सातवें दीवान श्री भगवानदास जी

जन्म संवत् 1708, विवाह संवत् 1721
पाटन संवत् 1746, स्वर्गवास 1773 वेशाख
वद 7 बुधवार

भगवानदासजी भी बचपन से ही आई माता के बड़े भक्त थे। अक्सर वे अपने पिता राजसिंहजी के साथ ही रहा करते थे। दुर्गादासजी भी इनके साथ पुत्र वत प्यार करते थे। दुर्गादासजी दुख के दिनों में कई बार इन्हें साथ रखते थे। जब राजसिंहजी का देहांत हुआ था उस समय जोधपुर महाराजा ने बहुत रंज किया था तथा भगवानदासजी को दिलासा देकर उदयपुर राणा के साथ पिता वत सम्बंध रखने हेतु उदयपुर भेजा था। भगवानदासजी बहुत वीर तथा बुद्धिमान थे। एक बार उदयपुर के महाराणा के पुत्र अमरसिंहजी ने अपने पिता को गद्दी से उतारकर आप मेवाड़ की गद्दी पर बैठने के लिए उपद्रव खड़ा कर दिया था। इन उपद्रव में भगवानदासजी ने आपस में सुलह करवाई थी।

एक समय ओनाड़, अमर कुंवर फिर पित हुता पलटियो ।
उपराव सह महि पलटे मेवाड़ ।
सकता चुड़ा सोय, साराई मिलिया अमर सूं ‌।
जैसी मन में जाणो, आपणां नम काय ।।
भेले धर मेवाड़, इम दिन देखे आपरो ।।
आयो रांव धारणपुर, गाढो पुर गोढाण ।।

इस उपद्रव से महाराणा गांव घाणेराव आ गये। घाणेराव आकर राणा ने भगवानदासजी को पत्र लिखकर अपने पास बुलाया।

इम घाणेरा आय, तुरन्त भूप तेड़ावियो ।
चढ़ आयो भूपालदे, वलि तेज रा वजाय ।।

जब दीवान भगवानदासजी घाणेराव पहुंचे तो महाराणा बहुत खुश हुये ।

राजी होय मन राण, वीर भूण पधारियो ।
हमे फते म्हारी हूसी, दाखे हम दीवाण ।।
पायो सुख अणवार, राण मुखायूं उच्चरे ।।
राण मुंख यूं उच्चरे, ओ दिकलक अवतार ।।

घाणेराव पहुंचकर दीवान भगवानदासजी ने महाराणा को खूब हिम्मत बंधई और कहा कि आप चिन्ता न करे मैं अब सब सम्भाल लूंगा।दीवान भगवानदासजी ने अपने वीर सैनिकों को इकट्ठा किया तथा राठोड़ दुर्गादासजी को भी घाणेराव बुलवाया ।

चढिये अनावडचीत, दुरग आणण भूपालदे ।
राणपाट बेसाड़ियो, गावडण गुणगीत ।।
भागीरथ कुण माण, दिन चोथे लायो दुरंग ।
दण अण कल भेला किया, राजी हुण मन राण ।
शाके सन शोह साथ, अमर सहता उमरा ।
भौरीज्या भूपालदे, भिड़े कवण भाराथ ।।

जब मेवाड़ के कुंवर अमरसिंह को यह ज्ञात हुआ कि मारवाड़ की फौज आ रही है तो थोड़ा भयभीत हुआ और दीवान भगवानदासजी को बुलाकर आपस में सुलह कर ज्यो त्यों गद्दी छोड़ने का फेसला किया। अन्त में पुन: महाराणा जयसिंहजी को मेवाड़ की गद्दी पर बैठाया। इस पर महाराणा ने भगवानदासजी का बहुत याद किया तथा भगवानदासजी की प्रंशसा इन शब्दों में की –

कीधा किरण लेह, दल अणकल भूपादले ।
राणा उपमारह करण, इण विध आझालेह ।।
इस कर दज भ्रण पार, पाट राण पधरावियो ।
साराही मिलिया सुहड़, मिलिया राजकुमार ।
ओ राणा ठणकार कमध, भूप सम्भलो किवीत ‌‌‌‌।।

