आठवें दीवान श्री कल्याणदास जी

जन्म – सम्वत् 1734

पाट – सम्वत् 1773  आषाढ़ सुद 10 वैशाख सुद 7

विवाह – सम्वत् 1758

स्वर्गवास – सम्वत् 1792  सावण वद 13

दीवान भगवानदासजी के स्वर्गवास होने की खबर जब जोधपुर महाराजा अभेसिंहजी को मिली तो वे बहुत दुखी हुये और कल्याणदासजी को धैर्य बंधाया और पत्र लिखा ।

। श्री परमेश्वर जी सहाय छे ।।

मोहर सही

स्वारूप श्री अनेक सकल ओपमा विराजमान महाराजाधिराज महाराजा श्री अजीतसिंहजी महाराज कंवर श्री अभेसिंहजी देव वचनातू चौधरी कल्याणदास दीसे सु प्रसाद वाचजो तथा अरज दासत आई ने भगवानदास देह छोड़ी तिणरी अरज लिखी थी । सु मालूम हुई ईश्वर रो चाहो थो सो हुवो । तूं किणी बात रो दिलगीरी मत करे । म्हे थाहरे बाहत मेहरबान छा । तूं खातर जमा राखने हजुर आये हुकम छे । सम्वत् 1773 रा प्रथम जेठ सुद 10 मुकाम गांव पीवर तोड़े ।
इसी प्रकार का पत्र उदयपुर महाराणा संग्रामसिंहजी ने भी दीवान कल्याणदासजी को लिखा था ।

।। श्री रामो जयति ।।

श्री गणेश प्रशादातु श्री एकलिंग प्रशादातु

( सही )

स्वास्ति श्री उदेपुर सुथाने महाराजाधिराज महाराणा श्री संग्रामसिंहजी आदेशातु । चो. कल्याणदासजी कस्य ।अप्र अरदास आयी तथा चौधरी भगवानदासजी रामसरण हुवा तिणरो विवरो लिख्यो ‌। सो मालुम हुवो। जिनता मत करो । ये दरबार रा हो । सम्वत् 1773 रा प्रथम जेठ वदी 8 भोमे।कुछ समय बाद जोधपुर महाराजा जालोर विराजते थे। उस समय दीवान कल्याणदासजी को जालोर बुलाया। और वहीं पर दीवान साहब के डेरे पधारकार महाराजा ने मातम पुरसी की रस्म अदा की थी।मातम पुरसी की विगत  श्री जी महाराज जी मुहकांण रे वास्ते राज श्री कल्याणदासजी ने डेरे पधारिया। इतरो निज किधो ।

1000/- नकद ऐन रावली सुपारी तासली से घात ने मुंहडा आगे मेलिया ।
601/- घोड़ा 2 निजर किधा विगत ।
300/- खरीद तुरकी पीलो दिल्ली रो ।
301/- बछेजो बाजराज खाना जाद ।
120/- बहलीया दोय वगेड़ा देसी ।
5/- निछरावल
1726/-

श्री जी फुरमायो थे छोय छो खातर जमा राखजो । ने साये उमराव था तिण कहो कल्याणदासजी ये बड़ा बख्तावर ने श्री जी थासु बहुत मेहरबान हुआ। वासगो वागो श्री जी पहरियो थाने जरकस री पाग हिरा मोती पहरीया बड़ो बणाव ने श्री कल्याणदासजी रे डेरे जायगा में हुतो पाछा आधी उपर घड़ी 4 बाजी तरे पधारियां श्रावण वद 2 रविवार मुकाम जालोर सम्वत् 1774।दीवान कल्याणदासजी का विवाह कंवर पद में हुआ था । उस समय दुर्गादासजी व अजीतसिंहजी दुख के दिन काट रहे थे । इस पर भी उन्होंने न्योता भेजा था और बहुत प्रसन्नता जाहिर की थी ।
225) श्री महाराजा अजीतसिंहजी जालोर से भेज हस्ते सांखला कान्हा
25) सिरपाव 7 ) पांगा कस्बी ।
10) दुर्गादासजी भेजिया हस्ते मूता सुखा ।इसी प्रकार उदयपुर से भी न्योते आये थे ।
301) महाराणा अमरसिंहजी भेजिया घोड़ो एक तुर्की नीलो कमेत कीमत 300)
11) पागा 5) बाशती 5) पांगा सूथण दोय ।
महाराणा उदयपुर दीवान कल्याणदासजी पर बहुत प्रसन्न थे । महाराणा ने पांच गांव काटकर कल्याणदासजी गांव बसाने की आज्ञा देकर बख्सीस किये थे ।

