चतुर्थ दीवान श्री रोहितदास जी

जन्म – संवत् 1626

पोह पाट – संवत् 1637 माघ वद 5 सुद 5
विवाह – संवत् 1642 माघ

स्वर्गवास – सं. 1694 पोह वद 5 वद 4

दीवान करमसिंहजी जब धांगङवास में काम आ गये ओर रोहितशवजी का सथलाणा मैं एक विधवा सुनारी के लालन-पालन हेतु सौंपा तो वे अब उस सुनारी के वहां ही रहने लगे । दिन में अन्य लड़कों के साथ रोहितदासजी जंगल में गायों के बछड़ों को चराया जाया करते थे । दिन में सब बच्चों के साथ खेलते और शाम को वापिस घर आ जाते । सब लोग उन्हें सुनारी का बेटा ही मानते थे । आखिर रोहितदासजी तो राज बीज थे । वह दिन मैं जंगल में अन्य लड़कों के साथ राजदरबार का खेल खेलते थे । आप एक ऊंचे टीले पर बैठकर राजा बनते और अन्य लड़कों को मंत्री आदि बनाते तथा जनता की फरियाद सुनते और फैसला सुनाते थे । करीब चार माह गुजर गये । एक दिन दिन के समय एक पेड़ के नीचे सो रहे थे तभी एक काला सांप उनके मुंह पर छत्र बनाकर बैठ गयां उसी समय उधर से ग्राम धुन्धाङा के एक वृद्ध राजपुत जा रहे थे । उनकी नजर जब रोहितदासजी पर पङी तो वे ठीठके । यह लीला देख मन मे विचार किया कि हो न हो ये बालक कोई साधारण बालक नहीं है। छत्रपति होगा । ऐसा सोच कर राजपूत ने आस पास खेलते बालकों से पुछा कि यह बालक कोन है। तो उन खेलते हुये बच्चों ने कहा की यह तो गांव सतलाना की एक विधवा सुनारी का बेटा है। यह सुन उस राजपूत को विश्वास नही हुआ कि यह एक सुनारी का बेटा हो सकता है। वो वृद्ध सीधा सतलाना जो उस समय अलग-अलग ढाणियों में बसा हुआ था उस विधवा सुनारी के घर गये और बालक के बारे मैं सुनारी से पूछताछ की तो सुनारी ने बताने से इनकार किया । ज्यादा जोर देने पर सुनारी को समझा-बुझाकर बालक का भेद प्राप्त किया । वह वृद्ध राजपूत सीधा जोधपुर महाराजा के पास गया और सारा हाल कह सुनाया । उसी समय जोधपुर महाराज स्वयं सतलाना आकर सुनारी के पास से रोहितदासजी को लेकर बिलाड़ा पधारें और संवत् 1637 के माल सुद 5 को दीवान की गद्दी पर बैठाया । रोहितदासजी आई माता के अटूट भक्त थे । वे रात-दिन आई माता की भक्ति में लीन रहते थे । मात्र 11 वर्ष की आयु में दीवान पद प्राप्त कर आपने आई माता की कठोर तपस्या की थी । दीवान रोहितदासजी ने इतनी कठोर तपस्या की कि आई माता जी के मंदिर की छत में एक सांकल टांग कर उससे अपनी चोटी बांध कर एक पैर पर खड़े रहकर 12 वर्षो तपस्या की उसके बाद उनका विवाह हो गया और पुत्र रत्न भी आई माता की कृपा से प्राप्त हुआ । लेकिन आप आई माता की भक्ति में लगे रहे । दीवान रोहितदासजी ने यह निश्चय कर लिया कि जब तक आई माता मुझे प्रत्यक्ष दर्शन न दे तब तक मैं तपस्या करता रहूंगा । मंदिर में तपस्या करने के बाद 6 वर्ष तक मंदिर के सामने जमीन के अंदर एक गुफा बनाकर उसमें बैठकर तपस्या कि । जिस सांकल से चोटी बांध कर आई माता के मंदिर में तपस्या करते थे । वो सांकल आज भी मंदिर में दर्शनार्थ लटकी हुई हैं । और जहां गुफा में तपस्या की थी वो भी मंदिर के सामने वाले कोठार के नीचे आज तक विद्यमान हैं । जब यहां तपस्या करना रास नहीं आया तो एकांत स्थान ढूंढा । बिलाड़ा से 6 किलोमीटर पूर्व में सुनसान झाड़ियों के बीच जाकर 6 वर्ष तक घोर तपस्या की । उनकी तपस्या से आईमाता प्रसन्न होकर साक्षात दर्शन दिये । जिस जगह तपस्या की व आई माता ने दर्शन दिए थे । वहां आज-कल रनिया नामक बेरा है जहां रोहितदासजी का मंदिर बना हुआ है । तपस्या करने का निश्चय जब पुर्ण हो गया तो रोहितदासजी पुन: बिलाङा पधारे ।
