माटमोर का बाग बिलाड़ा

“माटमोर का बाग,बिलाड़ा” सृष्टि रचयिता ईश्वर ने इस संसार को नाना रंगो और विविध विधाओं से संवारा संजोया हैं। पृथ्वी पर कहीं तो गगनचुंबी हिमाच्छादित पर्वत श्रेणियां हैं, तो कहीं पर बालू रेत का साम्राज्य क्षेत्र मरुस्थल, जो कोसों में फैला विरान क्षेत्र होता है। कई पर अनगिनत बहती नदियों की पावन जलधारा से सिंचित पठारी भू-भाग और खेत-खलिहानों के रूप में लहलहाता मैदानी भाग। मनुष्य शुरू से की प्रकृति प्रेमी रहा हैं। प्रकृतिक हरियाली से मानव जाति का अटूट संबंध रहा हैं। मनुष्य जब जीवन में कंटकाकीर्ण मार्ग में उलझकर निराश हो जाता है, तब वह हरे-भरे वनों, प्राकृतिक सुषमा के आगार सुंदर-बाग बगीचों में जाकर मानसिक शांति और शारीरिक तंदुरुस्ती प्राप्त करता है। सुंदर उद्यान और वाटिकाओं के विभिन्न प्रकार के रंग-बिरंगे पराग भरे पुष्पों को खिल-खिलाकर हंसते देख कर मन भी अठखेलियां करने लगता हैं। लाजभरी पुष्प-कलिकाएँ और मकरन्द भरे नानारंगी सुमनों पर गुनगुनाते भंवरों का गान जीवन- गीत सा प्रतीत होता है। बाग-बगीचों में पक्षियों के ह्रदयग्राही कलरव से कर्णेन्द्रीय, सौरभमय समीर से नासिक का और प्रकृतिक नैसर्गिक रमणीय से सौंदर्यग्राही मानव मन खिल उठते हैं। इस प्रकार के सुन्दर मन भावन बाग-बगीचों को मानव अपने विवेक शक्ति से धरती माँ की वात्सल्यमयी गोद में लगता है और विधाता उन्हें प्रस्फुटित, पुष्पित,पल्लवित और फलित करता हैं। विश्व के अन्य देशों की तरह भारत भूमि पर भी असंख्य वन-उपवन-बाग-वाटिकाएँ हैं। धरती का स्वर्ग कश्मीर और उद्यानों की नगर के रूप में ख्यातनाम बेंगलौर भी भारत-भू पर ही हैं। मुगल गार्डन नई दिल्ली, शालीमार और निशात बाग कश्मीर, वृन्दावन बाग मैसूर , कबन तथा लालबाग बैंगलौर प्रकृतिक सुषमा के पर्याय माने जाते हैं। जिन्हें निहारते हुए मानव-क्षेत्र स्वर्गिक सुख का अनुभव करते हैं। किसी ने कहा भी हैं।:-

नन्दन-कानन सा मिलता सुख, मानव निर्मित बागों में।
जीवन-संगीत सुनाई पड़ता,महकते विविध फूलों में ।।