।। श्री रामो जयति ।।

श्री गणेश प्रशादातु श्री एकलिंग प्रशादातु

( सही )

महाराजाधिराज महाराणा श्री संग्रामसिंहजी आदेशातु चौधरी कल्याणदासजी भगवानदास कस्य‌। ग्राम मया किधी विगत। गांव आडावडया रो खेड़ो उजड़ है । से इ चार गामा री कांकण माहे वसावोगा प्रगने गोढ़वाढ़। नवो हुकम विगत गामा रा कांकड़ जण विवे। 1 गांव खीमेल 1 गांव देवतरा 1 गांव ब्राह्मी 1 गांव अकवाड़ो ‌। इण खेड़ा रो नाम कलयाणपुरो हुक्म परवानगी पंचोली बिहारीदास एवं सम्वत् 1771 वर्ष आसाढ़ सुद 11 शुभ्रे। यह गांव कलयाणपुरा कल्याणदासजी को कुंवर पदवी में ही मिला था। जिससे इस गांव को बसा नहीं सके थे। जब कल्याणदासजी दीवान की गद्दी पर विराजे तब दूसरा परवाना दिया था। एक बार श्रावण के महीने में दीवान कल्याणदासजी जोधपुर महाराजा के पास ही थे। उस समय बादशाह ने महाराजा साहब को दिल्ली चलने को कहा । दीवान साहब ने दिल्ली चलने की बात स्वीकार की और कहा कि मैं पहले बिलाड़ा जाकर कामकाज देखकर वापिस आकर आपके साथ चलूंगा । उसके दुसरे रक्षा बन्धन का त्योहार था। रक्षा बन्धन के दिन महाराणी च्वाणजी ने दीवान कल्याणदासजी को राखी बांधकर धर्म भाई बनाया था । महाराणी जी ने बड़ारन नाथी के साथ दीवान साहब को राखी भेजी थी । दीवान कल्याणदासजी ने सहर्ष राखी स्वीकार की और 115 रुपये बड़ारन नाथी को दिये तथा अपनी धर्म बहन महाराणी च्वाणजी के आठ मोहरे सवाग की भेजी । बाद में महाराजा से बिलाड़े जाने की आज्ञा मांगी । इस पर महाराजा ने कहा कि आज आप यही रुक कर जावो कल में तुम्हें हाथी इनायत करुंगा। फिर बिलाड़ा जाना । दूसरे दिन सम्वत् 1774 के भादरवा वदी 5 शुक्रवार को महाराजा ने दीवान कल्याणदासजी को हाथी इनायत किया। 250 ) दीवान कल्याणदासजी को हाथी इनायत किया । जर निछारावल हाथी पर सवारी डेरे आये।