एवं उनके पटरी भी उसी तरह से भक्ति करते गए, भक्त की सच्ची भक्ति से भगवान् प्रसन्न होते ही है, तो आईमाताजी ने भी उन्हें दर्शन दिए, तब श्रीमती जिमनी बाई ने उनसे भी यही विनती की की मुझे इस संसार से ले चलो में यहाँ पूर्ण रूप से आपका नाम नहीं ले सकती हूँ, इसलिए दुखी हूँ। तब स्वप्न में आईमाताजी ने जिमनी बाई को कहा की तुम्हारा दुःख यहीं पर दूर हो जायेगा। तुम्हारे घट में में विराजमान रहूंगी, तुम हर समय मुझे याद करती रह सकोगी, इसके लिए अलग से समय निकालने की आवश्यकता नहीं है, पर आवश्यक्ता उन दिन-दुखियों को तुम्हारी है, जिन्हे तुम अपनी वाणी से रास्ता दिता कर दुःख दूर करोगी, में तुम्हें शरणागत की समस्या एवं समाधन बताउंगी। अब तुम इनके दुःख दर्द दूर करो, में तुम्हारे साथ हूँ।

तब से काफी समय तक किसी भी व्यक्ति के क्या परेशानी है, क्या दुःख दर्द है, आपके सामने आने मात्र से आपको पता चल जाता, लेकिन सासुजी एवं पतिदेव के डर से आपने उन लोगों को सामने तो बताना प्रारम्भ नहीं किया, लेकिन पतृदेव तेजारामजी को जरूर कहते की इस व्यक्ति के यह दुःख है, तब पति श्री तेजारामजी कहते की जमाना बड़ा खराब है, हमे किसी को कुछ नहीं कहना है और अपनी जानकारी अपने पास रखनी है। पर आईमाताजी का तो आदेश था की आप दुखियों के दुःख दूर करो, पर पतिदेव मना करें, तब क्या किया जाये? एक दिन सब्र का बांध टूट ही गया एवं लगभग 35 वर्ष पूर्व प्रथम बार गाँव के ही एक ब्राहाण दम्पति को बारह वर्ष बाँझ रहने के बावजूद वरदान दिया की आपके नोवे महीने पुत्र रत्न प्राप्त होगा। सारे गाँव में यह बात आग की तरह फेल गई एवं लोगों ने बात की हंसी उड़ाई की जिनके बारह वर्ष में पुत्र नहीं हुआ। अब तेजारामजी की बहु जिमनी बाई बेटा देगी , पर सांच को आंच नहीं। कुछ ही महीनो में जिमनी बाई की बात सत्य प्रतीत होने लग गई एवं वाकई नोवे महीने ब्राहाण दम्पति को पुत्र की प्राप्ति हुई एवं लोगों ने जिमनी बाई सर अपने दुखड़े दूर करने के लिए विनती प्रारम्भ। यथासम्भव पीटीआई के नहीं होने पर लोहों की पीड़ा दूर करने का उपाय बताते, पर बार-बार पतृदेव यही कहते की आप लोगों को चोरी-जारी पर चोरों को मत बताओं अन्यथा लोगों में लड़ाइयां हो जाएगी एवं सब अपने ऊपर आएगा। पर धीरे-धीरे आप वेबाक रूप से निपुत्रों को पुत्र, चोरी एवं गुमशुदगी पर माल के पुनः लौटने की आशा तथा देवीय कष्टों का निवारण बताते गए एवं जिससे आस पास के क्षेत्र से लोगों का तांता प्रतिदिन ग्राम खारिया नींव के बेरा खाण्डा पर लगता गया।

आपके यहाँ पर आने वाले भक्त के दुःख दर्द को देखने का तरिका भी बड़ा सरल है, जिसमे न तो कोई भोपा एवं न भाव है, न को कणामुठ और न ही श्री आईमाताजी की मूर्ति के समक्ष बैठकर देखने की अनिवार्यता है, बल्कि आप बड़े पर जहाँ भी बैठी है, मात्र आपके पास जाकर बेथ जाने मात्र से परेशानी एवं कष्ट का पता चल जाता है एवं निवारण बता दिया जाता है। निवारणार्थ केवल यथाशक्ति धर्म का कार्य करवाया जाता है, कणामुठ लाये हो, तो कबूतरों को चगाने के लिए कह दिया जाता है। अब नवनिर्मित मंदिर में कणामुठ चढाने की व्यवस्था हैं।

