बालियावास का गजानन्द मन्दिर

बालियावास का गजानन मंदिर ! शिव-पार्वती नन्दन गणेश (गणों का स्वामी) शिव परिवार में बुद्धि के अधिदेवता और मंगलकारी माने जाते है।अध्नो को दूर करने के लिए गणेश की, पूजा सर्व मांगलिक कार्यों के आरम्भ में की जाती है। सब देवताओं में से सबसे पहले किसे पूजा जाय? देवताओं में छिड़े इस विवाद पर गजानन ने अपने माता-पिता शिव-पार्वती को ही सृष्टि का प्रतीक रूप मानते हुए अपने वाहन मुश्क चूहा पर आरूढ़ होकर अपने माता-पिता की परिक्रमा कर प्रथम वंदनीय देवता प्रथम वन्दे गणपति का स्थान प्राप्त किया था। तभी से आज तक मानव-जाती अपने हर शुभ कार्य का आरम्भ गणपति-पूजन से करती है। वैसे तो भगवान् गणेश गजानन के जीवन से जुडी अनेक कथ्येन, अनुश्रुतियाँ और चमत्कारी घटनाएं है, जो उन्हें सदा से ही श्रेष्ठता का पद प्रदान किये हुए है। ईश्वर सृष्टि का कर्ता, भर्ता और हर्ता है। वह अदॄश्य इस सृष्टि का संचालन कर रहा है। उसकी शक्ति के बिना यहाँ कोई कुछ नहीं कर सकता। कहा भी गया है – तेरी सत्ता के बिना, हे प्रभु मंगल मूल ! पता तक हिलता नहीं, खिलता कहीं न फूल। देव-गणपति के चमत्कारों से इस भू-लोक के की भाग आज भी वंदनीय और जनमानस की आस्था, भक्ति और श्रद्धा के केन्र्द बने हुए हैं , ऐसा ही एक स्थान बिलाड़ा नगर में भी विद्धमान है। जो गणेश-प्रतिमा के चमत्कार के कारण आज भी विख्यात है। बिलाड़ा शहर के धकिशन की और शहर से सटा हुआ वालियावास नामक एक अरट कुंआ-बेरा है। जहँ पर स्थित गजानन की प्रतिमाएं की विशेषताओं को लिए हुए है। यहाँ के मंदिर में स्थित गजानन की प्रतिमा से जुडी हुई की चमत्कारी बातें आज भी श्रद्धालु जनमानस में विशेष रूप से प्रचलित है। जनश्रृति के अनुसार ऐसी बात प्रसिद्ध है की आज से करीब 350 वर्ष पूर्व बिलाड़ा नगर के सीरवी बालाजी मुलेवा ने अपने नाम पर यह अरट बसाया और कुंआ खुदवाया था। उन्ही के नाम पर ही इस अरट को बालियावास कहते है। यहाँ के गणेशजी की प्रतिमा मूर्ति पहले लखुड़ी मगरी पर एक केर के वृक्ष के निचे विराजमान थी। पहले बिलाड़ा एक गांव के रूप में ही था। आज जहँ पर विभिन्न कुएं बसे हुए है वह पहले बीहड़ और निर्जन क्षेत्र ही था। वैसे बिलाड़ा क्षेत्र की भूमि मैदान और पठारी दोनों रूपों में है। कहीं-कहीं पर छोटी-मोटी पहाड़ियां आज भी दिखाई देती है। बिलाड़ा के परिश्रमी किसानो ने यध्यपि बहुत से मगरों को जमीं रूप में बदल दिया है, लेकिन प्रकृति की अद्धभुत दें ये पहाड़-पहाड़ियां अपना समूल वर्चस्व कभी नहीं खोते है। एक बार पाली की और से कुछ अज्ञात चोर बिलाड़ा की तरफ आये और अनेक स्थानों पर चोरियां करने के बाद जाते समय बालाजी मुलेवा के अरट बालियावास पर से बेल चुराकर ले गए। उस समय चोरियां कुछ जरायम-पेशा करार जातियां ही करती थी सुबह तड़के जब बालाजी मुलेवा को यह बात ज्ञात हुई तो वे अपने बेलों को ढूंढने-खीजने बिलाड़ा के पूर्व की और स्थित लखुड़ी मगरी नामक स्थान पर गए। बालाजी मुलेवा को यह विश्वात था की हो सकता है बेल रात को खूंटे से स्वयं ही छूटकर चले गए हों या फिर कोई चोर उन्हें चराकर इसी दिशा में ले गया होगा। लखुड़ी-मगरी पर एक बड़े केर के वृक्ष के निचे गजानन गणेशजी की विषयप्रतिमा प्रतिष्ठित थी और छोटा सा थान स्वरूप था।

 

बालाजी मुलेवा अपने बेलों को ढूंढते हुए मगरी पर इधर-उधर देखते फिरते रहे। थके-हारे बालाजी मुलेवा एक वुक्ष की घनी छाया में बैठकर सोचने लगे की अब बेलों को कहाँ ढूंढा जाय ! किधर जाऊं, किसे पुछु ? कुछ समझ में नहीं आ रहा है, क्या किया जाऊ ? बालाजी मुलेवा इसी सोच-विचार में डूबे हुए विश्राम कर रहे थे की अचानक उन्हें पास ही केर के वृक्ष के निचे स्थित गजानन की प्रतिमा में से ही आवाज सुनाई दी की- बाला ! तू चिन्ता छोड़कर वापस अपने अरट पर चला जा। सातवें दिन तेरे बेल खूंटे पर आकर खड़े मिलेंगे। कहते है गजान पर्तिमा से यह आश्वासन वाणी सुनकर बालाजी मुलेवा अपने अरट पर वापस लौट आए और संदेश-विश्वास की उधेड़बुन में सात-दिन बीतने की आशा करने लगे। गजानन-प्रतिमा से निकली वाली बालाजी मुलेवा के लिए ईश्वरीय शक्ति में आस्था रखने का एक निमन्त्रण स्वरूप आदेश ही था। सच भी है –

