पंचम दीवान श्री लिखमीदास जी

जन्म – सम्वत् 1653

पाट – सम्वत् 1694 पोह

आसोज सुद 9 सुद 4

स्वर्गवास – सम्वत् 1700

पोह वद 13

दीवान लिखमीदासजी बचपन से ही अपने पिता रोहितदासजी के समान आईमाता के भक्त थे। दीवान की गद्दी पर बैठते ही दीवान लिखमीदासजी ने अपने पिता रोहितदासजी के पीछे एक बहुत बड़ा ज्यग किया था। उसमें लाखों की संख्या में लोग आये थे। और सात दिन लगातार लाखों लोगों ने लापसी का भोजन किया उस ज्यग के खर्चे से जो निम्न प्रकार से भी ज्ञात हो जाता है कि कितने लोगों के भोजन की लापसी बनी होगी। 3 हजार मण गुड 1 हजार दो सो मण घी, 5 हजार मण गेहूं, 5 सो मण खांड तथा साथ में लाखों रुपए की अन्य सामग्री खर्च हुई थी

 

जिग बलराजा जिसो, लखे किधो बिलहपुर ‌।
कन्याहल दो लाख, सुतो लीधा वर हवर ।।
च्यार चक्क नवं खंड जिते, जिमण कब आयां ।
करे जिज्ञ राज सू तेज, बाजा बजवाया ।।
धिन्न धिन्न कहे सारी धरा,जिण जिण इसङो जिपियो ।।
वर डंका बाज च्यारु वाला, दुनिया विच जस दीपीयो ।।

 

जिसके साथ ही अपने पिता रोहितदासजी की यादगार में उनके दफनाने के स्थान ( बाणगंगा के घाट ) पर एक विशाल छतरी का निर्माण करवाया तथा छतरी के पास ही बाणगंगा के उदगम स्थान पर दो बड़े बड़े कुंड बनवाएं ( एक औरतों के लिए और एक पुरुषों के लिए ) जिसमें यात्री स्नान करते हैं। जो आज भी विद्यमान है। इन कुंडों से पानी नहर के रूप में बाहर निकलता है और कई गांव में सिंचाई होती थी। इन वर्षों में वर्षा की कमी के कारण पानी कुंड में ही रहता है आगे बहकर जाने की क्षमता नहीं है। दीवान लिखमीदासजी मात्र 6 वर्ष तक ही दीवान की गद्दी पर आसीन रहे थे। संवत 1600 की पोह वद 13 को आई माता की भक्ति करते हुए आपका स्वर्गवास हो गया। दीवान लिखमीदासजी के तीन रानियां थी। (1) हाडी प्यारकंवर (2) सांखली पदमकंवर (3) च्वांण रासकंवर। तीनों ही रानियां लिखमीदासजी के पीछे सती हुई थी। दीवान लिखमीदासजी के दस पुत्र थे। (1) सोनीगसिंहजी (2) राजसिंहजी (3) डूंगरदासजी (4) हरिदासजी (5) तेजसिंहजी (6) मानसिंहजी (7) भोजराजजी (8) पूरमलजी (9) जगमालजी (10) भींवराजजी। इनमें राजसिंहजी सबसे बड़े थे। जो रानी रायकंवर के उदर से पैदा हुए थे। दीवान लिखमीदासजी के स्वर्गवास के बाद राजसिंहजी दीवान की गद्दी पर विराजमान हुए थे। अन्य पुत्रों को एक-एक बेरा दे दिया गया था। जो आज भी उनके नामों से उन्हीं की वंशजों के पास है।

 

यहां पर संक्षिप्त जानकारी लिखी गई हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए श्री आई माताजी का इतिहास नामक पुस्तक ( बिलाडा़ मंदिर में उपलब्ध है ) पेज दृश्य {न:५६ से ५७}  पुस्तक लेखक – स्वर्गीय श्री नारायणरामजी लेरचा

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