श्री श्रार्णैश्वर महादेव मंदिर सिरोही

खारड़िया सीरवियों के सारर्णोश्वर महादेव –  राजस्थान के दक्षिण पश्चिम में स्थित सिरोही राज्य क्षैत्रफल में अत्यंत छोटा जिला होते हुए अपने आंचल में गौरवशाली इतिहास समेटे हुए है। खारड़िया राजपूतों में से चौदह सरदार सिरोही के पहाड़ों जंगलों में और कुछ आबू के पहाड़ों में,जिसको जहां उचित स्थान मिला वहां चले गए। भाट द्वारा समाज की बही में खारड़िया राजपूतों के ठहरने का मुख्य व सुरक्षित स्थान् सारर्णोश्वर महादेव मन्दिर ही माना गया है। चौदह सरदारों – परिहार पंवार, सोलंकी, चौहान, सेपटा, लचेटा, काग ,भायल ,परिहारिया ,गहलोत, देवडा़ राठौड़, आगलेचा,भुम्भदडा़ यह खारड़िया राजपूतों में से है। इन्होंने मुस्लिम सेना से बचने के लिए सारर्णोश्वर महादेव की शरण ली थीं। श्रीमान् सिरोही दरबार साहब केशर विलास श्री रघुवीर सिंहजी देवाडा़ के मुखारबिन्द से प्राप्त हुई जानकारी में सन् १२६८ वि. सं १३५५ दीपावली के दिन सारणेश्वर (अापने शुद्ध नाम बताया श्रार्णेश्वर) महादेव मंदिर का प्रतिष्ठान हुआ था और पुराने समय में वहां कुछ राजपूतों का पुजारी के रूप में छुपे रहना व महादेवजी की पूजा करना बताएं जाने की सहमति जताई और आपने रेबारियों का जिक्र करते हुए कहा कि मुस्लिम सैनिकों पर राईकों ने भी गोपणियों में पत्थर डालकर उन पर फेंकते हुए युद्ध किया और राजा विजय हुए। उस दिन से सारणेश्वर महादेव के मंदिर पर देव झुलनी एकादशी का महामेला आयोजन करने का रेबारियों (राईका) का एक दिन के लिए पूर्ण स्वं अधिकार होता है। “खारड़िया सीरवियों रौ इतिहास” में भी लिखा है कि विक्रम संवत् के १३५५ में खारड़िया राजपूतों ने कोयलपुर छोड़कर जालौर प्रस्थान किया। उपर्युक्त विचारों से यह ज्ञात होता है कि सारर्णेश्वर महादेव मंदिर की से खारडिया सीरवियों का विशेष संबंध है। भाट की बही के अनुसार हमारे समाज के बांडेरूओं का सारर्णेश्वर में शिवलिंग स्थापना से जुड़े होना मालूम पड़ता है। महादेवजी के मंदिर में रहे और अपने व्यवसाय के साथ-साथ कई वर्षों तक पूजा भी की थी। सारर्णेश्वर महादेव मंदिर में धीरे-धीरे खारड़िया राजपूतों की संख्या बढ़ती गई। समाज का महादेव की भक्ति में लिनो और अटूट विश्वास देख एक दिन महादेव तुष्ट मान् हुए। उपर्युक्त चौदह सरदारों (खारड़िया राजपूतों) ने महादेव से अपनी रक्षा की पुकार की। देवों के देव महादेव! “आप असुरों विधर्मियों से हमारी रक्षा करें। हम सब आपकी ही सन्तान है और सनातन धर्मी है। हम अपना धर्म छोड़ना नहीं चाहते। बादशाह हम लोगों को जबरन मुस्लिम बनाना चाहता है। हम मुस्लिम नहीं बनना चाहते हैं। इसलिए हम सब आप की शरण में आए हैं , हमारी रक्षा करो प्रभु। राव-भाटों की बही के अनुसार समाज पर महादेव मेहरबान, तुष्ट मान् हुए। खारड़िया सीरवियों का हुलिए में बदलाव, तूतलाती बोली और समाज का वर्ण पलटना यह सब महादेव की कृपा दृष्टि से हुआ है। राव-भाटों की बही के मुताबिक वि.