नौवें दीवान श्री पदमसिंह जी

जन्म – संवत् 1766
विवाह – संवत् 1790 ( यह पांचवा विवाह था )
पाट – संवत् 1792
स्वर्गवास – संवत् 1824 श्रावण वद 13 आसोज सुद 12

दीवान कल्याणदासजी के स्वर्गवास हो जाने पर दीवान की गद्दी पर संवत् 1792 में पदमसिंहजी विराजे थे । उस समय उनकी आयु 26 वर्ष थी । बाण विद्दा में आप अपने पिता के समय से ही निपुण थे। साथ ही जोधपुर महाराजा व उदयपुर महाराणा आप पर पहले से ही बहुत खुश थे। दीवान कल्याणदासजी के स्वर्गवास की खबर जोधपुर महाराजा को जहानाबाद में मिली थी । महाराजा साहब कल्याणदासजी को बहुत चाहते थे । जब उनके देहान्त की खबर मिली तो महाराजा ने बहुत रंज किया और जहानाबाद से ही शोक पत्र भेजा महाराजा ने जो पत्र दीवान कल्याणदासजी के शोक में दीवान पदमसिंहजी की लिखा था वो निम्न प्रकार है।

।। परमेश्वर जी सहाय छे ।।

( सही )

सिध श्री बिलाड़ा सुथाने चौधरी जी श्री पदमसिंहजी योग्य जहानाबाद था। मु. गोपालदास लिखतुं जुहार वाचजो। आठारा समाचार श्री जी रा तेज प्रताप कर भला छे। राज रा सदा भला चाहिजे। अप्र राज महा सूं सदा प्यार हत राखो तिण था विशेष रखावसी अप्रंच राज रो कागद आयो समाचार वाच्या राज लिखियो थो कि चौधरी कल्याणदासजी श्रावण वद 13 राम कहो ‌। सूं परमेश्वर सू कोई जोर नहीं है। ईश्वर रो चाह्हो हुयो । राज लायक छे । और हकीकत सारी म्हे श्री हजूर मालुम कीवी छे । श्री जी दिलासा फुरमाई छे । प्रवानो राज ने इनायत हुवो छे। मा. गिरधरदासजी रा कागद में घांल मेयिला छै। सू पोहचसी म्हांसू कहणो आई सूं हकीकत सारी श्री जू नं मालम किवी छे। राज अठारी तरफ सूं भांत भांत कुसाली रखाजो । काम काज होवे वो लिखावसी बहुड़ता कागद सदा दिरावजो। भादवा वद 9 सम्वत् 1792। दीवान पदमसिंहजी ने अपने पिता कल्याणदासजी के पीछे ज्याग बहुत भारी किया था। इससे आपकी बहुत बढ़ाई हुई थी। महाराजा अभयसिंहजी दीवान पदमसिंहजी को मातम पुरसी की रस्म अदा करने हेतु जहानाबाद बुलवाया था पदमसिंहजी महाराज के बुलावे पर तुरंत जहानाबाद गये। जहां पर महाराजा अभयसिंहजी ने रीति रिवाज के अनुसार दीवान साहब के डेरे पधार कर मातम पुरसी की रस्म अदा की थी। घोड़ा सिरपाव, कड़ा, मोतियों की कंठी मर्यादा अनुसार दिये पदमसिंहजी स्वरूपवान अधिक थे । जिस समय मातम पुरसी की रस्म अदा हुई थी उस समय परंपरानुसार पोशाक धारण किए हुए थे । उस पोशाक में उस समय दीवान पदमसिंहजी अत्यंत स्वरूपवान दिखाई पड़ते थे । उस समय महाराजा ने पदमसिंहजी को देखकर फरमाया कि तुम्हारी तो मोहन मूर्ति है । हंसी से मैं तुम्हें मोहनदास के नाम से पुकारूंगा। यह कह कर महाराजा ने सब जगह यह आज्ञा प्रसारित करवा दी कि दीवान पदमसिंहजी को आज से मोहनदासजी के नाम से पुकारा जाए । तभी से आपका नाम मोहनदास पड़ गया ।