अमूमन आपके दरबार में आने वाले मुख्य दुखों में देवीय कैश, पारिवारिक कलह,कुंए में पानी व् नए टयूब वेळ कलह, कुंए में पानी व् नये टयूब वेळ करवाना, चोरी (यहाँ तक की बैंक चोरी), जानवर चोरी, सामान चोरी, जेवर चोरी, दूकान से माल चोरी, गुमसुदगी, व्यापार, व्यवसाय में उन्नति की मनोकामना, सगाई सम्भन्ध की कामना एवं शारीरिक कष्ट से दुखी लोगों का वर्तमान में बहुत अधिक तांता लगा रहता है, जीमने कइयों को बिना पूछे भी कोई कमी पड़ने पर डांटा डपटा भी जाता है एकवं सावचेत किया जाता है, यह परचा मुझे भी अनायास ही मिला है जो इस प्रकार है :- खारिया नींव में श्री रामदेव गोशाला के संचालन एवं जिमनी बाई के परिवार से ही श्री शिवदानरामजी पंवार ने जिमनी बाई के बड़े खाण्डा पर नवनिर्मित मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा पूर्व आमंत्रण पत्रिका के मैटर बनाने के लिए मुझे दीपाराम काग को खारिया नींव समय निकाल कर आने का फोन पर निवेदन किया। समय की व्यवस्था के बावजूद फोन पर समय मिलने पर आने की स्वीकृति दी एवं चार पांच दिनों में आने का वादा किया, लेकिन तीसरे दिन खारिया जाने का संयोग माताजी द्वारा बना दिया गया एवं गोशाला होते हुए जब बेरा खाण्डा पहुंचा, तब माताजी जिमनी बाई बड़े के फिले पर बहार ही बेटी मिल गए, रामा-सामा के पश्चात् आपने मुझे पूछताछ के लिए सवेरे आने का कहते हुए शाम को आने पर नाराजगी जाहिर की, तब मेने कहा की में आपके बुलावे पर ही आया हूँ, तब उन्होंने पूछा की मेने आपको बुलाया?तब मेने कहा की शिवदानजी ने मुझे आपके कहने पर बुलाया है, तब जिमनी बाई ने कहा की आप दीपारामजी है। मेने कहा है!तब आपने कहा- अन्दर बैठो, मेने आपको बुलाया है। थोड़ी देर पश्चात आप भी बड़े पर पधार गए, शिवदानजी भी आ गए एवं आपके चारों सुपुत्र भी आस-पास बैठकर छपवाने की चर्चा करने लगे की अचानक आपने मेरी तरफ मुखातिब होते हुए उलाहना दिया की आप मुझे भूले कैसे? एक बार तो में स्तब्ध रह गया की में कैसे भुला? मेरे साथ बैठे हुए बंधुओं में से बोले की आप घर पर आईमाताजी की सेवा में कोई चूक तो नहीं कर रहे हो, तब मेने कहा की घर पर प्रारम्भ से ही माताजी की सेवा पूजा मेरी माताजी ही करती आ रही है। दीवानजी के कर कमलों से मूर्ति एवं पाट की स्थापना के साथ बेरा रणकी पर स्थित आईमाताजी मंदिर में स्थापित अखण्ड ज्योत से केसर के निर्माण से साक्षात आईमाताजी प्रसन्न है। हम तो ऐसा मान रहे है, तब फिर चूक कहाँ है? तब आपने कहा की चूक घर पर नहीं है, तुमने मेरा मंदिर बनवा दिया, पर मुझे उसमे नहीं बिठाया है। तब याद आया की सीरवी सन्देश कार्यलय में नवनिर्मित आईमाताजी मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा बाकी है, जबकि पिछले चार वर्षों से मंदिर पूर्ण है। मेने क्षमा याचना के साथ कहा की हमारे विधान अनुसार में अब पूर्व सम्पादक हूँ, अब जो वर्तमान सम्पादक है, वे प्राण प्रतिष्ठा का यह कार्य करवायेंगे। तन आपने कहा की यह काम सर्वप्रथम तुम्हारा है, क्योंकि तुमने इसे प्रारम्भ किया। वैसे तुम 15-20- व्यक्ति हो, जिनमे मुख्य कार्यकर्ता तीन हो, जिनमे पिछले कुछ समय से तुम्हारा दिल दुख हुआ है, एवं तुम रूत कर बैठे हो। तब मेने कहा की अच्छा करने के बावजूद जब लोग बुरा कहे एवं शक की निगाहों से देखें, तब दिल टूट जाता है। तब आपने फ़रमाया की यह तो दिनिया की ृत है, भगवान् राम का भी उस समय एक सामान्य व्यक्ति ने दिल दुखाया, इससे अच्छे काम करने बंद नहीं किये जाते। तब मेने कहा की अब मेला करने एवं लोगों का सामाजिक समारोह करने से डर लगता है, अच्छी चर्चा एवं विकाश के मुद्दों के स्थान पर लोहों द्वारा एक दूसरे पर कीचड़ उछालने एवं दोषारोपण के साथ मन मुटाव बढ़ते है, तब आपने कहा की अच्छे काम में ईश्वर भी साथ देता है, कोई कुछ भी कहे में आप लोगों के साथ हूँ। आप लोगों का मान में रखूंगी। आप समाज में ज्ञान की रौशनी फैलाते हो, सभी तन-मन एवं धन से लगे हुए हो। यह में जानती हूँ, आपका मिशन सदैव सफल होगा, आप भविष्य में समाज सेवा से कभी मत मुकरना। इस एक घटना से सभी पाठकों को लग गया होगा की इसमें कुछ भी मिलाया हुआ भी नहीं है तथा हटाया हुआ भी नहीं है एवं जिमनी बाई को बिना पूछे एवं बिना आशा किये स्वयं मुझे भी जो हमारे द्वारा कमी रही, उसका उलाहना हाथों हाथ मिल गया, जबकि उनको किसी ने नहीं बताया की सीरवी सन्देश पत्रिका का कार्यलय पाली में है एवं उसमे आईमाताजी मंदिर की प्राण परतितहा होनी है, विशेषकर में माँ का आभारी हूँ की ुझे जो ठेस लगी हुई थी एवं मानसिक रूप से अशान्त था, जिसे माताजी जिमनी बाई ने अपने आप मात्र पास बैठने से ही जैसे माथे पर लिखी हुई लकीरों को पढ़कर निवारण बता दिया एवं में दुःखों से हल्का हो गया तथा पुंज जोश के साथ सेवा में लग गया।

उसी समय एक और दुखी जन माताजी की शरण में प्रत्यक्ष मेरे सामने आया, जिनकी बैंक कैशियर रूप में रहते हुए हजारों रुपयों की चोरी के साथ गबन के रूप में नौकरी जानी तय थी, आपके शरण में आने मात्र से न केवल उनकी नौकरी बची, बल्कि मनौती रूप में पांच सौ रूपये कपडे में बांधकर कर लटकाने का कहने पर एक माह में ही आधे रूपये पुनः केश में बढ़ गए तब मनौती के रूपये माताजी के दरबार में चढाने आये। इस पर माताजी ने कहा की अभी चोरी के रूपये पुरे नहीं आये। तब तक रूपये नहीं चढ़ सकते है, रूपये पुरे आ जाए। तब यह राशि यहाँ श्री माताजी के चरणों में चढ़ेगी, यह प्रत्यक्ष दुसरा पर्चा मेने अपनी आँखों से देखा एवं कानों से सूना एवं ऐसा लगा मानों पांच सौ वर्ष बाद साक्षात आईमाताजी पुनः अवतरित हो गए एवं दुखियों के दुखड़े दूर कर रहे हो, में नतमस्तक हो गया।

