समाज के लोकवीर

बक्षी खुमानसिंहजी “सितारे हिन्द” –

स्वर्गीय बक्षी खुमान सिंह जी का जन्म राजस्थान के अंतर्गत जोधपुर (मारवाड़) राज्य के बिलाड़ा नामक नगर में सीरवी क्षत्रिय जाति के गहलोत कुल में वैशाख सुदी 6 सवंत 1887 (तारीक 10 अप्रेल सन 1830 ई.) को हुआ था। इनके पिता का नाम खेत सिंह जी और माता का नाम जेतू भाई था खेत सिंह जी के भाइयों और उनके बीच किसी कारण वश अनबन हो जाने के हेतु सन 1834 ईस्वी में बिलाड़ा छोड़कर वे इंदौर चले गए। उस समय खुमान सिंह जी की अवस्था 4 वर्ष की थी। खेतसिंह जी के बड़े वीर और जमीन में बिना खोदे पानी बताने में पूरे दक्ष थे। इंदौर के तत्कालीन नरेश मल्हारराव होलकर ने उनकी कीर्ति पहले से किसी से सुन रखी थी, अतएव उन्होंने खेत सिंह जी को अपने पास नौकर रख लिया; और उनकी धर्मपत्नी मल्हार राव की माता महारानी कृष्णाबाई के पास रहने लगी। खुमानसिंह जी अपने माता के साथ राजभवन में जाते आते थे। और बड़े ही सुंदर स्वरूप वाले थे “होनहार बिरवान के होत चिकने पात” वाली युक्ति के अनुसार बाल्यावस्था से ही वह बड़े होनहार ज्ञात होते थे। महारानी का खुमान सिंह जी पर स्नेह हो जाने के कारण उन्होंने उनको अपने पास महल में ही रहने की आज्ञा दी। श्रीमान माननीय महाराजा तुकोजी राव दूसरे उस समय बालक अवस्था में थे। उनका खुमान सिंह जी के साथ रात दिन महल में रहने के कारण और साथ ही खेलने कूदने के कारण दोनों का आपस में खूब प्रेम हो गया। जब तुकोजीराव शिक्षा पाने के योग्य हुवे तो खुमान सिंह जी को भी उन्हीं के साथ शिक्षा दिलाने की महारानी साहिबा ने आज्ञा दे दी। तब खुमान सिंह जी राजभवन में श्रीमान माननीय महाराजा तुकोजी राव होल्कर के साथ मराठी की शिक्षा पाने लगे। जब मराठी का अध्ययन समाप्त कर चुके तो वह अंग्रेजों हिंदी और उर्दू आदि भाषाओं की भी शिक्षा पाने लगे। रायबहादुर उमेदसिंह जी आपके अध्यापक थे। इस प्रकार खुमानसिंह जी ने इंदौर के मदरसे में पंडित सरूपनारायण जी C.T.E. और राव बहादुर धर्मनारायण जी की देखरेख में महाराज तुकोजीराव के साथ अध्ययन जारी रखा। सन 1884 ईस्वी में खुमानसिंह जी को आदेश मिला कि वह घुड़सवार सेना विभाग का ब्यौरेवार विस्तृत अध्ययन करें और उसी वर्ष जून माह में 50 रुपये मासिक पर कमांडेंट बनाए गए। दूसरे वर्ष उनका वेतन बढ़ाकर 75 रुपये मासिक कर दिया गया। सन 1850 ईसवी में श्रीमान माननीय महाराज तुकोजीराव होलकर ने गुप्त भेष में उत्तरीय भारत का भ्रमण किया तब उनके साथ खुमानसिंह जी भी थे। उस समय रेलवे नहीं थी घोड़ों पर सवार होकर दस आदमियों के साथ तुकोजीराव ने यात्रा की। इस यात्रा में खुमानसिंह जी ने महाराजा साहब की बड़ी सेवाए की और मैं हमेशा के लिए महाराजा साहब के विश्वास पात्र बन गए। सन 1851 ईसवी में खुमानसिंह जी को बिजागढ़ के सूबे की सम्मान उपाधि मिली। सन 1852 ई. में श्रीमान महाराजा तुकोजीराव गद्दी पर आरूढ़ हुए और उन्हें राज्य के पूर्व अधिकार प्राप्त हुए इस अवसर पर उक्त महाराज ने सरदार लोगों को जागीरे प्रदान की। अपने बाल्यकाल में की गई अमूल्य सेवाओं के लिए 1200 रुपये वार्षिक आय का गांव सांगवी परगना बेतमा मैं खुमानसिंह जी को प्रदान किया और 250 रुपये मासिक वेतन परे बक्षीगिरी की पोशाक देकर बक्षी के पद पर नियुक्त किया यही। यही नहीं महाराजा तुकोजी राव होल्कर ने खुमानसिंह जी को पालखो, चंवरी आबदागिरी हाथी और घोड़े आदि भी प्रदान किए। कुछ समय के पश्चात महाराजा तुकोजीराव होल्कर ने एक बार फिर मुंबई की ओर यात्रा करने की तैयारी की। साथ में बक्षीखुमान सिंह जी और उनके तीन तथा चार नोकर ही थे। उस समय तक रेल नहीं आई थी महेश्वर से मुंबई यात्रा के लिए बेलगाड़ी की डाक से गए। मुंबई से पुना, पुना से नगर, नगर से नासिक आये, और वहां से सेंधिया सड़क होते हुए पुनः सवारी महेश्वरआई। इस यात्रा में भी खुमानसिंह जी ने अच्छी सेवा की। दो अथवा तीन वर्ष पश्चात महाराजा साहिब के सत्यपरामर्श एवं आज्ञा से खुमानसिंह जी ने सेना का फिर से कार्य देखना आरंभ किया और एक फौजी पाठशाला (स्कूल) की स्थापना की। जिसमें हिंदी, मराठी, उर्दू और अंग्रेजी का इनट्रेंस तक के अध्ययन का समुचित प्रबंध किया गया। सर्वसाधारण इस पाठशाला में शिक्षा पा सकता था। ऐसा कोई नियम नहीं था कि फौजी विभाग के लड़कों को ही शिक्षा दी जावे। पाठशाला का नाम मिलिट्री स्कूल रखा गया। इसके अतिरिक्त बक्षी खुमानसिंह जी ने ‘सवार रेजीमेंट’ नामक पुस्तक भी अंग्रेजी में लिखी। बक्षी खुमानसिंह जी द्वारा इंदौर में स्थापित फौजी पाठशाला के विषय में भारत सरकार के मंत्री ने निम्न सूचना प्रकाशित की थी:- सर रॉबर्ट हैमिल्टन के पत्र 1 जून सन 1855 में फौजी पाठशाला के विषय में दिए हुए ब्यौरे से ज्ञात होता है कि इस पाठशाला की स्थापना का श्रेय बक्षी खुमासिहजी को है, जिसने इस संस्था की नींव लगाई और इंदौर महाराजा को है जो इस संस्था को आंशिक रूप से सहायता देते हैं। बहुत से संतोषजनक चिन्हों में से एक यह भी है कि हमारे सीधे शासन के ताबे जनता में शिक्षा के साधनों की वृद्धि कर हम लोग देसी राज्यो की प्रजा को भी लाभ पहुंचा रहे हैं।

 

जी.एफ एडमोंस्टोन सेक्रेटरी टू गवर्नमेंट ऑफ इंडिया
■■■■■■■■■■■■■

मध्य भारत के इंदौर स्थित रेजिडेंट सर आर.एन.सी. हेमिल्टन ने बक्षी साहब कृत “कैवेलरी रेगुलेशंस” पुस्तक के विषय में यह विचार प्रकट किए:- मेरे प्रिय महोदय, “नियमों के अनुवाद की पाँच प्रतियां प्राप्त कर मुझे असीम हर्ष हुआ इस काम का पूर्ण श्रेया आपकी बुद्धि और उद्यमशीलता को है; और उसकी अवश्य ही सराहना होगी मुझे यह जानकर बहुत ही हर्ष हुआ कि महाराजा के पास ऐसा स्वामी भक्त सरदार है, जो अपनी नौकरी में तल्लीन है और कितना सुयोग्य हे, जो अपने आप की प्रसिद्धि प्राप्त करना चाहता है। ईश्वर आपको पूर्ण स्वरुप रखें ताकि आपने जो कार्य भली प्रकार से आरंभ किया है उसको पूरा कर सके।”

आपका हितेषी और मित्र
सर आर.एन.सी. हैमिल्टन इंदौर 20 सितंबर 1856 ई.

श्रीमान माननीय महाराजा तुकोजी राव होल्कर के मिनिस्टर राव बहादुर उम्मेदसिंह जी अपने पत्र (तारीख 16 सितंबर सन 1856 ईसवी) में लिखते हैं:- मेरे प्यारे खुमानसिंह जी आपने जो अपने अमूल्य पुस्तक घुड़सवारों की फौजी कवायद प्रेषित की, उसका शीघ्रता से अवलोकन करने पर मुझे असीम हर्ष हुआ। ऐसी पुस्तक के गुणोंका, जो ऐसे विषय पर है जिसके विषय में मैं सर्वथा अज्ञान हूं, यद्यपि स्वयं सर्वोत्कृष्ट निर्णायक न होते हुए भी मैं अनुभव करता हूं कि आप मेरे नवयुवक मित्रों में से सबसे योग्य हो जिनकी बुद्धि का नियंत्रण करना मेरा मुख्य उद्देश्य और अध्ययन रहा है। इस पुस्तक का श्रेय निश्चय ही आपको है और निसंदेह सर रोबर्ट आप जो इन्हें प्रतियां प्रेषित कर रहे हैं, उन्हें लेकर बहुत प्रसन्न होंगे जो कि एक होनहार नवयुवक के परिश्रम का प्रथम फल है। और जो निश्चय ही तलवार चलाने मैं ही दक्ष नहीं, लेखनी चलाने में भी दक्ष होने के विषय में प्रसिद्धि प्राप्त करेगा। मैं विश्वास करता हूं कि यह ग्रंथ कहीं रचेजाने वाले ग्रंथों का अगुवा है। मैं महाराजा साहिब के फौजी विभाग को बधाई देता हूं जिसका अध्यक्ष एक ऐसा पदाधिकारी है, जो अंत में “आभूषण प्रमाणित होगा।” आपको अपने उज्जवल जीवन में हार्दिक सफलता चाहता हुआ मैं हूं-

