दसवें दीवान श्री हरिदास जी

जन्म – संवत् 1791
पाट – संवत् 1824
विवाह – संवत् 1835 लगभग
स्वर्गवास – संवत् 1842

दीवान हरिदासजी बड़े वीर प्रकृति के थे। आप आई माता के भक्त तो थे ही साथ ही वचन सिद्ध भी थे। दीवान की गद्दी पर विराजते ही आप महाराणा विजेसिंहजी के साथ युद्ध में पधारे थे ‌। तब महाराणा विजेसिंहजी ने फरमाया कि हरिदासजी की अभी मातम पुरसी नहीं हुई है अतः मातमपुरसी की आज्ञा प्रदान की । दीवान हरिदासजी उस समय परबतसर में थे। अपने डेरे में मातमपुरसी की तैयारी की। महाराजा साहब उनके डेरे पधारे और मातमपुरसी की रस्म अदा की । खूब नजर निछरावल हुई । कुछ समय परबतसर रह कर महाराजा से बिलाड़ा आने की इजाजत मांगी महाराजा ने बड़ी प्रसन्नता से इजाजत दी तथा साथ ही विदा होते समय सिरपाव, खीनखाब का पाग जरकस की मोतिया जरी का कड़ा हेम का और एक मोती नाम का घोड़ा बक्शीश किया। बिलाड़ा आकर आपने अपने पिता पदमसिंहजी के पीछे बहुत बड़ा ज्याग किया उसमें लाखों लोग आये । उस ज्याग में लाखों रुपए खर्च हुए थे । उन्हीं दिनों इंदौर के मल्हार राव ने दीवान हरिदासजी को इंदौर बुलवाया । जब वे इंदौर पधारे तो वहां पर कई दिन तक रहे । इंदौर में रहकर आपने अपनी जागीर के गांव अल्हेर, आमद् और हासलपुर के पट्टे वापिस करवा कर राज श्री हरिसिंह ने नाम लिखवाये । इंदौर राज में दीवान हरिदासजी को राजश्री व ठाकुर की पदवी प्राप्त थी। दीवान हरिदासजी को पालखी की सवारी का बहुत शौक था । इस शोक की पूर्ति के लिए मल्हार रावजी ने इनके पालखी खर्च हेतु 1000 रुपये सालाना मुकर कर दिया था । कुछ समय इंदौर में रहने के बाद पुनः बिलाड़ा पधारे।संवत 1833 में गोडवाड़ के बाबा गांव में सीरवियों और वहां के ठाकुर साहब के बीच कुछ मनमुटाव हो जाने से सीरवी लोग गांव छोड़कर चले गये। बाबा गांव के ठाकुर साहब दीवान साहब के पास आए और निवेदन किया कि आप सीरवियों को समझा कर वापस लाकर बसावे। इस पर दीवान साहब ने सीरवियों को पुनः बाबा गांव में बसाया। इस पर ठाकुर साहब ने आई माता के धूप दीप हेतू एक बेरा भेंट किया। जिसका परवाना निम्न प्रकार हैं ।

।। श्री रामजी ।।

( सही )