आपके प्रिये भक्त श्री अमरलाल राठौड़ (सवराड़) हाल मुकाम मैसूरु कर्नाटक के कथनानुसार पिछले 30 वर्षों से आप माताजी जिमनी बाई की शरण में है एवं सारे कष्टों के निवारण के साथ सभी खुशियों की सौगात के पीछे माताजी जिमनी बाई को मानते है। वे कहते है की पिताजी मगारामजी राठौड़ सांसारिकता से विस्कट होकर साधु हो गए एवं आम वस्त्रों के स्थान पर शरीर पर केवल लंगोटी धारण कर ली। हम बहुत छोटे-छोटे थे, ऐसे में हमारी एक गाय खो गई एवं हमारे खूब ढूंढने पर भी गाय नहीं मिली। उसी समय मगारामजी साधू रूप में बेरा खाण्डा खारिया नींव ,तब माताजी जिमनी बाई ने कहा की सामान्य कपडे पहनते हुए संसारी जिव रूप में भक्ति नहीं हो सकती है क्या? माताजी का आदेश है की आप लंगोटी के स्थान पर सामान्य कपडे पहनों एवं आईजी की कथा सभी को सुनाओं एवं सद्कार्य करो, आपकी गाय खो गई है, परिवार वाले दुःखी है, जाओं परिवार में कहना की पांच माह पुरे होने पर गाय अपने आप घर आ जायेगी और वहीँ हुआ ठीक पांच माह बाद गाय घर पर आ गई तथा दूसरे ही दिन उसने एक बछड़ी को जन्म देकर दूध देना भी प्रारम्भ कर दिया। तब से मगारामजी एवं उनका परिवार माताजी जिमनी बाई के भक्त बन गए एवं सद्कार्यों में लग गए। श्री मगारामजी ने जब प्रथम बार प्राइवेट विद्यालय में बालकों को आईमाताजी का जीवन चरित्र सुनाया, तब अपने आप पुष्वृष्टि के साथ माताजी का पवन आशीर्वाद मिला, जो आज दिन तक जारी है। आप हर माह बीज पर खाण्डा बेरा पर जरूर आते है यह नियम बना लिया है।

अब तक आपके द्वारा दिए पर्चों में उद्लियावास में बेरा रेल पर हुए भरपूर पानी के प्रत्यक्ष प्रमाण के साथ कई बेरों में आपने पानी बताया एवं भरपूर पानी हुआ, मात्र कुछ दिन पूर्व दक्षिण भारत में सोने चांदी की दूकान से बड़ी चोरी पर बताये अनुसार चोरी का माल पुनः मिला। यहाँ तक की थानेदार के स्वयं चोरी होने पर चोरों को सजा नहीं देने की शर्त पर चोरों को बताया एवं एक बार तो चोरी के मामले में चोर भी स्वयं साथ में खाण्डा बेरा आ गया, तब प्रत्यक्ष चोर को बताया की चोर साथ है, इस तरह आपके दरबार में पूछने से पूर्व अर्थात प्रश्न से पहले उत्तर मिल जाता है। जिनके दरबार में इस कलयुग में भक्तो की भीड़ लगना स्वाभाविक ही है। अब तो हाल यह है की वर्ष के 365 दिनों में प्रतिदिन 10-20 भक्तों का आना तो सामान्य है, जो 35 वर्षों से जारी है।

साध्वी जानेश्वर (दुर्गा) सीरवी

किसी विद्वान साध्वी ने लिखा है –
“न महल चाहिये, न ही कोई बड़ा पद। न दोबारा जन्म लेना चाहती हूँ। न ही मरकर जन्न्त (स्वर्ग) जाना चाहती हूँ। कुछ देना चाहते हो तो नरम दिल और मजबूत हाथ दें। जिनसे दूसरे के आँसू पोंछ सकूँ। परिश्रमी, मेहनती, ईमानदारी, सच्चाई एवं सीधे-सरल स्वभाव वाला सीरवी समाज सदैव अपने परिश्रम से अपनी श्रम से पसीने से खेतों को सींचने वाले सीरवी समाज में जिसने भी जन्म लिया उन सभी ने अपने-अपने कार्य क्षेत्र में एक अमिट छाप छोड़ी है और समाज का नाम रोशन किया हैं। चाहे व्यापार का क्षेत्र हो चाहे सरकारी पदों पर हो या फिर डॉक्टर, वकील, इंजीनियर बने हों। अपनी ईमानदारी सच्चाई एवं परिश्रम से सभी का दिल जीता हैं। इतना ही नहीं धर्मिक क्षेत्र में भी ईश्वर की भक्ति में, भी अपनी ईमानदारी, सच्चाई एवं सरल स्वभाव एवं परिश्रम के कारण जो भी साधू संत एवं गुरुभक्त हुए है वे सभी सीरवी समाज से भी ज्यादा अन्य जातियों के लिए पूजनीय एवं वंदनीय रहे है। वैसे समाज में गिनती के साधू सन्त एवं गुरुभक्त हुए है मगर जब सम्पूर्ण समाज के बारे में जानकारी प्राप्त करते है तो समाज में ऐसे घर गृहस्थी वाले भक्तगण हुए है जिनको श्रद्धा आस्था एवं भक्ति के भाव से पूजा करते है मगर समाज के लिए गुमनाम है।