आपका
उम्मेद सिंह गदर ओर खुमानसिंह

सन 1857 के वर्ष अंग्रेज सरकार की सेना ने अंग्रेजों के विरुद्ध गदर (बलवा) आरंभ कर दिया इंदौर की छावनी में उस समय दो कंपनियां और दो तोपे रहती थी। बलवा का होना सुनकर वह फौज भी गदर में शामिल हो गई। इस फौज के शामिल होने से श्रीमान माननीय महाराजा होल्कर की फौज का भी मन बिगड़ गया। बक्षी खुमानसिंह जी की आधीनता में जो सेना थी उसमें मुसलमान अधिक संख्या में थे। उनका महतपुर काँजेटिंट से संबंध था। मालवा फौज की टुकड़ी के सवारों ने अपने ऑफिसरों को जान से मार डाला और एकत्रित होकर दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। इधर बक्षी साहब की अधीनता में जो सेना थी वह भी बागी होकर निकल कर भाग गई इस विकट परिस्थिति में खुमानसिंह जी ने अपनी जान की परवाह ना कर और बड़े वीरता और धैर्य से हिंदू और मुसलमानों को राजी कर उनमें एकता स्थापित की। इंदौर महाराजा ब्रिटिश सरकार के शुभचिंतक व भक्त होने के कारण बक्षीखुमान सिंह जी इंदौर महाराजा के विश्वासपात्र अधिकारी होने के कारण ब्रिटिश सरकार के पक्ष में रहे। और उन्होंने गदर की भयंकर परिस्थिति में भी धैर्य व वीरता से हिंदू मुसलमान सैनिकों में एकता का बीज बोकर उनके सहयोग से बड़े-बड़े वीरता के कार्य किए। कप्तान हचिंसन कों सपरिवार बड़ी भयंकर परिस्थिति में जान से बचाया और अममेरा के राजा तथा अन्य वागियों को पकड़कर कैद किए। बक्षी साहब के कार्य को महाराजा इंदौर के ध्यान में लाने के अभिप्राय से कप्तान ए.आर.ई हचिसन ने महू के किले से तारीख 17-7-1857 को इस आशय का पत्र लिखा था:- हम सब यहां कल 10:00 बजे आराम से पहुंच गए। खुमानसिंह ने मेरे साथ कृपा पूर्ण व्यवहार किया और मेरी सुविधा का पूरा ध्यान रखा। में श्रीमान महाराजा साहिब बहादुर के प्रति पूर्ण कृतज्ञ हूं, जिन्होंने मेरे और परिवार के लिए कृपया इतना कष्ट उठा कर कार्य किया। इस पत्र को पाकर महाराजा तुकोजी राव होल्कर बक्षी खुमानसिंह जी की वीरता पर बहुत खुश हुए और उस अवसर पर की गई बक्षीजी की सेवाओं का उल्लेख हजूरी दफ्तर के अध्यक्ष द्वारा निम्न शब्दों में किया:- “इस अवसर पर आपने जो सेवाएं की है, उसके लिए श्री दरबार साहिब आपको अत्यंत हर्ष हो रहा है, जिसकी व्यंजना करने के लिए उपयुक्त शब्द नहीं है। कप्तान हचिंसन द्वारा श्रीमान माननीय महाराजा साहिब बहादुर को प्रेषित किया गया पत्र, जो आपकी हाल ही की सेवाओं से संबंध रखता है आपके पास प्रेषित किया जाता है।”

गिरमाजी त्रिम्बक चिटनीस 16-7-1857 ई.
★★★★■■■★★★★

कर्नल एच. एम डूरंट ऑफिशिटिंग(officiting) एजेंट टू गवर्नर जनरल फॉर सेंट्रल इंडिया ने श्रीमान माननीय महाराजा तुकोजीराव होलकर को इंदौर रेजीडेंसी से 3 अगस्त को निम्न आश्रम का पत्र बक्षीखुमान सिंह जी द्वारा की गई सेवाओं के विषय में प्रेषित किया:-  निसंदेह श्रीमान इंदौर से महू धन पहुंचाने के लिए जो कार्यवाही की उससे गवर्नर जनरल साहब प्रसन्न होंगे। इंदौर शहर के निवासी डाकुओं के हाथों में से जो धन पुनः प्राप्त किया और जिस सुयोग्यता से आप के सेनाध्यक्ष बक्षी खुमानसिंह ने कप्तान हचिंसन को खतरे से बचाया और अमभेश के मुख्य(चीफ) के सलाहकारो को पकड़ा उससे भी वे प्रशन्न होंगे।” हिज एक्सीलेंसी गवर्नर जनरल व वायसराय लॉर्ड कैनिंग ने बक्षी खुमानसिंह जी को 5000(पाँच हजार रुपए) की पारितोषिक रूप से खिलत जबलपुर के सार्वजनिक दरबार में तारीख 8 जनवरी सन 1861 को प्रदान की। गदर में की गई सेवाओं पर विचार कर महाराजा तुकोजीराव होलकर ने प्रसन्न होकर बक्षी खुमानसिंह जी को गांव सांगवी के बदले में पवारडा हापा परगना सामवेर जागीर में प्रदान किया जिस जिसकी सनद का संक्षिप्त भावानुवाद इस प्रकार है:- श्री महालसाकांत राज श्री खुमानसिंह जी व खेतसिंह जी बक्षी ठाकुर बस्तीमोजे बिलाड़ा इनको स्नेहांकित तुकोजी राव होल्कर राम राम सुरुसन सदवास सीतेन मया तेन व अलफ शके 1785 युवनाम संवत्सर नर्मदा उत्तर तीर अपने सरकार की सेवा ईमान और इतबारी से करके सरकार के निकट रह कर इतनी दिलचस्पी से की कि सरकार आप पर प्रसन्न होकर आप के कुटुंब के खर्चों के वास्ते मौजा सांगवी परगना बेटमा, यह गांव आप को शके 1773 में इनाम जागीर देकर उसके सनद बक्षी गई और उसके अनुसार आप उसका बिना हरकत उपयोग लेते हैं। संवत 1614 में जो गदर हुआ उस समय आपने सरकारी ताबेदारी बहुत होशियारी एवं ईमानदारी से बजाई। अब इस साल सांगवी ग्राम, परगना बेटमा खालसे करके वह आपको पहिले इस माफिफ् सनद बक्षी थी वह वापिस लेकर उस गांव का मुबादला मोजे पवारडा हापा परगने सामवेर यह गांव हकदार उभामार्ग एवं फौजदारी इनको वाजे करके सरकार अमल थडमोड़ एवं थल भरीत, जकात, कलाली,जल, तरू, तृण,काष्ट, पाषाण, निधि, निक्षेप के साथ इस साल से इनाम बक्षा है। और गांव के हद हदुद का चक नामा बनवाकर दिया है, और उसके बहीवाट के लिए कमाविसदार परगने सामवेर के नाम पत्र लिखकर यह सनद बक्षी जाती है। इसलिए आप मौजा पवारडा हापा, परगने समवेर को अपने कब्जे में लेकर इस गांव की आमदानी आप आपके लड़के नाती वगैर पुश्तदार और पुश्त लिया करें। सरकार की तरफ से किसी भी प्रकार की हरकत नहीं की जावेगी सो मालूम होवे। चंद्र 28 रमजान सन 1862 फसला तारीख 26 मार्च 1863, सन 1862 से 1865 ईसवी तक बक्षी साहब इंदौर के एजुकेशन बोर्ड शिक्षा समिति के सदस्य रहे हैं। सन 1970 में वह एक बहुत ही आवश्यकीय कार्य के लिए विलायत गए। और यूरुप महाद्वीप मैं घुमे। लौटते समय मिश्र देश के केरो शहर मैं भी शीघ्रता से जाकर उसे देखा। विलायत के बड़े बड़े ऑफिसरो से खुमासिह जी ने परिचय प्राप्त किया था। बीजागढ़ कई वर्षों पूर्व से ही बक्षी साहब के दो सौ रुपये (₹200) रुपये वार्षिक पर इजारे था। गदर में की सेवाओं से प्रसन्न होकर महाराजा तुकोजी राव ने बीजागढ़ के दो सौ रुपये(₹200) बक्षी साहब को सरदारी “लवाजमे” के लिए उम्र भर तक दिए जाने की आज्ञा प्रदान की। दाखल तारीख 6 अक्टूबर 1865ई. में बक्षी खुमानसिंह जी का विवाह बिलाड़ा मारवाड़ के दीवान सीरवी लक्ष्मण सिंह राठौड़ कि बहन सायबा बाई के साथ हुआ था। यह नाम बचपन का था विवाह हो जाने के पश्चात सायबा बाई की जगह दुर्गाबाई नाम रखा गया। जिसके गर्भ से 3 पुत्र और 3 कन्याएं हुई जिनका विवरण वंशवाद इसके साथ है

सवंत 1927 ईस्वी में बक्षी खुमानसिंह अपने लड़के कर्नल रामसिंह जी की शादी करने हेतु मारवाड़ आये