200 ) 50 ) 3 ) गुड़ा बांटा हाथी के तिक महावत को फुटकर 1 ) 1 ) 1 )हाथी इनायत होने के बाद दीवान साहब ने बिलाड़ा आने की आज्ञा मांगी । महाराजा ने खुशी से आज्ञा प्रदान की । दीवान साहब अपनी हवेली पधारे । और खुशियाँ जाहिर की । ठाकुर लोगों ने निछारावले की । उनके बाद हाथी पर सवार होकर बिलाड़ा पधारे बिलाड़ा नगरवासियों ने खुब खुशियाँ मनाई । और गाजों बाजों के साथ दीवान साहब का पुरे गांव में हाथी की सवारी के साथ जुलूस निकाला गया । और बधावा कर गांव में लिया । कुछ दिनों बिलाड़ा रहने के बाद वापिस दिल्ली जाने हेतु जोधपुर पधारे और महाराजा से मिले ।
महाराजा साहब दीवान साहब को साथ लेकर दिल्ली के प्रस्थान किया । जोधपुर से रवाना होकर पहले बिलाड़ा में विश्राम किया । बिलाड़ा पधारने पर महाराजा ने सर्वप्रथम आई माता के दर्शन किये व ज्योति के लिए घृत भेंट किया । बिलाड़ा से रवाना होकर आगे रास्ते में मुकाम करते हुवे दिल्ली पहुंचे । तीन चार माह तक दिल्ली में बादशाह के पास रहे । उन्हीं दिनों उदयपुर महाराजा पा पत्र मिला । जिसमें दीवान साहब को उदयपुर आने का लिखा था । पत्र प्राप्त होते ही दीवान साहब महाराजा की आज्ञा लेकर उदयपुर रवाना हो गये । 5) रुपये नजर किये। साथ ही कए बछेरा अवलख ढाई साल का भेंट किया । उदयपुर में खास उमरावों में बैठक दी। उस समय कुंवर पदमसिंहजी भी साथ थे।दीवान कल्याणदासजी चित के बड़े उदार थे व खर्च खाता तथा मेहमानबाजी में दिल खोलकर खर्च करते थे । जिसका प्रमाण है उनकी पुत्री कुशलकंवर के विवाह में जो खर्चा किया था उनका विवरण निम्न प्रकार है। यह विवाह संवत् 1782 के वैशाख सुद 15 को हुआ था। गुड़ 572 मण रु. 2069, घीरत 461 मण, पात 411 सेर लेखे 4089 रु. , मूंग 771 मण प्रत 1 मण लेखे 771 रु. , चीनी 118 मण, दलिया 533 मण, बाजरी 460 मण, मेवा 121 सेर इतना तो खाद्य पदार्थ व्यय हुआ । रोकड़ रुपये और अन्य साज सज्जा पर लाखों रुपये खर्च किये थे । इस विवाह में निम्न प्रकार न्योते आये थे