वैसे भी एक कहावत प्रचलित है- “घर का जोगी जोगना और आन गांव का सिद्ध”

कहने का तात्पर्य अपने समाज एवं अपने गांव के साधू संत को लोग बड़ी मुश्किल से मानते है मगर बहार से आये हुए साधू सन्त को सिद्ध पुरुष मानकार पूजा करते हैं। मगर इस कहावत को झूठा साबित कर दिखाया है साध्वी जानेश्वर दुर्गा चौहान ने।

किसी विद्वान ने कहा है –

“करम तेरे अच्छे है तो, किस्मत तेरी दासी है।
नियत तेरी अच्छी है तो, घर में मथुरा काशी है।।

साध्वी जानेश्वर चौहान जो दुर्गा भारती के नाम से जानी पहचानी एवं प्रसिद्ध है का जन्म मिगसर सुदी 2 वि.सं. 2034 में ग्राम माधोपुरा (सतलाना) (जो चमत्कारी सिध्दपुरुष दीवान रोहितदासजी महाराज की तपोभूमि एवं कर्मभूमि रही है) में सीधे सरल एवं परिश्रमी किसान परिवार श्री राजुरामजी चौहान पिता के घर हुआ। आपकी माता का नाम श्रीमती चुन्नीदेवी है जो सुखारामजी चोयल की पुत्री है। साध्वी जानेश्वर अपने दो भाई स्व. सुरेश एवं हुक्माराम से बड़ी इकलोती बहिन है। जैसा की सीरवी समाज में आज से 10-15 वर्ष पहले बाल विवाह का प्रचलन था उससे आप भी अछूती नहीं रही तथा 1.5-2 वर्ष की उम्र में आपका भी बाल विवाह हो गया था। आपके 6 भतीजिया है। आपने अपने ग्राम माधोपुरा में 4 वीं कक्षा वि. सं. 2044 में सन् 1985 उत्तीर्ण की। स्कूल छोड़ते ही आपके जीवन में एक चमत्कारी घटना घाटी। एक बार आप रात्रि में अर्द्ध चेतन अवस्था में सोयी हुई थी तब आपको सपने में श्री आईमाताजी साक्षात देवी रूप में ज्योति रूप में दिखाई दी। इस समय आपकी उम्र मात्र 10-11 वर्ष की थी। 1वर्ष तक लगातार अपने वाली घटना घटती रहती थी। साक्षात् रूप में देवी शेर की सवारी पर बैठकर दर्शन देती रहती थी। आपका मन श्री आईमाताजी की भक्ति भाव में रम गया था और बाल अवस्था में भी जब भी आप चाँदनी बीज को श्री आईमाताजी की ज्योति करते तो आपको साक्षात् माताजी दिखायी देते थे। आपको बाल्यकाल में ही वैराग्य हो गया था और आपका जीवन श्री आईमाताजी की पूजा उपासना माला जपना एवं भजन भाव में व्यतीत होने लगा। आपके ग्राम माधोपुरा के पास ही 1-2 किलो मीटर दूर सरग्राम की सीमा में पहाड़ी पर श्री थूमड़ा माताजी का मन्दिर एवं गुफा हैं। जब भी आपका मन अशान्त होता था तब इस गुफा में पधार जाती थी तथा बिना अन्न जल किए ध्यान लगाकर विराजमान हो जाती थी। आपको श्री आईमाताजी की भक्ति पर पूर्ण विशवास हो गया था। आप कई दिनों तक भोजन नहीं करती फिर भी आपको भूख नहीं लगती थी। आपके अपने जीवन में केवल भक्ति की ही भूख लगती रहती थी। आपको माँ आईजी के कृपा से स्वतः भजन एवं प्रवचन आने लगे। आपने 12 वर्ष तक भोजन नहीं किया था। आप का सुभ्रदा माताजी के मन्दिर में एवं गुफा में आना जाना लगातार होता रहता था। यह मन्दिर थूमड़ा माताजी भाड़ाजून के अधीन था इसलिए थूमड़ा माताजी के महन्त श्री श्री 1008 राज भारतीजी जिनकी अभी उम्र 108 वर्ष है का भी आना जाना होता रहता था। आप महन्त रान भारतीजी के सम्पर्क में आयी एवं महज 11 वर्ष की अवस्था में महन्त राजभारती जी को अपना गुरु बनाकर उनके दीक्षा ग्रहण की। तब आपका नाम भी दुर्गा भारती रखा गया। आपने दीक्षा भले ही भारती साधू सम्प्रदाय से ग्रहण की मगर आपका ध्यान पूजा पाठ भजन कीर्तन इत्यादि श्री आईमाताजी की ही करती रही।अपने घर पर कच्चे झोंपड़े में ही श्री आईमाताजी तस्वीर स्थापित की तथा बिलाड़ा मुख्य धाम से ज्योति लाकर अपने पूजा स्थल झोंपड़े नुमा श्री आईमाताजी के मन्दिर में अखण्ड ज्योति की स्थापना की जो आज भी मौजूद है।