सन 1876 के अंत में बक्षी साहब सरनोबत (कमांडर-इन-चीफ) बनाए गए, और बाद में महाराजा तुकोजीराव होलकर के मिनिस्टर भी। वृद्धावस्था और शरीर ठीक न रहने के कारण 41 वर्षो तक इंदौर राज्य की सेवा कर सन 1861 में त्यागपत्र देकर बक्षी साहब अजमेर चले आये। यहां पर उन्होंने खुली जगह पर एक बहुत विशाल कोठी (भवन) बनाएं इसके अतिरिक्त आनासागर के तट पर एक बगीचा भी लगवाया जहां पर प्रायः सैर के लिए आया करते थे। नसीराबाद का सड़क पर भी खुमानसिंह जी ने एक बाग लगवाया था जो अभी तक सुसज्जित है। अजमेर में बक्षी साहब अपने उत्तम गुणों के कारण लोकप्रिय बन गए। अजमेर की जनता ने उनको म्युनिसिपलटी का सदस्य चुना। जब महाराजा शिवाजी राव होल्कर ने गद्दी छोड़ी तब 1866 ईस्वी में बक्शी खुमासिहजी फिर इंदौर बुलवाए गए और कॉन्सिल में फिर से भाग लेने लगे। कॉन्सिल में कई दिनों के पड़े कागजों का अपनी बुद्धिमता से निर्णय कर दिया और इंदौर राज्य की नवीन व्यवस्था कर दी। बक्षी साहब का शरीर कमजोर हो गया था, इसलिए स्टेट कॉन्सिल के बहुत दिनों के बड़े जटिल कामों की सुलाहट, फैसलों का निपटारा कर के अंत में सन 1602 ईसवी में उन्होंने त्यागपत्र देकर पेंशन ले ली। स्टेट कौंसिल ने बक्षी साहब के त्यागपत्र देने के पश्चात उनके तीन मास(3 month) का अवकाश स्वीकृत करते हुए उनके द्वारा स्टेट कॉन्सिल में किए गए महत्वपूर्ण कार्यों की प्रशंसा करते हुए लिखा:- 3 वर्षों में बक्षी खुमानसिंह सी.एस. आई (C.S.I.) ने अपना काम कितने परिश्रम से किया और इस बीच में जटिल प्रकरणों और अन्य महत्व की बातों का निर्णय किया, उनकी दी हुई सम्मति कितनी नेक एवं अमूल्य है यह कौंसिल को पूर्ण रूप से विदित है। उक्त अवकाश स्वीकार करते समय इंदौर के तत्कालीन रेजिडेंट ने बक्षी साहब द्वारा स्टेट की की गई अमूल्य सेवाओं के विषय में निम्न शब्दों में प्रशंसा की:- कौंसिल का निश्चय मुक्त पूर्ण रूप से पसंद है और बक्षी खुमानसिंह के द्वारा स्टेट कौंसिल में किए गए कार्यों के विषय में जो प्रस्ताव स्वीकार किया है, वह भी मुझे मान्य है। 54 वर्ष तक स्टेट की बड़े प्रेम और ईमानदारी के साथ सेवा कर आप अवकाश चाहते हैं यह धन्यवाद के पात्र हैं, किंतु तीन माह का का अवकाश समाप्त होने के पश्चात बक्षी साहब कौंसिल में नहीं रहेंगे, इसका मुझे हार्दिक खेद है। इंदौर राज्य की लंबी और बड़ी स्वामी भक्ति से सेवायें कर सम्वत 1968 के चैत्र सुदी 3 (तारीख 2 अप्रैल सन 1911 ईसवी) रविवार के सुबह 4:00 बजे बक्षी खुमानसिंह जी स्वर्ग सिधारे। उनकी मृत्यु की सूचना होते ही राज्य के अधिकारी एकत्रित हुए राज्य की ओर से फोजी पुरा लवाजमा, पैदल पलटन की पूरी कंपनी स्टेट केवेलरी का एक स्कवार्डन, फुल बैंड बाजा, डंका निशान, चौबदार, चपरासी आदि सब उपस्थित हुए। शव का जुलूस बड़ी धूम-धाम से नगर में से होते हुए “बक्षी बाग” में समाधि देने के लिए आया। फौज की तरफ से अंतिम सलामी दी गई शव के जुलूस में रायबहादुर नानकचन्दजी प्राइम मिनिस्टर, कुमार परमानंद जी चीफ जस्टिस, खान साहब मुशतरफा खाँ जनरल मेंबर, जनरल गोविंदराव मतकर, लाला वेशनदास जी, अकाउंटेंट जनरल, रामचंद्र जी स्टेट खजांची आदि राज्य अधिकारी थे। इनके अतिरिक्त शहर के प्रमुख सेठ साहूकार और अन्य जन समुदाय था। वह दिन बक्षी के कुटुंबीजनों और इंदौर शहर निवासियों के लिए बड़ा रंज का था।

★■ उपसंहार ■★

बक्षी खुमानसिंह जी बड़े दयालु और अपने धर्म के पक्के थे। कुल देवी नवदुर्गावतार भगवती आई माता के बड़े भक्त थे। बचपन से ही बक्षी साहब ने जन्मभूमि (बिलाड़ा) मारवाड़ छोड़ दी थी, किंतु अपने सीरवी समाज और कुलदेवी ‘आईजी’ के प्रति श्रद्धा ज्यो की त्यों बनी रहे। आईजी महाराज के नियमों का वे श्रद्धा पूर्वक पालन करते थे। उनके हाथ की ‘बेल’ (डोरा) जब कभी गल कर टूट जाती तो जब तक दूसरी ‘बेल’ धारण नहीं कर लेते, किसी से बोलते भी नहीं थे। अपने लड़के और लड़कियों की शादियां अपनी सीरवी जाति में ही कि। इतने बड़े पद पर पहुंच कर उन्होंने कभी अभिमान नहीं किया और ना जाति के रिवाज को तोड़ा। सीरवी जाति में शिक्षा की कमी देख कर मैं बहुत दुखी रहते थे। जब वे मारवाड़ में अपनी माता का मौसर (मृतक भोज) करने के लिए आए तब उन्होंने जाति के पंचों को शिक्षा का महत्व बताकर पाठशाला स्थापित करने का सोचा था। किंतु उस योजना में उन्हें सफलता नहीं मिली और यह बात उनके मन में ही रह गई। जोधपुर महाराजा ने बक्षी खुमासिहजी को कंठी और दुपट्टा सिरोपाव प्रदान किया था।

■ परिशिष्ट ■

बक्षी खुमासिहजी मारवाड़ में सीरवी जाति के एक ख्यात प्रसिद्ध पुरुष एवं इंदौर राज्य के जिम्मेदार अधिकारी थे। सम्वत 1933 में जोधपुर दरबार जोधपुर ने बिलाड़ा जाते थे तब उनको सीरोपाव ओर कंठी प्रदान की थी।

जनरल भवानीसिंहजी गहलोत –

जनरल भवानी सिंह जी गहलोत बक्शी खुमान सिंह सी.एस.आई प्रधान सेनापति भूतपूर्व इंदौर राज्य (मालवा )के पोते थे ।खुमान सिंह जी के पिता खेत सिंह जी बडेर बिलाड़ा के दीवान शिवदान सिंह जी के बड़ करसा (कृषि कार्य की देख रेख करने वाले अथवा प्रभारी) थे कुछ वर्षों के पश्चात खेतसिंहजी अपने पुत्र को खुमानसिंह को लेकर इंदौर चले गए और वहां अपने फूफा (बुआ) जो राजमाता कृष्णाबाई (केसरबाई )के पास रहते थे ,के साथ राजभवन में रहने लगे। उधर महाराजा हरि राव होलकर और खंडेराव होलकर के सन् 1843 ईस्वी और 1844 ईसवी में क्रमशः असामायिक तथा निः संतान निधन पर राजमाता कृष्णा भाई ने स्थानीय प्रमुख अंग्रेज अधिकारी रेजिडेंट राबर्ट हैमिल्टन को सहमति से हालकर घराने की ही एक दूसरी शाखा के भाऊ होल्कर के अव्यस्क छोटे पुत्र को गोद लेकर तारीख 27 जून 1847 ई. को तुकोजीराव (द्वितिय)नाम से हालकरों कि राज गद्दी पर बैठाया राजमाता कृष्णा बाई की ही देख रेख में तुकोजीराव की शिक्षा दीक्षा होने लगी ।खुमान सिंह जी उसी की आयु के ही थे, जिससे वे अनायास तुकोजीराव के सहचर बन गए ।दोनों का साथ- साथ खाना -पीना, खेलना और लिखना पड़ना होने से उनमे बड़ा प्रेम हो गया ।अंत में जब तुकोजीराव( द्वितीय) को राज्य अधिकार प्राप्त हुए, तो उन्होंने अपने सहपाठी मित्रों और साथी खुमानसिंह जी गहलोत को सेना में बक्षी का पद दिया और जागीर प्रदान की। इस प्रकार खुमान सिंह जी इंदौर राज्य के बक्षी बने और अंत में कमोन्नत होकर होलकर राज्य के मुख्य सेनापति और फिर मुख्यमंत्री भी बने ।इस पथ पर वे पूरे 5 वर्षों तक बने रहें। यही नहीं, वृद्धावस्था और अस्वस्थता के कारण 1891 ई. में अजमेर चले गए थे ,परंतु महाराजा शिवाजी राव होलकर के शासनकाल में अंतिम वर्षों में राज्य शासन को सुव्यवस्थित करने हेतु जब सन् 1899 में स्टेट काउंसलिंग की नियुक्ति की तब बक्षी खुमान सिंह जी के दीर्घकालीन अनुभव का लाभ उठाने हेतु उन्हें भी उस में नियुक्त किया गया ।परंतु 3 वर्ष इस पद पर रहने के बाद जब अंतिम रूप में सेवा मुक्त होने से पूर्व जब वे सन् 1902 ईस्वी में 3 माह की छुट्टी पर गए, तब स्टेट काउंसलिंग ने उनकी सेवाओं की प्रशंसा करते हुए एक प्रस्ताव पास किया था। इंदौर के तत्कालीन रेजिडेंट ओसवाल्ड बोजँक्वेट ने भी बक्षी जी को इन 3 माह की छुट्टी दिए जाने संबंधी स्टेट काउंसलिंग के इस प्रस्ताव को स्वीकृत करते हुए बक्षी जी की सेवाओं की बहुत प्रशंसा की थी। उनका सन् 1911ई. मे स्वर्गवास हो गया।

