पंद्रहवें दीवान श्री लक्ष्मणसिंह जी

जन्म – संवत् 1896
पाट – संवत् 1901
विवाह – संवत् 1912
स्वर्गवास – संवत् 1945 सावन सुद 4

 

दीवान शिवदानदासजी के स्वर्गवास के समय लक्ष्मणसिंहजी मात्र 5 वर्ष के थे। इसी आयु में संवत् 1901 में आप दीवान की गद्दी पर विराजे। उस समय डोराबंद लोग इन्हें धर्म गुरु मानकर आदर देते थे। संवत् 1902 में ग्राम बुभादड़ा के सिरवीयों ने छोड़ाण किया था । उस समय दीवान लक्ष्मणसिंहजी को साक्षी बनाकर लोगों ने सीरवियों को पुनः बुभादड़ा में बसाया था । इस पर वहां के ठाकुर साहब ने दीवान साहब की आई माता के धूप दीप के खर्चे हेतू एक बेरा भेंट किया था। श्री भटारक गुरां श्री देईचन्द जी लिखावत गांव बुंभदड़ा रा डबड़ो 1 एक केरीयो श्री जी रे मन्दिर तालके बिलाड़े भेंट कियो है। सुं इण रो हासल बिलाड़े दरगा तालके पीचसी । चौधरी जेसिंघ, धनो, कानो, जेतो सारा गांव रा लोक छोड़ने बाई गया था । तरे मनावणो करया छां गांव में लाया । जद डोबड़ो भेंट कियो है। ढ़ीबडा नीसे जाव मण 19 अखरे उगणीस मण री इण हेटे करसी सुं थो भेंट कियो है। करसो सीररी जेतो राजा रो बेटो ढीबड़ी करसी । संवत् 1902 रा आसाढ़ वद 2 बूद।जब दीवान लक्ष्मणसिंहजी आयु 10 वर्ष की हुई थी तब आप कुछ कुछ सामाजिक व राजनीति बाते जानने लगे थे । आई माता के अत्यन्त भक्त थे । आई माता के आई पंथ का प्रचार व डोराबन्दों को साल सम्भाल हेतु गारो का दोरा करते थे । सब डोराबन्द दीवान साहब का खुब आदर सत्कार करते थे । एक बार संवत् 1909 में दीवान साहब लक्ष्मणसिंहजी गांव खेरवा पधारे थे । उस समय खेरवा के ठाकुर साहब ने दीवान साहब का खूब आदर सत्कार किया और आई माता के धूप दीप हेतु एक बेरा भेंट किया था ।

।। श्री मुरली मनोहर जी सत छै ।।

सही

मोहर

सिध श्री ठाकुर राज श्री सांवतसिंघ जी कंवरजी श्री समरथ सिध जी वचनावतुं तथा खास खेरवा में कोसीटो एक बिलाड़े आईजी महाराज रे भेंट कीनो छे। ईण कोसीटा रो सावणु उनालो रो हासल श्री, आई जी रे बीलाड़े माता जी रे जावसी। बीलाड़ा रा दीवाण जी लछमणदासजी आया तरे भेंट कीनो छे। आल औलाद इण कोसीट रो हासल बीलाड़े श्री माताजी रे भेंट जावसी। ने इण कोसीटा हेटे जाव मण 16 सोले मण रो रेसी। 1909 रा जेठ वद 10 लिखतु लोढ़ नीहालचन्द रो छे श्री राबलाक महु छु। जब दीवान लक्ष्मणसिंहजी बालिग हुवे और कुछ समझने लगे तो उन्हें ज्ञात हुआ कि ठिकाना बडेर कि माल हालत बहुत सोचनीय है। कर्जा भी बहुत हो गया था। बडेर में बने हुए महलों की हालत भी जीण क्षीण हो गई थी। उनकी मरम्मत करवाना भी जरूरी हो गया था। ऐसी स्थिति में आसपास के समस्त सामन्तव जागीरदार भी असंतुष्ट थे। माटमोर का का भी बिना देख रेख व हिफाजत के बिना उजड़ सा गया था। ऐसी हालत में दीवान लक्ष्मणसिंहजी ने बड़ी सूझ-बूझ और बुद्धिमानी से समस्त मारवाड़ के सामंतों से पुनः मधुर सम्बंध कायम किये तथा अपने सेवक आई पंथियों से भी मेल-जोल बढ़ाया। खेती बाड़ी की ओर विशेष ध्यान दिया सीरवी समाज के बुजुर्गों से सलाह मशवरा लेकर पुनः बडेर की हालत को सुधारा साथ ही जन सहयोग से महलों की मरम्मत करवाई। माटमोर के बाग पर पूरा ध्यान देकर उसे पुनः हरा-भरा करवाया। जो आज भी देखने योग्य है। उस समय जोधपुर के महाराजा तख्तसिंहजी थे। महाराजा साहब दीवान साहब को अपना ही समझते थे । दीवान घराने की स्वामी भक्ति से बहुत खुश थे। अत: एक बार दीवान लक्ष्मणसिंहजी को मातमपुरसी की रस्म अदा करने हेतु जोधपुर बुलवाया । जब दीवान साहब जोधपुर पधारें तो रायपुर की हवेली में मातमपुरसी की रस्म अदा की गयी । मातमपुरसी की रस्म अदा होने के बाद दीवान लक्ष्मणसिंहजी घोड़े पर सवार होकर महाराजा से मुजरा करने हेतु किले में पधारे । किले की इमरती पोल के पास घोड़े से उतरकर पैदल ही महाराजा के पास पधारे थे । खूब नजर निछरावल हुई । महाराजा ने कड़ा, मोती, सिरपाव, घोड़ा बधे । एक बार संवत् 1917 में कोटङी गांव के सीरवियों ने वहां के ठाकुर साहब से किसी बात पर नाराज होकर छोड़ाणा किया था । तब ठाकुर नाहरसिंहजी दीवान लक्ष्मणदासजी के पास आये और सीरवियों को समझा बुझा कर वापस गांव में बसाने का अनुरोध किया । दीवान साहब गांव कोटड़ी के सीरवियों को समझा कर पुन: गांव कोटड़ी मे लाकर बसाया । इस पर ठाकुर नाहरसिंहजी ने आई माता के धुप दीप हेतु एक बेरा भेंट किया था ।