आपके इस प्रकार के व्यवहार से माता पिता को भी चिन्ता होने लगी तथा ग्राम चाटेलाव जहाँ आपका ससुराल था वहां से भी ससुराल भेजने का दबाव आने लगा। तब पीहर पक्ष के एवं ससुराल पक्ष के कुछ लोग आपकी सच्चाई का पता करने के लिए आपके गुरु महाराज श्री 1008 राज भारती जी के पास गये तब उन्होंने फरमाया कि इनके सिर पर मेरा हाथ है ये तो अपने जीवन में माताजी की माला जेपेगी। तब आपका संबंध निच्छेद हो गया। आप अपने ग्राम माधोपुरा में ही अपने घर पर ही झोपड़े नुमा श्री आईमाताजी के मन्दिर में दिन रात पूजा पाठ भजन पाठ एवं ध्यान में मग्न रहने लगी। आपको स्वतः ही माताजी के भजन आने लगे तथा आपने भगवान कथा में प्रवचन देने भी शुरू कर दिये थे। जिस प्रकार श्री आईमाताजी ने भी घास फुस की झोपड़ी में बैठकर तपस्या की थी आज उसी स्थान पर श्री आईमाताजी का चमत्कारिक भव्य एवं विशाल मन्दिर बना हुआ है तथा लाखों अनुयायी दर्शनार्थ पधारते है। उसी प्रकार आपकी तपस्या भी घास के झोंपड़े में शरू हुई है भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है यह तो श्री आईमाताजी ही जानती है मगर कुछ संकेत मिलते है कि साध्वी जानेश्वर जी भी अपना अच्छा नाम कमायेगी ऐसी मेरी श्री आईमाताजी से कामना है, प्रार्थना हैं। वैसे में वर्ष में 2-3 बार आपके दर्शनाथ माधोपुरा आता जाता रहता हूँ तथा जब आपके माता पिता एवं परिवार के अन्य लोग भी आ जाते हैं। जब श्री आईमाताजी के चमत्कारी के बारे में एवं साध्वी जानेश्वरजी की तपस्या के बारे में अक्सर चर्चा होती रहती है तब आपने पिताजी श्री राजाराम जी चौहान कभी कभी जिज्ञासा वश बताते रहते है और पूछते रहते है कि जिस प्रकार बिथोड़ा पीर श्री अदरभाण जी ने श्री आईमाताजी की तपस्या करके चँदा कच्ची दीवार को चलाकर चमत्कार बताया था। वैसा ही चमत्कार आप कब दिखायेंगे। साध्वी जानेश्वरी सीरवी ने दीक्षा के 10वें दिन ही विधिवत भजन गाने लगी। आज आप एक अच्छी भजन गायिका भी है तथा काफी केसेट्र्स में आपके गाये हुए भजन मिलते हैं। सन् 2004-2005 से आपने भागवत कथा में उपदेश देने शुरू किये। आज आपके शिष्य जालोर पाली जोधपुर सिरोही इत्यादि जिलों से करीब 2-3 हजार शिष्य हैं।


आपके शिष्यों में सर्वाधिक राजपूत जाती के एवं सीरवी पटेल प्रजापत पुरोहित जाट विशनोई इत्यादि हैं। आप चार्तुमास करते समय खाना नहीं खाती है। चार्तुमास के दौरान दोपहर 2 घन्टे भागवत कथा तथा शाम को भजन कीर्तन होता है। उस समय आपकी उम्र मात्र 15 वर्ष थी। दुसरा चार्तुमास पाली में इन्द्रा कॉलोनी में किया गया। जिसमे मुख्य कार्यकर्ता स्व. लालाराम जी ठेकेदार थे। तीसरा चार्तुमास पाली के ही सोलंकियों की बास वाली बडेर में किया गया। जिसमे मुख्य कार्यकर्त्ता श्री भूराराम जी ग्राम हिंगोला थे। आपके चार्तुमास के दौरान जो भेंट एवं दान राशि इकट्ठी होती थी। उस राशि से अपने घर पर कच्चे झोंपड़े के स्थान पर श्री आईमाताजी का पक्का मन्दिर बनाया तथा पाट की स्थापना की।

आपकी प्रतिदिन की दिनचर्या निम्न प्रकार है-

1.  प्राप्त 4 बजे उठकर नियताक्रम से निवृत होकर 4.15 बजे आरती 1 घण्टे तक

2.   2-सवा 2 बजे से आप ध्यान मग्न होकर माताजी की माला जपना करीब 2-3 घण्टे

3.  दोपहर में शास्त्रों का अध्ययन

4.  सायं 7.15 बजे आरती एवं 2 घण्टे ध्यान नित्य प्रतिदिन 1 पाठ भागवत कथा का करना।

आप भजन कलाकार भी है तथा भजन कीर्तन के कार्यक्रम भी करते हैं। आपके अधिकांश शिष्य आपके उपदेशों एवं आप द्वारा दिये गये आशीर्वादों में काफी प्रभावित है तथा संकट के समय में आपके मन्दिर में दर्शनार्थ आते है।हालांकि आपने चमत्कारों के बारे में चर्चा करने पर बताने से मना कर दिया तथा कहा की धीरे धीरे आपको स्वतः ही जानकारी हो जायेगी तथा भक्त लोग अपने आप बता देंगे। मगर हाल का भादवी बीज महोत्सव 3 सितम्बर 2016 के शुभ अवसर पर श्री भँवर जी चौहान किसान केसरी महासचिव अखिल भारतीय सीरवी महासभा के कारों के शो रूम उदघाट्न था इसके मुख्य अतिथि आप साध्वी जानेश्वर जी ही थी तथा चौहान परिवार द्वारा 1 कार कीमत 16 लाख रूपये आपको सप्रेम भेंट की थी। श्री भंवर जी चौहान का पूरा परिवार आपको बहुत ही अच्छा मान सम्मान करते है तो सम्पूर्ण परिवार आपके शिष्य एवं परम भक्त है। आपकी भावी योजना अपने पूजा स्थल माधोपुरा में एल बड़ा संत सम्मेलन करने की है। आप सीरवी समाज की एक मात्र चमत्कारिक संत मूर्ति है जिसकी प्रशंसा में अपनी लेखनी से करने में असमर्थ हूँ क्योंकि आप दिखने में तो मात्र सरल एवं भोली भाली साध्वी सी लगती है मगर आपकी भक्ति एवं तपस्या बहुत ही गहरी एवं पूजनीय है।