बक्षी खुमानसिंह जी गहलोत का विवाह बिलाड़ा के सगराम सिंह जी राठौर की पुत्री और दीवान लक्ष्मण सिंह जी की बहन सायबाबाई के साथ हुआ था। दीवान लक्ष्मण सिंह जी की दुसरी बहिन अजोतांबाई ग्राम भावी के सीरवी भीखाराम जी बर्फा को और तीसरा बहन बनीबाई ग्राम उदलियावास के सीरवी पदारामजी हम्मड़ को ब्याही गई थी। बक्षी खुमानसिंह जी के 3 पुत्र फतेह सिंह जी, राम सिंह जी और बलवंत सिंह जी और तीन पुत्रियां (किसना बाई, केसरबाई और पार्वती बाई)संतान थी। बलवंत सिंह जी का विवाह जोधपुर (मारवाड़) राज्य के सोजत परगने के ग्राम अटबडा के सीरवी नाथाराम जी लेटेचा की पुत्री के साथ विक्रम संवत 1927 के फाल्गुन वदी 9 सोमवार 13 फरवरी 1871 ई. को हुआ था। जिसके गर्भ से राधाबाई, सुखिया बाई नामक दो पुत्रियां और एक पुत्र चरित्र नायक जनरल भवानी सिंह जी संतान उत्पन्न हुई।

चरित्र नायक जनरल भवानी सिंह जी

जन्म और शिक्षा-
जनरल भवानी सिंह जी का जन्म सवंत् 1939 ई. के माघ वदी 13 सोमवार 5 फरवरी सन् 1883 ई. को हुआ था ।आप अपने पिता के एकमात्र पुत्र होने के कारण इनके परिवार वालों ने विशेष लाड़-प्यार से इनका लालन पालन किया। जब कुछ बड़े हुए तब इनको सर्वप्रथम हिंदी और मराठी की शिक्षा इंदौर में दिलाई गई और उसके बाद मैट्रिक तक अंग्रेजी और उर्दू की शिक्षा अजमेर में दिलाई गई थी। जनरल भवानी सिंह जी बाल्यकाल से ही बड़े कुशाग्र बुद्धि थे, अतः विद्यार्थी जीवन में पढ़ने लिखने के अतिरिक्त खेल कूद और व्यायाम आदि के कार्यक्रमों में भी बड़ी रुचि के साथ भाग लिया करते थे। विद्यालय में अपने शिक्षको और सहपाठियों के साथ यह बड़ी ही विनम्रता और प्रेम का व्यवहार किया करते थे, जिसके फलस्वरुप में सबके स्नेह-भाजन बन गए थे। एक उच्च कुल में उत्पन्न होने के कारण इनके जीवन पर शुद्ध और शांत वातावरण का पुरा प्रभाव पड़ा था। यही का था कि जनरल भवानी सिंह जी एक बुद्धिमान और होनहार संतान बन गए ।

राज्य सेवा में नियुक्ति-
जब जनरल साहब 18 वर्ष के हुए तो दिनांक एक 1-7-1900 ई. को होलकर राज्य की सेना में घुड़सवार अंगरक्षक दाल के कमांडेंट अथवा नायक के पद पर नियुक्त हुए । उस समय इनको ₹14 वेतन और ₹2 भत्ता को ₹16 मासिक मिलते थे। सेना संबंधी कार्यों में पूर्ण रूप से दक्ष होने के कारण सैनिक अधिकारी जनरल भवानी सिंह जी से सदैव प्रसन्न रहा करते थे।
सन 1914- 1918 ई. में आप आनरेरी मेजर के पद पर मेसोपोटामिया (ईराक) के रक्षा क्षेत्र में गए । वहां आपने बड़ी वीरता और कुशलता से कार्य कर अभूतपूर्व प्रसिद्धि प्राप्त की। इस लिए भारत सरकार ने जनरल भवानी सिंह जी को “ऑर्डर ऑफ ब्रिटिश इंडिया “(ODI का सन 1917 में द्वितीय श्रेणी बहादुर पदवी के साथ प्रदान किया और ₹30) मासिक इन को मिलने लगे । इसके अतिरिक्त ब्रांच स्टार विक्टरी मंडल, जनरल सर्विस मेडल आदि मिले । आपका नाम बहादुरी के लिए उस समय के सैनिक अधिकारियों (जनरलों )की रिपोर्ट में भी आया और सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर इंडिया ने जनरल भवानी सिंह की बहादुरी की भूरी -भूरी प्रशंसा की थी। युद्ध समाप्ति के समारोह में भाग लेने के लिए जनरल साहब को इंदौर राज्य की ओर से लंदन भेजा गया था।
19 जुलाई सन् 1920 ईस्वी को आप मेजर पद से पदोन्नत किए जाकर 300 + 25 + 400 रुपए के मासिक वेतन पर इंदौर महाराजा के मिलिट्री सेक्रेटरी और कर्नल के पद पर नियुक्त हुए। (फर्स्ट चीफ मिनिस्टर इंदौर का आदेशांक 6636, दिनांक 19 जुलाई 1920 ई.)
जनरल भवानीसिंहजी पोलो खेल के भी बडे़ कुशल खिलाड़ी थे । अपने फूफी (अथवा बुआ)के बेटे भाई हीरा सिंह जी बर्फा के साथ आपने महू, जबलपुर, कोलकाता, बेंगलुरु और भोपाल आदि स्थानों पर होलकर राज्य की पोलो टीम में पोलो खेल कर “पिपलोदो कप” प्राप्त किया, जिस पर होलकर महाराजा ने प्रसन्न होकर जनरल भवानीसिंह जी को हजूर मिलिटरी कार्यालय आदेशांक 25 दिनांक 13 अगस्त 1921 ई. के अनुसार “इंदौर पोलो कल्ब” सेक्रेटरी के पद पर नियुक्त किया गया। दिनांक 14 जून 1922 ई. को होलकर महाराजा ने अपनी वर्षगांठ (जन्मदिवस) के अवसर पर आपको “दिलेरजंग”का खिताब प्रदान किया ।दिनांक 14 जुलाई 1922 को जनरल साहब ‘लेफ्टिनेंट जनरल’और साथ ही में आप अस्थायी रूप से होलकर राज्य की सेना में कमांडर-इन-चीफ अथवा प्रधान सेनापति भी नियुक्त किए गए।( फर्स्ट चीफ मिनिस्टर इंदौर का आदेशांक 4085 दिनांक 14 जुलाई 1922 ई.)। 1 दिसंबर सन् 1922 ई. को जनरल भवानीसिंह जी ‘इंदौर राज्य मंत्रिपरिषद’ में आर्मी मिनिस्टर और 700 प्लस 100 प्लस 1100 के वेतन पर इंदौर के प्रधान सेनापति( कमांडर-इन-चीफ) के पद पर नियुक्त किए गए थे ।आपने होलकर राज्य की सेना में सुधार के अनेक उल्लेखनीय कार्य कर यश प्राप्त किया। कई देशी नरेश और ब्रिटिश सेना अधिकारी भवानी सिंह जी के द्वारा सेना में किए गए सुधारों और प्रगति से बहुत प्रभावित हुए थे।
आप एक सत्य वक्ता और सत्य परामर्शदाता थे। अतः प्रधानमंत्री इंदौर के कार्यालय आदेशांक 6707 दिनांक 21 नवंबर 1922 के अनुसार इंदौर राज्य की प्रीवी – काउंसिल के सदस्य बनाए गए , क्योंकि आपका निर्णय और परामर्श सच्चा होता था।

जाति प्रेमी और समाज सुधारक के रूप में जनरल भवानी सिंह जी
जनरल साहब एक उच्च अधिकारी होने पर भी अपनी सीरवी जाति के प्रति वैसा ही प्रेम रखते थे, जैसा कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जाति के प्रति प्रेम रखना चाहिए। समाज मे उत्पन्न व्यक्ति को सामाजिक रीति रिवाजों और मर्यादाओं का अवश्य पालन करना चाहिए। इस दृष्टि से सामाजिक व्यवस्था में समय अनुसार परिवर्तन करके सुधार करने को जनरल भवानी सिंह जी के हृदय में बड़ी प्रबल उत्कंठा थी। वे चाहते थे कि सीरवी जाति में जिन सामाजिक बुराइयों ने घर कर लिया है, उनमें समय अनुकूल परिवर्तन अवश्य होना चाहिए। इस उद्देश्य से उन्होंने अपने निकटवर्ती परिवारजनों और मालवा के कुछ सुधारवादी जाति बंधुओं सहित सन् 1920 ईस्वी में “दी मालवा स्टेशनरी एंड प्रिंटिंग वर्क्स लिमिटेड इंदौर” से “सीरवी राजपूतों नींद से जागो” नामक एक विज्ञप्ति प्रकाशित करवाई थी। जो इस प्रकार है – –

प्रिय जाती भाइयों ! अपन सब लोग सीरवी राजपूत हैं, यह बात सब लोग जानते हैं। 600 वर्ष पहले 24 राजपूत कालूपुर के किले में घिर गए और हार गए। इससे इनको इतना बुरा लगा कि उन्होंने शस्त्र पटक दिए और वे सांचे में खेती करने लग गए। ‘सिर’ मारवाड़ी बोली में सांचे की खेती को कहते हैं। बस उसी वक्त से हम सीरवी कहलाने लगे। क्या सीरवी कहलाने से हम राजपूतों से अलग हो गए ? नहीं, हम सब अब भी उसी राजपूत कुल के हे, जिसमें बड़े-बड़े बहादुर लोग हुए हैं। जो हम असली राजपूत नहीं होते, तो आज भी हमारी जाति में गहलोत, राठौर, पड़िहार और चोयल वगैरह गौते कैसे होती?
आजकल लोग खोटी और बुरी चालो को छोड़ कर सुधार कर रहे हैं, लेकिन हम उचे कुलो के होकर भी गफलत की नींद में सो रहे हैं। अगर हम लोग अब भी अपनी जाति को सुधारने में कदम नहीं रखेंगे तो हम सब जातियों से पिछड़ जाएंगे और हमारी जाति की खूब बदनामी होगी । इसलिए हम लोग अपने अपने गांव के सीरवी लोगों को जल्दी ही एक जगह भेला करें और इस कागज़ को एक बार पढ़ें और दो बार पढ़ कर खूब विचार करें और जाति वालों को यह बात समझावे। फिर हमें नीचे लिखी बातों का जवाब आषाढ़ सुदी दूज तक देवे ।
(1)अपनी जाति को अब भी सुधारना चाहिए कि नहीं ?
(2)अपनी जाती सुधारने में मदद करोगे कि नहीं ?

