तृतीय दीवान श्री करमसिंह जी

जन्म – सम्वत् 1592

पाट – सम्वत् 1612 चेत वद 14

विवाह – सम्वत् 1613 काती वद 7

स्वर्गवास – सम्वत् 1637

आषाढ सुद 11 गांव – धांगङवास में

जब दीवान गोविन्ददासजी ने अपनी अस्वस्थता के कारण लखधीरजी के बड़े पुत्र करमसिंहजी को गद्दी पर बैठाया उस समय करमसिंहजी की आयु 20 वर्ष थी । उनके पाट बैठाने के 9 माह बाद ही गोविन्ददासजी का स्वर्गवास हो गया था ।
जब करमसिंहजी दीवान की गद्दी पर बैठे थे उस समय जोधपुर के महाराज मालदेवजी थे । राव मालदेवजी दीवान करमसिंहजी से बहुत खुश थे । करमसिंहजी भी महाराजा की आज्ञा मानते थे । दीवान करमसिंहजी आई माता के अटूट भक्त थे । उनका वैभव फैला हुआ था । लाखों डोराबंद आपकी बात मानते थे ।
जोधपुर महाराजा राव मालदेव जी ने दीवान करमसिंहजी की प्रशंसा इन शब्दों में की थी ।

धणी माल अजसे धरा, इण विध कहे उच्चार । हुं छत्रपति ओ हलपति की जोङी करतार  ।।
राखु पुत्र समोबङी, चढते दिन यह वार । करसा जिणनु सम्यजे, ज्यो तुठे करतार ।।
जोधाणे राव मल, करमठ बिलाडे़ कमध । दीनु बडा़ जस दिये सुरतांणा उगसाल ।।

कुछ समय बाद एक दिन राव मालदेवजी ने अपने पुत्र चन्द्रसेन की योग्यता देख, अपने उमरावों की सलाह से राज-काज सोंप दिया । इस पर उसके भाई रामसिंहजी नाराज हो गये ओर गुस्से में दिल्ली जाकर अकबर बादशाह को सारा वृतान्त कह सुनाया । साथ ही यह भी कहा कि हुजूर आपकी आज्ञा के बिना ही चन्द्रसेन को राज काज सोंप दिया है। इतना सुनते ही अकबर ने अपने सेनापति को आज्ञा दी ।

आखे नाम अल्लाह, दाठी कर धाते दहुं ।
हसन कुली हत्स कारियो, सिर चन्द अकबर शां ।।

हसन कुली को सेनानायक बनाकर, चतुरगी फोज के साथ जोधपुर पर धावा बोलने की आज्ञा प्रदान की । हसन कुली फोज लेकर नागोर होता हुआ जोधपुर पहुंचा । चन्द्रसेनजी की फोज भी तैयार थी आपस में घमासान युद्ध हुआ । जीत की सम्भावना न देखकर चन्द्रसेनजी जोधपुर छोङकर सिवाना चले गये । जोधपुर पर तुर्को का कब्जा हो गया । सिवाना से चन्द्रसेनजी ने करमसिंहजी को पत्र लिखा ।

:: दोहा ::

धरा हुवे धमचक्क, सहू साकिया नरेसर । लिख कागद चन्द्रसेन, ताय मुके बीलहपुर ‌‌।।
कमधज्ज करमेत नूं, इसी राव चन्द कहायो । हवे घर सुनी करो, असुर खण्ड उपर आयो ‌।।
तियावर हुकम पर मानकर, कागज शीश चढावियो । इस लिखो करण मुरधर अभंग, कमसी‌ छोङाना कियो ।।

आईमाता के डोराबन्द अपने धर्मगुरु ‘दीवान’ का इतना मानते है की जब कभी किसी कारण से गांव का जागीरदार अन्याय करता है तो दीवानजी के कहने पर समस्‍त डोराबन्द गांव छोङ कर चले जाते थे । उसे छोङाणा कहते थे । फिर वह जागीरदार, दीवान साहब से सुलह करता तो उनके कहने पर डोराबन्द गांव में आकर बसते थे । चन्द्रसेनजी जोधपुर छोङकर चले गये तो सिवाना जाकर दीवान करमसिंहजी को कागद लिखा कि मारवाङ तुर्को के कब्जे आ गया है । अत: आप मारवाङ के काश्तकारों (डोराबन्द) से मारवाङ खाली करवा दो । चन्द्रसेनजी के कागद के अनुसार दीवान करमसिंहजी ने पुरे मारवाङ के काश्तकारों से कहा की शीघ्र मारवाङ छोङकर मेवाङ मेरे साथ चलो । जब तक मारवाङ तुर्को के कब्जे रहे । कोई भी वापिस नही आवे । दीवान साहब को आज्ञा होते ही समस्त काश्तकार मारवाङ छोङ मेवाङ की ओर रवाना हो गये ।