आपके सम्मान में इतना ही कहूँगा-

हजारों बुझे हुए दीपक किसी एक दीपक को प्रज्जवलित नहीं कर सकते, जबकि एक रोशन दीपक हजारों बुझे हुए दीपों में ज्योति का संचार कर सकता हैं।”

संत पदमारामजी लचेटा –

इनका जन्म बाली तहसील के मिरगेश्वर गाँव में लचेटा गोत्र के सीरवी परिवार में हुआ । यह पूरे जीवन तक अविवाहित रहे । बाल्यावस्था से ही साधु महात्माओं की सत् संगत से ये वैरागी हो गए थे और इन्होंने अधिकांश समय साधुओं की ‘जमात’ में जाकर ही व्यतीत किया था । योगाभ्यास में भी पूर्ण दक्षता प्राप्त की थी । कई वर्षों बाद पदमारामजी ने अपने ग्राम के बाहर जीवित समाधि ले ली । आज भी ये श्रद्धा से याद किए जाते हैं ।


यहां पर संक्षिप्त जानकारी लिखी गई हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए “सीरवी समाज का उद्भव एवं विकास” नामक पुस्तक ( बिलाडा़ मंदिर में उपलब्ध है ) पुस्तक लेखक – श्री रतनलाल सीरवी (आगलेचा) एम.ए (भूगोल),बी.एड.(शिक्षक)

संत मूलारामजी काग –

इनका जन्म देसूरी तहसील के ग्राम बड़ोद के काग गोत्र के सीरवी परिवार में हुआ था । घर गृहस्थी होते हुए भी मूलारामजी काग बड़े भावुक व सरल स्वभाव के पुरुष थे । ‘काम ही राम’ के सिद्धांत के अनुसार आप परिश्रम को अधिक महत्व देते थे । ये बड़े भजनीक थे‌ । इन्होंने बड़ोद के बाहर जीवित समाधि ली‌ ।


यहां पर संक्षिप्त जानकारी लिखी गई हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए “सीरवी समाज का उद्भव एवं विकास” नामक पुस्तक ( बिलाडा़ मंदिर में उपलब्ध है ) पुस्तक लेखक – श्री रतनलाल सीरवी (आगलेचा) एम.ए (भूगोल),बी.एड.(शिक्षक)

संत मंछानाथजी भायल –

सोजत तहसील के धिनावास ग्राम में करीब 258 वर्षों पूर्व भायल गोत्र में इनका जन्म हुआ था । इनका वास्तविक नाम जोग नाथजी था । लोगों के मन की बात जानकर इच्छा पूर्ति कर देने के कारण लोग इनको ‘मंछानाथजी’ कहने लगे । ये अविवाहित थे । मंछानाथजी माता हिंगलाज देवी के परम भक्त थे तथा माता हिंगलाज देवी ने इन्हें भक्ति करते हुए ‘साक्षात दर्शन’ दिए । इनके अरहट पर मां का मंदिर बना हुआ है, वही पर मंछानाथजी ने जीवित समाधि ली । वहां उनका स्मारक छतरी के रूप में बना हुआ है । हिंगलाज मंदिर पर वर्ष में दो बार भजन वाणी का आयोजन होता है ।


यहां पर संक्षिप्त जानकारी लिखी गई हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए “सीरवी समाज का उद्भव एवं विकास” नामक पुस्तक ( बिलाडा़ मंदिर में उपलब्ध है ) पुस्तक लेखक – श्री रतनलाल सीरवी (आगलेचा) एम.ए (भूगोल),बी.एड.(शिक्षक)

महात्मा भैरारामजी आगलेचा –

इनका जन्म पाली जिला के केलवाज ग्राम में आगलेचा परिवार में जयसिंहजी के घर विक्रम संवत् 1939 चैत्र सुदी 2 को हुआ था । बाल्यावस्था से ही ये बड़े होनहार व प्रतिभाशाली थे । साधु महात्माओं के सत्संग में इनकी विशेष रुचि थी । अत: बड़े होने के बाद इन्होंने वैरागी साधु का वेश धारण कर लिया और अपनी धूणी स्थापित कर ईश्वर आराधना में लग गए । यह नवदुर्गा भगवती के परम भक्त थे । अतः वहां चेत्र वदी अमावस्या के दिन माता जी का मेला भरता है । दिनांक 28 – 11 – 1945 को महात्माजी का स्वर्ग गमन हुआ ।


यहां पर संक्षिप्त जानकारी लिखी गई हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए “सीरवी समाज का उद्भव एवं विकास” नामक पुस्तक ( बिलाडा़ मंदिर में उपलब्ध है ) पुस्तक लेखक – श्री रतनलाल सीरवी (आगलेचा) एम.ए (भूगोल),बी.एड.(शिक्षक)

महात्मा मानारामजी पवार –

इनका जन्म अटबड़ा (जिला पाली) ग्राम मैं सीरवी ईन्दारामजी पंवार के यहां विक्रम संवत 1892 के लगभग हुआ । मानारामजी उदलियावास के हाम्बड़ गोत्रीय परिवार में ब्याहे गए । एक बार मानारामजी पंवार हरिद्वार (गंगाजी) गये । वापिस आते समय कुड़की ग्राम में इनकी धर्मपत्नी अचानक बीमार होकर चल बसी । उसके बाद मानारामजी ने कोई विवाह नहीं किया और साधु महात्माओं के सत्संग के कारण उन्होंने साधु का वेश धारण कर “बरराई नाडी” नामक स्थान पर अपना आसन स्थापित कर ईश्वर भक्ति करनी आरम्भ की । ईश्वर की भक्ति के अतिरिक्त पक्षियों को दाना पानी देना, नीम के वृक्ष लगाना, तलैया की खुदाई करना और मार्ग साफ करना आदि परोपकार के कार्य मानारामजी किया करते थे । मानारामजी की अंगरखी आज भी इनके दत्तक पुत्र जेतारामजी के वंशजों के यहां सुरक्षित हैं और प्रत्येक त्यौहार पर पूजी जाती हैं । विक्रम संवत 1972 के माघ सुदी एकादश के दिन मानारामजी ने अपना शरीर छोड़ा ।