इस कागज़ को रद्दी समझ कर फाड़ कर फेंकना नहीं चाहिए । जाति से विनती करने वालो कि सही –
-कर्नल भवानी सिंह बहादुर इंदौर ,
-रघुनाथ सिंह अमीन महिदपुर ,
-मेजर केसर सिंह इंदौर जुंजार सिंह इंदौर,
-रतन सिंह इंदौर,
-दीप सिंह इंदौर,
-मोहन सिंह इंदौर,
-तेज सिंह बी.ए., एल.एल.बी प्रयाग
-हरचन्दजी ,
-रूखड़जी खरगोन,
-मांगीलाल कोटवाल गंगवाडा।
जनरल भवानी सिंह जी ने अपने सीरवी जाति को अपने अतीत- काल के गौरव- गरिमा से परिचित करा कर जाती को सुधार और प्रगति की ओर अग्रसर होने का उपरोक्त पत्रिका (बुलेटिन )द्वारा आव्हान किया है ‘आई माता’ (जीजी देवी) के अनुयायी होने के कारण मांस और शराब आदि के सेवन से बचकर प्रगतिशील होने के लिए जनरल साहब ने सीरवी जाति से अपेक्षा की थी । जनरल साहब सीरवी जाति के प्रमुख धार्मिक संस्थान बड़ेर बिलाड़ा के बड़े शुभचिंतक व हितेशी थे। दीवान प्रताप सिंह जी के स्वर्गवा सिधार जाने पर जब बड़ेर संस्थान जोधपुर (मारवाड़) के महकमा कोर्ट ऑफ वार्डस की देखरेख में ले लिया गया, तब मालवा प्रांत के बड़ेर बिलाड़ा की जागीर और चल अचल संपत्ति की देखरेख करने के लिए जोधपुर के तत्कालीन महाराजा साहिब ने जनरल भवानी सिंह जी को निगरानी अफसर मुकर्रर किया था। आपने इंदौर, बड़वानी, धार और ग्वालियर आदि राज्यों में ठिकाना बडेर बिलाड़ा को जागीर धार्मिक और सामाजिक सीगे की जो भी आमदनी( आय ) होती थी ।उसके जमा खर्च संबंधी हिसाब को जनरल साहब ने बड़ी ईमानदारी और होशियारी से रखने का प्रबंध किया था । उस समय बडेर बिलाड़ा की ओर से आम मुख्त्यार स्व. जती हुक्मा बाबा जी महाराज और उनके कामदार मिश्री लाल जी थे।
आय व्यय संबंधी हिसाब को सुचारु रूप से रखने और उनका उचित समय पर प्रमाणित नहीं कराने के विषय में जनरल साहब ने बड़ेर बिलाड़ा की माजी जाड़ेचीजी को यह पत्र लिखा था-
रा.रा. श्रीमती माजी साहब जाडेचीजी , ठिकाना दीवान साहब बिलाड़ा
राम राम वि. वि. के बाद तकलीफ देने मे आती है कि –
मालवा-निमाड़ के जतीजी हुक्मा बाबा को यहां से कई मर्तबा लिखा गया और उनके काम दार मिश्रीलाल को जबानी भी कह दिया गया था कि मालवा-निमाड़ का जमा खर्च का हिसाब हमको यहां लाकर दिखाए । मगर अभी तक जती जी हिसाब लेकर आए नहीं । इसलिए आप उनको लिख देवें कि जमा खर्च के कागजात इंदौर जा कर दिखा देवे। क्योकि अगर इसी तरह ही वहां का सिलसिला रहा तो मेरे ख्याल से जोधपुर की शिकायत जो उन्होंने लिखी थी, सही मानी जाएगी । जिम्मेवारी जो हमको दी है तो ठिकाने के प्रबंध रखने के लिए दी गई है । प्रबंध करना जरूर ही मेरा फर्ज है । मैं अपना ठिकाना समझ कर प्रबन्ध रखना चाहता हुँ और रूपया बचत करके दीवान साहब को बालिग होने पर हिसाब देना चाहता हूं । अगर माना कि इस वक्त यह प्रबंध नही किया गया और साबित दस्तुर ही रहा तो दीवान साहब को बालिग होने पर हिसाब देना मुश्किल होगा । और मुलक ,मालवा, निमाड़ और माड़वाड़ वाले क्या कहेंगे । इसलिए जहां तक हो सके में ठिकाने की बहतरी का ही सिलसिला रखना चाहता हूं ।
आशा है कि आप भी इसको अच्छा समझेंगे , और इस बारे में गवर्नमेंट होलकर की तरफ से भी निमाड़ , मालवा के हिसाब के कागजात तलब किये गए हैं । लेकिन अभी तक उधर से खुलासा नहीं दिया गया है ।
जती जी के आने पर विचार कर दिया जाएगा । सो जती जी को ताकिदन लिख दिया जावे कि हिसाब लेकर इंदौर फोरन आवे। और यह भी खुलास किया जाय कि निमाड़ – मालवा की रकम खजाने बडे़र में कितनी जमा कराई गई है और कितनी आई है सन् 1924 से आज तक । ज्यादा क्या लिखा जावे। फकत

तारीख 4 जुलाई 1927

भवानीसिंह

जती हुक्मा बाबा जी उस समय के एक सुप्रसिद्ध प्रभावशाली संत थे । मालवा प्रांत के तत्कालीन सभी राजा लोग जती हुक्मा बाबाजी का बड़ा ही सम्मान करते थे। क्योकि वे मालवा प्रांत में बसने वाली सीरवी और अन्य आईपंथी लोगों के धार्मिक गुरु व नेता के रूप में बड़ेर बिलाड़ा की ओर से मुकर्रर किए गए प्रमुख कार्यकर्ता थे । दीवान प्रताप सिंह जी के एकमात्र कुवंर हरि सिंह जी के बालिग होने व अपने पिता के उत्तराधिकारी होने पर जनरल भवानी सिंह जी ने मालवा प्रांत का समस्त जमा खर्च का हिसाब दीवान साहब को संभाल दीया। इसके अतिरिक्त जब कभी दीवान हरि सिंह जी साहब इंदौर पधारते थे तो जनरल साहब उनका बड़े प्रेम से अतिथि सत्कार करते थे । उनके साथ उनका पत्र-व्यवहार बराबर होता रहता था। सीरवी जाति में शिक्षा प्रचार और सामाजिक सुधार के लिए जनरल भवानी सिंह जी मालवा प्रांत के मुख्य पंचों को कहने और परामर्श देने में सदा तत्पर रहा करते थे ।जातीय झगड़ों को आपस में ही सुलझा देने और राजकीय अदालतों में जाकर पैसा खर्च नहीं करने के लिए जती हुक्मा बाबा जी महाराज को सलाह दिया करते थे । अवसर आने पर उनकी सहायता करते थे । क्योंकि उस समय सीरवी जाति में सर्वत्र निरक्षरता और रूढ़िवाद का बोलबाला था। जाति के धार्मिक नेता दीवान हरि सिंह जी साहब को भी समाज सुधार संबंधी योजना बनाने और कार्य रूप में लाने के लिए कहा करते थे। सन् 1939 के जून मास मे जब दिवान हरिसिंह जी साहिब ने अखिल मारवाड़ सीरवी सम्मेलन बुलाने का आयोजन किया था। तब इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए जनरल भवानी सिंह जी को आमंत्रित किया गया था। किंतु कुछ कारणों से वे इस सम्मेलन में नहीं जा सके और पत्र द्वारा अपनी शुभकामनाएं इस प्रकार प्रकट की थी –
सतनाम
सिद्ध श्री बिलाड़ा मारवाड़ शुभ सुथानेक सर्वोपमा योग्य श्रीमन्त राजमान.राजे श्री श्री 108 श्री दिवान हरिसिंहजी साहिब कुंवर जी श्री 105 श्री नरेंद्र सिंह जी साहब यथायोग्य लिखी मुकाम इंदौर शहर से भवानी
सिंह का सप्रेम बहुत-बहुत सतनाम विदित हो । अपरंच आपका एक नामा तारीख 3 माह हाल का मिला। पढ़कर अत्यंत आनंद हुआ। बिलाड़ा “बडे़र मे तारीख 19 और तारीख 20 जून सन् 1949 ईस्वी को अखिल मारवाड़ सीरवी क्षत्रिय सम्मेलन”होना मुकर्रर हो गया है जिसमें सीरवी जाति की उन्नति और जाति सुधार योजना पर पंचायत बोर्ड स्थापित होगा। वगैरह वगैरह पर आपने दास को इस शुभ अवसर पर बिलाड़ा याद फ़रमाया । इसके लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद स्वीकार करेंगे । यह लिखकर अत्यंत खेद प्रकट करता हूं कि दास के यहां शुभ अवसर पर अनुपस्थित होने का कारण यह है कि यहां पर शहर की प्रजा में बड़ी गड़बड़ हो गई है दूसरे दरबार मैं घटा बड़ी चल रही है ना मालूम कौन से वक्त कैसा मौका आ जावे । तो दास को हाजिर होना लाजिम है – वास्ते क्षमा करेंगे । बहुत कर यहां के समाचार छापो मे आपने मुलाहिजा फरमाया ही होगा। विशेष लिखना फिजूल है। दास की तरफ से दिल में किसी भी प्रकार का संदेह नहीं रखेंगे । दास को पूर्ण आशा और विश्वास है कि आपने यह जो कार्य हाथ में लिया है और दिलचस्पी के साथ कर रहे हैं । श्री परमात्मा इसका नतीजा अच्छा ही बनेगा । बशर्ते दृढताई से जारी रखेंगे ।प्रथम प्रथम तो श्रम अवश्य उठाना होगा । बाद में इसका नतीजा अच्छा ही होगा दास किस योग्य है जो कि इस सम्मेलन को पुर्ण सफल बनावे। फिलहाल यह अपनी जाति में प्रथम ही सम्मेलन का मौका आया है और यह भी आप की कोशिश से हो रहा है । दास जरूर जरूर आता परंतु लाचारी है । आप जो कार्य कर रहे हैं प्रशंसनीय है । सम्मेलन पूर्ण हो जाने के बाद उसमें बोर्डिंग और सीरवी जाति की उन्नति बाबात् कौन से प्रस्ताव पास हुए , उस प्रत्येक की एक एक कॉपी कृपा कर भेजने की मेहरबानी फरमायेगें । आपने ‘मारवाड़ सीरवी क्षत्रिय सम्मेलन’ यह नाम जो प्रगट किया है मेरी समझ से इसके बजाय अखिल भारतीय सीरवी क्षत्रिय सम्मलेन होना चाहिए । क्योंकि अपने यहा निमाड़, चालीसी , गुजरात और मारवाड़ वगैरा-वगैरा जिलों मुल्कों मे सीरवी जाती बसी हुई है। कृपा करके कुवंर श्री शिवसिंह चोयल को फरमाय देवे कि तुमने हमारी फोटो वास्ते कहा था तो ठीक है। परंतु फोटो कि काफी अभी तक फोटोग्राफर की तरफ से तैयार होकर आया नहीं है , आने पर शीघ्र भेज दूंगा। दूसरा तुमने एक पत्र बदरुद्दीन (अलेड़) के साथ भेजा है , वह अब तक मिला नहीं है । विशेष क्या तकलीफ दी जावे उम्मीद है कि आप नेक तंदुरस्त की हालत में होंगे । यहां पर अब तक बारिश का पता नहीं है। गये साल 15 जून तक 10 इंच मेघ बरस चुका था । आपके उधर के समाचार लिखते रहेंगे । बाकी सब सब खैरियत है । यहां लायक जो कार्य हो फरमाते रहेंगे । ज्यादा सतनाम ।
आपका भवानी सिंह