जिस जगह रोहितदासजी ने तपस्या की व आई माता ने दर्शन दिए थे उसी स्थान (रनिया बेरा) पर आज कल आई भक्तों ने एक भव्य मंदिर का निर्माण किया जिस पर लाखों रुपए खर्च हुये । इस रोहितदासजी के मन्दिर में मुर्ति प्रतिष्ठा समारोह 24 मार्च, 1991 को हुआ । इस समारोह में आस-पास के व गुजरात, मध्यप्रदेश, मद्रास, बैंगलोर, पश्चिमी राजस्थान से आई माता के भक्त बड़ी संख्या में इकट्ठे हुये । भक्तों की संख्या 2 लाख के करीब आंकी गी । दिनांक 25 मार्च, 1991 को प्रसाद के रूप में 200 मण गुड़ की लापसी बनाई गयी । जिसका भोजन आने वाले हर भक्त ने किया । इतना बड़ा समारोह आज तक नहीं हुआ । दो लाख आदमियों के भोजन पानी की व्यवस्था में रोहितदासजी के प्रताप से किसी बात की अड़चन नहीं आई । एक भी आदमी ऐसा नहीं रहा जो आराम से भोजन ना कर सका हो । सब लोग शांतिपूर्वक जलपान करते रहे और जिन भक्तों के पास ट्रैक्टर,मोटर थी वो निशुल्क लोगों को रोहितदासजी के मंदिर तक ले जाते वह लाते थे । इतनी भीड़ भाड़ में इतना अच्छा व व्यवस्थित इंतजाम रोहितदासजी का परचा ही तो था । यानी करीब दो लाख लोगों में से एक भी निराश नहीं हुआ । मूर्ति स्थापित वर्तमान दीवान श्री माधवसिंहजी के कर कमलों द्वारा की गई । रनिया बेरा जो बिलाड़ा के पूर्व में करीब 6 किलोमीटर है एवं धार्मिक स्थल बन गया । आज भी श्रद्धालु दर्शन करने जाते हैं । रोहितदासजी जब तपस्या कर वापिस बिलाङा पधारे तो यहां भी बैठे नहीं रहे गांव गांव घुमकर आईमाता के डोराबन्द बनाये ओर धार्मिक उपदेश दिये । एक दिन आप अपने पिताजी की समाधि (धांगङवास) के दर्शन करने पधारे । गांव धांगङवास में पिताजी समाधि के दर्शन कर आगे गांव सतलाना में अपने दुख के दिनों में श्रय देने वाली विधवा सुनारी के घर गये ओर सुनारी के चरण स्पर्श किये । उनके कहने के अनुसार रात को वही रुक गये । उसी रात जैसलमेर के भाटियों ने गांव सतलाना में डाका डाला ‌। रोहितदासजी को ज्ञात होते ही भाटियों को ललकारां उससे भाटी भागने लगे । रोहितदासजी ने उनका पीछा किया ओर जोधपुर के करीब 30 कि.मी. पश्‍चिमी में काली जाल नामक गांव के पास जाकर भाटियों को पकङा । भाटियों ने आत्मसमर्पण किया ओर रोहितदासजी को गुरु बनाकर आई भक्त बने । उस समय सतलाना ढाणियों में बसा हुआ था । उस सांतो को शामिल कर गांव सतलाना बसाया ओर आईमाता का मन्दिर स्थापित कर बडेर बनाई । उस मन्दिर में भी अखण्ड ज्योति जलाई । जिस पर आज तक केसर पङता है । अखण्ड ज्योति की लो के उपर कोई धातु का चदर नहीं है। केवल पत्थर का टुकङा लगा है। जिस पर केसर पङता है। जो आज इस कलयुग में भी विधमान हैं। फिर उस विधवा सुनारी से विदा लेकर वापस बिलाङा पधारे । जोधपुर महाराजा दीवान साहब का बहुत आदर करते थे । एक बार जोधपुर महाराजा ने सम्वत् 1667 में एक पत्र लिखा कि तुम शामधर्मी हो । बिलाङा आपको सौंपता हू वहां की देखभाल आप करना । दीवान रोहितदासजी का एक चमत्कार आज भी हे कि कोई वस्तु खो जाये तो रोहितदासजी के नाम का दिया जलाकर मानता मानी जाये तो तुरंत मिल जाता है। स्मरण रहे की आई माताजी ने जब रोहितदासजी को दर्शन व आशीर्वाद दिये तब कहा कि 500 वर्ष के बाद का समय तुम्हारा होगा सो माताजी के 500 वर्ष के बाद गांव बिलाङा के रनिया बेरे पर रोहितदासजी के चोतरे पर भव्य मन्दिर की स्थापना की । इस मन्दिर की विशेषता यह रही कि इसके निर्माण में चंदा मांगने किसी के पास नहीं गये व लोगों ने स्वत ही मन्दिर निर्माण का सहयोग किया । 28 जनवरी 2007 को बिलाङा गांव के पश्चिम में 7 किलोमीटर दूर जोधपुर दरबार व दीवान साहब के जोड के बीच पुर्व में बङे छोटी सी चबूतरी एक मन्दिर बनवा कर श्री भेरोसिंहजी पुर्व उपराष्ट्रपति द्वारा उद्घाटन किया गया जिसमें कई चमत्कारों के साथ एक प्रत्यक्ष चमत्कार ये है छतरी के पास एक विशाल नीम का पेङ है। उसके पते कड़वे नहीं मीठे है। जब मेवाङ की गद्दी पर सम्वत् 1651 में महाराणा प्रताप मेवाङ के राणा थे । तो राणा ने अपने पुर्वज रायमल की प्रतिज्ञा के अनुसार गांव डायलाणा में आईमाता को 50 बीघा जमीन भेंट की थी । जिसका प्रमाण निम्न पत्र है –

