श्री आई माताजी मंदिर बिजोवा

बिजोवा बडेर की स्थापना

आडावल (अरावली) के पश्चिम में रानी रेल्वे स्टेशन से चार कि.मी. दुरी पर स्थित गांव बिजोवा सीरवी बाहुल्य गांव है । कभी कपास उत्पादन मे प्रसिद्ध रहे बिजोवा में आई पंथ के अनुयायियों (डोराबन्धो) के लगभग 600 सीरवी परिवार है व लगभग 200-250 अन्य जातियों (मेघवाल व चौकीदार) के डोराबन्ध परिवार है । गांव के तीन बडेर है – 1.बिलाड़ा बडेर, 2. बिठौडा बडेर 3. बिजोवा बडेर । इन तीनों में बिजोवा बडेर मुख्य है । जिसकी स्थापना 385 वर्ष पूर्व पीरों साहब श्री कर्मसिंहजी ने की थी । बिलाडा़ दीवानों के भाणेज बिठौडा़ मे रहते थे । बीदोजी एंव लखजी नामक दोनो भाई माँ आईजी के परम भक्त थे । सेवा व धर्म में तल्लिनता के दरम्यान लखजी व बिदोजी मे आपसी मतभेद हो गया व लक्षजी वहां से अपने परिवार व चारों भाइयों सहित माताजी का पाट, पुजा सामान रथ मे रखकर वहां से चलते चलते आबू पर्वत के पूर्व की और “रोहिडा” गांव मे चले गये और वहां अपना बाडा़ (डेरा) लगाया ‌। जंगल में गाये चराते व माँ की आराधना करते अपना जीवन निर्वाह करते थे । माताजी के वरद हस्त के कारण उन्हें किसी प्रकार कोई डर नहीं था । एक दिन गरासियों (पहाड़ी जाति) ने लखजी जी को लूटने के लिए डेरा डाला,‌ परंतु बाडे़ से माँ के जपने की अवाज निरन्तर रात भर आती रही व लुटने आये गरासिया सभी अन्धे हो गये । सुबह जब लखजी बाडे़ से बाहर आये तो उन्होंने बाड़े के चारों ओर बहुत सारे गरासिया जो हाथ में तीर कमान लेकर खड़े थे, परन्तु अन्धे थे । लखजी स्वयं उनके पास गये तब सभी ने एक स्वर मे कहां “क्षमा करो,क्षमा करो” । उनकी दशा देख लखजी ने माँ को याद किया व उनके अन्धापन दूर करने की प्रार्थना की । थोड़ी देर में माँ की कृपा से सभी को दिखने लगा व सभी लखजी के चरणो में गिर पड़े और लखजी के शिष्य बन गये । लखजी ने सभी को डोरा बंध बनाया । उक्त घटना गरासियों के फलियों (मोहल्लों) में आग की तरह फैल गई तब गरासियों ने लखजी की परीक्षा लेनी चाही एंव वे कहने लगे कि जो यह नदी बहती है, इस नदी मे “आई माताजी का पाट” व अलखजी का पाट (गरासियों के देवता) इस शर्त पर बहाये कि जिसका भी पाट नदी धारा के विपरित दिशा में बहेगा, हम सब उन्ही देवता के शिष्य बन जायेंगे । दोनों पाट नदी मे बहाये गये व माँ तो साक्षात भक्त के साथ रहती है, माँ आईजी का पाट नदी के विपरित धारा मे आगे बढाता गया व “अलखजी का पाट” कुछ आगे बढा और बाद में नदी में डूब गया । इस घटना मे भी गरासिये लखजी के सच्चे डोरा बन्ध शिष्य बन गये । धीरे-धीरे यह कीर्ति (यश) चारों तरफ फैलने लगी व चमत्कार देखकर अन्य जातियो – भील, राजपूत भी लखजी के डोरा बन्ध शिष्य बनने लगे ओर लखजी को पीर मानने लगे । अब लखजी पीर कहलाने लगे तथा माँ आईजी की अनुकम्पा से विक्रम संवत 1665 तक पांच गांवो – हेमली, दतावर, सोमालिया, गाणोव सोदरणो तथा पोहणों में प्रसिद्ध हुए व सभी को डोराबन्ध बनाया । यह पांच गांवो में क्षेत्र “नायड़ क्षेत्र” कहलाता था व लखजी यहां के गादीपति पीर थे । विक्रम संवत 1675 मे लखजी का स्वर्गवास हो गया तो श्री खेतसिंहजी गादीपति पीर बने । इस तरह नायड़ क्षेत्र में यह परम्परा चलती रही, जिसमें खेतसिंहजी के विक्रम संवत 1689 गोगाजी, फिर विक्रम संवत 1695 में विदोजी, विक्रम संवत 1705 में तेजसिंहजी व विक्रम संवत 1717 मे कर्मसिंहजी वहां के पीर साहब बने ।

