छठें दीवान श्री राजसिंह जी

जन्म – सम्वत् 1680

पाट – सम्वत् 1700 माघ आसोज सुद 9 कृष्ण 5

विवाह – सम्वत् 1701

स्वर्गवास – सम्वत् 1746 फागण वद 12 वैसाख वद 5

राजसिंहजी जब दीवान की गद्दी पर विराजमान हुये थे। उस समय उनकी आयु 20 वर्ष थी। दीवान की गद्दी पर बैठने के एक साल बाद आपका विवाह हुआ। दीवान राजसिंहजी बङे वीर प्रकृति के थे। परोपकारी भी बहुत थे। किसी का दुख उनसे देखा नहीं जाता था। हर समय दीन दुखियों की सहायता में लगे रहते थे। आईमाता के अटूट भक्त थे। उस समय जोधपुर के महाराजा जसवन्तसिंह प्रथम थे। राजसिंहजी महाराजा के विश्वास-पात्र थे। महाराजा का उन पर बहुत विश्वास था। उनके विश्वास व स्नेह का प्रमाण निम्न परवाने से ज्ञात होता है –

मोहर

स्वरूप श्री महाराजाधिराज महाराजा श्री जसवन्तसिंहजी वचमातु चोधरी राजसिंघ दीस सूं प्रसाद वाचजो। तथा थारी अरदास आई तिण में लिखीयो लिखमीदास राम कह्गो, सो लिखमीदास माहरे भलो बन्दो छो, ने हमें तू म्हारे लिखमीदास री जागा छे। म्हारो छोरु छो। ये खातर जमा राखजो , म्हे बीलाङे पधारा छा। ने थानु सिरपाव ठीक देशां सम्वत् 1700 रा माघ वदी 3 मुं मेङता। इस पत्र के थोङे दिनों बाद महाराजा साहब जसवन्तसिंहजी ने बिलाङा पधार कर बङी प्रसन्नता प्रगट की थी , तथा बिलाङा में ही मातम पुरसी की रस्म अदा करवाई। जनाना मरदाना सिरपाव दिये। अच्छा कुरब कायदा दिया। हाथी घोङा बकसीस किये तथा विदा होते समय अपने काय्र की खास जिम्मेदारी दी थी। एक बार महाराजा जसवन्तसिंहजी किसी कार्यवश लाहोर पधारे थे । लाहोर से काम की जिम्मेदारी हेतु पत्र लिखा था।

।। श्री ।।

स्वास्ति श्री महाराजाधिराज महाराजा श्री जसवन्तसिंहजी वचनातु चोधरी राजसिंहजी से सु प्रसाद वाचजो। आगे रा समाचार भला छै। थाहरा दीजो तथा अरदास थारी आई हकीकत मालुम हुई थे म्हारे बन्दा छो। छोरु छो। उठारी हकीकत म्हानै बेगी मालुम करजो। घणा अरट कराइजो। हासल इथको कराइजो। अरट पङिया मती राखजो। इधको हासल किया थारो मुजरो छै । बलदारी जोङी अव्वल मानू मेलजी। सम्वत् 1703 रा माघ वद 12 मुकाम लाहोर। महाराजा जसवन्तसिंहजी दीवान राजसिंहजी को खास अपना मानते थे। महाराजा ने एक बार खुश होकर राजसिंहजी को बिलाङा में तीन बेरे बक्से थे। जिसका प्रमाण निम्न परवाने से मिलता है।

।। मोहर ।।

स्वरुप श्री महाराजाधिराज महाराजा श्री जसवंतसिंहजी वचनातू चौधरी राजसिंह दिसे सु प्रसाद वाचवा। अठारा समाचार भला छै थाहरा देजो। अरदास थाहरी आई हकीकत मालूम हुई। थे छोरु छो घणा हासल करो । इस भांत थाहरो मुजरो छै ‌। सम्वत् 1707 रा वैशाख सुद 7 पाव तखत जोधपुर फिर सुरताण हांवड़ा रा अरठ तीनूं ही थानै दिया छै । पं. अरठ घणा हासल कराइजो घणी री खुवाही करोजो नु म्हारो मुजरो हुवे। महाराजा जसवंतसिंहजी दीवान राजसिंहजी को छोरु सम्बोधित करते थे। लेकिन दीवान व आई माता के नाते धर्म गुरु मानते थे।