।। श्री रामो ज्योति ।।

श्री गणेश प्रशादातु श्री एकलिंग प्रशादातु

‘सही –

महाराजाधिराज महाराणा प्रतापसिंहजी आदेशानु चोधरी रोहिताश कस्य । ग्राम मय्या किध्धों ग्राम डायलाणा बङा माहे खेत 4 चार साली रा लदक आधांट 1 खेत बङ वाली 1 खेत राजावो 1 खेत पटची 1 वाज्योवाङा । 4 भोग कलस 4 अरहट- 1 साणवे सई देसी संवत् 1651 व्रते आसोज सुद 15
इसी प्रकार अपने पूर्वजों की प्रतिज्ञा को महाराणा अमरसिंहजी ने भी सम्वत् 1660 में गांव डायलाणा आईमाता के जमीन भेंट कर पूरा कियां जिसका परवाना निम्न है।

।। श्री रामो ज्योति ।।

श्री गणेश प्रशादातु: श्री एकलिंग प्रशादातु

‘सही –

महाराजाधिराज महाराजा श्री अमरसिंह आदेशानु चोधरी रोहिताश कस्य । ग्राम मवा किधो ।
अरहट किलकण डायलाणा महे ए वि.स. 1660 वर्षॆ आषाढ सुद 1 हुवे श्री मुख । इस प्रकार वर्ष बीते । रोहितादासजी आईमाता की भक्ति करते ओर लोगों की सुख दुख में देखभाल करते । जोधपुर के महाराजा उस समय उदेसिंहजी थे । रोहितदासजी का बङा आदर करते ओर अपना विश्वास-पात्र मानते थे । लेकिन महाराजा उदेसिंहजी के स्वर्गवास होने पर गजसिंहजी को जोधपुर की गद्दी पर बैठाया । गजसिंहजी को इतनी जानकारी नहीं थी । वे तो रोहितदासजी को जानते भी नहीं थे । उन्हें मिलने का मोका ही नहीं मिला था । एक बार किसी चुगलखोर ने जोधपुर महाराजा गजसिंहजी जी को बताया की बिलाङा में दीवान रोहितदासजी अपने धर्म के नाम पर लोगों को लुटते है। इतना सुनते ही महाराजा ने अपना घुङसवार बिलाङा भेजा कि रोहितदासजी को शीघ्र बुलाकर लाये । जब घुङसवार के साथ रोहितदासजी जोधपुर महाराजा के सामने उपस्थित हुये तो महाराजा उन्हें देखते ही आग बबुला हो गये । ओर कहने लगे तुम किसके हुकम से लोगों को लुटते हो । ओर किसके हुकम से बिलाङा का दीवान बने हैं। क्या करामात है तुम्हारे पास । इस पर रोहितदासजी ने बङे विनम्र भाव से कहा में तो कुछ भी नहीं हूं । मै तो आईमाता का दीवान हुं ओर उन्ही के हुक्म से धर्म प्रचार करता हूं । इस पर महाराजा के आदेश से रोहितदासजी को जेल में डाल दिया लेकिन थोङी देर बाद जेल के ताले अपने आप खुल गये । यह देख महाराजा ने लोहरों को हुक्म दिया कि इनके पांव में बेङिया डाल