जाति के लोगो के लिए जनरल भवानीसिंह के हृदय मे गहरा प्रेम था। मारवाड़ और मालवा के सगे सम्बंधी सिरवी बन्धु जब कभी इन्दौर जाते थे , तब जनरल साहब उनका अतिथी सत्कार करने मे बड़ी रूचि लेते थे। अपने पद के प्रति उन्हे कभी गर्व नही था। जाति के अमीर और गरिब सभी प्रकार के साथ वे समान रुप से व्यवहार करते थे। सन् 1922 मे ग्राम भावी से 10 – 15 स्त्री – पुरुष , जिनमे स्व. मोतीरामजी ,सेरारामजी , भेरारामजी , ऊमारामजी , मल्लारामजी (जेठाजी) ,दामावत ,कुभांरामजी , मल्लारामजी (चंदाजी ) बर्फा, पेमारामजी खंडाला , गहलोत और पन्नारामजी , (करमीजी) आगलेचा आदि जो जनरल भवानीसिंहजी और उनके बड़े बाप फतेहसिंहजी (एकाउन्टेण्ट जनरल , इंदौर राज्य) के सगे सम्बन्धियों मे से थे , मिलने के लिये इंदौर गये थे । वहां ये लोग 20 – 25 दिन तक रहे।जनरल साहब ने अपने इन सगे सम्बन्धियों के साथ जो प्रेम पुर्ण सराहनीय व्यवहार किया उसकी स्व. पन्नारामजी आकलेचा मुक्त कंठ से प्रंशसा किया करते थे । मारवाड़ सिरवी सभा के मंत्री गुमनारामजी पंवार के इंदौर जाने पर समाज मे शिक्षा प्रचार के विषय में जनरल साहब ने खास तौर से परामर्श दिया था।

परिश्रमी और कृषि प्रेमी
जनरल भवानीसिंहजी बड़े परिश्रमी और कृषि के बड़े प्रेमी थे।अनाज उत्पन्न करने वाले किसान समाज मे जन्म लेने के कारण वो किसानो को बड़ी आदर की दृष्टि से देखा करते थे। वे देश के किसानो को (अन्नदाता) कहा करते थे। अपने सगे सम्बन्धियों के वहां विवाह और अन्य अवसरो पर वे जब कभी वो निमाड़ और चालीसी आदि मालवा के क्षेत्रो मे जाते थे , तब कृषि सम्बन्धी सुझाव अवश्य दिया करते थे। और कृषि के प्रत्येक क्षेत्र मे प्रगति की कामना से सत्य परामर्श देते रहते थे , वे कहते थे कि कृषि के बुवाई , सिंचाई और निराई उचित समय पर नही की जाय तो उत्पादन कम होगा । इसलिए किसान को फसल उत्पन्न करने मे किसी भी प्रकार की गफलत नही करनी चाहिए।

जनरल साहब अपने बगीचे की देखभाल स्वयं किया करते थे और उसमें गन्ना भी बोया करते करते थे । सन् 1930 ईस्वी में इंदौर राज्य सरकार ने कृषि प्रदर्शनी का प्रयोजन किया तब जनरल साहब को सर्वश्रेष्ठ गन्ना प्रदर्शन के लिए पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

जनरल भवानी सिंह जी कुशल सेनापति के रूप में
आप अनुशासनप्रिय और कुशल सेनापति थे। होलकर राज्य की सेना को को आपने हर प्रकार से सुयोग्य बनाने का हरसंभव भरसक प्रयत्न किया और इस कार्य में जनरल भवानी सिंह जी ने ने जी ने ने आशातीत सफलता प्राप्त की थी । क्योंकि आप स्वयं अनुशासनप्रिय और योग्य सैनिक थे सेना में जो भी अधिकारी थे वह सब जनरल साहब के प्रति बड़ी श्रद्धा रखते थे । और उनके आदेशानुसार कर्तव्य पालन पालन करते थे। उन्होंने अपने अधीन अधिकारियों और सैनिकों के दुख दर्द को दूर करने और सुख सुविधाओं को सुलभ कराने में अथक प्रयत्न किए और बहुत उत्तम व्यवस्था स्थापित कि। बाहर से जो भी अंग्रेज सैनिक अधिकारी अथवा जनरल जब इंदौर आते थे। और सेना का निरीक्षण करते थे तो वह बहुत प्रसन्न होते थे इस विषय में दो अंग्रेजी पत्रों का हिंदी अनुवाद आगे दिया जा रहा है । यह पत्र महाराजा इंदौर और जनरल भविष्य के नाम लिखे गए थे।
1) ” मेरा विश्वास है कि आपकी अहमदनगर यात्रा की व्यवस्था ठीक प्रकार से कर दी गई होगी और डिपो में आपने आपने स्वयं जाकर जो कुछ भी देखना चाहा होगा , वह आपने वहां देख लिया होगा ।मेरा विश्वास है कि आप पत्र भेजेंगे और आप उसमें अपनी इस यात्रा के बारे में भी लिखेंगे।
इंदौर में घोड़ों और खच्चरों की नस्ल बढ़ाने का फार्म खोलना चाहते थे। उसके लिए आपको क्या-क्या चाहिए इसकी पुष्टि की सूचना कि मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं तत्संबंधी प्रस्तावित व्यवस्था की पूर्व सूचना मिलते ही में नर घोड़ा – घोड़ीयो और बच्छरे – बच्छेरियो आदि के प्रबंध का मामला हाथ में ले लूंगा।
मैं आपको लिखने तथा अपनी इंदौर यात्रा के समय जो कृपा की थी । उसके लिए आपको धन्यवाद देने का सोचता रहा हूं। परंतु अब तक में इतना अधिक व्यस्त रहा कि मैं आपको लिख नहीं पाया इंदौर में आपकी सेना के घोड़ों को जिस अच्छी हालत में मैंने पाया उसके लिए मुझे आपको बधाई देनी चाहिए। मसोपोटामिया में ‘ इंदौर एस्काटस् ‘ के सैनिकों से मिलने का आपने जो मौका मुझे दिया उससे मुझे अत्यधिक हर्ष हुआ हुआ हर्ष हुआ हुआ। मेरी इंदौर यात्रा अत्यंत सुखदायक रही।
17-10-1927 ई.

2) आप जानने को उत्सुक होगें कि राज्य की सेना ने जो प्रगति की है , उससे मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। ‘होलकर ट्रांसपोर्ट कोयर’ बहुत ही निपुण सैनिक दल है ,जिसका विशेष श्रेय मेजर हीरा सिंह सिंह मेजर हीरा सिंह सिंह मेजर हीरा सिंह को है।
जनरल भवानी सिंह अपने विभिन्न कर्तव्यों को दिलचस्पी और तत्परता से पूरा करते हैं , उन को देखते हुए मुझे वह दिन दूर नहीं देखना पड़ता है जब इंदौर की सेना बहुत ही अच्छी बन जाएगी।
नई बारर्को की शीघ्रातिशीघ्र आवश्यकता है मुझे मालूम हुआ है कि यथासंभव वे बनाई जाएगी। ऐसा ज्ञात हुआ है कि यहां मलेरिया बहुत पाया जाता है ,
अतः गार्ड की ड्यूटी देने वाले सैनिकों के लिए मच्छरदानी और बेम्बर (बेम्बु-बांस ) के तेल की व्यवस्था कर दी जावे तो उनसे उस का प्रकोप प्रकोप का प्रकोप प्रकोप उस का प्रकोप प्रकोप का प्रकोप तो उनसे उस का प्रकोप प्रकोप का प्रकोप प्रकोप घटाने में मदद मिलेगी।
आप के प्राइवेट सेक्रेटरी ने उक्त यात्रा के समय मेरे लिए बहुत ही आनंददायक ‘कार का प्रबंध किया था, अतः उन्हें मैंने धन्यवाद का पत्र लिखा है। 3-3-1928