महाराजा जसवन्त तपे जोधपुर नरेसुर । भुज पुजे पतशाह, सूतो अल्लाह बराबर ।।
सो हङ लख ओ गले, लख दरबार पले नित । हय गय पार न कोय, वसुह सिर वाजे नोबत ।।
गजशाय सुतन दोय राह सिर, सुज भुज पुजे राज सी । लखधीर सुतन वह जसलयै, जिणरो दिये दसह दिसी ।।

इसी प्रकार उदयपुर के महाराजा राजसिंहजी ने अपने पूर्वज रायमल की प्रतिज्ञानुसार दीवान राजसिंहजी को 50 बीघा जमीन गांव डायलाणा में भेंट की थी।

।। श्री रामो जयति ।।

श्री गणेश प्रशादातु श्री एकलिंग प्रशादातु

(सही)

स्वस्ति श्री उदयपुर सुथाने महाराजाधिराज महाराणा श्री राजसिंहजी आदेतु वझिवा सुथाने शाह डुंगर सो कस्य: । अप्रंच चोधरी राजसिंहजी ग्राम डायलाणा माहे बीघा 50 आके बीघा पचास मय्या करे दीधा छे । सु किणी करसा रा खेत मत छो । पङी धरती हके जसी भर दीजो । कुवो ए खोदाए करसी । परवानगी पंचोली फतेहचन्द सम्वत् 1716 बसे चैत्र वदी 10 सीनु।इसी प्रकार उदयपुर के महाराणा राजसिंह के पुत्र जैसिंहजी जब मेवाड़ की राजगद्दी पर विराजमान हुए तो अपने पूर्वजों की प्रतिज्ञा का पालन कर सर्वप्रथम दीवान राजसिंहजी को 50 बीघा जमीन भेंट की थी । जिसका प्रमाण निम्न है।