450) रु. जोधपुर महाराजा अभयसिंहजी

340) रु. महाराजाधिराज बखतसिंहजी नागौर ने भेजे । नवाता में घोड़ो 1 नीलो, सिरपाव, पाग, पोतिया, खीनखाब ।

500) महाराणा संग्रामसिंहजी ने उनके प्रतिष्ठित मित्रों के साथ भेजे श्री महकरण जी ने 1 घोड़ा भेजा ।

90) मेड़तिया ठाकुर अभेजराज जी सवाण के साथ रोकड़ भेजे ।

100) राज देवकरणजी घोड़ा एक ने नकद 100 रुपये।

111) राज श्रीर चेनकरणीजी बोडाणा वारसलजी रे साथे भेजे ।

20) बोडाणा वारलजी रा धरु ।

12) राठोड़ रुगनाथसिंहजी ।

चवाण प्रतापसिंहजी चत्र भुजोत घोड़ो भेजियो ‌। महाराणा कछवाह जी सवाग और रोकड़ रुपया भेजिया । महाराजा बखतसिंहजी, दीवान कल्याणदासजी से बहुत खुश थे और वे हमेशा आदर देते थे । एक बार महाराजा साहब बिलाड़ा पधारे। तब दीवान साहब ने खुब स्वागत सत्कार किया । पीला महल में ठहराया और बहुत अच्छी गोठ दी । जिसमें 500) रुपये खर्च हुये । उन्हीं दिनों एक उरजा नामक डाकू मारवाड़ व नागौर के गांवों में डाका डालने लगा था । उस डाकू से जनता अत्यंत भयभीत हो गई थी । जब महाराजा को इस डाकू के बारे में शिकायतें मिली तो महाराजा ने एलान कर दिया कि जो कोई. डाकू उरजा को जिन्दा या मूर्दा पकड़ कर लायेगा उसे अच्छा ईनाम दिया जायेगा । जब यह बात दीवान कल्याणदासजी को ज्ञात हुई तो उन्होंने तुरंत डाकू उरजा का पीछा कर मार दिया । जिससे महाराजा बहुत खुश हुए और कहा कि तुम्हारा घराना हमेशा स्वामी भक्त तथा जनहितकारी रहा है । मैं तुमसे बहुत खुश हूं । ऐसा कहकर महाराजा ने 220 रुपये इनाम के दिये । उसके कुछ दिनों बाद महाराजा बिलाड़ा पधारे। महाराजा ने सबसे पहले आई माता के दर्शन किए और पूजा पाठ के खर्च हेतु बिलाड़ा के सर्वोपरि बेरे दो बेरे ( भादरवा व बिजुड़िया ) आई माता के भेंट चढ़ाये।कुछ समय बाद एक बार महाराजा दीवान कल्याणदासजी को साथ लेकर राजगढ़ पधारे । राजगढ़ पहुंचने पर पीछे से पत्र मिला कि मारवाड़ में कुछ असामाजिक तत्व गड़बड़ियां कर रहे हैं और भारी लूट खसोट मचा रखी है । ऐसा पत्र प्राप्त होते ही महाराजा ने तुरंत दीवान साहब को वापिस मारवाड़ भेजा । दीवान कल्याणदासजी राजगढ़ से रवाना होकर मारवाड़ आये और लूट खसोट करने वालों को मार भगाया । जिससे पूरे मारवाड़ में शांति हो गई । तब तक महाराजा राजगढ़ से जहानाबाद पधार चुके थे । जब जहानाबाद से महाराजा को यह खबर मिली कि कल्याणदासजी ने लुटेरों को मार भगाया है तो महाराजा ने खुशी जाहिर की और जहानाबाद से ही सोने के लंगर व 300 रुपये कल्याणदासजी को भेजें । कल्याणदासजी वीर ही नहीं, खेती बाड़ी में भी दक्ष थे । महाराजा को उन पर बहुत भरोसा था ।

।। श्री परमेश्वरजी सहाय छे ।।

मोहर सही हुकम से

स्वारुप श्री राज राजेश्वर महाराजाधिराज महाराजा श्री अभेसिंहजी देव वचनासु। चौधरी कल्याणदासजी दीसे सु प्रसाद वाचजो । तथा धोहरी हकीकत भण्डारी अनोपसिंघ लिखो छे हासल रो घणो जावतो करे छे । इण बात में थोहरो मुजरो हुवो । फेर जावतो पोहवने करजो । अठारी तरफ सूं खातर खुस्याली राखजो ‌। हुकम छे । सम्वत् 1784 रा मिगसर वद 10 सूं जहानाबाद। उदयपुर महाराणा और जोधपुर महाराजा के रियासती कामकाज कल्याणसिंहजी की सलाह से हुआ करते थे । दोनों रियासती को आप पर पूरा विश्वास था जिसका प्रमाण निम्न पत्र है –