महाराणा जयसिंहजी ने दीवान भगवानदासजी का उपकार मानकर कहा कि मेवाड़ का राज मुझे पुन: आप ही ने दिया है। इस खुशी में महाराणा ने भगवानदासजी का घोड़ा सिरपाव तथा राय की पदवी दी।

राय पदवी दे राण, दे घोड़ा सिरपाव दे ।
इण विध सूं किधो विदा, भागीरथ कुल भाण ।।

यह पदवी पाकर दीवान भगवानदासजी अपने पट्टे के गांव मांडपुरा रवाना हुये। मांडपुरा कि आय कम थी और डायलाणा से थोड़ा दूर भी पड़ता था  इसीलिए विदा होते समय राणा से गांव मांडपुरा की जगह दूसरा गांव देने की मांग रखी। तत्काल राणा ने मांग मंजूर कर ली और मांडपुरा के बदले बाराहो गांव दे दिया । जिसका परवाना निम्न है। गांव बाराहो आजकल माताजी की बारहों के नाम से जाना जाता है। महाराणा ने इस गांव का नाम तांबा पात्र दिया था।

( नकल तांबा पत्र की )
।। श्री रामो ज्योति ।।

श्री गणेश प्रशादातु श्री एकलिंग प्रशादातु

( सही )

महाराजाधिराज महाराणा श्री जैसिंघ जी आदेशातु राय भगवानदासजी राजसिंघोत कस्य ग्राम आधार मय्या कीधो गाम वाराहो परगने गोढवाड़ रे गांव मांडपुरा रे बदले प्रत हुवे। साह रामसिंघ लिखतु इन्द्रभाण दयाल दासोत सम्वत् 1750 बीखे कादी सुद 5 रीक।

“ अमल की चिट्ठी ”

श्री गणेश प्रशादातु श्री एकलिंग प्रशादातु

स्वस्ति श्री जमनगर सुधाने महाराजाधिराज महाराणा श्री जैसिंहजी आदेशातु गांव वाली सवीत गर कस्यं। आप गांव बाराहो राय भगवानदासजी है आधा मय हुवो छै। सो थे दरबार रा आदमी इणरी साथे मोकलने अमल करवा दीजो। लागत री चोलण री करो मती । प्रवानगी जोशी ताराचन्द सम्वत् 1750 बिखे मिगसर वदी 2 मिनु। तथा जब मेवाड़ के महाराणा जैसिंहजी का देहान्त हो गया और उनके कंवर अमरसिंहजी मेवाड़ की गद्दी पर विराजमान हुये तो सबसे पहले अपने पूर्वजों की प्रतिज्ञानुसार दीवान भगवानदासजी को 50 बीघा जमीन भेंट की थी।

।। श्री रामो ज्योति ।।

श्री गणेश प्रशादातु श्री एकलिंग प्रशादातु

( सही )

स्वस्ति श्री उदेपुर सुथाने महाराजाधिराज महाराणा श्री अमरसिंहजी आदेशातु गांव वाराहा गोडवाड़ रा पटेला लोग कस्य। अप्र गांव चौधरी भगवानदासजी उत सो थी मया कीधी है। गांव डायलाणा माहे धरती बीघा 50 पचास टीला रो पावे सो गांव वाराहो मया किधो। ती माहे भरे लिधो। तामीर कुंवर हिम्मतसिंहजी परवानगी पंचोली दामोदरदास सम्वत् 1757 बिखे प्रथम फाल्गुन सुद 2 गुरूवार । इसी प्रकार महाराणा अमरसिंहजी के देहान्त पर जब उनके कुंवर संग्रामसिंहजी मेवाड़ गद्दी पर विराजमान हुये तो सर्वप्रथम अपने पूर्वज रायमलजी की प्रतिज्ञा को पूरा किया।

।‌। श्री रामो जयति ।।

श्री गणेश प्रशादातु श्री एकलिंग प्रशादातु

( सही )

