ग्यारहवें दीवान श्री उदेसिंह जी

जन्म – संवत् 1799
विवाह – संवत् 1822 चेत वद 2
पाट – संवत् 1842 चेत वद 2
स्वर्गवास – संवत् 1858 वैशाख वद 6

जब दीवान हरिदासजी ने चोलीमेसर में समाधी ले ली तो उनके पुत्र उदेसिंहजी को दीवान की गद्दी पर संवत् 1842 के चेत वद 2 को बैठाया गया उधर जब दीवान हरिदासजी ने अहिल्या बाई के सामने ही समाधि ले ली तो अहिल्याबाई को बहुत आघात लगा। उन्होंने अपने आपसे आत्मग्लानि से कहा कि मेरी कितनी भूल थी जो घर आये देव पुरुष का सम्मान ना कर उल्टा उनकी देव भक्ति की परीक्षा लेनी चाही। अहिल्या बाई के ये पूछने पर कि दीवान हरिदासजी ने नदी पार कर शरीर क्यों छोड़ा तब उदेसिंहजी ने कहा कि ये तो माता जी की कृपा थी वह चमत्कार था लेकिन अगर मैं असफल होता तो लोगों की माता जी के प्रति श्रद्धा समाप्त हो जाती इसलिए दीवान हरिदासजी ने समाधि ले ली‌ । स्मरण रहे इन्दोर (मराठों) के राज की रानी उस वक्त श्रीमती अहिल्याबाई थी, जो भजन भक्ति के लिए चोली मेसर (माहेश्वर) ही रहती थी बहुत रंज किया और जिस जगह हरिदासजी की समाधि थी उस पर एक बड़ी छतरी बनवाई तथा घोड़े का चबूतरा बनवाया । जो आज दिन तक चोल मेसर में नर्मदा नदी पर खंडहर के रूप में चबूतरा विद्यमान है आज भी लोग पूजा करने जाते हैं।अहिल्याबाई ने उसी समय जोधपुर महाराजा विजेसिंहजी को दीवान हरिदासजी के देवलोक होने की खबर पत्र द्वारा लिख कर दी । साथ ही हरिदासजी के पुत्र को भी भोलावना दि व लिखा की बिलाड़ा का कामकाज को ध्यान रखावे और मुझे वापस पत्रों से वहां के समाचारों से अवगत करावे ।