।। रामो ज्योति ।।

श्री गणेश प्रशादातु श्री एकलिंग प्रशादातु

।। सही ।।

स्वस्ति श्री उदयपुर सुथाने महाराजाधिराज महाराणा श्री जैसिंहजी ( यह प्रतिज्ञा राजा रायमल कोवी थी ) आदेशातु वीझवा सुथाने साह रिखभदास पंचोली मधुसूदन कस्य । अप्र चोधरी राजसिंह ग्राम डायलाणा माहे धरती बीघा 50 आके बीघा पचास मया करे दिधी छै । सु किणी करसारा खेत मत छी पङी धरती है। हको जिसी भरे दीजो । परवावखी पंचोली दामोदर सम्वत् 1739 रा माघ वद 3 शुक्रवार। इन्हीं दिनों में एक गोबी दल (अंग्रेज) यदा कदा हर जगह लूटपाट करता था। जो कोई उनके सामने आता उन्हें भड़का देते थे और कहते कि जो हमसे भिड़ेगा वो तोप के गोले से मारा जायेगा। यह दल तोपों से व आधुनिक हथियारों से लैस था। पूछने पर कहते थे हम दिल्ली फतेह कर राज करेंगे । उनके अत्याचारों ने नाक में दम कर रखा था। गोबी दल वह में अजमेर के शोबायतों से युद्ध कर जीत हासिल की थी। जिससे उनका हौसला बढ़ गया था। नारनोल के बादशाह के पास 5 हजार की सेना थी‌। वो भी गोबी के साथ युद्ध में हार गये थे । जिससे नारनोल के बादशाह भी बड़ा चिंतित हुआ। एक बार संवत् 1728 में गोबी दल ने बिलाङा बाणगंगा पर डेरा दिया । गोबी दल का अगुआ जोगीदास नामक एक व्यक्ति ने यहां के भोले भाले लोगों को कुंडा पंथी धर्म चलाने के बहाने (नियत बिलाड़ा) पर कब्जा करने की) वैशाखी अमावश को बाण गंगा पर इकट्ठा किया तथा गुप्त रूप से फौज को इशारा कर उन भोले भाले लोगों पर हमला करवा दिया । इससे भाटी के केसूदास भी शामिल था । भोले-भाले लोग मारे गये। जब यह खबर दीवान राजसिंहजी को मालूम हुई तो उन्हें बड़ा क्रोध आया और उसी समय मारवाड़ के वीरों को ‘गोभी दल को खदेड़ने हेतु’ इकट्ठा किया। जब सारे मारवाड़ के वीर इकट्ठे हो गये तो व किसी के बहकावे मैं आकर गोबी दल से युद्ध करना मना कर दिया कहने लगे की गोबी तो ईश्वर की सत्ता से लड़ते हैं। हम उनके सामने टिक नहीं सकते। यह बात सुनकर दीवान राजसिंहजी ने सबको समझाया यह सब झूठी बातें हैं और दुश्मन की चाल है। आप निडर होकर युद्ध के लिए तैयार हो जावो । इस पर बहुत समझाने पर सब लोग तैयार हुवे ‌। और संवत् 1728 वैशाख सुद 2 गुरुवार के दिन गोबी दल पर टूट पड़े । दोनों में घमासान युद्ध हुआ । विजय श्री राजसिंहजी को मिली। यह बात जब जोधपुर महाराजा और उदयपुर महाराणा ने सुनी तो बहुत प्रसन्नता प्रकट की । दीवान राजसिंहजी का वैभव बहुत बढ़ गया था । महाराणा उदयपुर व महाराजा जोधपुर से दीवान राजसिंहजी की प्रशंसा शब्दों में की।

सात खणा अवास, सहर भाद्रवो समोफार ।सोने री चित्राम, काम मिले जुहार करी ।।
रंग महल अणपार, बीच चह वचा विराजे ।वां महलां विच खण, सुक्ख भुगते दिन साजे ।।
महाराज जसो पूजे भुंजां, राणा अरधे राजसी ।भवतार वीर इल ऊपरे, दिये जस दस ही दसी ।।

उन दिनों बाहरी आक्रमणों के कारण जोधपुर की माली हालत कुछ कमजोर हो चुकी थी । ऐसी स्थिति में महाराजा जसवन्तसिंहजी ने रिया के सेठ व बिलाङा दीवान से मदद हेतु कहलाया । उस पर रिया के स्वामी भक्त सेठ से रिया से जोधपुर तक सिक्कों से भरी गाङियों की लाइन लगा दी तथा इसी प्रकार दीवान राजसिंहजी ने बिलाङा से जोधपुर तक धान से भरी गाङियों की लाइन लगा दी । दोनों की स्वामी भक्ति व मारवाङ की मर्यादा रखने की बात देख महाराजा जसवन्तसिंहजी ने विद्वान राजसिंहजी को पत्र लिखा कि में तुम्हारी स्वामी भक्ति से अति प्रसन्न हूं । उसके तीन चार दिन बाद महाराजा जसवन्तसिंहजी बिलाङा पधारे । बिलाङा पधारने पर दीवान राजसिंहजी ने महाराजा की बहुत खातिर की और बहुत अच्छी गोठ दी । महाराजा ने देखा जिधर नजर पड़ी उधर ही किसी बात की कमी नजर नहीं आई । महाराजा बहुत खुश हुवे । महाराजा को अपने आप पर गर्व हुआ कि मेरी अमलदारी में ऐसे ऐसे पुरुष भी है । महाराजा जसवंतसिंहजी विद्वान थे । उसी समय महाराजा जसवंतसिंहजी ने भरी सभा में फरमाया कि मारवाड़ में सिर्फ ढाई घर है । एक तो रिया सेठ का दूसरा बिलाड़ा के दीवान का और आधा घर जोधपुर महाराजा का याने अपने को आधा ही गिना जबकि रिया के सेठ व बिलाड़ा दीवान को पूरा घर गिना ।