।। छप्पय ।।

रेय सकल वडरीत, ज्याग आरंभ रचायो ।
पदमसिंघ अवतार, सकलगत मृत मन भायो ।।
गंगा तीर मुकाम, महा छतरी मन रंजन ।
कलश चढाय प्रतिश्ट, कोध भवके भ्रम भंजन ।
अभिशेष प्रथम विधं करदई अब अभमाल मिलं सकियो ।
मरुधरा धीस दिल्लेस, जित पदम पहुंचे कुरब लियो ।।
आज्ञा लिख अजबेस, झतब अरजी दरसाई ।
अभ महारा जस लोभ, वात भ्रते फुरमाई ।।
तबे भाण ततकाल, व्यास प्रोमत पे आवे ।
खुनी गुनी समान, कही केसे भ्रम लावे ।
जगनाथ कही धम शामरी, सदा फते फुरमावसी ।
कलियाण पाट पदमेसरे, मातम पुरसी आवसी ।।
महाराजा अभमाल, पदम डेरे पधराया ।
मातमपुरसी कराय, अस्व नजरे गुदराया ।।
नाम जु मोहणदास, मुखां कमधेस कहायो ‌‌।
दो घोड़ां, सिरपाव, कड़ा मोती मन भायो ।।
दिय विदा रीत मरजाद सूं अर अबं आखण कियो ‌।
पुरबील आय हरखाय घण, मान व्यास भृत जसलियो ।।

मातमपुरसी की रस्म अदा होने के बाद जब दीवान साहब बिलाड़ा पधारे तो उदयपुर महाराणा ने उन्हें बुलाया । महाराणा तो दीवान पदमसिंहजी पर कुंवर पद से ही खुश थे । उन दिनों मेवाड़ के रजवाड़ों पर ‘टका’ की लाग लगती थी । इस टके की लाग को दीवान पदमसिंहजी ने उदयपुर महाराणा से माफ करवाई थी । जिसका प्रमाण निम्न परवाने से मिलता है ।

।। श्री रामो जयति ।।

श्री गणेश प्रशादातु श्री एकलिंग प्रशादातु

( सही )

स्वस्ति श्री उदेपुर सुथाने महाराजाधिराज महाराणा श्री जगतसिंहजी आदेशातु चौधरी पदमसिंहजी कस्य।अप्र थाहरे दरबार रो टको रा रु 6001 रू. छव हजार एक हुआ था । सो माफ हुवा है। सो साबत है। प्रवानगी धाव माई देवा संवत् 1773 वर्षे माह सुद । उदयपुर महाराणा के टके की लाग माफ करने से सबको अत्यन्त प्रसन्ता हुई । और दीवान पदमसिंहजी की प्रशंसा करने लगे ।

तखत कलारे नाम, मोहणदास महावबली ।
नव खंड पृथ्वी नाम, आई गादि ओपियो ।।
सागे अंग सभाव, गत नायक भारी गुणा ।
दिल उकल दरियाव, रिधधारी राजस करे ।।
बड़ा लियण पाखाण, बड़ा बंडाला वदिया ।
जुगत सकल विध जाण, रोहत जिस मोटी रती ।।

मेवाड़ में उन दिनों ऐसा कुरूब था कि उदयपुर महाराणा की विनती में घोड़ा नजर करना पड़ता था । दीवान पदमसिंहजी ने भी निवते का घोड़ा नजर किया था । इस पर महाराणा ने दीवान साहब को घोड़े की पहुंच का पत्र दिया जो निम्न प्रकार हैं ।

।। रामो जयति ।।

श्री गणेश प्रशादातु श्री एकलिंग प्रशादातु

( सही )