आपाण थह कमां, आय गाजियो उतल । त्यारा चंद सेण नूं लिखे मोकलियो कागल ।।
सिर मोहरे तूं साम घणी, चन्द मुरधर । यह बीजो तो बिनां, शीश नह धरु अव्वर ‌।।
ताहरो हुकम लोपु नही, कहे चंद सुज हूं करू । तो बिना चंद राव मालतणा, घणी अव्वर सिर नह धन।।
बिलाङे विरदेत आप, बैठो अवतारी । सेह मने हुय खुशी, सुख भोगे घर सारी ।।
मास आठ दस हुआ, जेम धरती सुख जेते । करण बिखा कारणे, चंद फिर आयो तेते ‌।।
कमानू इसो कहवाङियो, धींग श्याम धम सिर धरो । अशुराण जेम जावे अलग, कहियो घर उजङ करो ।।

जब करमसिंहजी मारवाङ छोङकर सब काश्तकारों के साथ मेवाङ की ओर जा रहे थे, उस समय हसन कुली का डेरा सोजत नगर के पास था । केशवदास नामक एक चुगलखोर ने सोजत जा कर हसन कुली से कहा कि मारवाङ खाली हो रहा है ओर दीवान करमसिंहजी के साथ सब मेवाङ जा रहे हैं। आज उन सब का डेरा गांव धांगङवास के पास है। इतना सुनते ही हसन कुली दीवान करमसिंहजी के पास धांगङवास पहुंचा । ओर कहने लगा की वापस चले जाओ, मारवाङ खाली मत करो ‌। मेरा कहना मान लो । यह सुनकर दीवान करमसिंहजी ने कहा हमारे मालिक तो चन्द्रसेनजी है। वो कहेंगे वैसा ही करेंगे । तुम्हारे कहने से हम वापिस नहीं लाटेंगे । हसन कुली ने उसी समय अपने साथ आये 5 हजार सैनिकों के साथ करमसिंहजी पर धावा बोल दिया । करमसिंहजी भी अपने काश्तकारों के साथ तुर्को ने मार दिया । आखिर में बङी वीरता से लङते हुये दीवान करमसिंहजी संवत् 1637 के आसोज सुद 11 को युद्ध में काम आ गये । स्वामी भक्ति मे अपनी जान की कुर्बानी दे दी । गांव धांगङवास मे दीवान करमसिंहजी के स्मारक मे आज भी एक छतरी बनी हुई है। लोग बङी श्रध्दा से शहीद आत्मा की पुजा करते हैं। उनके पीछे उनकी तीन रानियां रायकंवर, प्रेमकंवर, द्वितीय रायकंवर सती हुई थी । साथ ही कई डोराबंदी ने भी आत्मदाह किया । दीवान करमसिंहजी के नो पुत्र थे । (1) मेराजजी (2) रोहितशवजी (3) डूंगरदासजी (4) चौथजी (5) खींवसिंहजी (6) अखेराजजी (7) केसूदासजी (8) लिछमणदासजी (9) मोवनसिंहजी । कंवर रोहिताशवजी भी साथ ही थे उस समय रोहिताशवजी की उम्र 11 साल थी । जब करमसिंहजी शहीद हो गए तो उनके पुत्रों ने सोचा कि अपनों को भी तुर्क मार डालेंगे । उसी समय रोहिताशवजी को उनके एक भाई साथ लेकर गुप्त रूप से गुप्तचर वहां से निकल गये । और गांव सथलाणा में एक विधवा सुनारी को सारा हाल बता कर उसे पालन पोषण हेतु सौंप दिया ।
बिलाङा बडेर में सर्वप्रथम आई माता का मंदिर दीवान करमसिंहजी संवत् 1636 के चेत सुद बीज को बनवाया था जो आज तक बना हुआ है ।

यहां पर संक्षिप्त जानकारी लिखी गई हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए श्री आई माताजी का इतिहास नामक पुस्तक ( बिलाडा़ मंदिर में उपलब्ध है ) पेज दृश्य न: ४३ से ५६
पुस्तक लेखक – स्वर्गीय श्री नारायणरामजी लेरचा

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