।। श्री रामजी ।।

सिध श्री डायलाना सुभ सुथानेर सरब ओपमा, चौधरी जी श्री कल्याणदासजी कंवर पदमसिंहजी योग्य श्री उदेपुर थी धाव भाई जी श्री नगराज जी लिखन्तु जुहार वांचजोजी । अठारा समाचार भला है । राज रा सदा भला चाहिजे जी । राज म्हारे धणी बात छो । सदा हेतु इकदास रखावो । जिण था विशेष रखावजो जी। राज रे ने दिखाणियां री फोज रे राड वेवारो विवरो लिखियो थो। अह समाचार इठे पण या है जी । अठे थांसु दुजी बात न छे । मिति आसाढ़ सुद 13 सम्वत् 1785 रा।दीवान कल्याणदासजी तीरं अन्दाज में भी बहुत अच्छे थे तथा आपके कंवर पदमसिंहजी भी अच्छे बाणवली थे । उदयपुर के महाराजा तीरं अन्दाजी सीखने के लिये कंवर पदमसिंहजी को अपने पास रखकर उनसे तीर चलाना सीखते थे । अतः कंवर पदमसिंहजी तीरंदाजी में महाराणा के गुरु माने जाते थे । विजयादशमी को हर वर्ष तीरंदाजी की हाजरी देने कंवर पदमसिंहजी अपने पिता कल्याणदासजी के साथ उदयपुर जाया करते थे । यदि किसी कारणवश विजयादशमी के पर्व पर उदयपुर नहीं पहुंच पाते तो महाराणा तत्काल पत्र लिखते थे । पत्र की नकल निम्न है –

।। श्री रामो ज्योति ।।

श्री गणेश प्रशादातु       श्री एकलिंग प्रशादातु

( सही )

स्वस्ति श्री उदेपुर सुथाने महाराजाधिराज महाराणा श्री संग्रामसिंहजी आदेशातु चौधरी कल्याणदासजी कस्य । अप्र थे हजू अरज मालम करे गया था । सो दशरावा उप्र हूं तथा म्हारो बेटो तीरन्दाज है। अवल हिरण ले हजूर आउगा सो न तो थो न थारो बेटो न हिरण आयो । इसी प्रवानादिष्ठ थे तथा थारो बेटो ने, अव लहिरण ले हजूर आवजो । ढील मत करो । सम्वत् 1776 वर्ष दुतिक आसोज वदी 7 शुक्रवार सुभ्र ।  दीवान कल्याणदासजी वीर, परोपकारी बहुत थे । उनकी प्रशंसा जितनी की जाय थोड़ी है। हर क्षेत्र में आप दक्ष थे । उनकी विशेषता की प्रशंसा निम्न छप्पय में की गई है –

कमधजियो कलियाण, करे सु सबद धर कीधो ‌।
पोखे लखां अपार लखां, मुहडे जस लिधो ।।
खड़ो न होवे खम्भ, शाहाधाका आलम सह ।
कर वटका कलियाण, ताम नाभ सुख किधो तह ‌।।
दिन दि प्रवाड़ किध टुझल, सुख सेण सामाकियो ।
कोढ़िया किया निकलंक तन, सरणाया दुख कापियो।।
अनत प्रवाड़ा इसा, किया कमधज कलियाणे ।
परचा दिया अपार, जके सेह आलम जाणे ।।
वचन साच विधवन्त, विजड़ बुधवन्त महाबल ।
इल कको आचार खंगा, खोगाला किया खल ।।
अणधक अछेह आणंडिग, अघट वल अखुट नित प्रकतवरे ।
बीलपुर नगर धर बास, बंध कलो एम राजस करे ।।

उदयपुर के महाराणा श्री जगतसिंहजी मेवाड़ की गद्दी पर विराजे तो सर्वप्रथम अपने पूर्वजों की प्रतिज्ञानुसार आई माता को 50 बीघा जमीन भेंट की थी । जिसका परवाना निम्न है –

।। श्री रामो जयति ।।

श्री गणेश प्रशादातु श्री              एकलिंग प्रशादातु

( सही )

