राजा बलि का मन्दिर बिलाड़ा

प्राचीन काल में भारतवर्ष में राजतन्त्रीय शासन-प्रणाली थी प्रत्येक भाग का राजा अपनी प्रजा का पुत्र की तरह पालन करके उनकी सुख-समृद्धि का ध्यान रखते थे। अपना साम्राज्य विस्तार करने के साथ ही विद्वानों को आश्रय प्रदान करते और कला-विज्ञान साहित्य धर्म-शिक्षा के विकास के साथ सुन्दर महलों, किलों और स्थापत्य स्मारकों का निर्माण करवाकर राज्य की कि चहुँमुखी उन्नति करते थे। चक्रवर्ती सम्राट बनने के लिए राजा लोग राजसूय, अश्वमेघ और वाजपेय आदि यज्ञ करके अपनी विजय दुंदुभी बजाते थे यज्ञ एक धार्मिक अनुष्ठान होता है। सत्यार्थ-प्रकाश’ में यज्ञ की परिभाषा इस प्रकार दी गई है:- यज्ञ ‘ उसको कहते है जिसमें विद्वानों का सत्कार यथायोग्य शिल्प अर्थात् रसायन जो कि पदार्थ विद्या उससे उपयोग और विद्याति शुभ गुणों का दान अग्निहोत्रादि जिनसे वायु वृष्टि जन औषधि की पवित्रता करके सब जीवो को सुख पहुंचाने के लिए किया गया धार्मिक अनुष्ठान होता है। दैत्यों के आदि पुरुष हिरण्यकश्यप के वंशज में दानवीर राजा बलि का जन्म हुआ था। हिरण्यकश्यप परम तेजस्वी पुत्र पहलाद हुए। पहलाद का पुत्र विरोचन और विरोचन के पुत्र राजा बलि थे। राजा बलि ने स्थावर जंगम सहित त्रिलोक का राजीव पाने के लिए भारतवर्ष के अलग-अलग भागों में यज्ञों का अनुष्ठान किया था। राजा बलि की समृद्धि और बढ़ती लोक प्रियता इन्द्र से न देखी गई ।इन्द्र की प्रार्थना पर विष्णु ने राजा बलि को राज्य से हटाने की योजना बनाई और वामन अवतार धारण किया और ब्राह्मण के वेश में राजा बलि से तीन पग भूमि दान में मांगी। राजा बलि की अनुमति मिलते ही वामन ने विराट रूप धारण कर दो ही पगों में भू-लोक तथा स्वर्गलोक नाप लिए तथा तीसरे कदम को राजा बलि के सर पर धरते हुए उसे पाताल लोक पहुंचा दिया। राजा बलि जैसा पुत्र पाकर उनकी माता अपने को धन्य मानती हुई करती है:-

भली भई मैं जली नहीं, राजा विरोचन के साथ
म्हारे बलि ऐसा जनमियो, जो हरि ने मंडाया हाथ।

दन्त कथाओं के आधार पर लोग कहते हैं कि राजा बलि ने पांच यज्ञ बिलाड़ा में किए थे। बिलाड़ा से पिचियाक गांव तक की भूमि तपोभूमि और यज्ञ भूमि होने से बहुत पवित्र धरा मानी जाती है। पिचियाक शब्द पंचयाग शब्द का अपभ्रंश है। बिलाड़ा शहर से तीन मिल उतर दिशा में जयपुर-जोधपुर राजमार्ग पर बसे पिचियाक गांव का शुद्ध नाम पहले पंचयज्ञ ही मना जाता है। इसी पिचियाक गांव के दक्षिण में एक छोटी सी पहाड़ी है। इस पहाड़ी के चरों तरफ भ्रमण करने पर हम देखते है की यहाँ पर बहुत पुरानी यज्ञशाला कुण्डमण्डप आज दिन भी उपलब्ध है। यहाँ देवस्थान की चार पीठें 25 x 25 हैं और बिच में यज्ञ कुण्ड 11 x 11 का है। कोने की एक पीठ दूसरी पीठ से ठीक 100 फिट की दुरी पर है। कहा भी गया है – जहाँ किये बलि ने पंच-यज्ञ, वो ग्राम पंचायत पिचियाक कहलाता है। यहाँ चार पीठें देवस्थान की, और साक्षी यज्ञशाला है।ध्यानपूर्वक देखने से यह भी पता लगता है की इस छोटी-सी पहाड़ी के चरों और एक प्रकोष्ठ जरूर था। उस परकोटा का द्वार पूर्व की और होने के लक्षण विद्धमान है। पूर्व से ही दो बड़ी सड़कें आज दिन 10 चौड़ी दॄष्टिपात होती है है। पहली सड़क पूर्व से दक्षिण को जाती हुई पहाड़ी के तीन और चक्क्र लगाती हुई पिचियाक गांव में जाती हुई विदित होती है और दूसरी सड़क सरगरा जाती के मंदिर के पास होती हुई घी-तलाई को जाती है। ये सभी चिन्ह आज दिन भी विद्धमान है। यदि इस पहाड़ी पर कोई महल होते तो कुछ टूटू-फूटे खण्डहर जश्रूर मिलते। इससे स्पष्ट है की यह स्थान किला नहीं था। यह उच्च व् पवित्र स्थान केवल यज्ञ के लिए ही श्रेष्ट समझा गया होगा।