महाराजाधिराज महाराणा संग्रामसिंहजी आदेशातु चोधरी भगवानदासजी राजसी रा कस्य। अग्र ग्राम भया किधो धरती बीघा 50 ग्राम डायलाणो बडो़ परगणे गोडवाड़ रे पटे सोनगरा मोहकमसिंहजी उदे भाणोत रे जणी माहे पड़ेत धरती मय्या किधी सूं कूड़ी न वो दियावसी। परवानगी पंचोली बिहारी दास सम्वत् 1768 माह सुदी 2 भोमे । दीवान भगवानदासजी को उदयपुर महाराणा ने बहुत सम्मान दिया था।

समवे बीह सनमान, पति मुरधर चितोड़ पति ।
जो जाणिया खण तण, भाग विलन्द भगवान ।।

राठौड़ दुर्गादासजी, दीवान भगवानदासजी को पुत्रवत समझते थे। एक बार दुर्गादासजी ने दिल्ली के बादशाह की ओरंगजेब को अपने पिता के खिलाफ करने का षड्यंत्र रचा लेकिन बादशाह को इसका भेद मालूम हो गया। और वह दुर्गादासजी व भगवानदासजी के खिलाफ हो गया। मुगलों ने गोड़वाड़ के गांवों में लूट खसोट शुरु कर दी। भगवानदासजी उस समय डायलाणा में ही थे। यह बात जब महाराजा अजीतसिंहजी को मालूम हुई तो उन्होंने पत्र लिखा।

।। परमेश्वरजी ।।

श्री कृष्ण जी तलवार

( सही )

सिध श्री महाराजाधिराज महाराजा श्री अजीतसिंहजी वचनातु राय भगवानदासजी राजसिंघोत दिसे। सु परसाद वाचजो। अठारा समाचार भला छे थोहार देजो। तथा अठे गोडवाड़ में फिसाद छे तिण सूं थो रद बदल तुर्कों से करने थोहरा माणसा ने बिलाड़े ले जाओ । थानें हुकम छे। महरा खासा छोरु छो। लिखावत छे हमासू काबू वर्णो सो करजो हुकम छे। संवत् 1752 रा जेठ सुदी 3 मु. घाणाराव श्री मुखे। जब मुगल डायलाणे में चढ़ आये तो भगवानदासजी ने मारवाङ के व गोडवाड़ के वीरों को इकट्ठा किया और मुगलों से लोहा लेने लगे। आखिर मुगलों की हार हुई। इससे पहले अपने बाल बच्चें ( माणसो ) को बिलाडा़ भेज दिया था। जनता ने सुख की सांस ली। इस युद्ध में दीवान भगवानदासजी ने जो बहादुरी दिखाई थी उसकी प्रशंसा निम्न शब्दों में की गई –

त्रजड़ा बल तो पान, आधोहितज उड़ादियो ।
कम धज बिन कहवाडि़यो, भलो भलो भगवान ।।
शोबा सगला सार, मारु लड़ मेटियो ।।
भिड़ पायो भूपाजदे, इण विध जस आणचार ।।

ल बादइस युद्ध से मुगशाह जो भगवानदासजी का शत्रु था उसने भी प्रशंसा की तथा साथ ही महाराणा ने भी इनकी वीरता को इन शब्दों में प्रशंसा की थी।

राजी होय मन राण, शाह औरंगाशाह वासियो ।
पूगो इम सम दायरे, दुनिया जस दिवाण ।।
आधे भूज अगजीत, भुज जेसिंह अरधे मुपाणी ।
भागीरथ निकलंग भड़, राखे कुलवट रीत ।।
वीखो कियो वरवीर, अजमल छल किधो अभंग ।
शाम धरम पालण सुवण, नरा चढा़वण वीर ।।

औरंगजेब खुश होकर दीवान भगवानदासजी को बुलाकर मनशब देना चाहता था। लेकिन भगवानदासजी, जोधपुर महाराजा की आज्ञा के बिना बादशाह के पास नहीं गये । इस पर औरंगजेब ने घर बैठे ही मनशब भेजा था।