स्वस्ति श्री उदेपुर सुथाने महाराजाधिराज महाराणा श्री जगतसिंहजी आदेशातु चौधरी पदमसिंहजी कस्य। अप्र अरदास आई समाचार मालुम हुवा। नोहता रो घोड़ो मोकलयो सो नजर हुवो। संवत् 1796 वर्ष श्रावण वदी 7 वार सोम।एक बार सं वत् 1801 में गोड़वाड़ के ग्राम मंडल में सीरवियों और वहां के ठाकुर के आपसी मनमुटाव हो जाने के कारण समस्त मांडल के सीरवी गांव छोड़कर चले गये ( इसे छुड़ाना कहते थे ) गांव पूरा सुनसान हो गया । सब बेरे खेत बिना बोवाई किये पड़ रह गये। ठाकुर की आमदनी कम हो गई। उन्होंने सीरवियों को बहुत समझाया लेकिन वे माने नहीं। आखिर मांडल के ठाकुर सुरताणसिंहजी ने दीवान पदमसिंहजी (मोहनदासजी) के पास जाकर उन्हें सीरवियों को समझा कर पुनः मांडल में बसाया । ठाकुर सूरतसिंहजी अत्यंत खुश हुए और आई माता के धुप दीप के लिए एक बेरा भेंट चढ़ाया ।

।। श्री माताजी प्रशादातु ।।

( सही )

राजि श्री सुरतानसिंहजी कंवर श्री उमेदसिंहजी लिखावांतू गांव मांडल मैं सीरवी लोक वसता न था। तलाख थी । सो हमार राजि श्री मोहनदासजी, गांव मांडल मैं सीरवी लोगा नु बसाया तो अरट 1 खिदावो श्री माताजी नु केसर रो चढ़ायो छे सो इण अरट रो भोग आवसी सो श्री माताजी ने केसर चढ़सी ओ अरट श्री माताजी रो छे। संवत् 1801 जेठ सुद 2 लिखत सुजग साख । मद्रचावाण जी रो छे।
संवत् 1807 में जोधपुर महाराजा रामसिंहजी बिलाड़ा पधारे और सर्वप्रथम आई माता के मंदिर में दर्शन करने पधारे दीवान साहब ने महाराजा की खूब खातिरी की । उस समय महाराजा साहब ने आई माता के धूप दीप के खर्चे हेतु बिलाड़ा में बेरा उगणिया भेंट चढ़ाया । जिसका प्ररवान निम्न है ।

मोहर

स्वस्ति श्री श्री राजराजे महाराजाधिराज महाराजा श्री रामसिंहजी देव वचातु कसबे बिलाडत्रे सीरवियां रे बडेर श्री आईजी रे थान दरशण नूं पधारिया जद अरट। एक उगवणियो दरबार रो केसर नू चढ़ायो छे सो पसायतो वाया जावसी हुकम छे । संवत् 1807 रो पोह सुद 4 मु. गांव खारीये। संवत् 1820 में उदयपुर महाराणा जगतसिंह से गोडवाड़ के सीरवी नाराज होकर करीब 2000 सीरवी जालौर चले गए । जिससे मेवाड़ के महाराणा को चिंता होने लगी। उन्होंने दीवान पदमसिंहजी को पत्र लिखा कि आप किसी तरह सीरवियों को मना कर जालौर से वापस लाकर पुन: गोडवाड़ में बसाइये । सीरवी केवल आप ही की बात मानते हैं । महाराणा का पत्र मिलते ही दीवान पदमसिंहजी तुरंत जालौर गए और सीरवियो को समझा कर पुनः गोडवाड़ में लाकर बसाया । इससे महाराणा बहुत खुश हुए ।

।। श्री रामो जयति ।।

श्री गणेश प्रशादातु श्री एकलिंग प्रशादातु

( सही )