 

कुछ खुदाई से ज्ञात हुआ है की इस पहाड़ी के चरों और बना हुआ परकोटा लाल ईंटो से बना हुआ था। अतः इससे यह प्रमाणित हुआ है की पंचयज्ञ पहाड़ी पर अवश्य ही यज्ञ हुए थे। यह पहाड़ी जिसे लोग बलिराजा की भाखरी भी कहते है।इसी पहाड़ी की तलहटी के उतरी भाग में घी-तलाई है। खुदाई से प्राप्त चिन्हों के आधार पर यह माना जाता है की यहाँ पर बड़ा लम्बा-चौड़ा चुने का बना हुआ होज था। कहते है राजा बलि ने जब यज्ञ किया तब यज्ञादि कार्यों में उपयोग हेतु घी इसी होज में इकट्ठा किया गया था। श्रद्धालु जो भी घी यज्ञ में होम हेतु लाते थे, वह इस होज में एकत्र किया जाता था। यह होज उचित सुरक्षा व् रख-रखाव की कमी के कारण सदियों से होने वाली वर्षा से पहाड़ी मिटटी में बहकर आने से मोटी तले दब गया और एक छोटी तलाई के रूप में परिवर्तित हो गया। आज भी जब इस घी-तलाई में पानी भरा रहता है, तब पानी के ऊपर जो चिकनाहट आती है, वह घी की चिकनाई के समान होती है। यह चिकनाहट बहुत वर्षों पहले स्पष्ट दिखाई देती थी, आज भी दिखती है। यह बात इस घृत-होज की द्द्योतक है। बिना किसी कारण पानी पर घी की चिकनाहट नहीं आ सकती। जरूर इस होज में एकत्र घी रिस्ता हुआ मिटटी में रल मिल गया होगा। जो आज भी जकल पर आवरण की भांति तैरता नजर आता है। लोगों का यह भी कहना है की बिलाड़ा में जो धाधडा नामक पत्थर निकलता है, वह भी राजा बलि द्वारा यहाँ यज्ञ करने की बात को पुष्ट करता है। कहते है की राजा बलि ने अनगिनत ब्राह्राणों व् अतिथियों का स्वागत करने के लिए अनुमानतः 5 मिल तक जमीन पर चुना करा दिया था। वह चुना अब धाधडा नामक पत्थर के रूप में परिवर्तित हो गया। वैज्ञानिक इसे Material Chemical Chanje कहते है। पुराने समय में Calcium Carbonate और Cilica के रासायनिक योग से Impured Calcium Carbonate यानी मुरड़ हो गया और यही मुरड़ वायुदाब से कठोर हो गया और पत्थर रूप में परिवर्तित हो गया, जो आज भी धाधडा पत्थर कहलाता है।

 

यह तो सत्य है की राजा बलि ने भारतवर्ष की भूमि पर सौ यज्ञ एकलग-अलग भागों में किये थे। उनमे से कोई भी पंचा यज्ञ यहाँ पर जरूर हुए है। समय के बदलते डोर में हो सकता है इस पहाड़ी पर से प्राचीन ऐतिहासिक, पौराणिक और धार्मिक अवशेष विलुप्त हो गए हों, लेकिन यह पहाड़ी तपों और यज्ञ-भूमि होने के कारण सबके लिए सदैव वन्दनीय रहेगी। यदि पुरातत्व-विभाग रूचि लेकर इस पहाड़ी पर खुदाई व् अन्वेषण करें तो पौराणिक काल के रोचक अवशेष व् इतिहास के बहुत से शोत प्राप्त हो सकते है जिनके माध्यम से अतीत का गौरवशाली इतिहास उजागर हो सकता है। आजकल राजा बलि की भाखरी के नाम से विख्यात इस पहाड़ी पर पानी की बड़ी टंकी और पास में एक केंद्रीय कारागार जेल भी बन गया है।

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