घर बैठा घण जाण, मनशब औरंग मेलियो ।
भूज पूजो भगवान रा, बड़ा करे बखाण ।

हालांकि औरंगजेब मुसलमान तथा भगवानदासजी का शत्रु था। लेकिन भगवानदासजी ने अपनी योग्यता तथा वीरता से मनशब प्राप्त किया था। एक बार तुर्कों ने अचानक धोखे से डायलाना पर हमला कर दिया और भगवानदासजी का धन माल लूट लिया । इस सम्बंध में जोधपुर महाराजा अजीतसिंहजी ने भगवानदासजी को हिम्मत बंधाई थी ।

।। श्री परमेश्वरजी ।।

तलवार

(सही )

सिध श्री महाराजाधिराज महाराजा श्री अजीतसिंहजी ने वचनातुं चौधरी भगवानदासजी राज सिंघोत दिसे सु प्रसाद वाचजो, इटारा समाचार भला छे थांरा देजो तथा अरदास थांहरी आई हकीकत मालुम हुई। मता लाख री लूटाणी। तिणरी तो थे हकीकत मालूम हुई। मता लाख री लूटाणी तिणरी तो थे हकीकत तफसील वार करेसा तरे म्हे सूं जाहर कुसी ने धरती में बैन हुयां सारी ही पाछी वाल स्यां। चाकरी की धेरी ने अरज लिखी थी। सूं सारी खरी छे। ने रावत मुकुंददासजी पण मांसू मालम वार दोय चार को छे। सुं थाहरा घर बराबर पिण माहरे कोई न छे। चाकरी री भरपावसी। ने वले माहरा दिल में निवाजसरी छे। सूं ही श्री परमेश्वर जी करसी तो वेगी पावसो हमार रा दीया उपरे निजर गतधरों। बड़ी निवाजसरी उम्मेद राखे। दिल में कुछ मत विचारों म्हारा खास छोरु छो खातर जमा राखजो। संवत् 1753 रा चैत सुद 7। महाराजा अजीतसिंहजी तो भगवानदासजी पर बहुत खुश थे। साथ ही दुर्गादासजी और भगवानदासजी के आपसी सम्बंध बहुत प्रगाढ़ थे। जिन दिनों महाराज अजीतसिंहजी व दुर्गादासजी के दुख के दिनों में दीवान घराने ने जो सहायता की थी। उसी हेतु महाराजा ने दीवान साहब को सादड़ी इजारे में दी।

।। परमेश्वर जी सत छे ।।

स्वारुप श्री राज भगवानदासजी जोग्यराय श्री दुर्गादासजी लिखतु जुहार वाचजो । इटारा समाचार श्री परमेश्वरजी रा परताप सूं भला छे। राज सदा भला चाहिजे । राग घणी बात छो। राज उशंत कोई बात न छे। अश्व कागल राज रो आयो। समाचार पुगीया राज कोठारी ताराचन्द साथे हकीकत कहाड़ी थी। सो मांसु मालुम कीवी राज खातर जमा राखजो। राज राजी हूं सौ सौ करसां और राज रो घर छे। अप्रंच सादड़ी इजारे लीवी छे। जिणरो राज आदमी मेल ने भली भांत सूं जावंतो करावसी। ने हासल आवादान करावजो। इजारे छे तिण सूं क्रूब बंधसी सो तो राज रो छै । ने इजारो छै ने इजारो हिज पूरा पड़सी तो भली बात छे इजारा में कुछ घटसी तो महे निशा करावसा। वलता कागल समाचार वेगा देजो। सम्वत् 1762 रा असाढ़ द्वितीय वद 3। दुर्गादासजी और भगवानदासजी के आपसी घरेलू सम्बंधों की तो प्रशंसा का वर्णन ही नहीं किया जा सकता है । यहां तक कि जब दुर्गादासजी की पत्नी व पुत्री भगवानदासजी के पास बिलाड़ा में रहते थे । उस समय भी भगवानदासजी रहते दुर्गादासजी से पूछे बिना उनकी पुत्री का सम्बंध उदयपुर के महाराज कुमार तेजकरण के साथ कर दिया । जब यह बात दुर्गादासजी को मालूम हुई तो बहुत खुशी जाहिर की । वे आपस में एक दूसरे को भाइयों से भी बढ़कर समझते थे तथा इतना बड़ा फैसला दुर्गादासजी से पूछे बिना कर दिया। धन्य है ऐसी प्रगाढ़ मित्रता। उसके बाद बिलाडा बडेर से हे दुर्गादासजी की पुत्री का लगन भिजवा दिया । और शुभ लग्न में जब बारात आई तो बड़े धूमधाम से विवाह किया। खूब दहेज दिया । बारात वालों की इतनी खातिर कि कि बाराती भी अचंभित रह गये। इस विवाह के अवसर पर दुर्गादासजी यहां नहीं थे। उनकी गैर मौजूदगी में विवाह हुआ था। कन्यादान दीवान भगवानदासजी ने किया था। ( इस विवाह के खर्चे का विवरण ठिकाणा बडेर की बहियों में मौजूद हैं ) बारात आने के पहले उदयपुर महाराजा अमरसिंहजी ने भगवानदासजी को पत्र लिखा।