गुरुभक्त और साहित्य प्रेमी के रूप में जनरल भवानी सिंह जी
जनरल साहब सेना के उच्च पदाधिकारी होते हुए भी साहित्य के प्रति बड़ी रुचि रखते थे आप कल्याण , विणा , ‘कल्याण कलपतरु’ (अंग्रेजी ) , स्टेटसमेन ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’, मॉडल रिव्यू , ‘ इंडियन स्टेटस् जर्नल और मराठी भाषा के पत्र – पत्रिकाए नियमित रूप से मंगवाया करते थे। आपका हिंदी , पुस्तकों का एक निजी पुस्तकालय भी था। सत – साहित्य में जनरल भवानी सिंह जी को अधिक रुचि थी।’ धार ‘ राज्य के अंतर्गत ‘कानवन’ नामक ग्राम के नानक पंथी संत ‘ छोटे साहिब ‘ के शिष्य होने के कारण ‘ आप नानक ‘ पंथ को मानते थे। आप इस नानक – पंथ को सनातन धर्म का अंग मान कर हिंदू धर्म के अन्य सभी मतो को मानते थे ।
इस विषय में जनरल साहब ने ” सतनाम अनुभव ” नामक अपने ग्रंथ की भूमिका में किस स्थान पर लिखा है —
“कई लोग ‘नानक पंथ ‘ को सनातन धर्म से भिन्न समझते हैं यह उनकी भूल है नानक पंथ खास सनातन धर्म है। गुरु नानक जी की परंपरा यह खास वैष्णव धर्म है।
श्रुति – स्मृतियों के सिद्धांतों से नानक महाराज का पंथ बिल्कुल विरुद्ध नहीं है। सनातन धर्म की समझ देने वाले जो पृथक – पृथक पंथ है वह केवल गुरु परंपरा है ना की पृथक – पृथक धर्म है । गुरु को जनरल साहब बहुत बड़ी हस्ती मानते थे। इस संसार रूपी भवसागर से पार होने में सतगुरु परम सहायक होते हैं आत्मा और परमात्मा , सत्य और असत्य आदि का वास्तविक ज्ञान सद्गुरु भी दे सकते हैं । इसलिए जनरल भवानी सिंह जी ने गुरु को अत्यधिक मान्यता दी है उन्होंने “सतनाम अनुभव ” में लिखा है —
” भक्ति में दो फायदे प्रत्यक्ष दिखते हैं । मनुष्य जितने काम करता है , अपने स्वार्थ के वास्ते याने नाम के वास्ते और द्रव्य उपार्जन के लिए करता है । उसका हेतु तो आनंद ही है , परंतु वह आनंद क्षणिक है , और ईश्वर भक्ति से जो आनंद प्राप्त होता है वह सदा सवंकाल और नित्य है । नाम और द्रव्य से फल अनायास ही याने बिना परिश्रम प्राप्त होता है । यह कैसे ? उसका खुलासा सुलभ में इस जगह करता हूं। मनुष्य पहले इच्छा करता है फिर उसके सफल होने पर आनंद मानता है , और असफल होने पर दुख मानता है । सद्गुरु की कृपा से जब सद् वस्तु का विवेक हो जाता है तो असत् पदार्थों आसक्ति नहीं रहती याने इच्छा रहित हो जाता है और नाम और द्रव्य प्राप्ति की अभिलाषा उसे स्वप्न में भी उत्पन्न नहीं होती।
आत्मा क्या पदार्थ है? इसको जानने की बहुत आवश्यकता है बुद्धि और विवेक द्वारा और अनंत , शास्त्र , पुराण तथा वेदों की साक्षियों साक्षियों से यह शरीर और इंद्रियां तथा मन आदि इंद्रियां तथा मन आदि शरीर और इंद्रियां तथा मन आदि इंद्रियां तथा मन आदि और इंद्रियां तथा मन आदि तथा मन आदि वृतियों से आत्मा निराली है , यह बात सिद्ध है । परंतु इसका अनुभव सद्गुरु बिना नहीं मिल सकता।”
सद्गुरु की कृपा से ही मानव का कल्याण होता है । इसमें कोई संदेह नहीं है । जनरल भवानी सिंह जी ने सदगुरु और ईश्वर की भक्ति संबंधी मराठी और हिंदी में कई पद रचे थे और उनको पुस्तकाकार प्रकाशित कराए थे । अग्रलिखित पंक्तियों में उनके कुछ पद दिए जा रहे हैं —
(1)
अखंड मेरी आत्मा विषयों में लिपट गई रे ।
सुसंदेश आदेश या मन को , कांटे सो खटक गयो रे।।१।।
दिन नहीं चैन नहीं स्थिरता , चित चौरासी भटक रह्ये रे।।२।।
तन – धन धाम धणीपुर राजू ,
या से ममता बदल गई रे ममता बदल गई रे ।।३।।
विश्वास धरे भवानी सिंह बोले ,
सूरता यासे हार गई रे ।।४।।

(2)
याहि विधि मन ही को समझाना ,
काहे जग में फिरत भुलामा।।
देखी सो सब विन नकी है ,
यामें हाथ नही आना ।।१।।
परा पश्यंती मध्यमा वैखरी ,
ता घर करो ठिकाना ।।२।।

साहसी और कुशल निशानेबाज
जनरल भवानीसिंह जी बड़े साहसी और कुशल निशानेबाज थे (इंडियन स्टेट्स जनरल, बम्बई) मई 1930 पृष्ठ 8 इंदौर विषेषांक) महाराजा तुकोजी राव द्वितीय के समय में उन्होंने एक शेर को बंदूक के कुंदे से मार गिराया था। अचानक जब कोई बात हो जाती या कोई संकट उत्पन्न होने की संभावना देख पड़ती, तब जनरल साहब घबराते नहीं थे और अपनी कुशाग्र बुद्धि धारा तत्काल उसे निव्रत कर लेते थे। उनका कथन था कि मनुष्य को साहस के साथ कार्य करना चाहिए।
साहस विहीन व्यक्ति का जीवन निर्थक ही गिना जाता है साहसी मनुष्य ही हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकता है। राजस्थानी के कवि कृपादान जी खिडिया ने अपने नौकर राजाराम को संबोधित करते हुए एक सौरठा कहां है:-
“हिम्मत किम्मत होय, बिन हिम्मत किम्मत नहीं।
करे न आदर कोय, रद्दी कागद ज्यु राजिया।।”
अर्थात हे राजिया! साहस से ही मनुष्य का मूल्य जाना जाता है जिसमें साहस नहीं उसकी संसार में कुछ भी कदर नहीं है– उसका कोई आदर नहीं करता, वह रद्दी कागज के समान है।

सेवानिवृत्ति के बाद

जनरल भवानी सिंह जी दिनांक 1 अक्टूबर सन 1931 ई. को सेवानिवृत्त हुए थे। सेवानिवृत्ती के पश्यचात आप इंदौर राज्य के 23-2-1937 ई. को “हुजूर खजान्ची” नियुक्त किए गए थे। इस पद पर रहकर जनरल साहब ने बड़ी ईमानदारी से कार्य करके अपना कर्तव्य का पालन किया। गृह विभाग, इंदौर के परिपत्र संख्या 535 M.P.L दिनांक 4-7-41 के अनुसार इंदौर मुंसिपल काउंसलिंग (नगर पालिका परिषद) के मनोनीत सदस्य बनाये गए थे। इस विषय गृहमंत्री इंदौर राज्य द्वारा निम्न सूचना “होलकर गवर्नमेंट गजट” दिनांक 7 जुलाई सन 1941 के पृष्ठ 843 पर प्रकाशित की थी:-
श्रीमंत की सरकार ने इंदौर म्युनिसिपल एक्ट की धारा 10(1)बी. के मुताबिक स्वर्गवासी खुसरो जंग बहादुर की जगह जनरल भवानी सिंह सरदार बहादुर को इंदौर म्युनिसिपल काउंसलिंग का मेंबर मुकर्रर किया है।
M.A. RASHID
HOME MINISTER