 

।। श्री राम जी रुप छे ।‌।

मोहर

सिध श्री‌ महाराजा श्री नाहरसिंघ जी वचनातु अप्रंच गांव कोटड़ी रा लोका छोड़ाणो किनो ने गदेड़ो उबो की दी। जीण सु श्री माता जी रे अरट 1 पीपलिया तालाब रे हेटे आथणाउ कांनी है। सुं भेंट किनों सु इणरो हासल बडेर जावसी केसर चनण संवत् 1917 रा फागण वद 5 ओ अरट करसी जिणने राज सुं बरजण थाव न्हीं केसासु। इससे स्वत: ज्ञात होता है कि आई माता के डोराबंद दीवान साहब की ही बात मानते थे और उनके कहे अनुसार ही कार्य करते थे । इसी प्रकार संवत् 1918 में गांव बुसी के सीरवियों ने भी छोड़ाणा किया था‌ । जिन्हें दीवान साहब ने पुनः गांव बुसी में लाकर बसाया था। इस पर गांव बुसी के ठाकुर भभूतसिंहजी ने आई माता के धूप दीप हेतू एक बेरा आ भेंट किया था ।

।। श्री परमेश्वरजी ।।

।। सही ।।

ठाकुरां राज री भभुतसिंहजी वचना अत दसे नग गांव बूसी रा चौधरीयां रा आदमीयां बालेण परभात रे छोड़ाणा करने भाटा रोपने बारे नसरगा । आला गांव भादरलाउ. गाआतरे पाचा मना अै ने गांव में ले आया ने गांव बीलाड़ा सुं दीवाण रा भला आदमी जती लाअै ने भाटा उकला आने रे श्री आई जी महाराज रे ढीबरो 1 नाई‌ सो बडेर तालके केसर सारू भेंट कीनो । सो‌ ताई इणरो हासल ठिकानो जावसी तरण रो हासल सो आवसी तको बीलाड़े श्री आई जी महाराजा रे पुगसी ओ कोसटो वेनै श्री श्री महाराज रे भेंट कीनो है। सो करसा सु वनाउलीसेल जीक रो नहीं ने इण कोसटा राजयरे से भाटा रोपाया देसे । 1918 रा जेठ सुद 14 दा. फोजमल रा छे। श्री रावला हुकम सु। जोधपुर के महाराजा आप पर बहुत खुश थे और इतना विश्वास करते थे कि अक्सर राज काज की समस्याओं पर सलाह मशवरा करते रहते थे। एक बार संवत् 1926 में महाराजा साहब बिलाड़ा पधारे। उस समय दीवान लक्ष्मणसिंहजी अपने पट्टे के गांव इन्दोर राज्य में दोरे पर पधारे हुये थे । उस समय आपके गैर मौजूदगी में आपकी रानी साहेबा ने महाराजा का खूब आदर-सत्कार किया था इस आदर सत्कार से महाराजा बहुत खुश हुवे और सिरोपाव इनायत किया था। दीवान लक्ष्मण सिंह जी साहित्यप्रेमी भी थे । साहित्यकारों का खूब आदर करते थे । आपने कहीं कविताएं व दोहे भी लिखे थे । जो बडेर मैं पुराने रिकॉर्ड में मिलते हैं । उस समय छापेखाने की व्यवस्था ना होने के कारण वे हस्तलिखित ही रह गई । आपकी कविताओं और दोहों में प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन व सामाजिक कुरीतियों पर काफी प्रकाश डाला गया था । जोधपुर महाराजा आपके साहित्य प्रेम से बहुत प्रसन्न थे । दीवान लक्ष्मणसिंहजी ने बहुत बड़ा ज्याग किया था‌ । जिसमें आसपास व मध्यप्रदेश से लाखों लोग इकट्ठा हुए थे । उस जमाने में इस ज्याग पर लाखों रुपए खर्च हुए थे । उन्हीं दिनों किसी कारणवश सीरवीयों, जैतारण छोड़कर अन्य जगहों पर जाकर बसने लग गये । जब यह बात जोधपुर महाराजा को ज्ञात हुई तो उन्होंने सोचा कि सीरवी लोग दीवान साहब का कहना मानते हैं । यह सोचकर महाराजा ने दीवान लक्ष्मणसिंहजी को एक पत्र लिखा कि आप जाकर सीरवियों को समझा-बुझा कर वापिस जैतारण में लाकर बसाओ जिससे वहां पर सूने पड़े बेरे वापिस आबाद हो सके । पत्र मिलते ही दीवान साहब ने आस पास बसे हुवे सीरवियों को इकट्ठा किया और समझा बुझाकर वापिस जैतारण में बसाया । जोधपुर से आये पत्र की नकल निम्न है।