पंख खुल जाते स्वयं ही, शून्य का पाकर निमंत्रण। विस्मरण होता सहज ही, ईश – आस्था आवास उस क्षण।

दिन पे दिन गुजरते रहे, लेकिन बालाजी मुलेवा के मस्तिष्क में संशय और विश्वास की उठती तरंगें आपस में टकरा रही थी। वे कभी मन को आश्वस्त करते की दिर्तीमा से निकली वाली झूटी नहीं हो सकती। परन्तु वन के पक्षी की तरह अपनी पल-पल बदलती उड़ानों का आदि मानव=मन कभी इस सत्यता पर प्रश्न चिन्ह भी लगा देता था। छठे दिन की तारों सजी रजनी बालाजी मुलेवा के लिए शुभ संकेत पथ की तरह बीती। सातवें दिन बालाजी मुलेवा के बेल खूंटे के पास खड़े मिले। बालाजी मुलेवा का मन प्रसन्नता,ईश्वरीय आस्था और श्रद्धा भक्ति के त्रिवेणी संगम में नहा रहा था। उनका रोम-रोम गजाननजी को अपने भक्ति व् आस्था के महकते पुष्प अर्पित कर कृतार्थ हो रहा था। कहते है- चमत्कार को सदा नमस्कार। वैसे चमत्कार तपस्या पूजा अर्चना आराधना श्रद्धा एवं आस्था में है। लेकिन आज दुनिया में स्वार्थ और ढोंग का ऐसा आवरण छाया हुआ है, जिनके पीछे सच्ची चमत्कारिक शक्तियां एवं सच्ची भक्ति भावना छिप चुकी है। आज लोग भक्ति से पहले ही वरदान प्राप्त करना चाहते है। लेकिन यघ्न बालाजी मुलेवा की निर्मल श्रद्धा ने इस चमत्कार को सदा के लिए वन्दनीय बना दिया। कहते भी है-

मानव आस्था सदा ही करती, चमत्कार को नमस्कार। चमत्कार से बन जाता है, पत्थर भी भगवन अवतार।

गजाननजी के वचन से अपने बेलो को पाने के बाद बालाजी मुलेवा ने सुनसान स्थान लखुड़ि मगरी पर से श्री गजाननजी की विशाल-प्रतिमा को अपनी बैलगाड़ी पर बिठाकर अपने अरट बालियावास पर लाकर कुएं के समीप चबूतरा बनाकर प्रतिष्ठित किया तथा सुबह शाम पूजा अर्चना स्तुति करने लगे और उनके नाम की मला जपने लगे। कहते है – बालियावास में प्रतिष्ठित होने के बाद गजानन प्रतिमा ने शीग्र ही अपना दुसरा चमत्कार भी दिखया। बालाजी मुलेवा पर उस समय सेठ साहूकारों का कर्ज ऋण बहुत चढ़ा हुआ था। जिसे चुकाने के लिए बालाजी मुलेवा ने बहुत प्रयत्न किया। दिन रातब परिश्रम किया। लेकिन सेठ साहूकारों का सूद तो दिन रात बढ़ रहा था। बालाजी मुलेवा ने गजाननजी की भक्ति से प्रसन्न होकर गजाननजी ने बालाजी मुलेवा को रात स्वप्न में यह आज्ञा दी की बाला तुम कल रात भर अरट चलाना, कुएं से घडलियों में पानी के साथ सोने की मोहरें भी आयेंगी उन मोहरों से तुम साहूकारों का कर्ज चुका देना। बालाजी मुलेवा ने ऐसा ही किया। कुएं से बहुत सी स्वर्ण मुद्राएं सोने की मोहरे पानी के साथ बहार आई। जिनको देकर बालाजी मुलेवा सेठ साहूकारों के कर्ज से उऋण हुए।

 

इस घटना से गजाननजी की बहुत मान्यता बढ़ी और तभी से जन- समुदाय अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के उद्देश्य से इस स्थान पर आकर चूरमा आदि प्रसाद चढ़ाते हैं। गजाननजी द्वारा तुष्टमान और मनोकामना पूर्ण होने की ख़ुशी में बिलाड़ा और आस पास के बहुत से श्रद्धालु भक्तों ने गणेशजी की अन्य प्रतिमाएं बनवाकर इस स्थान बालियावास पर स्थापित कर अपनी श्रद्धा भक्ति भाव का अपूर्व परिचय दिया है। बालियावास पर रहने वाले कालूरामजी और उनके छोटे भाई किशनारामजी बताते हैं की जिस पत्थर की बड़ी कुंडीयुक्त गणेश – प्रतिमा को लाया गया था , वह कुण्डी आज भी मंदिर के पास टूटे रूप में विद्धमानहैं। इस मंदिर का जीर्णोद्धार रामनाथजी महाराज ने जन सहयोग से आज से लगभग २० वर्ष पहले करवाया था।इस मंदिर में अपनी मन्नते मांगने वाले बहुत से भक्तों की मनोकामनाएं सफल भी हुई है।

इस प्रकार बालियावास का यह गजानन-मन्दिर आज भी लोगों कह श्रद्धा और भक्ति का केन्र्द बना हुआ है।

Recent Posts