इंदौर नगर पालिका के सदस्य के रूप में रहकर जनरल साहब ने अपने उत्तम जनोपयोगी सुझावों से नगर की उन्नति में योगदान दिया ।
“राजकुमार नवयुवक मंडल, बनारस” द्वारा सन 1941 में प्रकाशित “मध्य भारत के देशी नरेश” (जागीरदारों ओर ठिकानेदार आदि सहित) नामक पुस्तक के पृष्ठ 50 पर जनरल भवानी सिंह गहलोत के विषय में लिखा है—
बक्षी खुमान सिंह जी के दूसरे पौत्र जंग बहादुर जनरल भवानीसिंह जी सरदार बहादुर है आप राज्य की सेवा के सेनापति और कैबिनेट के आर्मी मिनिस्टर भी रहे थे। आप 1 अक्टूबर सन 1931 को अपने उक्त पद से रिटायर्ड हो गए हैं। इस समय मैं आप हुजूर के प्रिवी काउंसिलर हैं। आपने गत यूरोपियन युद्ध में जाकर लड़ाई में प्रत्यक्ष भाग भी लिया था और ओ.बी.आई. सेकंड क्लास आपने सन 1917 मैं प्राप्त किया था और फर्स्ट क्लास सन 1929 में प्राप्त किया है।
इंदौर राज्य के भूतपूर्व डिप्टी चीफ मिनिस्टर राय बहादुर सरदार माधवराव विनायक राव किबे साहिब ने मुक्ते अपने पत्र दिनांक 9-8-1944 के द्वारा जनरल साहब के विषय में अपने विचार इस प्रकार प्रकट किए थे–
“आप बक्षी खुमानसिंह के पौत्र होने से मुक्ते छोटेपन से आपका नाम ज्ञात था। स्टेट काउंसलिंग का जब मैं सदस्यता था, तब आप फौजी कामो के संबंध में उपस्थित रहा करते थे । आपके फौजी कामों में निपुणता एवं निर्भीकता का परिचय मिलता था। आप का प्रभाव अंग्रेज ऑफिसर जो फौज निरीक्षण करने को आया करते थे, उन पर भी पड़ता था। आपने जो फौज की हिफाजत रखी उसकी प्रशंसा सब दूर थी। आप पोलो मे भी दक्ष है।”
अजमेर निवासी प्रसिद्ध साहित्यकार एवं इतिहास नेता स्वर्गीय सुख संपत्ति राय जी भंडारी ने अपने पत्र दिनांक 19- 10-1944 ईस्वी को “भारत के देशो राज्य” नामक ग्रंथ मे से जनरल साहब के विषय में निम्नलिखित वर्णन लिख भेजा था —
“दिलेर जंग जनरल भवानीसिंह बहादुर आप इंदौर राज्य के सुप्रसिद्ध अधिकारी स्वर्गीय खुमानसिंह बक्षी साहब के पौत्र हैं। आपके पिता का नाम बलवंत सिंह जी था ।आपके पितामह ने ई. सन् 1857- 58 के सिपाही विद्रोह में राज्य में अच्छा प्रबन्ध रखा था। आप सभी इंदौर राज्य के मुख्य सेनापति (कमांडर-इन-चीफ) तथा स्टेट केबिनेट के आर्मी मेंबर है।आप हुजूर प्रिवी कौन्सिल के भी कौन्सिलर है। ई. सन् 1914 के यूरोपीय समर में आप भी रक्षा क्षेत्र में उपस्थित हुए थे। आपको ‘ब्रांच स्टार’ जनरल सर्विस मेडल और विक्टरी मेडल मिले हैं”।
इंदौर राज्य के भूतपूर्व मुख्यमंत्री सुप्रसिद्ध प्रशासक एवं राजनीतिक रायबहादुर सर सिरेमल जी बाफना ने मुक्ते अपने पत्र दिनांक 11-8-1944 को जनरल भवानी सिंह जी के विषय में लिखा था —
“जनरल भवानी सिंह जी इंदौर राज्य सेवाकाल में मेरे सहयोगी (साथी ) थे और इनके विषय में मेरी बहुत ऊंची राय रही है । यह एक सच्चे सिपाही थे जब यह नौकरी में थे तब राज्य के प्रति इनकी स्वामीभक्ति (निष्ठा) संदेह से परे थी। मंत्री मंडल में मेरे विश्वसनीय सहयोगी साथी थे और मैं उनका सदैव आदर करता था । ”
जनरल साहब का विवाह ग्राम ‘बोलाय’
(बड़वानी राज्य के अंतर्गत) के सिरवी स्वरूप राम जी की पुत्री के साथ हुआ था । कुछ वर्षों के पश्चात उसका देहांत हो जाने पर उनका दूसरा विवाह बिलाड़ा (मारवाड़-जोधपुर राज्य) के सीरवी ओटाराम जी की पुत्री सोनी बाई के साथ हुआ था। आपके कोई संतान नहीं हुई। श्री विजय सिंह जनरल भवानी सिंह जी के दत्तक पुत्र है।
दिनांक 15 -9-1961 शुक्रवार के दिन जनरल भवानी सिंह जी का निधन हुआ । अपनी मृत्यु के पूर्व जाहिर की गई इच्छा के अनुसार उनका शव नर्मदा नदी के जल में प्रवाहित कर दिया गया।

दिनांक 3 -1-1982 रविवार को जनरल साहब की धर्म पत्नी सोनी बाई का भी निधन हो गया।

पाताजी आगलेचा –

इनका जन्म जोधपुर क्षेत्र के भावी नामक ग्राम में आगलेचा परिवार में विक्रम संवत् 1621 के लगभग हुआ था । ये बाल्यावस्था से ही बड़े वीर थे । ये दयालु भी थे । दीन दुखियों की सहायता करना पाताजी अपना परम् कर्तव्य समझते थे । मारवाड़ में पहले मेंणों का बड़ा जोर था, वे दिन दहाड़े गांव लूट लिया करते थे । एक बार बहुत से मेणों ने मिलकर भावी गाँव पर हमला किया, जिसमें पाताजी ने दोनों हाथों में तलवारे लेकर उनका डटकर सामना किया । संघर्ष में उनका सिर कट जाने पर भी उन्होंने मेणों से डटकर युद्ध किया । मेणा भाग गये । मेणों से युद्ध करते हुए विक्रम संवत् 1661 के आसोज वदी 2 को पाताजी स्वर्ग सिधारे । उनकी याद में उनका एक स्मारक (चबूतरा) व छोटा तालाब गांव के उत्तर दिशा में बनाया गया, जो आज भी है।

दीवान करमसिंहजी –

इनका जन्म बिलाड़ा के दीवान लखधीरजी के यहाँ माता राणाजी के गर्भ से विक्रम संवत् 1592 में हुआ था । विक्रम संवत् 1612 की चैत्र वदी 14 के दिन ये अपने पिता के उत्तराधिकारी हुए। बाल्यावस्था से ही करमसिंहजी बड़े देवी भक्त वीर और होनहार बालक थे। दीवान करमसिंहजी आई माता के अटूट भक्त थे। उनका वैभव फैला हुआ था। लाखों डोराबंद आपकी बात मानते थे।मारवाङ के तत्कालीन नरेश मालदेव से इनकी घनिष्ठ मित्रता थी । करमसिंहजी की यश पताका सर्वत्र फहरा रही थी । मालदेव के मरने के उपरान्त राव चन्द्रसेन ने यवनों से शासन बचाने के लिए दीवान करमसिंहजी से सहायता मांगी । करमसिंहजी ने अपने योद्धाओं के साथ तुर्को ने मार दिया । आखिर में बङी वीरता से लङते हुये दीवान करमसिंहजी संवत् 1637 के आसोज सुद 11 को युद्ध में काम आ गये । स्वामी भक्ति मे अपनी जान की कुर्बानी दे दी । गांव धांगङवास (सोजत) मे दीवान करमसिंहजी के स्मारक मे आज भी एक छतरी बनी हुई है। लोग बङी श्रध्दा से शहीद आत्मा की पुजा करते हैं।


यहां पर संक्षिप्त जानकारी लिखी गई हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए “सीरवी समाज का उद्भव एवं विकास” नामक पुस्तक ( बिलाडा़ मंदिर में उपलब्ध है ) पुस्तक लेखक – श्री रतनलाल सीरवी (आगलेचा) एम.ए (भूगोल),बी.एड.(शिक्षक)

देदाजी बर्फा –

देदाजी का जन्म भावी ग्राम में बर्फा गोत्र के मालाजी के यहाँ विक्रम संवत् 1611 के लगभग हुआ । देदाजी बाल्यावस्था से ही बड़े वीर व होनहार थे ये श्रीकृष्ण के परम् भक्त थे । इन्होंने गांव के मध्य एक ‘देवरा’ (चार भूजाजी का मंदिर) बनाया । एक बार मेणों ने भावी ग्राम पर चढ़ाई की जिसमें मेणों (लुटेरों) से लड़ते हुए विक्रम संवत 1706 की चैत्र सुदी 1 को देदाजी वीरगति को प्राप्त हुए । इनकी याद में भावी गांव के तालाब के तट पर स्मारक (चबूतरा) बनाया हुआ है ।


यहां पर संक्षिप्त जानकारी लिखी गई हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए “सीरवी समाज का उद्भव एवं विकास” नामक पुस्तक ( बिलाडा़ मंदिर में उपलब्ध है ) पुस्तक लेखक – श्री रतनलाल सीरवी (आगलेचा) एम.ए (भूगोल),बी.एड.(शिक्षक)

जूंझार चांपाजी राठौड़ –

इनका जन्म बिलाड़ा के टीलाजी चौथजीवाल राठौड़ के घर हुआ । ये मुगलकाल में एक हमले में कुंवारे ही जुंझे थे और वीरगति को प्राप्त हुए । इनकी याद में इनका स्मारक (चबूतरा) बनाया गया है । इनके वंशज इनको पर्व पर भोग लगाते हैं । वह इन्हें “चंपा जूंझार” के नाम से पुकारते हैं


यहां पर संक्षिप्त जानकारी लिखी गई हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए “सीरवी समाज का उद्भव एवं विकास” नामक पुस्तक ( बिलाडा़ मंदिर में उपलब्ध है ) पुस्तक लेखक – श्री रतनलाल सीरवी (आगलेचा) एम.ए (भूगोल),बी.एड.(शिक्षक)

मेजर हीरासिंहजी बर्फा –

इनका जन्म सीरवी जाति के बर्फा गोत्र में विक्रम संवत 1948 की श्रावण वदी अमावस को हुआ था । इनके पिता का नाम मोतीसिंहजी और माता का नाम केसरबाई था ‌। ये बक्षी खुमानसिंहजी सीरवी गहलोत के दोहिते थे । 1 अप्रैल सन् 1980 ई. को आप “होल्कर एक्सक इम्पीरियल सर्विस” में भर्ती हुए थे । आप भी प्रथम विश्व युद्ध में भाग लेने के लिए होल्कर राज्य की सेना के साथ इराक के रणक्षेत्र में गए । वीरतापूर्वक कार्य करने के उपलब्ध में मेजर साहब को “जनरल सर्विस” और “विक्टरी मेडल” आदी पदक सरकार द्वारा प्रदान किए गए । आप पोलो के अच्छे खिलाड़ी थे । सन् 1950 में आपका निधन हो गया ।


यहां पर संक्षिप्त जानकारी लिखी गई हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए “सीरवी समाज का उद्भव एवं विकास” नामक पुस्तक ( बिलाडा़ मंदिर में उपलब्ध है ) पुस्तक लेखक – श्री रतनलाल सीरवी (आगलेचा) एम.ए (भूगोल),बी.एड.(शिक्षक)

कॉपीराइट्स   (COPYRIGHTS)

सीरवी समाज सम्पूर्ण भारत डाॅट कॉम, वेबसाइट में प्रकाशित रचनाएं कॉपीराइट्स  के अधीन हैं। यदि कोई व्यक्ति या संस्था ,इसमें प्रकाशित किसी भी अंश ,लेख व चित्र का प्रयोग,नकल, पुनप्रकाशन, सीरवी समाज सम्पूर्ण भारत डाॅट कॉम के संचालक के अनुमति के बिना करता है ,तो यह गैरकानूनी व कॉपीराइट का उलंघन है। ऐसा करने वाला व्यक्ति व संस्था स्वयं कानूनी हर्ज़े – खर्चे का उत्तरदायी होगा।

Recent Posts