।। परमो जयति ।।

श्री एकलिंग प्रशादातु श्री गणेश प्रशादातु

( सही )

स्वस्ति श्री उदयपुर महाराजाधिराज महाराणा अमरसिंहजी आदेशातु चौधरी भगवानदासजी कस्य। अप्र अरदास थारी आयी। समाचार मालुम हुआ । हुक्म हुओ थो सो विवरो वे। कुंवर तेजकरण थां कने (राठोड़ दुर्गादासजी हे )लिखियो लो पण मालुम हुवो । अब कुंवर लाल परणवा आया है सो कहे जिणी बात रो घणो जतन रखावजो । संवत् 1760 रा आसाढ़ वद 5। विवाह भली प्रकार निपट जाने के बाद महाराणा अमरसिंहजी ने भगवानदासजी को पत्र लिखा । कि आपने दुर्गादासजी की गैर मौजूदगी में जो खातिरी की उससे मुझे बहुत खुशी हुई ।

।। श्री रामो जयति ।।

श्री एकलिंग प्रशादातु श्री गणेश प्रशादातु

( सही )

स्वस्ति श्री उदेपुर सुधान महाराजाधिराज महाराणा श्री अमरसिंहजी आदेशातु । चौधरी भगवानदासजी कस्य। अप्र कुंवर लाल परणावा आयो सो आछी जावता किधी सो मुजरो हुवो। सम्वत् 1762 रा आशाढ़ सुद 1596 । विवाह के बाद उदयपुर से बाईजी को पुनः बिलाड़ा ही लाया गया था। और फिर मुकलावे की रस्म के साथ वापिस बाईजी को उनके ससुराल उदयपुर विदा किया। इस पर महाराणा अमरसिंहजी बहुत खुश हुये और दीवान भगवानदासजी को एक हवेली हेतु जमीन बख्सीस की ।

।। श्री रामो जयति ।।

श्री गणेश प्रशादातु श्री एकलिंग प्रशादातु

( सही )

स्वस्ति श्री उदेपुर सुथाने महाराजाधिराज महाराणा श्री अमरसिंहजी आदेशातु चौधरी भगवानदासजी कस् ।अप्र हवेली सारु जायगा कोट माहे बाल सथी उत्तम करे। मया किधी। लांबी गज 81 इक्यासीस चोड़ी गज 52 बावन इणी जायगा ठा भगवानदासजी रा बेटा पोता थी कोई बोलवा पावे नहीं प्रवानगी मसाणी चुत्रभुज सम्वत् 1765 बखे पोह सुदी 5 री सुं। इसी प्रकार जोधपुर महाराजा अजीतसिंहजी को दीवान भगवानदासजी पर इतना भरोसा वह अपनत्व था कि भगवानदासजी की किसी को भी जमीन या बेर दे देते या उससे ले लेते तो महाराजा उस बात को मान लेते थे।