दो जब लोहारों ने बेङिया बनाई तो पांव हाथी के पांव के समान हो गया । जब इतनी बङी बङिया बनाई तो पांव सुई के समान होगा या । इस पर लोहार घबराये ओर रोहितदासजी के चरणों में गिर पङे तथा आईपंथ के डोराबन्द बन गये । आज तक जोधपुर के लोहार डोराबन्द है। जब यह बात महाराजा को मालुम हुई तो दोङे-दोङे आकर रोहितदासजी से माफी मांगी ओर अपनी भुल पर पछताये । ओर कहा की आप मुझे जो हुक्म देंगे वो में करुंगा । इस पर रोहितदासजी ने सबसे पहले जोधपुर में आईमाता का मन्दिर बनवाकर बडेर कायम किया । जो आज दिन तक खांडा फलसा मोहल्ला में है। फिर महाराजा से कहा कि मुझे बिलाङा में मेरी गायों के चरने हेतु जमीन चाहिये ओर उसके पानी पीने हेतु कुआं । इस पर महाराजा ने उसी समय बिलाङा स्थित अपने जोङ का आधा हिस्सा व पिपलिया बेरा दीवान साहब को भेंट किया ।

पायो अरट पिपलियो, आधी पायो जोङ
करे अवर ऐती कमण, रोहितास री होङ ।।

जिस समय रोहितदासजी को जोधपुर बुलाया उस समय से बिलाङा के डोराबन्दी को बहुत नाराजगी हुई ओर वे बडेर के सामने आपस में मर कट कर आत्मदाह करने लगे । इस प्रकार 150 डोराबन्दों ने आत्मदाह कर लिया । जब यह बात बिलाङे के हाकिम को ज्ञात हुई तो दोङा-दोङा बडेर में आया ओर लोंगो को समझाने लगा । आखिर लोगों को रोहितदासजी की सोगन्ध दी ओर रोहितदासजी को तुरंत वापस बुलाने का आश्वासन दिया जब कही जाकर लोग शहीद होना बन्द हुये । ओर इस हादसे की खबर तुरंत जोधपुर महाराजा के पास भेजी । जोधपुर महाराजा गजसिंहजी ने उसी समय बिलाङा स्थित अपने जोङ का आधा हिस्सा व पिपलिया बेरा को दीवान साहब के भेंट चढाने का परवाना बनाकर दीवान साहब को दिया ओर वहां से तुरंत बिलाङा हेतु रवाना किया ।
आधा जोङ पिपलिया बेरा का परवाना ।

।। श्री परमेश्वर जी सत्य ।।
।। श्री कृष्ण जी सहाय ।।

मोहर

स्वास्ति श्री महाराजाधिराज महाराजा श्री गजसिंहजी महाराजा कु. श्री अमरसिंहजी वचनातु चोधरी रोहितास खलमीदास उणे व बिलाङा माहे रोहितास रो जोङ हुतो सुं भांजिनै उन्हाली कराइ तरै निणरे बदले बिलाङा माहै अरहट 1 पीपलीयों पसाइतो दीयो रे रावलो जोङछे तिण माहे आध दीयो । सं. 1692 रा भादवा वदि 2 सु लिखी उगुणपर 4 खण्ड बडीर रा राजसिंहजी ।