।। श्री रामजी ।।

सिध श्री सरब ओपमा महाराजाधिराज राज राजेश्वर महाराजा श्री विजेसिंहजी जोग्य श्री अहिल्याबाई होल्कर केन।वंचजो अठाके समाचार भले है। राज के समाचार सदा भलो चाहाजे । अपरंज राज श्री हरिदासजी श्री भवानी भगत वासी कस्बे बिलाड़े के देवलोक हुवे सो दवे इच्छा से किसी का जोर नहीं । इस वास्ते लिको छा सो अब जो कोई इनके घराने माहे से पाट बैठकर श्री श्री की भगती कबूल करे उनकी हरेक प्रीकरी गोर रखवाला सो सुकर गुजार होय कर आसीरवाद देते रहेंगे । ठेठ से शुभचिंतक उठाई का छो अठे व्योवहार राज ही को जाणं कागद समाचार हमेसां लीखबुओला । मिती चेत वद 8 संवत् 1842 दीवान उदेसिंहजी अपने पिता की भांति आई माता के परम भक्त थे । साथ ही वीर पुरुष भी थे । अहिल्याबाई आपको बहुत आदर देती थी । कई बार दीवान साहब को इंदौर बुलाया था । और बहुत अच्छी खातिर की । युद्ध या अन्य झगड़ों में कई बार अहिल्याबाई के साथ रहते थे । इनकी वीरता और युद्ध कौशल्य यह देखकर अहिल्याबाई बहुत खुश रहती थी। जब इंदौर की गद्दी पर काशीराव होल्कर विराजे तो उदयसिंहजी की वीरता व युद्ध कौशलता के कारण अपनी सेना का सेनापति बना दिया । साथ ही काशीराम ने कहा कि इंदौर और हल्करो कि ताकत आपके हाथ हैं । एक बार जोधपुर महाराजा पीपाड़ पधारे थे उस समय दीवान उदेसिंहजी को पीपाड़ बुलवाया । और परम्परानुसार मातमपुरसी की रस्म अदा की । खूब नजर निछरावले हुई । महाराजा आप पर बहुत खुश थे और बहुत भरोसा करते थे । कई बार जटिल राज-काज की समस्याओं के समाधान हेतु दीवान साहब को सलाह लेते थे संवत् 1855 में जोधपुर महाराजा बिलाडा पधारे। सर्वप्रथम महाराजा साहब आई माता के दर्शन कर पधारे । उस समय महारानी बाघेलीजी भी साथ थे । दोनों जब आई माता के मंदिर पधारें तो उस समय 343) रु. व 6 मोहरे छत्र हेतु चढ़ाये । दीवान साहब ने खूब खातिर की । महारानी ने खुश होकर उदेसिंहजी को मिठाई हेतु रुपए बधे । जब तक महाराजा वह महारानी जी बिलाडा में रहे तब तक उनकी खूब खातिर की । दोनों बहुत खुश हुये । और दीवान साहब को कामकाज की भोलावण देकर वापस जोधपुर पधारे। गांव के बाहर तक दीवान साहब महाराजा को विदा करने हेतु पधारे। दीवान उदेसिंहजी ज्यादातर इन्दौर में ही रहते थे । एक बार जब मैं इंदौर में थे तब पीछे मारवाड़ में युद्ध भड़क उठा। उस समय जोधपुर महाराजा ने उदेसिंहजी को पत्र भेजकर जल्दी इंदौर से बुलाया । मारवाड़ में आते ही उदेसिंहजी बीकानेर, रतलाम, अमझेरा आदि के कई रईसों के साथ इस युद्ध में भाग लेकर अपनी वीरता दिखाई थी। जिससे आपकी ख्याती बहुत फैल गई। यहां तक कि पीपाड़ व जोधपुर के मेड़तिया दरवाजे के बाहर महाराजा के साथ युद्ध में वीरता का परिचय दिया था। उसके बाद आप ज्यादातर जोधपुर ही रहा करते थे।

 

दीवान उदेसिंहजी के एक ही पुत्र थे । जिनका नाम अनोपसिंहजी था । आप आई माता के अटूट भक्त थे । जो बात आप कहते थे वह आई माता की कृपा से सत्य होती थी । डोराबंद आई भक्त दीवान उदेसिंहजी को आई माता के रूप में पूजा करते थे । जोधपुर में रहते हुए आपको मामूली रोग हो गया इसी मामूली बीमारी से संवत् 1858 के वैशाख वद 7 शुक्रवार को दीवान उदेसिंहजी का स्वर्गवास हो गया । उसी समय महाराजा ने एक पालखी में दीवान साहब का पार्थिव शरीर बिलाड़ा भेजा । बिलाड़ा की शोकाकुल जनता ने आपका अंतिम संस्कार किया । उस समय अनोपसिंहजी मात्र तीन वर्ष के ही थे । आपके पीछे राणीजी शोढ़ीजी सती हुई तथा 50 श्रद्धालु भक्तों ने आत्म-समर्पण (आत्मदाह) किया । आत्म-समर्पण करने वालों का विवरण (ठिकाना

बडेर बिलाड़ा की बहियों) निम्न प्रकार है –
14 आदमी और ओरते बडेर के
5 आदमी और औरते उचियाड़ा के
4 आदमी और औरते अटबड़ा के
5 आदमी और औरते डायलाणा के
4 आदमी और औरते खीवेल के
5 आदमी और औरते बारावा के
2 आदमी नाडोल के
11 आदमी मालवे के ।
कुल 50 आदमी औरतों ने (आत्म दाह) समर्पण किया ।

 

यहां पर संक्षिप्त जानकारी लिखी गई हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए श्री आई माताजी का इतिहास नामक पुस्तक ( बिलाडा़ मंदिर में उपलब्ध है ) पेज दृश्य न: ८९ से ९७ पुस्तक लेखक – स्वर्गीय श्री नारायणरामजी लेरचा

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