असभड़ सांतर ऊमदा, सारी बात सुजाण । रुपक मुरधर देश रो, दिवे तुं दीवाण ।।
हिक घर रिया शाह रो, दुजो घर दीवाण । आधा में मुरधर अवर, मुख जसवंत फरमाण ।।

महाराजा जसवंतसिंहजी की बुद्धि को धन्य है वह दीवान राजसिंहजी की स्वामी भक्ति धन्य है । महाराजा ने पूरे मारवाड़ में यह फरमान प्रसारित करवा दिया कि मारवाड़ के ढाई घर गिने जाय । उसी दिन में मारवाड़ के ढाई घर आने जाने लग। महाराजा जसवंतसिंहजी आई माता के भक्त थे । एक बार महाराजा बिलाङा पधारें और आई माता के दर्शन किये। आई माता के 1025/- रुपए छत्र हेतु भेंट चढ़ाये। वापसी लौटते समय दीवान साहब को घोड़ा व सिर पाव बक्से तथा दीवान साहब को अपने साथ जोधपुर ले गये। वहां पर वीर दुर्गादासजी से मिले और आपस में अच्छा मित्रता हो गयी । मित्रता इतनी गाढी हुई कि एक आत्मा दो शरीर हो। एक साथ उठना, बैठना । साथ साथ भोजन करना । उन्हीं दिनों महाराजा को युद्ध के सिलसिले में काबुल जाना था। महाराजा ने राजसिंहजी को भी साथ चलने को कहा। लेकिन दीवान साहब के बिलाड़ा में आवश्यक कार्य होने के कारण साथ नहीं जा सके। और वापिस बिलाड़ा आ गये । कुछ दिनों बाद महाराजा जसवंतसिंहजी ने काबुल से दीवान साहब को पत्र लिखा कि शीघ्र अपने वीर सैनिकों के साथ काबुल पहुंचो। महाराजा का पत्र पढ़ते ही दीवान साहब अपने सैनिकों को साथ लेकर संवत् 1734 के आसोज वद 2 को काबुल के लिए प्रस्थान किया । दीवान राजसिंहजी की काबुल यात्रा का वर्णन बडेर बिलाङा की बहियों में लिखा हुआ है।

।। बहि की नकल ।।

संवत् 1732 रा आसोज बदी 2 ने महाराजा जी रे पावे श्री श्री राजसिंहजी काबुल विदा हुआ । अमरा नेतसी, अणदा और ऊंट 2 सामान रा लेने काबुल विदा हुआ। जब दीवान राजसिंहजी काबुल पहुंचे तो थोड़े समय बाद ही उन्हें बिलाङा से पत्र मिला कि बिलाङा में बहुत उपद्रव हो रहे हैं । सो आप शीघ्र बिलाडा पधारे । यह समाचार होते ही राजसिंहजी महाराजा की आज्ञा लेकर माघ सुद 14 को काबुल से वापस रवाना होकर फागण वद 10 को बिलाङा पहुंचे । यहां आकर सब झगङो को निपटायां महाराजा जसवंतसिंहजी का देहांत हो गया और उधर पेशावर में संवत् 1735 के चैत्र वदी 4 को अजीतसिंहजी का जन्म हुआ । मुगल अजीतसिंह को मारना चाहते थे। लेकिन स्वामी भक्ति सेवक दुर्गादासजी ने गुप्त रूप से अजीतसिंहजी को पैशावर से मारवाड़ में ले आये। मारवाड़ आने पर उन्हें खतरा महसूस हुआ तो अजीतसिंहजी को लेकर मेवाड़ के पहाड़ों में जाकर छुप गये । दुर्गादासजी दीवान राजसिंहजी के घनिष्ठ मित्र थे। अतः उन्होंने अपनी पत्नी और बच्चों को राजसिंहजी के संरक्षण में बिलाड़ा में रखा। दुर्गादासजी अजीतसिंहजी को लेकर मेवाड़ के पहाड़ों में छिपते फिर रहे थे और दीवान राजसिंहजी को पत्र लिखकर मारवाड़ के हालत मालूम किया करते थे। दीवान राजसिंहजी ने दुख के दिनों में अजीतसिंहजी की व दुर्गादासजी ने बहुत सहयोग किया था। दीवान साहब के सहयोग का प्रमाण इस पत्र से ज्ञात होता है।

