श्री आईमाताजी मंदिर बिलाड़ा

श्री आई माताजी का मन्दिर बिलाड़ा। वीर भाग्या वसुन्धरा भारतवर्ष अनेक धर्मो, मत-मतान्तरों की उदभव और प्रचार स्थली रही है। प्रत्येक धर्म, सम्प्रदाय और मत-मतान्तरों के प्रवर्तकों द्वारा बनाये गए नियमों में मानवीय धर्म के स्पष्ट दर्शन होते है। प्रत्येक मनुष्य को अपनी धार्मिक विचार-धारा से आत्मीय लगाव होता है। इसी कारण वह अपने धर्म के प्रति अपनी आस्था व् श्रद्धा को दैनिक जीवन में किसी न किसी रूप में अवश्य प्रकट करता है। सांझ सवेरे मन्दिर में जाकर ईश-वन्दना व् दर्शन करने की प्रवृति भी इस बात को द्दोतक होती है। मंदिर में हमारी आस्था और श्रद्धा के पवित्र केन्र्द होते हैं मंदिर में जाने से मानव मन में कुछ समय के लिए पवित्र विचार पैदा होते है। बिलाड़ा आई पंथ का मुख्य गुरुद्वार है। यहाँ पर स्थित है नव दुर्गावतार माँ भगवती श्री आईजी का भव्य मंदिर। यह मंडित बिलाड़ा के बडेर चौक सामने तीन बड़ी पोलिया में इ होकर अंदर जाने पर ठीक सामने बड़े महलों और विभिन्न प्राचीन भवनों के बिच स्थित है। बुजुर्ग लोग इसे माताजी की बडेर आदि के नाम से भी पुकारते है। इस कारण सर्वत्र बडेर शब्द ही प्रचलित है। वैसे बडेर शब्द का शाब्दिक अर्थ बड़ा स्थान। उस समय के मुसलमान आतताइयों के धर्म की रक्षार्थ ही दरगाह और बडेर शब्दों का प्रचलन हुआ होगा।

 

कहते है की विकम संतव 1472 में गुजरात के दाँता रियासत के अम्बापुरगांव में श्री बीकाजी डाबी राजपूत के घर में माँ अम्बा एक कन्या के रूप में अवतरित हुइ थी। जिसकला नाम जीजी रखा गया। जुतरात में मांडूगढ़ के आततायी शासक महमूद खिलजी का मान-मर्दन कर जीजी वृद्धा रूप धारण करके पोठिया बेल, नंदी साथ लेकर पाली जिले के नारलाई, डायलाणा, भैसांणा, बिलावास और पतालियावास में अपनी दिव्य लीलाओं के चमत्कारों से प्राणी मात्र का दुःख दर्द मिटाती हुई संवत 1521 में बिलाड़ा आई थी। यही से जीजी का नाम आईजी हुआ। श्री आईजी के बिलाड़ा आगमन पर यह गोहा प्रचलित है-:

“पनरे सौ ईकबीस में, सूद भादवा शनिवार। 
बीज विराज्या बलिपुर, आई आप पढाएर। “

पोठीये संग श्री आईजी पहले नगोजी हाम्बड़ की गवाडी में आती है, जहाँ उचित मान-सम्मान न मिलने पर धन के नशे में चूर नगोजी को श्राप देकर श्री आईजी जणोजी राठौड़ की गवाड़ी में पहुंची। जहाँ जाणोजी व् उनकी धर्मपत्नी सोनल ने माताजी का खूब आदर-सत्कार और आवभगत की। श्री आईजी जाणोजी के घर के पास ही एक झोंपड़ी बांधकर रहने लगी। इसी झोपडी में ज्योति प्रज्ज्वलित कर माताजी दिन-रत भक्ति भजन में लीन रहती और लोगों को उपदेश देती. वह झोंपड़ी प्रतीक रूप में मंदिर के ऊपर आज भी मौजूद है। माँ श्री आईजी ने अपना पोटिया एक निम् के पेड़ से बंधा था। यह निम् आज भी बिलाड़ा मौजूद है। जिस स्थान पर बैठकर श्री आईजी लोगों को ज्ञानोपदेश देती थी िर जिस कोटड़ी में विक्रम संवत 1561 चैत्र सऊदी दूज शनिवार को अंर्तध्यान हुई। उसी स्थान पर यह भव्य संगमरमर का मंदिर बना हुआ है। जहाँ अलौकिक अखंड ज्योति की लौ से काजल के स्थान पर आज भी केसर पड़ता है। जो श्री आईमाताजी के आज भी यहाँ साक्षात प्रमाण है। इस मंदिर में श्री आईजी द्वारा स्थापित यह अखण्ड ज्योति पांच सौ वर्षों से आज भी जल रही है। इस मंदिर के मुख्य कक्ष में श्री आईजी के कुछ स्मृति चिन्ह यथा देवी की गाडी, अखण्ड ज्योति, 5 श्रीफल, छड़ी, चोला, मोजड़ी खड़ाऊ मला और ग्रन्थ आदि आज भी सुरक्षित है। जिनकी भक्तगण पूजा करते आ रहे है तथा इन्ही को अपनी भक्ति के श्रद्धा पुष्प चढ़ाते रहते है। वर्तमान में इस कक्ष में काँच को इस तरीके से लगाया गया है, जिसमे देखने पर दोनों और के कंचों में अनेक सिंहसन जहाँ तक दृष्टि जाती है। दृष्टिगोचर होते है। इस मंदिर में एक लोहे की सांकल लटक रही है। जिसके बारे में कहा जाता है कि पूज्य दीवान रोहिताषजी ने इसी सांकल को पकड़कर 12 वर्ष तक माँ श्री आईजी की कठोर तपस्या की थी। एक पुराने महल में रोहिताषजी की धूणी व् गुफा भी विद्धमान है।