सिध श्री राज श्री वीसनसिंघ जी लीखावत अप्रंच गांव बाबा गांम खारलीया लोक रहण रो अडग थी सोत उग भांगी जद अस्ट 1 बाबा ग्राम रो श्री माताजी नु केसर रो चढयो तण रो हासल गांव बिलाड़े पोहचसी सं. 1833 आसाढ़ वदी 9।दीवान हरिदासजी बाहर कहीं दौरे पर जाते थे तो पूरे लवाजमे के साथ बड़े ही ठाट-बाट से जाते थे। इंदौर के मल्हार राव तो हरिदासजी को खूब आदर करते थे लेकिन रावजी के देहांत के बाद जब इंदौर की गद्दी पर अहिल्याबाई विराजमान हुई थी तो उन्हें हरिदासजी के सम्बंध में कुछ भी मालूम नहीं था। ऐसे समय में एक बार दीवान साहब अपने लवाजमे के साथ परम्परानुसार हाथी पर सवार होकर पांव में सोने का लंगर पहनकर साथ में नगारा निशान के साथ बिना किसी रोक-टोक के इंदौर राज्य के चोली मेसर हाल महेश्वर नामक स्थान से गुजर रहे थे तो उसी समय अपने महलों में बैठी अहिल्याबाई के कानों में नगारे की आवाज पड़ी । तत्काल उन्होंने अपने मंत्री को बुलाकर पूछा कि मेरे राज्य में महेश्वर नगारा निशान लेकर कौन आया है । जाकर तुरंत उनके नगारे को रोको और उन्हें मेरे सामने उपस्थित करो। मंत्री उसी समय जाकर अहिल्याबाई का संदेश दीवान हरीदासजी को सुनाया । हरिदासजी अहिल्याबाई के संदेशानुसार अपने घोड़े पर सवार होकर उनके पास गये । लेकिन अहिल्याबाई के महलों के पास नर्मदा नदी जोर से बह रही थी अतः दीवान हरिदासजी नर्मदा नदी के दूसरे किनारे अहिल्याबाई के महलों के सामने घोड़ा रोक दिया । तब अहिल्याबाई से महलों में बैठे हुवे ही कहा कि तुम मेरे राज्य में किसी इजाजत से नगारा निशान लेकर आये हो । इस पर दीवान हरिदासजी ने कहा कि मैं बिलाड़ा आई माता का दीवान हूं और मेरे पूर्वजों को दिल्ली के बादशाह द्वारा बेरोक टोक नगारा निशान लेकर घूमने की आज्ञा प्रदान की हुई है । यह सुनकर अहिल्याबाई ने कहा कि यदि तुम आई माता के दीवान और उनके भक्त हो तो इस बहती नदी में अपने घोड़े पर बैठकर पार कर मेरे पास आओ तो मैं समझूंगी कि तुम आई माता के भक्त व दीवान हो । इतना सुनते ही हरिदासजी ने नर्मदा नदी के किनारे समाधि लगाकर आई माता को स्मरण करने लगे । तभी आई माता ने प्रत्यक्ष दर्शन देकर आशीर्वाद दिया कि मैं तुम्हारे सदा साथ हूं। निडर रहो । इतना का कर आई माता अलोप हो गई । दीवान हरिदासजी भी उठ कर अपने घोड़े पर सवार होकर घोड़े को उफनती नर्मदा नदी में उतार दिया। आई माता के चमत्कार से नदी का पानी दो भाग में बंट गया और हरिदासजी का घोड़ा सरपट नदी पार कर अहिल्याबाई के महलों के नीचे जाकर खड़ा हो गया । यह चमत्कार देख अहिल्याबाई झटपट दौड़ी-दौड़ महलों के नीचे आई और दीवान हरिदासजी के पांवों में गिरने लगी । उसी समय दीवान हरिदासजी ने अपने घोड़े को पीछे मोड़ा और एड लगाकर नदी के दूसरे किनारे जाकर अपना शरीर त्याग दिया । साथ में स्वामी भक्त घोड़े ने अपना शरीर त्याग दिया । अहिल्याबाई को घोर आश्चर्य हुआ । घटना संवत् 1842 की हे ‌। अहिल्याबाई ने उस स्थान पर हरिदासजी की समाधी बनवाई जो आज भी विद्यमान है और लोग उनकी पूजा करते हैं ।

 