स्वस्ति श्री उदेपुर सुथाने महाराजाधिराज महाराणा श्री जगतसिंहजी आदेशातु-चौधरी कल्याणदासजी भगवानदासजी कस्य । अप्र धरती बीघा 50 पचास गांव डायलाणे परगने गोड़वाड़ रे पटे राठोड़ अभेराम सांवल दासोत रे जणी माहे पड़त धरती टीला री पावो ‌। सो पटायत राठोड़ अभेराज भरे देगा ‌। पेहली पीढ़ी च्यार महाराणा श्री राजसिंहजी थी सो महाराणा श्री संग्रामसिंहजी सुधी रा परवाना निजर हुवां जणां प्रवाना प्रमाणो मय्या किधी । सो कुडो नवो दिवायल्यो गया । पड़त धरती पद दांखल मया किधी । प्रवानगी पंचोली बिहारीदास सम्वत् 1792 वर्ष सावण वदी 4 सिनु।दीवान कल्याणदासजी के बड़े पुत्र दौलतसिंहजी बड़े कठोर स्वभाव व झगड़ालू प्रवृत्ति के होने के कारण यहां के उमरावों ने सोचा कि दौलतसिंहजी दीवान के योग्य तो है नहीं इसलिए इन्हें इडर दरबार के पास भेज दो । यह विचार कर दीवान कल्याणदासजी ने दौलतसिंहजी को इडर दरबार के पास भेज दिया इडर दरबार में उन्हें अपनी फौज में रखा ‌। एक समय युद्ध में दुश्मनों से लड़ते हुए शहीद हो गये । यह समाचार बिलाड़ा में मिलते ही उनकी पत्नी सती हो गयी ।

सुत हुओ दोलतसिंह, उचभ भकक गिण धींग ।
तिण करे तीरथवार, मण्ड मानपुर मंझार ।
पिय संग परमार, सझी सही मत सिणगार ।
कही कंवर चोसंग कीध, दिल धमल होते दधि ।।
तेजा सुध तिणवार, जाय मिली सुरंग मझार ।

दीवान कल्याणदासजी अपने (आई पंथ) के कट्टर अनुयायी थे । वे जो वचन कहते थे वो आई माता की कृपा से सत्य होते थे आप भविष्य वक्ता भी थे । उदयपुर महाराणा कल्याणदासजी की बात को मिथ्या नहीं मानते थे । दीवान कल्याणदासजी ने अपनी मौत की भविष्यवाणी पहले ही कर दी थी । जो समय आने पर सत्य सिद्ध हुई ।

सम्मत सतर सईक , मास सावण वद तेरसं
कलोताम सुरलोक, चकी इन्द दूजे एरस ।।
मांध सीख राणसु कहे परलोक तणी कथ ।
अवावसां श्रग अवे, सती त्रण हुसी करे सथ ।।
इस कहे आय बीलह नगर, रेण करे धम पुनिरुचिर ‌।
सुझ प्रात समे वोहतो सुरग, अवतारी आई उचर ।।

दीवान कल्याणदासजी के पांच रानियां थी । (1) कायमदे भटियाणी (2) केसरकंवर सांखली (3) किसनाकंवर परमार (4) दाखाकंवर चवाण (5) कसुम्बाकंवर पोडियार तथा पांच कंवर थे । (1) चतुरसिंहजी (2) पदमसिंहजी (3) विजयसिंहजी (4) कैनदासजी (5) दौलतसिंहजी । इन सबसे दौलतसिंहजी सबसे बड़े थे । लेकिन उन्हें पहले ही इडर दरबार के पास भेज दिया था । जहां पर वे युद्ध में काम आ गये थे । उसके बाद उनसे छोटे पदमसिंहजी जो योग्य भी थे । उन्हें दीवान की गद्दी पर बैठाया गया था । दीवान कल्याणदासजी ने अपनी मौत की जो भविष्यवाणी के अनुसार दीवान कल्याणदासजी का स्वर्गवास संवत 1792 के श्रावण वद 13 सोमवार को जोधपुर में हुआ था ।

 

यहां पर संक्षिप्त जानकारी लिखी गई हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए श्री आई माताजी का इतिहास नामक पुस्तक ( बिलाडा़ मंदिर में उपलब्ध है ) पेज दृश्य न: ७९ से ८८  पुस्तक लेखक – स्वर्गीय श्री नारायणरामजी लेरचा

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