।। परमेश्वरजी ।।

सिंध श्री खीवेल सुथाने चोधरी श्री रजासिंहजी चरण कमल यने गुढाथी राठोड़ दुर्गादासजी लिखतु जुहार वांचजो । अठारा समाचार श्री परमेश्वर जी री कीरपा थी भला छै जी । राज रा सदा चाहिये जी । राजो ठाकुर छै बडा़ छै । महर राज उरंच कोठ बात ने छै राजो सुं कागल माहे किसी पङबाज लिखा अपरज राज रो कागज आयो । समाचार पीरी छी थां राजो भोजराज जी रे कागल रा समाचार लिखियो हुतां सु सगला ही बाचियाजी वीजो । सभा रे भाई बेटा उठ गया रा समाचार लिखियो तो सु वाचियोंजी राज लिखियो था म्हे भोजराज नूं दोय लिखियो छे । उठे सवाई कोई देख तो मूढा आगे उभ रहने सीख मगे ने उरा आवजो तको उठारो चतई सई छे ‌। सीख मांगण रो काम कोन हो जो वंत ने देखो जे तो उभा रहिजो नहीं छटक ने उरा आवजो । अहदी जोधपुर नागौर विदा वद हुआ । जीवे रे वास्तेसुजाण जहीज छै वीजो राजी लिखियो हतो दीवाण फतेखां जी परवाणा रो लिखियो हुतो सू समाचार वाचियां राजी लिखियों हुतो उदा हूं कागद पाछो लिखंत को राजा वचन इण विध लिखजो ने तोयरे छे ‌। ताव आवे छे पावा में हरस ताव आवे छै । प्रमाण हरे हुई । लाणो खेवेल सलारिया इण गवे महारा मधुवारा छे । तको महर धन चुन बख्त घणा छे । सुब करने में आदसे इजलखजो जी ने आदमी दो ठावा उठे मेल जो । गांव आपणे चंतरा हुवे सु लिख जो लाव ने हसा बंटरा ही लिखियो हूं । तो आदमी लायक नां नहलाया पुरण सगतसिंह रा वेणीदास रणवत कंवरा धांधिया चार ठाकुर मेलिया छे । बीजी राजी लिखियो हू तो उठारो विचार हुवे सु मने लिखजो सु गने गने उठारो समाचार ठावा छे । श्री परमेश्वर जी सारी हवत छे। वलता कागल समाचार वेणा देजो। मिति पोह वद1 संवत् 1736। दुर्गादासजी के कहे अनुसार दीवान राजसिंहजी उदयपुर जाकर राणा जी से मिले और उससे अच्छा सम्बन्ध कायम किया । तभी से दीवान उदयपुर राणा को टीके में घोङा देते थे। मुसलमानों का अत्याचार ज्यादा होने के कारण अपने लोगों की रक्षार्थ अक्सर राजसिंहजी गांव डायलाना में ही रहते थे । दीवान राजसिंहजी को महाराजा अजीतसिंहजी व दुर्गादासजी की दुख के दिनों में की गई सेवा प्रशंसनीय हैं । दीवान राजसिंहजी ने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक मारवाड़ में मुसलमान रहेंगे (शासन रहेगा) तब तक मैं मारवाड़ में पांव नहीं रखूंगा । चाहे प्राण चले जाये लेकिन सिर नहीं झुकाऊंगा । यह प्रतिज्ञा आपने निभाई ।