इस मंदिर से जुड़े महलों में पीला महल भुलणीया महल प्रमुख है। कांच महल के मुख्य द्वारा के किवाड़ पर हठी दाँत की जड़ाई का काम किया हुआ है। पीला महल और काँच महल की दीवारों के भीतर मुगल कालीन चित्र डाले हुए है। इसी मंदिर की साल कोटड़ी के भीतर कठोर व् दिलख़ुशाल नामक महल का निर्माण दीवान रोहिताषजी ने करवाया है। मंदिर के बड़े हॉल में देवी के नो स्वरूपों की बड़ी तस्वीरें लगी हुई है। काँच में बने मुगल कालीन चित्र श्रृंगार रसात्मक व् होली रंग पंचमी के दृश्यों के है। प्रति वर्ष भादवी बीज चैत्र सुदी बीज, वैशाख व् माघ सुदी बीज को हजारों की संख्या में आई पंथ के अनुयायी यहाँ आते है और भक्ति व् श्रद्धा के पुष्प अर्पित कर मन्नते मांगते है। आई पंथ का उद्गम स्थल और श्री आई जी के अनुयायियों बांडेरुओं का मुख्य पूजा स्थल होने से इस मंदिर का विशेष धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व है। इस मंदिर के मुख्य कक्ष में निर्मित चांदी के सिहांसन पर माँ श्री आईजी की भव्य तस्वीर है। एक विशाल तस्वीर में माँ श्री आईजी को यौवनावस्था के रूप में ध्यान मग्र दिखाया गया है। मंदिर के प्रवेश द्वार पर बने दो सिंह पहाड़ी के रूप में स्थापित है। मंदिर के ऊपर बनी झोंपड़ी को देखकर दर्शक आज भी श्रद्धा से नतमस्तक हो जाते है। यह झोपडी वर्षों के आंधी-चक्रवातों में भी स्थिर रही है। जो अपने आप में एक आश्चर्य है। मंदिर में प्रवेश के पहले बनी तीसरी पोल के ठीक सामने निर्मित पीला महल जिसे भुलणीयां महल भी कहते है, जिसमे एक दरवाजे में प्रवेश पाने पर उस दरवाजे पर वापस नहीं आ सकते है। इस भूल भुलैया का निर्माण उस समय के कारीगरों की दक्षता व् स्थापत्य कला का बेजोड़ उदाहरण है। जिसका नक्शा जो पत्थर पर निर्मित है आज भी इस महल के पिछवाड़े के भाग में मौजूद है। दीवानजी के आवास वाले महल में भी रियासत काल अनेक वस्तुएँ आज भी है। पिले महल के पीछे एक बड़ा होज निर्मित है। कहते हैं इस होज में दीवान हरिसिंह द्वारा किये यज्ञ की लापसी रखी गई थी और उसमे माता की कृपा से घी स्त्रोत फुट पड़ा था। प्रतिवर्ष इस मंदिर में श्री आई जी के गर्शनार्थ हजारो लोग आते है और अपनी मनवांछित मुरादे मांगते है। कहते है जो भी व्यक्ति सच्ची भक्ति भावना और श्रद्धा से यहाँ आकर अपने मनोकामना रूपी पुष्प अर्पित करता है, उस पर माँ की अवश्य कृपा दृष्टि होती है। की चिंतक ने ठीक ही कहा है-

होटों पर मुस्कान हो, तो इन्सां दूर नहीं। 
पंखों में उड़ान हो, तो आसमां दूर नहीं। 
शिखर पर बैठकर पंछी, रोज यह गाता है। 
इन्सान की श्रद्धा में शक्ति हो, तो भगवान् दूर नहीं।

बिलाडा क़स्बा जोधपुर से 80 किमी दूर जयपुर-जोधपुर राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है। जयपुर, अजमेर, जोधपुर से यहाँ आसानी से पहुंचा जा सकता है. सीरवी समाज की प्रमुख आराध्य देवी है। आई माता जी मंदिर तक पहुंचने के लिए जोधपुर से बस, जीप व टैक्सियां आसानी से मिल जाती हैं। बिलाडा-जोधपुर रेल मार्ग है यह मंदिर। वर्ष में दो बार नवरात्रों पर चैत्र माह में इस मंदिर पर विशाल मेला भी लगता है। तब भारी संख्या में लोग यहां पहुंचकर मनौतियां मनाते हैं। श्रद्धालुओं के ठहरने के लिए मंदिर अंदर धर्मशालाएं भी हैं। जो मंदिर की तरफ़ा से लोगो का विशेष ध्यान रखता है।

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