यहां पर संक्षिप्त जानकारी लिखी गई हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए “सीरवी समाज का उद्भव एवं विकास” नामक पुस्तक ( बिलाडा़ मंदिर में उपलब्ध है ) पुस्तक लेखक – श्री रतनलाल सीरवी (आगलेचा) एम.ए (भूगोल),बी.एड.(शिक्षक)

स्वरूप ब्रह्माकुमारी बहन सुश्री दुर्गा

देवी शिव शक्ति स्वरूप ब्रह्माकुमारी बहन सुश्री दुर्गा हीरालालजी राठौड़ ग्राम पुंजापुरा । आप सरलचित त्याग व तपस्या की जीवन मुरत हैं। आप के सरल स्वभाव और उच्च विचारों के कारण बड़े पैमाने पर ईश्वरीय सेवाएं हो रही हैं। और अनेकों लोगों की प्रेरणा के स्रोत बनी हैं  आपका जन्म सन 1985 में आपके दादा जी श्री ठाकुर जी पटेल के घर ग्राम सोब्लयापुरा में डोल ग्यारस के पावन दिन को हुआ था। जहां पर वर्तमान में आई माता जी की अखंड ज्योत जग रही हैं। आप जन्म से ही देवी शक्ति स्वरूप में नजर आई, इसलिए आपका नाम सु श्री दुर्गा रखा गया। आपने धर्म एवं आध्यात्म के मार्ग पर सदैव अपने कदम आगे बढ़ाए हैं। आपने देवी अहिल्या यूनिवर्सिटी ग्रेजुएशन किया है। साथ ही आपको सुप्रसिद्ध अभिनेत्री हेमा मालिनी जी ने ब्यूटी कॉन्टेक्ट मैं गोल्ड मेडल पुरुस्कार से सम्मानित किया है। आपको हिंदी अंग्रेजी, मालवी, निमाड़ी, भाषाओं का अच्छा अनुभव है। आप प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में ईश्वरी सेवाओं के लिए 11 वर्षों से समर्पित हैं। आप वर्तमान में संस्था के जोनल मुख्यालय ओम शांति भवन न्यू पलासिय, है इंदौर में निवास करती हैं।

आप मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में सेवाओं के विकास एवं प्रतिबंध की महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों को संभाल रही हैं। आप राजयोग एज्यूकेशन एंड रिसर्च फाउंडेशन की एडमिनिस्टेटिव विंग में जोनल कॉडिनेटर भी है।( मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़) आपने अध्यात्मिक अनेक यात्रा की हैं जैसे माउंट आबू दिल्ली चंडीगढ़ मुंबई गोवा राजस्थान गुजरात पंजाब महाराष्ट्र कर्नाटका ओडिशा हरियाणा हिमाचल प्रदेश उत्तर प्रदेश उत्तराखंड मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ एवं नेपाल आदि, आपका जीवन नारी शक्ति के लिए गौरव प्रेरणादायक एक आदर्श है। आपके जीवन का लक्ष्य सदैव परमात्मा शिव के ध्यान में रहते सदा जीवन उच्च विचार रखना है। साथी विश्व कल्याण की भावना से श्रेष्ठ कर्म ऐश्वर्य सेवा करना है। ओम शांति सुश्री दुर्गा हीरालाल जी राठौड़ ग्राम पुंजापुरा का परिवार- दादाजी- श्री ठाकुरजी पटेल दादीजी- चंपा देवी पिताजी- श्री हीरालालजी पटेल माताजी- श्रीमती कृष्णा हीरालालजी पटेल भाई- महेंद्र पटेल, धर्मेंद्र पटेल, मनीष पटेल, बड़े भाई- भगवानसिंहजी पटेल, सुरेशजी पटेल, कमलजी पटेल, बड़े पापाजी- लक्ष्मणजी पटेल, (ग्राम सोबल्यापुरा) गोविंदजी पटेल, ग्राम पुंजापुरा गोपालजी पटेल, ( ग्राम सोबल्यापुरा ) अंकल- हरिसिंहजी पटेल,( ग्राम सोबल्यापुरा )

महंत हेतुरामजी काग –

इनका जन्म देवलीकलां के काग गौत्रीय सीरवी परिवार में विक्रम संवत 1946 के लगभग हुआ । माता पिता के गुजर जाने और होनहार देवली ग्राम के ही रामस्नेही सन्त महंत विष्णुदासजी गुर्जर ने हेतुरामजी को पढा़या लिखाया व आयुर्वेद चिकित्सा की शिक्षा देकर एक कुशल वैदय बनाया । अपने गुरु के प्रति हेतुरामजी की अगाध श्रद्धा थी । इनका दूसरा नाम वासुदेव था । विष्णुदासजी के निधन के पश्चात्‌ हेतुरामजी अपने गुरू के उतराधिकारी (महंत) बने । इन्होंने देवली, अटबड़ा और बरना इन तीनों गांवों की सीमा पर एक बावड़ी खुदवाई । इन्होने सनातन धर्म उत्तर प्रदेश मण्डल मेरठ के ब्यावर केन्द्र से सन् 1930 में संस्कृत शास्त्री की परीक्षा उत्तीर्ण की ।


यहां पर संक्षिप्त जानकारी लिखी गई हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए “सीरवी समाज का उद्भव एवं विकास” नामक पुस्तक ( बिलाडा़ मंदिर में उपलब्ध है ) पुस्तक लेखक – श्री रतनलाल सीरवी (आगलेचा) एम.ए (भूगोल),बी.एड.(शिक्षक)