एम कहे राजसी कमंध, भुज झाल करम्भर ‌। अजावगर अनधणी, शीश नह धरु अव्वर ‌‌।।
शाम धर्म कारणे कमे, जग इतको किधो । माहरों दादो मरे, लोह चढ रेकुण्ड लियो ‌।।
आवात मुखा सूं उच्चरे, कमधज छोउणो कियो । बीलपुर हुत बाहां प्रबल, इम डायलाणा आबियो ।।

उदयपुर के महाराणा भी दीवान राजसिंहजी का सम्मान करते थे। उन्होंने राजसिंहजी का अच्छा मान किया था।

राजी व्हो मन राण, स्वण डायलांणे आयो ।मेले अस सिरपांव, वले मोतियां बधायो ।।
शोह परगह आपरी सुरंद वह लोधा साथां ।दादो करमट जिही, भिडे: जीवण भरा था ।।
अगजी कमध मारवाङ सिध लाखा मुडे़ जलमियो ।मेवाड़ धणी अरथे भुजा, दान बड़ा पाता दियो ।

दीवान राजसिंहजी ने जन कल्याण के लिये भी कई किये थे । उन्होंने तत्कालीन गांव हर्ष के पास एक बहुत बड़ा तालाब बनवाया था । उसकी पाल बहुत बड़ी बनवाई । जिसका नाम माटमोर रखा गया । जो आज भी माटमोर के नाम से जानी जाती है। उसकी पाल के पास एक सुन्दर बगीचा लगवाया । जिसका नाम माटमोर बाग रखा गया था । जो आज भी बिलाङा के पूर्व में 3 किलोमीटर पर विधमान हैं।

राजसमन्द राजसी, बडो दरियाव बन्धायो । सांत समदो जिसो, समन्द आठयो करायो ।‌‌।
कब कमल जल बीच, भमर ताप शीश भभता । हंस मोर सारस पंखा, केई केई कल करता ।।
अब कदम्ब चम्पक अति, कोयण झिगाख करे ।  धन खल समन्द बाधो, जिकण एम प्रथी मुक उच्चरे।।

इसी प्रकार दीवान राजसिंहजी ने बिलाङा गांव के पूर्व दिशा में एक तालाब बनवाया । और तालाब की पाल पर सुन्दर घाट बनवाया व पाल पर एक धर्मशाला भी बनवाई थी जो आज तक विधमान हैं जिसका नाम राजेलाव रखा गया । उसी से बिलाङा में पुर्व का प्रवेश द्वार का नाम राजेलाव दरवाजा रखा गया । जो आज भी राजेलाव दरवाजा कहलाता है। दीवान राजसिंहजी के तीन रानियाँ थी । (1) बाधेली (2) भानकंवर डोडियाणी रंभाकंवर (3) शोढी जड़ाव कंवर तथा दस पुत्र थे । (1) सुन्दरदासजी (2) भगवानदासजी (3) सामीदासजी (4) आसोजी (5) हरिदासजी (6) नरसींगदासजी (7) अनोपसिंहजी (8) सिहमलजी (9) मुकनदासजी (10) जावणदासजी । इसन सबसे भगवानदासजी सबसे बड़े थे । जो राजसिंहजी के बाद दीवान की गद्दी पर विराजमान हये । आईमाता की भक्ति करते हये दीवान राजसिंहजी सम्वत् 1746 के द्वितीय वेशाख कृष्णा 5 को स्वर्ग सिधारे गये । उनके पीछे उनकी तीनों रानियाँ सती हुई थी तथा 34 भक्तों ने भी आत्मदाह किया था सतियों के बारे में निम्न दोहा कहा गया था।

सोढी सतीयां सूं मिली, कीध अरज किवलास ।
साहब माहब धारजे, ए राज रा एवाज ।।

यहां पर संक्षिप्त जानकारी लिखी गई हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए श्री आई माताजी का इतिहास नामक पुस्तक ( बिलाडा़ मंदिर में उपलब्ध है ) पेज दृश्य न: ५९ से ६७
पुस्तक लेखक – स्वर्गीय श्री नारायणरामजी लेरचा

Recent Posts