दीवान हरिदासजी का विवाह कांगणजी के साथ हुआ था लेकिन विवाह के कुछ समय बाद आपसी मनमुटाव के कारण कांगणजी को मन से उतार दिया और बांधेलीजी के साथ दूसरा विवाह कर लिया । इस पर कांगणजी अपने कर्म का फल जानकर रात-दिन आई माता की भक्ति में लग गये । जब चोलीमेसर (महेश्वर) में दीवान हरिदासजी ने शरीर त्याग दिया तो आई माता की कृपा से कांगणजी को बिलाड़ा बैठे ही ज्ञात हो गया था उन्होंने स्नान किया और सोलह श्रृंगार कर बाहर आकर कामदार व अन्य खास सरदारों से कहा कि दीवान साहब ने चोलीमेसर में अपना शरीर त्याग दिया है मैं उनके साथ सती होऊंगी । आप लोग शीघ्र ऊंट सवार भेजकर चोलीमेसर से दीवान साहब का मोलिया ( साफा ) मंगवाये ताकि मैं उनका साथ कर सकूं । कांगणजी ने अपने पुत्र उदेसिंहजी से भी कहा कि बेटा शीघ्र तुम्हारे पिता का मोलिया मंगवाओ । उसी समय एक तेज रफ्तार के ऊंट सवार को चोलीमेसर भेजा । पीछे कांगणजी समाधि लगाकर आई माता की भक्ति करने लगे । दो तीन दिन बाद जब ऊंट सवार दीवान हरिदासजी का मोलिया लेकर आया तो कांगणजी ने मोलिया हाथों में लेकर बांघेलीजी के पास गए और कहने लगे । पति परमेश्वर का मोलिया आ गया है शीघ्र सोलह श्रृंगार कर सती होने के लिए तैयार होवो । इतना सुनते ही बाघेलीजी आना कानी करने लगे । इस पर कांगणजी अपने पति का मोलिया हाथ में लेकर सती होने के लिए रवाना हुए जाते-जाते बाघेलीजी को श्राप दे गये की तूं पवित्रता नहीं है । मैं तो स्वर्ग में अपने पति के पास जा रही हूं और तू यहीं पर अंधी होकर दीवारों से सिर फोड़ना । यह श्राप दे आगे बढ़े । उसी श्राप से बाघेलीजी अंधे हो गये और दीवारों से टकराते रहते थे । गाजो बाजो से कांगणजी पोल की दिवार पर सतीजी ने अपने हाथ का निसाण लगया बडेर की पोल के बाहर निकले । बाहर बडेर चौक में खड़े रहकर हाकीम को बुलाया और कहा कि इसी समय जेल में जितने कैदी हो उन्हें सब को रिहा कर दो । इस पर हाकीम डरा और कहने लगा महाराजा के हुकुम के बिना मैं ऐसा बड़ा काम कैसे कर सकता हूं ‌। इस पर कांगणजी को गुस्सा आया और कहा कि महाराजा तो कुछ नहीं कहेंगे लेकिन मैं तुम्हें श्राप देती हूं । इतना सुनते ही हाकीम डरा और कंगणजी के पांवों में गिर पड़ा । हाकीम को उस समय कांगणजी प्रत्यक्ष आई माता का रूप लग रही थी । हाकीम ने तुरंत आदेश देकर सब बन्दियों को रिहा कर दिया । फिर कंगणजी हाथ में अपने पति दीवान हरिदासजी का मोलिया लिये माटमोर के बाग की ओर प्रस्थान किया रास्ते में लोगों की भीड़ लग गई । तमाम बाजार के हलवाइयों ने मिठाई बांटी पूरे रास्ते में अबीर गुलाल उड़ने लगी । इस प्रकार गोधूली बेला में माटमोर के बाग में जीवित समाधि लेकर सती हो गयी ।

दीवान हरिदासजी के दो पुत्र थे – (1) उदेसिंहजी (2) लालसिंहजी

 

यहां पर संक्षिप्त जानकारी लिखी गई हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए श्री आई माताजी का इतिहास नामक पुस्तक ( बिलाडा़ मंदिर में उपलब्ध है ) पेज दृश्य न: ८९ से ९७ पुस्तक लेखक – स्वर्गीय श्री नारायणरामजी लेरचा

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