सं. १३६२-१३६८ के आस-पास समाज ने शस्त्र धारण करने का मोह त्याग दिया। अपने परिवार को ले आए। सर्व प्रथम सारर्णेश्वर जो आज सिरोही से तीन किलोमीटर दूरी पर है। वह गांव बसाया। वही से अपना कृषि व्यवसाय प्रारम्भ किया। बादशाह को मालूम पड़ने पर पूछताछ करने पर यह कहां गया कि हम सब शिवरी पूजा और खेती करते है। राव-भाटों का यह भी कहना है कि समाज की सीरवी पहचान शिवरी पूजा करने के पीछे शिवरी से आगे चलकर सीरवी हो गया। सीरवी सिरोही के मुख्य सूत्रधार रहे। सल्तनत काल में मुसलमान शासकों द्वारा बार-बार हिन्दू मन्दिरों की तोड़-फोड़ करने का सिलसिला जारी रहा। तब “ सीरवियों “ ने सारर्णेश्वर महादेव में स्थित काली “शिव-लिंग” व भगवान की रक्षा करने के लिए “ राजपूत सेना” का सहयोग कर मुस्लिम सेना से ही बार-बार लोहा लिया। इसमें सीरवी समाज के जाँबाजों ने अपने प्राण न्यौछावर किये। “ किंवदन्ती” में बताते है कि सिरोही का प्राचीन नाम “ देवनागरी” था। सिरोही के ऐतिहासिक ग्रन्थ आज भी गवाह है सिरोही “देवनागरी” कहलाता था। सीरवियों ने सिरोही को बचाया तथा नाम ‘सिरोही’ रखा गया। उसके रखने का अभिप्राय: “सिर के बदले” शिव भगवान्” की रक्षा की। अत: सिरोही नाम पडा़। जिसका पर्याय वाची शब्द- सिरोही, तलवार, सीरवी,देवनागरी आदि है। सिरोही के पास सारर्णेश्वर में खेती करते सीरवियों पर बादशाह के सैनिकों को राजपूत होने का संदेह हुआ। बादशाह के हुक्म से सेना के किसानों पर आक्रमण किया इतिहास की पुस्तकों में हमें पढ़ने को मिलता है कि मुस्लिम शासक कुछ ऐसे ही विचार रखते थे। उन बातों को हजम नही किया जा सकता। अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाने वालों को युद्ध करो या मुसलमान बनो, का आदेश मिलता था। समाज ने इन दोनों विचारों को अमान्य करते हुए सारर्णेश्वर से अपनी गाडियों की पूँटियां पूटली और वहाँ से रवाना होकर लूनी नदी के आस-पास आ बसे। समाज के कुछ बन्दूओं ने नदी के पास आते ही विश्राम करने के लिए अपनी गाडियाँ रोक कर भोजन बनाने की तैयारियाँ करने लगे और बहुत से भाइयों का विचार था कि नदी को पार करके ही भोजन पाएंग। नदी के दक्षिण की और पहले से ही जणवा सीरवी ठहरे हुए थे और सीरवी खारड़ियों ने नदी को पार करके उत्तर किनारे पर अपना पडा़व किया। भाटों के अनुसार साढै सात बीसी (१५०) गाडियों के काफिले के साथ कुछ ऊंट घोड़े-घोड़ियां अन्य साधन जाते है। बड़ी संख्या में लोगों (समाज) का जगह, एक गांव में रहना कठिन था। इसलिए लूनी नदी के उत्तर की तरफ व आस-पास जिसके जहां सुविधा मिली, वह वहाँ से अलग-अलग स्थानों की और पलायन हो गये। सीरवियों रौ इतिहास के अनुसार कुछ बन्धुओं का जालोर से अन्य राज्यों में वसीवान होने का मारवाड़ के शासनकर्ता रिड़मल जी का समय रहा था।

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