स्वस्ति श्री उदेपुर सुथाने महाराजाधिराज महाराणा श्री जगतसिंहजी वचनातु। चौधरी पदमसिंहजी कस्य। अप्र पडगना गोडवाड़ रा गामा रा सीरवी छोड़ने जालोर आया ने पाग बांधे । जालोर जाय थां सो नु बिलाड़ा थी दोड़े आवे गोडवाड़ रा गाम में ने सीरवियां थी साथी दिलासा करे । गोडवाड़ रा गामा से था राख्या ने जावा दीधा नही सो इणी बात में थारो मुजरो हुवो ने तो अरज कराई सो गांव एक दोय उजड़ पड़या व्हे ने जणी गाम में धरती धणी व्हे ने तालाब कुवां नहीं व्हे ने पड़त वहे ‌। दरबार माफक हासल बंद बेठतो व्हे सो मोहे सोपावतो धरती हकावे । दरबार हासल वदे सो हुकम है सोनु गाम अटकल से तो हे । ग्रा मसोपायगी सो गांमा री जमायत हुवा हासल आया थारो मुजरो व्हेगो । ने दिवावेगो । जे जणी गाम री जमीयत करोगो सो बांटो दुट मेल तूं कहेगी जणी प्रामणे दे ने गोड़वाडत्र रा गामा रा सीरवी सारा नातवान है सो बोहरो बरताव सुं दिलासा रा ने बरस 3 हुवा नादारी थी जो हासल उपज्वां माफक दस्तुर बंधाय दीजो । प्रवानगी पंचोली छाजु संवत् 1821 वर्षे जेठ सुद 7 रा।
दीवान पदमसिंहजी इंदौर मल्हार राव के भी अच्छे मित्र थे । दीवान साहब अक्सर अपने पट्टे के गांव आमद, हासलपुर अलहेर ( जो रामपुरा के राव जी के द्वारा माधवजी को दिए हुए थे ) जाते थे तथा इंदौर के मल्हार राव से मिलते थे । मल्हार राव के वहां इनकी अव्वल दर्ज के सरदारों में बैठक थी । इंदौर राव जी दीवान पदमसिंहजी को पत्र लिखते समय राज श्री मोहनदासजी लिखा करते थे । इन्दोर मलहार राव के साथ आपने कई बार युद्ध में भी वीरता दिखाई थी। कुंवर हरिदासजी भी कई बार पदमसिंहजी के साथ इंदौर गए थे । मल्हार राव हरिदासजी को बहुत चाहते थे । वह कहते थे कि ये बड़ा होनहार व वीर पुरुष होगा। दीवान पदमसिंहजी के पास एक वेगवान हाथी था। संवत 1818 में धाव भाई जगन्नाथजी के विवाह में इस हाथी को मांग कर ले गए थे। लेकिन जगन्नाथजी ने हाथी वापस नहीं लौटाया इस पर दीवान पदमसिंहजी ने महाराज विजेसिंहजी से कहा तो महाराज ने जगन्नाथजी से हाथी पुन: लौटवाया । एक बार महाराजा की आज्ञा से दक्षिणीयों पर चढ़ाई की थी । उस युद्ध में आपने जो वीरता का परिचय दिया था । उसे दक्षिणियों के दांत खट्टे हो गये । और उन्होंने पदमसिंहजी की खूब प्रशंसा की ।

हे वालां हुकले कट्टा पेखंडा कमालां
गे खंभा हिन्दुले, रुले गल झिर तिरमाला ।।
मद कपोल भल हले, तला रुलहले ओरा ।
भमर त्रुतां भयाहणे, घ्ररण मद मत रस घेरा ।।
ललवतां सूंड डूंडालिया, करे गाज नभधण कली ।
काला पहाड़ अंगाकरी, रहे मत षट रित रत्नी ।।