जोधपुर से जब रोहितदासजी बिलाङा पधारे तो सब लोग बहुत खुश हुये ओर रोहितदासजी को बधावा कर गांव में लियां उस समय बिलाङा महाराजा के कामदार मानजी भण्डारी थे । उन्होंने आधा जोङ देने की आङ लगा दी । इस पर रोहितदासजी ने कहा कि मेरा घोङा जोङ के बीच से निकलेगा । उस जगह घास नहीं उगेगी तथा मेरा घास का रंग लाल होगा ओर महाराजा के जोङ के घास का रंग सफेद होगा । उनके घास के ऊपर सिट्टा आयेगा ओर मेरे घास पर नहीं ‌। इतना कहकर अपना घोङा जोङ के बीच से निकाला । जोङ दो भागों में बंट गया । आज भी जिस जगह घोङा निकला था वहां घास नहीं उगती हैं ओर दरबार के जोङ का घास सफेद सिट्टे वाला हैं तथा दीवान साहब के जोङ का घास लाल बने सिट्टे का है। जहां पर घोङा आकर रुका था वहां रोहितदासजी का थान स्थापित किया गया जो आज भी दोनों जोङ के बीच में स्थापित है। जहां मंदिर निर्माण किया गया हैं। जिस समय रोहितदासजी को महाराजा ने जोधपुर बुलाया था । उस समय बडेर के सामने 150 आईमाता के भक्त शहीद हुये थे । उनकी यादगार में एक बहुत बङा चबुतरा (शहीद स्मारक) बनवाया गया । जो बडेर के चोक में सरकारी हवाला के पास स्थित था । लेकिन आजकल के जमाने में ऐसे शहीदों की कद्र करने वाला नहीं रहे। ओर उस शहीद स्मारक को हटाकर वहां पर सीरवी समाज का सभा भवन बना दिया गया । सीरवी जाति का गढ़ माने जाने वाला बिलाङा से व आईमाता का स्थान बिलाङा में है । लेकिन समाज के कुछ लोगों ने सीरवी सभा भवन के लिये यही स्थान चुना ओर शहीद स्मारक नष्ट हो गया । आई माता ने आखिर सीरवी नवयुग मण्डल को सद्बुध्दि दी ओर एक ऐतिहासिक स्मारक की पुन: याद ताजा हुई । सन् 1991 में बडेर के सामने सीरवी नवयुवक मण्डल ने दानदाताओं की मदद से सम्वत् 1692 में शहीद हुये 150 डोराबन्दों की यादगार में करीब 71 हजार रुपयों में शहीद स्मारक बनवाया ओर उस पर शीला लेख लगवाया । जिससे आजकल के लोगों को लुप्त हुये इतिहास का ज्ञान होता रहेगा । दीवान रोहितदासजी बङे सिध्द पुरुष हुये हैं जिनकी आज भी पुजा होती है। रोहितदासजी के 6 रानियाँ थी व दस पुत्र थे । (1) पंवार फुलकंवर (2) पडियार प्यारकंवर (3) सिमणजी मानकंवर (4) जादम कनुणकंवर (5) पडियार प्यारकंवर (6) भटियाणी रायकंवर तथा पुत्रों के नाम निम्न हे कनोजी (2) पीथोजी (3) चांदोजी (4) लिखमीदासजी (5) दुदोजी (6) देवराजजी (7) भारमलजी (8) खेतसिंहजी (9) विजैसिंहजी (10) अमराजी । इनमें लिखमीदासजी सबसे बङे थे । जो पङियार प्यारकंवर के उदर से पैदा हुये थे । रोहितदासजी के बाद लिखमीदासजी दीवान की गद्दी पर विराजमान हुये थे । रोहितदासजी ने अपने सब पुत्रों को जीवन यापन के लये एक-एक बेरा दिया था । जो आज तक उनके ही वंश के लोगों के पास हैं ओर अपने नाम से ही वो बेरे आज बिलाङा में विद्यमान है। इस प्रकार आईमाता की भक्ति करते हुये दीवान रोहितदासजी का अङसट वर्ष की आयु में सम्वत् 1694 के पोह सुद 4 को स्वर्गवास हो गया । उनके पीछे छ: रानियाँ सती हुई थी।

यहां पर संक्षिप्त जानकारी लिखी गई हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए श्री आई माताजी का इतिहास नामक पुस्तक ( बिलाडा़ मंदिर में उपलब्ध है ) पेज दृश्य न: ४७ से ५६
पुस्तक लेखक – स्वर्गीय श्री नारायणरामजी लेरचा

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