सत्रहवें दीवान श्री प्रतापसिंह जी

जन्म – संवत् 1940
पाट – संवत् 1960 पोह वद 13
विवाह – संवत् 1963
स्वर्गवास – संवत् 1976 भादवा सुद 11

दीवान प्रतापसिंहजी दीवान शक्तिदानजी के भाई जसवंतसिंहजी के पुत्र थे । शक्तिदानजी के पुत्र ना होने के कारण प्रताप सिंह जी को गोद लिया था और संवत् 1961 पोह वद 13 को दीवान शक्तिदानजी के स्वर्गवास होने से प्रतापसिंहजी को दीवान की गद्दी पर बैठाया गया था । दीवान प्रतापसिंहजी गठीले वह बलिष्ठ शरीर के धनी थे । अपने समय में आप अन्य युवकों से योग्य व वीर माने जाते थे । आई माता के अनंत भक्त थे आप अपने अनुयाईयों की सुख-दुख में खूब सहायता करते थे । परोपकारी दीवान माने जाते थे ।दीवान शक्तिदानजी के समान आपको भी भवन निर्माण का बहुत शौक था शक्तिदानजी के समय में निर्माण किये गये बाड़ी मेल के ऊपरी मंजिल पर एक मंजिल और बनवाई जो पक्की ईंटों से बनवाया गया था जिसका नाम हवामहल रखा गया था । माटमोर के बाग में भी सुधार कर नए-नए पेड़ पौधे लगवाये बाग की शोभा देखने योग्य थी । जो आज भी उस शोभा के लिए विद्यमान है । साथ आई माता के मंदिर में संगमरमर के काले व सफेद पत्थरों की टाइलों से फर्श बनवाई और पूरे मंदिर के अंदर की दीवारों पर चीनी की टाइले लगवाई जिससे मंदिर की शोभा में चार चांद लग गये । उन दिनों भारत पर अंग्रेजों का शासन था । अंग्रेज अफसरों से दीवान प्रतापसिंहजी की अच्छी दोस्ती थी । अंग्रेज अफसर भी दीवान साहब को बहुत आदर देते थे । एक बार अंग्रेज गवर्नर जनरल एजेंट राजपूताने के दौरे पर आये तब बिलाड़ा भी आए थे और रेलवे स्टेशन पर ही ठहरे । दीवान प्रतापसिंहजी को ज्ञात हुआ तो आप खुद रेलवे स्टेशन पधारें और गवर्नर जनरल से मुलाकात की और उन्हें साथ लाकर अपने महलों में ठहराया तथा खूब आदर सत्कार किया । गवर्नर जनरल बहुत खुश हुवे । यहां से जाने के बाद भी इंग्लैंड से पत्र व्यवहार होता था । दीवान प्रतापसिंहजी बड़े मधुर भाषी व परोपकारी थे । आई माता के भक्त थे । आई पंथियों के सुख-दुख को सुनते तथा उनका निवारण करते थे । अपने आई पंथ के डोराबंदी की साल सम्भल करने हेतु पूरे मारवाड़ मेवाड़ में मध्य प्रदेश का दौरा किया करते थे । आई माता की कृपा से संवत 1972 के आषाढ़ सुद 1 को आपके पुत्र रत्न हुवे । जिनका नाम हरिसिंहजी रखा गया था । जोधपुर महाराजा आपकी स्वामी भक्ति से बहुत खुश थे । कई बार समय-समय पर महाराजा दीवान प्रतापसिंहजी से सलाह मशवरा लिया करते थे । आपके बारे में एक कवि ने कहा है ।

ते आदू सगते सतण, वद धरिया वरवी ।
सचवादी सगतेस सुत, धिन पोरूष गुण धीर ।।

आई पंथ के डोराबंद सीरवी दीवान साहब की हर बात मानते थे । आपसी झगड़े हो चाहे सामाजिक झगड़े हो, उनका फैसला दीवान साहब जो भी करते वो सबको मान्य होता था । परम्परानुसार आज भी सामाजिक झगड़ों का फैसला दीवान साहब ही करते हैं । जिसे पूरा समाज मानता है । संवत् 1972 में गांव नाडोल के सीरवियों और वहां के ठाकुर श्री जोधसिंहजी के आपस में किसी बात को लेकर रंजश हो जाने से समस्त सीरवी नाडोल छोड़कर अन्यत्र जाकर बस गये । जिससे गांव के बेरे व जमीन खेत सब सुने हो गये । इस पर ठाकुर जोधसिंहजी दीवान प्रतापसिंहजी के पास गये और निवेदन किया कि सीरवी सिर्फ आपका ही कहना मानते हैं सो आप उन्हें समझा कर वापिस गांव में बसावे । ठाकुर साहब के निवेदन पर दीवान प्रतापसिंहजी गांव नाडोल के सीरवियों को समझा-बुझाकर वापस गांव में लाकर बसाया और ठाकुर साहब के साथ सुलह करवाई इस पर ठाकुर जोधसिंहजी ने आई माता के धूप दीप हेतु 10 मण धान भेंट चढ़ाने का प्ररवान किया ।

श्री मुरलीधरजी श्री रामजी सहाय छे ।

‘ सावत ’

सिध श्री महाराजा श्री जोधसिंहजी वचना से ता गांव नाडोल रा चौधरिया जा को सटे धराय नाडोल में बोल बजै । भाटो रोप दीयो तीण कारण सु बीलाड़े बडेर धान मण 10 दस कीयो सो ओ धान साडना सीरकार सु मलबो दीरीजए उणमेंड दीरिजीया जावसी । फकत सं. 1972 रा आसाढ़ सुद 8 तारीख 8 जुलाई सन् 1916 जबरसिंह। इससे साफ जाहिर होता है कि सीरवी अपने धर्मगुरु दीवान को कितना पूज्य मानकर उनके कहे अनुसार चलते थे । दीवान प्रतापसिंहजी को घुड़सवारी का बहुत शौक था । अपने अस्तबल में सदा अव्वल दर्जे के घोड़े रखते थे । घोड़ों की नस्ल के अच्छे पारकी थे । दीवान प्रतापसिंहजी साहित्य के प्रेमी थे । साहित्यकारों, विद्वानों का खूब आदर करते थे । आई माता के धर्म का भी आपने विस्तार किया था । आप एक योग्य दीवान थे । आपके एक ही कुंवर हरिसिंहजी थे । आई माता की भक्ति करते हुवे संवत् 1976 के भादवा सुद 11 को आपका स्वर्गवास हो गया था । उस समय कुंवर हरिसिंहजी मात्र 4 वर्ष के थे ।

यहां पर संक्षिप्त जानकारी लिखी गई हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए श्री आई माताजी का इतिहास नामक पुस्तक ( बिलाडा़ मंदिर में उपलब्ध है ) पेज दृश्य न: ८९ से ९७ पुस्तक लेखक – स्वर्गीय श्री नारायणरामजी लेरचा

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