श्री कर्मसिंहजी के पास है घोड़ी थी, जिसका नाम “चम्पा” था जो एक देवरूपी घोडी़ थी, क्योंकि उस घोड़ी पर कर्मसिंहजी पीरो साहब के अलावा कोई दूसरा सवारी नही कर सकता था । उस समय सिरोही के राजा को घोड़े – घोड़ियों को रखने का शौक था । जब उन्होने चम्पा घोडी़ के बारे में सुना तो दरबारियों को कर्मसिंहजी से घोडी़ खरीदने भेजा, परन्तु जब कर्मसिंहजी ने घोडी़ बेचने से मना कर दिया तो जबरदस्ती घोडी़ कर्मसिंहजी से ले गये व घुड़शाला में चम्पा घोडी़ को मजबूत सांकलो (जंजीरो) से बांध दिया । राजा के ईस दुष्ट व्यवहार से क्षुब्घ होकर कर्मसिंहजी ने वहां रहना उचित नही समझा व उस स्थान को छोड़ना चाहा । रात को कर्मसिंहजी को एक स्वप्न (सपना) आया, जिसमें एक देवी आई और बोली बेटा तू चिंता मत कर और यहां से रवाना हो जा । तेरी चम्पा घोड़ी अपने आप आयेगी व घोड़ी तेरे रथ के आगे-आगे चलेगी तू उसके पीछे-पीछे चलते रहना परन्तु ज्योंही घोड़ी रुके उसके अगले पांवों की जगह मेरा पाट रख देना व पिछले पांवों की जगह तेरे बैठने का स्थान बना देना । स्वप्न खत्म हुआ सुबह पीर कर्मसिंहजी भाईयों व साथियों के साथ वहां देवी के कथानानुसार चल दिये, हांलाकि आस-पास के गांवो के लोगों ने उन्हें जाने से रोकने का पुरा प्रयास किया परन्तु वे वहां नहीं रुके व सुरज पोल बावडी़ के दरवाजे के पास रथ को चलाया, पहिए का निशान चट्टान पर आज मंडित है इस तरह आते-आते भी राजा सहित सभी को पर्चा देकर कर्मसिंहजी के जैसे ही रोहिडा़ गांव से आगे निकले तब चम्पा घोडी़ भी जंजीरो से अपने आप मुक्त होकर कर्मसिंहजी के पास पहुंची व बडी़ जोर से चमत्कारी ढंग से हिनहिनाई । अब घोडी़ पवन वेग की तरह कर्मसिंहजी के रथ के आगे-आगे दोड़ते-दोड़ते गोड़वाड़ मे प्रवेश किया । इस प्रकार आगे चम्पा घोड़ी, पिछे कर्मसिंहजी का रथ व परिवार तथा पिछे उनकी गायों का झुण्ड चलते-चलते एक जाल के वृक्ष जो नदी के तीर पर स्थित था वहां पहुंचे देवरुपी चम्पा घोडी़ उस जाल के नीचे पूर्व की ओर मुंह करके खड़ी हो गई व तेजी से हिनहिनाई । देवी के कथनानुसार पीर श्री कर्मसिंहजी समझ गये और उन्होने घोडी़ के आगे वाले पांवो की जगह माताजी का पाट स्थापित किया व पिछे वाले पैरो की जगह स्वयं के बैठने का स्थान (आसन) बना लिया । इस स्थान पर माताजी की भी छड़ स्थापित की गई | यहीं जगह “बिजोवा बडेर” के रुप में आज विख्यात है । यहां 40-50 घर जो कुछ दुरी पर बसे थे वे उनके आस-पास बस गये व डोराबन्ध बनकर आई माताजी के भक्त बने एक छोटा सा गाव “बिजोवा” के नाम से प्रसिद्ध हुआ । श्री आई माताजी के द्वारा सामाजिक व्यवस्था के अनुसार श्री भीमाजी लचेटा इस गांव के सबसे पहले कोटवाल बने और श्री कर्मसिंहजी को यहां के पीर मानने लगे ।