इस युद्ध में महाराणा अभयसिंहजी भी साथ थे । इस युद्ध के बाद दीवान पदमसिंहजी को फोज सम्बंधी कार्य से तीन नरेशों की अनुमति से इंदौर मल्हार राव के पास भेजा था । वहां कुछ समय रहने के बाद संवत् 1795 की माह सुदि 13 शनिवार को मल्हार राव की आज्ञा लेकर वापस आ रहे थे। रास्ते मे बांसवाड़ा में डेरा डाला । बांसवाड़ा में पंत्ररामजी लिखमन का भाई कई सवारों के साथ अचानक आकर धावा बोल दिया‌ । क्योंकि वह मारवाड़ के विरुद्ध था । आपस में खूब युद्ध हुआ । अनेक योद्धा मारे गये अन्त में पदमसिंहजी की ही जीत हुई । जब यह खबर महाराजा को मिली तो वे दीवान साहब पर बहुत खुश हुवे। परम्परानुसार महाराज की होलो (कच्चे गेहूं) की गोठ देने हेतु दीवान साहब ने बिलाड़ा आमंत्रित किया । महाराजा ने दीवान साहब का आमंत्रण स्वीकार कर संवत् 1803 के चेत्र वद 7 को बिलाड़ा पधारे । दीवान साहब ने महाराजा का खूब स्वागत सत्कार किया और बहुत अच्छी होली की गोठ दी । महाराजा साहब बहुत खुश हुये और 5 ) रु. नजर व 3 ) रु. निछरावल के किये थे। एक बार सम्वत् 1804 की कार्तिक सुद 13 को महाराज श्री अभयसिंहजी ने प्रतिष्ठत सैनिकों के साथ दीवान साहब को देवगढ़ रावजी के पास युद्ध सम्बन्धी परामर्श हेतु भेजा । देवगढ़ के रास्ते में जहां-जहां रुके वहां पर सम्बन्धित रजवाड़ों ने दीवान साहब को हाथी सिपराव देना चाहा लेकिन दीवान साहब ने इन्कार कर दिया । जब देवगढ़ पहुंचे तो रावजी ने अच्छी खातर की और महाराजा की आज्ञानुसार युद्ध सम्बन्धी परामर्श किया । कार्य समाप्त कर पुन: बिलाड़ा पधारे। उस समय उदयपुर के महाराणा अरसिंहजी मेवाड़ की गद्दी पर विराजमान हुये थे। महाराणा ने अपने पुर्वजों की प्रतिज्ञानुसार आई माता के 50 बीघा जमीन भेंट चढ़ाई ।

।। श्री रामो जयति ।।

श्री गणेश प्रशादातु श्री एकलिंग प्रशादातु

( सही )