प्राचीन काल में राजा-महाराजाओ को भी सुन्दर-सुन्दर बाग बगीचें लगाने का बड़ा शौक होता था। यद्यपि उसमें राज- महाराजाओं द्वारा लगाए जाने वाले बाग- बगीचों का आनंद राजपरिवार के सदस्यगण ही उठाते थे। जनता केवल दूर से ही उनकी रमणीयता और प्रकृतिक नैसर्गिक छटा को निहार कर आनंदित होती थी। लेकिन उस समय कि वे धरोहर वर्तमान में आम नागरिक के उपयोग की वस्तुएं वह स्थल बन गए हैं। जो गौरवशाली अतीत को वर्तमान पटल पर लाकर रख रही हैं। साथ ही यह भी ज्ञात करते हैं कि सृष्टि के प्रारंभ से ही मनुष्य प्रकृतिक को अपनी जीवन-संगिनी मानकर उसका शोषण कर रही है। ऐतिहासिक, धार्मिक, पौराणिक और संस्कृतिक नगरी ‘बिलाड़ा’ जो रियासती काल में मारवाड़ रियासत का ही एक अंग था। यहां पर नवदुर्गावतार माँ भगवती ‘श्री आईजी’ के प्रमुख पुजारी के रूप में’ दीवान’ का शासन तंत्र चलता था। बिलाड़ा के दीवान अपने आराध्यदेव ‘श्रीआईजी’ के प्रमुख पुजारी के रूप में ‘दिवान’ होने के साथ वीर, साहसी, प्रजापालक और प्रकृति-प्रेमी भी थे। छठे दीवान राजसिंह जी ने जन कल्याण के लिए बहुत से कार्य किए थे। उन्होंने तत्कालीन गाँव हर्ष के पास एक बहुत बड़ा तालाब बनवाया था। उसकी पाल बहुत बड़ी बनवाई। जिसका नाम ” मोटमोर ” रखा गया। जो आज भी माटमोर के नाम से जानी जाती हैं। उसकी पाल के पास एक सुन्दर बगीचा लगवाया। जिसका नाम ” माटमोर बाग ” रखा गया था । जो आज भी बिलाड़ा के पूर्व दिशा में 3 की.मी. की दूरी पर चौपड़ा फिडर के पास स्थित है। दीवान राजसिंहजी बिलाड़ा शहर के बाहर पूर्व दिशा में एक तालाब, एक घाट और एक धर्मशाला बनवाई, जिसका नाम राज्य ‘ राजेलाव ‘ रखा गया । अब प्रशन उठता है कि दिवान राजसिंह जी ने अपने द्वारा लगवाए गए बाग का नाम ‘ माटमोर ‘ क्यों रखा। इसके पिछे कोई ठोस तथ्य तो नहीं है परंतु अर्थानुसार ‘ माट की मोड़ परलगाया गया बाग ‘ हो सकता हैं।माट=पाल,दीवार,धोरा,अथाह आदि अर्थ हो सकते हैं। छठे दीवान राजसिंह जी दोबारा अपने काल में लगाए गए इस बाग में अनेक प्रकार के विशालकाय पेड़ यथा इमली,नीम, ताड़, पीपल,वट,बेर,अशोक,खजूर,बेर भी लगे हुए थे। अनेक प्रकार की किस्मों के सुगंधित फूलों की भी इस बाग में भरमार थी। यहां एक कुआँ ( बावड़ी ) भी हैं। तथा एक बड़ा हौद भी बना हुआ हैं। जिससे बाग में सिंचाई होती हैं। हरी भरी मनभावन दूब भी आकर्षक रूप में यहाँ लगी हुई है। बाग में एक महल भी बना हुआ है। जिसमें आकर्षक फव्वारे लगे हुए हैं । बाग में बने महल में कभी ‘ दीवान साहब ‘ की सवारी आती थी और अपने परिवारजनों के साथ दीवान जी यहां विश्राम कर बाग की मनोहर छटा का आनंद उठाते थे। इस बाग में खेलने वाले सुगंधित फूल ‘ दिवानजी-दरबार ‘ मे पेश किए जाते थे। इस बाग में ही घोड़ों को बांधने और उनके चारे-पानी के लिए भी पक्के कमरे बने हुए हैं। बाग के बाहर तीन विशाल छत्रियों बनी हुई हैं। जिसमें 1 तों ‘ सती कागण जी की जीवित ‘ समाधि हैं। जबकि दूसरी छत्री ‘ दीवान हरीदास जी ‘ की बताई जाती हैं। और तीसरी छत्री इस बाग को लगाने वाले दीवान राजसिंहजी की बताते हैं। कहते हैं:- जब दीवान हरिदासजी ने संवत 1842 को अपने स्वामिभक्त घोड़े के साथ नर्मदा नदी के किनारे चोलीमेसर नामक स्थान पर अपना शरीर त्याग दिया। इसकी जानकारी आईभक्त पतिव्रता कागण जी को बिलाड़ा बैठे ही मालूम पड़ गई। दीवान साहब का मोलिया (साफा )आने पर कागणजी ने माटमोर बाग में जीवित समाधि ले ली थी। तब से सती कागणजी की समाधि पर जाकर मन्नतें मांगने पर भक्तों की मनवांछित इच्छाएँ पूरी होती है और लोग रात्रि-जागरण कर चूरमा प्रसादी इत्यादि चढ़ाते हैं। माटमोर के इस बाग का पन्द्रहवें दीवान लक्ष्मण दास जी और सत्तरवें दिवान प्रतापसिंह जी ने अपने-अपने समय में पूरा ध्यान देकर नये-नये पेड़-पौधे लगाकर इसे हरा-भरा बनाने का अथक प्रयास किया था। स्वयं दीवान साहब भी अपने शाही ठाठ-बाठ से यहाँ आकर मानसिक शांति पाकर हर्षित होते थे। इस्बा के अनार,इमली,कच्चे,आम ,शहतूत आदि फल और नाना प्रकार के रंग-रंगीले महकते पुष्प जन-मानस को हर वक्त उपलब्ध रहते थे। इस बाग में पश्चिम की तरफ वहाँ बने महल के पिछवाड़े में दीवान हरिसिंह जी की समाधि और उनकी छत्री बनी हुई है। उस छत्री में दीवान हरिसिंह जी की सुन्दर आकर्षक मूर्ति भी लगी हुई है। उसके पीछे विशाल चबूतरा व उस पर खुम्ब लगे हुए हैं।इस चबूतरे व दीवार के पीछे एक नाला बहता हैं। बाग में मीठे-मीठे बेर के अनेक वृक्ष कतार में व बाग की मेड़ पर खड़े हैं।जैसा कि कहा भी गया हैं:-

बनी हुई है अनेक समाधियों, दीवाणों के बाग में। 
कागणजी,हरिदासजी संग,छत्री राजसिंह जी साथ में।।
मूर्ति संग है सुन्दर छत्री,हैं हरिसिंह जी दीवाण की।
जिनसे बनी निराली शोभा,माटमोर के इस बाग की।।

आज आवश्यकता है इस बाग को पुनः हरा-भरा बनाने की।सदा हरे भरे रहने वाले इस बात पर फिर से नये-नये पेड़-पौधे और सुगंधित फूल वाले पौधे और फलदार पेड़ लगा कर इसकी खोई हुई रौनक को पुनः वापस लौटाना होगा।
सब मिलकर इस बाग को पुनः वही स्वरूप, रमणीयता और सौंदर्यता देकर इसकी धूमिल होती प्रतिष्ठा को बचा सकते हैं। यह बाग इस बिलाड़ा नगरी की ऐतिहासिक धरोहर है। जो अपने निर्माण काल से अब तक के बीते अतीत का ज्वलन्त साक्षी हैं।जिसकों पुनः हरा-भरा बनाकर बांंडेरूओं के दर्शन योग्य बनाना ही वर्तमान की पुकार हैं।।

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