बिजोवा बडेर के संस्थापक पीर श्री कर्मसिंहजी बिजोवा मे रहते हुए माताजी की पुजा अर्चना करते थे । काल अपनी गति के अनुसार चल रहा था व कालान्तर में पीर श्री कर्मसिंहजी का स्वर्गवास हो गया तब बांडेरुऔ (शिष्यों) ने उनके कहे अनुसार उन्हें बिजोवा तालाब की पाल के किनारे “अग्नि स्नान” (अग्निदाग) हेतु ले गये । कर्मसिंहजी की चिता लपटों की तरह उठने लगी, उसी समय बडेर में पीरानी (कर्मसिंहजी की पत्नी) को भी सत चढा़ वह भी तालाब की पाल पहुंची व कर्मसिंह से प्रार्थना करने लगी कि हे पतिदेव आप सच्चे पति व मैं सच्ची पवित्रता नारी हूं तो मुझे भी आपके साथ “अग्निस्नान” के लिए अपने पास ले लो । थोड़ी समय मैं कर्मसिंहजी की चिता कम हुई व दोनों हाथ बाहर आए व अपनी प्यारी पत्नी को अपने साथ अग्नि में ले लिया । ऐसे ही चम्पा घोड़ी भी बडेर की घुड़शाला में बंधी थी, उसे भी सत चढ़ा वह भी जंजीर छुड़ाकर भागती भागती पाल पर पहुंची व तालाब में स्नान कर कर्मसिंहजी के साथ चिता में प्रवेश कर गयी । इसी बीच इमली के पेड़ पर बैठे मोर को भी सत चढ़ा वह भी तालाब में स्नान कर कर्मसिंहजी की चिता में कूद पड़ा व “अग्नि स्नान” कर अपने आप को मोक्ष प्राप्त किया । श्रीमान पीरो साहब कर्मसिंहजी की “जलती चिता” से आवाज आ रही थी कि मेरे बाडेरूओं मेरा एक वचन है कि आप भी स्वर्गवास के बाद “अग्नि स्नान” (अग्नि संस्कार) करके मेरे वचन का पालन करना । इसी परम्परा के अनुसार बिजोवा गांव के बिजोवा बडेर के डोराबन्ध सैंणचा, पंवार, लचेटा गोत्र के लोगों के स्वर्गवास के बाद भू दाग के स्थान पर अग्नि दाग दिया जाता है । यह प्रथा बिजोवा बडेर अर्थात बिजोवा पीर साहब को मानने वाले अन्य जगहों के डोराबन्धो को भी “अग्नि दाग” दिया जाता है । जिनमें मारवाड़ जंक्शन में गदाना बड़ा गांव है । इसके अलावा मध्य प्रदेश में मालवा, मिमाड़, सीतावन, नर्मदा तट व दक्षिण भारत में कई शहरों में इस परम्परा को मानने वाले बहुत शिष्य (बाडेरू) है । वर्तमान में बिजोवा के पीर श्रीमान भंवरसिंहजी परमार (पंवार) हैं ।

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