।। श्री परमेश्वरजी ।। श्री महाराजाजी सहाय छे ।

सिंध श्री बिलाड़ा टापते चौधरी भगवानदासजी योग्य जहानाबाद था भंडारी राव श्री खींवसीजी लिखवन्त जुहार वाचजो अठारा समाचार श्री जी रा प्रताप करने भला छे। थारा सदा भला चाहिए थे म्हारे घणी बात छो। था उप्रान्त कई बात न छे। सो कागद में की की मनवार लिखा अप्रंच पातशा ही घणा मेरबान छे। थाहरी बड़ो मलुस तलुकात कारण कुरब हुवो । सू थे हकीकत सामलीज हुसी फेर मुता बगताजी रा कागज सूं जांण सो अप्रंच मृता तेजा भगवानचंद्र नू बिलाडा में धरती दिराई सूं इण जाहिर कियो के भगवानदासजी दीवी छे सो हमे इणरी धरती आगे दीवी छे। तिण माफत माणने पटो कराय देजो ने धरती री खेवल कोई करे तिणनू मने करजो। चलता कागल देजो। माह सुद 2 सम्वत् 1772 बिखे। जब महाराजा अजीतसिंहजी का स्वर्गवास हो गया व महाराजा की गद्दी पर अभयसिंहजी विराजमान हुये तभी से वे दीवान भगवानदासजी पर बहुत खुश थे और पिता तुल्य आदर देते थे। उन्होंने अपने पिता के दुख के दिनों में की गई सहायता से प्रसन्न होकर एक गांव आई माता के भेंट चढ़ाया था।

श्री कृष्णजी की तलवार

( सही )

स्वरुप श्री महाराजाधिराज महाराजा श्री अजीतसिंहजी महाराज कुंवर श्री अभयसिंहजी वचनातु तथा भगवानदासजी राजसिंघ लिखमी दासो त नूं मया करने गांव 1 प्रगने जोधपुर रो इनाम दाखल इनायत कियो छे ने आईजी नूं चढ़ायो छे सु संवत् 1764 री सांवण था अमल पावसी विगत गांव नांदण तवे पीपाड़ आगे खालसो थी रेख सुं 3001। री ( विखा में चाकरी किथी तिणसूं निवाजियो ) 1 गांव रेख 3001 ) रू. संवत् 1764 रा काती वद 8 मु. गांव तख्तगढ़ जोधपुर हुवे श्री मुख प्रवानगी मुकनदास सुजाण सिंघोत। दीवान भगवानदासजी आई माता के भक्त थे और जनहित के भी बहुत काम करते थे।भगवानदासजी के सात रानियां थी।‌ गजराकंवर परमार, जतनकंवर पिड़ीयार, अतसुखदे भायलणीजी, गेराकंवर गेलोत, सायरकंवर परमार, सीताकुंवर चंद्रावत, सुगनाकंवर सांखली तथा 9 पुत्र थे। अनोपसिंहजी, कल्याणदासजी, चन्दरभणजी, सवेदासजी, मुकुनदासजी, हिम्मतसिंहजी, केसूदासजी, आणन्दसिंहजी, अभयसिंहजी। इन सब में कल्याणदासजी बड़े थे।जो भगवानदासजी के स्वर्गवास होने पर दीवान की गद्दी पर विराजमान हुये थे तथा अन्य आठों को एक-एक बेरे दिया था जो कि आज भी उनके वंशजों के पास उनके नाम से विद्यमान है । संवत 1773 के वैशाख वद 7 शनिवार को मामूली रोग से दीवान भगवानदासजी का स्वर्गवास हो गया उसके पीछे उनकी सात रानियां सती हुई थी तथा चालीस भक्तों ने आत्मदाह किया था।

यहां पर संक्षिप्त जानकारी लिखी गई हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए श्री आई माताजी का इतिहास नामक पुस्तक ( बिलाडा़ मंदिर में उपलब्ध है ) पेज दृश्य न: ६८ से ७८ पुस्तक लेखक – स्वर्गीय श्री नारायणरामजी लेरचा

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