स्वस्ति श्री उदेपुर सुथाने महाराजाधिराज महाराणा श्री अरसिंहजी आदेशातु चौधरी पदमसिंहजी कल्याणसिंघोत कस्य। अप्र धरती बीघा 50 पचास गांव डायलाणा बड़ी परगने गोड़वाड़ रे पटे राठोड़ इन्द्रसिंह धरती माह पड़त धरती टीला री पावे सो महाराणा श्री जगतसिंहजी रा प्रवाणा प्रभातो पटो किधो पडेत ती माहे कूड़ो नवो दीवाय जी जो । प्रवानगी साह सदा रामदेवरा सम्वत् 1817 वर्ष आसाढ़ वदी 14 बुधवार। एक बार दीवान पदमसिंहजी संवत् 1810 की कार्तिक कृष्णा 1 को अमझेरा दरबार के बुलाने पर अमझेरा पधारें । वहां पर दरबार ने खूब  खातिर की और आई माता के धूप दीप हैतू सोयला गांव भेंट किया । अमझेरा से विदा होकर वापस आते समय उनके मित्र गांव बेदले के रामचंद्रजी के पास रुके। गांव बेदले मैं उस समय रामचंद्र जी की बहन की शादी थी । महाराजा भी वहां पधारे हुए थे। उस समय महलों में नजर निछरावल हुई थी । अपने घनिष्ठ मित्र रामचंद्रजी की बहन की शादी में शरीक होने पर दीवान साहब ने निवते में एक घोड़ी पीली चंदण कपूर और सवाग के 500 ) रु. दिए थे। गांव बेदले में रवाना होकर संवत् 1811 में बड़ौदा होते हुए राजा विजेसिंहजी सेवा में पहुंचे । 3-4 माह बाद फिर 1812 में महाराणा साहब ने अपने जन्मदिन के उपलक्ष में दीवान साहब को उदयपुर बुलाया। इस अवसर अपने कुंवर हरिदास जी को साथ लेकर पालकी में विराज कर उदयपुर पधारे । महाराणा ने पिता पुत्र दोनों की खूब खातिर की । उस समय दीवान पदमसिंहजी को उदयपुर महाराणा की ओर से माता के प्रति सप्ताह 188 ) रु. मिलते थे इतनी बड़ी राशि बड़े-बड़े रईसों को भी नहीं मिलती थी यह बड़े आश्चर्य की बात थी। संवत् 1812 में पदमसिंहजी जरूरी कार्यवश इंदौर पधारे ‌। उस समय कुंवर हरिदास जी भी साथ थे । जब होल्कर राव ने हरिदास जी को साथ आया देखा तो दीवान साहब से कह कर उन्हें अपनी फौज में रख लिया ‌। तीन चार साल तक हरिदास जी इंदौर की फौज में रहे और कई बार युद्ध में वीरता दिखाई । जिससे मल्हार राव हरिदास जी पर बहुत खुश थे। फौज में बहुत नाम कमाया था फिर तीन चार साल बाद वापस बिलाडा पधारे।
संवत् 1814 में काती सुद 7 शुक्रवार को जोधपुर महाराजा बिलाडा पधारे । सर्वप्रथम आई माता के दर्शन किए और आई माता के 250 ) रु. छत्र हेतु भेंट किए तथा अखंड ज्योति के घी हेतू 200 ) रु. प्रतिवर्ष देने की आज्ञा प्रदान की ।
दीवान पदमसिंहजी के पांच रानियां थी । जाड़ीजी, गहलोतणजी (पटरानी), हांबड़जी, मुलेवीजी, लचेटीजी तथा पांच पुत्र थे । जिनमें सबसे बड़े हरिदास जी थे । (1) हरिदासजी (2) खीवराजजी (3) मेगराजजी (4) जीवणदासजी (5) सांवलदासजी। दीवान पदमसिंहजी ज्यादातर जोधपुर ही रहा करते थे । संवत् 1824 के आसोज सुद 12 को मामूली रोग से आपका जोधपुर में ही स्वर्गवास हो गया । वहां से बिलाड़ा लाए गये थे । पदमसिंहजी के पीछे उनकी पांचों रानियां सती हुई थी। ठिकाना बडेर बिलाड़ा की पुरानी बहियों में सतीयों का विवरण इस प्रकार मिलता है। दीवान मोहनदासजी देवलोक हुवा जोधपुर में दाग पड़ियो बिलाड़ा। संवत् 1824 रा आसोज सुद 12 उणरे पीछे सतियां हुई जिणरो खर्चो।

जाडत्री जी गेहलोतणजी पटरानी पोशाक कुल 150 रुपये साड़ी जरी री 25 रुपये चरणो खेमखाब 40 रुपये कांचली 2 रु. रोकड़ 60 रु. धिरमो 26 रु.।
बहुजी हांवड़ जी रे 20) रु. पोशाक रा ।
लाडोजी मुलेवी जी रे 20) रु. पोशाक रा ।
लाडोजी बाडली जी रे 20) रु. पोशाक रा ।
लाडोजी लवेटी जी रे 39) रु. पोशाक रा ।

दीवान पदमसिंहजी के स्वर्गवास होने के बाद सबसे बड़े कुंवर हरिदासजी दीवान की गद्दी पर विराजमान हुवे । जो आईमाता के बड़े भक्त थे ।

यहां पर संक्षिप्त जानकारी लिखी गई हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए श्री आई माताजी का इतिहास नामक पुस्तक ( बिलाडा़ मंदिर में उपलब्ध है ) पेज दृश्य न: ८९ से ९७ पुस्तक लेखक – स्वर्गीय श्री नारायणरामजी लेरचा

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