जती गेनाबाबाजी काग –

इनका जन्म हरियामाली के काग गोत्र में हुआ था । ये बडेर बिलाड़ा में आई माता के रथ (वेल) के जती थे । ये बिलाड़ा के जत्ती मन्नाबाबाजी के चेले थे । ये बड़े सीधे साधे न्यायप्रिय व देवी भक्त संत थे । इन्होंने बिलाड़ा के दक्षिण दिशा की ओर स्थित पतालियावास नामक स्थान पर एक बेरा खुदवाया और नीम के कई वृक्ष लगवाकर एक बड़ा ही रमणीय बगीचा बनाया । उक्त स्थान पर आज माध्यमिक विद्यालय हैं । इनकी भवन निर्माण कार्य में बड़ी रुचि थी । बडेर बिलाड़ा आई माता के मंदिर में मकराना की फर्श व चीनी की दीवारों का कार्य भी इन्होंने ही विक्रम संवत 1958 में करवाया था । विक्रम संवत 1969 में इनका निधन हो गया । इनकी स्मृति में संगमरमर मकराना के पत्थर की एक बड़ी सुंदर छतरी ‘बाणगंगा’ नामक स्थान पर बनी हुई है।


यहां पर संक्षिप्त जानकारी लिखी गई हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए “सीरवी समाज का उद्भव एवं विकास” नामक पुस्तक ( बिलाडा़ मंदिर में उपलब्ध है ) पुस्तक लेखक – श्री रतनलाल सीरवी (आगलेचा) एम.ए (भूगोल),बी.एड.(शिक्षक)

चेनारामजी काग –

श्री चेनारामजी काग का जन्म देवली आऊवा में श्री कृपारामजी काग के परिवार में हुआ । ये बचपन से ही धार्मिक प्रवृत्ति वाले थे । ये बाबा रामदेव के परम भक्त थे । इन्होंने श्री भाकरदासजी महाराज जाणुंदा के सानिध्य में अपनी धार्मिक यात्रा शुरू की । ये बड़े तपस्वी थे । अपने तप से उस समय कई लोगों को भविष्यवाणी द्वारा किसी भी प्रकार के आने वाले संकट के बारे में बता देते थे । उनकी बात ठाकुर भी मानते थे । उन्होंने अपनी मृत्यु से पहले अपने परिवार वालों व मित्रों को बताया की मेरी मृत्यु के बाद मेरे शरीर का अन्तिम संस्कार ‌मत करना मेरा शरीर का भुमि दान करना । उन्होंने अपना नश्वर शरीर त्यागने (देवलोक गमन) की बात एक दिन पूर्व ही बता दी थी । परन्‍तु उनकी मृत्यु के बाद गांव वालो के आगे परिवार वाले भी विवश होकर उनका देह संस्कार कर दिया गया । उनकी इच्छा के अनुसार ना होने पर उन्होंने परिवार वालों को प्रताड़ित (सताना) शुरु कर दिया । उसके बाद परिवार वालों ने इधर उधर (मन्दिर) में पूछताछ करने पर पता ‌चला की मेरा बताये अनुसार आपने मेरी इच्छा क्यों पुरी नही कि । उसके बाद उन्होंने ‌कहा की अब जेसा मे कहु वैसा आप करो तो सब शान्ति होगी। उसके बाद परिवार वालों ने चेनारामजी के देवलोक गमन के लगभग एक वर्ष पश्चात वैशाख सुदी 5 सोमवार विक्रम संवत 2024 में उनके परिजनों ने मेवी गांव के बेरा नवा अरट (जिला पाली) पर पगलिया स्थापित कर चबूतरे (छतरी) का निर्माण करवाया । यह धार्मिक आस्था का केंद्र है, जहां प्रतिवर्ष वैशाख सुदी 5 को भजन संध्या का कार्यक्रम रखा जाता है।

जती हुकमाबाबाजी हाम्बड़ –

इनका जन्म ग्राम “दोनड़ी करमावास” के सीरवी गुमनारामजी हाम्बड़ के यहां विक्रम संवत 1929 में हुआ था । बाल्यकाल से ही हुकमाबाबाजी का मन साधु महात्माओं के संगति और भजन वाणी में अधिक होने के कारण इनके माता-पिता ने विक्रम संवत 1946 में बडेर बिलाड़ा में रूघाबाबाजी नामक आई पंथी डांगरिया साधु का शिष्य बना दिया । कम पढ़े लिखे होते हुए भी जती हुकमा बाबाजी धार्मिक और राजनीतिक ग्रंथों को पढ़ कर बड़े विद्वान बन गए । यह भगवती आई माताजी के परम भक्त थे । ये सामाजिक न्याय और बडेर बिलाड़ा की चल अचल संपत्ति की देखभाल और धार्मिक लाग बाग वसूल करने के लिए ठिकाना बडेर बिलाड़ा की ओर से मालवा प्रांत के जती नियुक्त किए गये । सामाजिक न्याय व धार्मिक प्रचार के कारण यह बड़े लोकप्रिय बन गए । ग्वालियर के तत्कालीन शासक महाराजा माधवरावजी सिंधिया ने इन्हें अपने जन्मदिवस की वर्षगांठ के अवसर पर दिनांक 17 नवंबर सन् 1917 को “उपकारक” का खिताब प्रदान किया था । विक्रम संवत 1998 वैशाख वदी 2 को जती हुकमाबाबाजी का निधन हो गया ।


यहां पर संक्षिप्त जानकारी लिखी गई हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए “सीरवी समाज का उद्भव एवं विकास” नामक पुस्तक ( बिलाडा़ मंदिर में उपलब्ध है ) पुस्तक लेखक – श्री रतनलाल सीरवी (आगलेचा) एम.ए (भूगोल),बी.एड.(शिक्षक)

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