( मोहर )

।। श्री जलंधर नाथ सत छे ।।

।। श्री महाराज जी ।।

स्वारुप श्री चौधरी श्री लिछमणदासजी जोग्य जोधपुर था म्हैता श्री हरजीवणदासजी लिखावत जुहार वाचजो । अठारा समाचार श्री जी रा तेज प्रताप सुं भला छे। थारा भला चाहिजे तथा थे पिडा जैतारण जाय सीरवियां री तलाक भंगाय दे जो नै सीरवियों नु उठे बसावा बेरा सरू कराय देजो । इण में श्री दरबार में थारी बदंगी मालम हुसी ने बेरा एकथाने श्री दरबार सु दोरोजीयो है। तिणरी सनद कराय मैल पण सीरवियों नुं बेरा झलाय करसण सरू दे जो । श्री हजूर रो हुकम छै। सम्वत् 1932 रा मिति चेत सुद 8। दीवान लक्ष्मणसिंहजी जो बड़े शांत स्वभाव के थे । आई माता के भक्त तो अटटु थे ही । आपकी मधुर वाणी व स्वाभाव के कारण डोराबंद बहुत इज्जत देते थे और आपकी हर बात को मानते थे । महाराजा तो आप पर अत्यंत खुश थे। आपके समय में गांव सरथुण के ठाकुर साहब ने आई माता के धूप दीप हेतू पहले से भेंट की हुई 50 बीघा जमीन का हासल देने से आना कानी करने लगे थे । ये जमीन गांव सरथुण के पूर्व ठाकुर पेपसिंहजी के समय में सरथूण मे सीरवियां के छोड़ाण करने पर वापस लाकर बसाने पर 60 वर्ष के लिए इस जमीन के हासल को आई माता के धूप दीप हेतू भेंट किया था । जब तत्कालीन ठाकुर साहब ने हासल देने का मना किया तो जोधपुर महाराज ने निम्न पत्र लिखा था ।

।। श्री जलंधरनाथजी सत छै ।।

( मोहर )

स्वरूप श्री मेड़तियां श्री लीछमणसिंहजी जोग्य जोधपुर था खीची बखतवरसिंह लिखावत जुहार वाचलो अठारा समाचार री जी रा तेज प्रताप सूं कर भला है। थाहरा भला चाहिजे । अप्रंच गांव सरथुड़ में सीरवो बसता नही तरे बिलाड़ा दीवान ने केणों करने बसाया ने ओ गाम भाअी पेमसिंहजी पटा ही जद जमी हल 50 पचास हल आसरे बिलाड़ा रे दीवान पटा रो गांव वारावा वाला ने दियो ने श्री माताजी रे चढ़ाया रो लिखत कर दियो छै उण जमी रो हासल साठ बरस तथा दीवाण रै गांव वारावा वाला लिया जावे ने हमार थे खचल करो हो सुं करजो मती सदा मंद इण जमी रो हासल वारावा वाला लिया रेवे जिउ लेण दीजो थे अटकावजो मती देवसथान रो काम है सुं पेर लिखणो पड़े नहीं । संवत् 1935 रा मिगसर वद 10। दीवान लक्ष्मणसिंहजी ने ठिकाना बडेर की बहुत तरक्की की थी जो कर्जा था वो भी सब उतार कर बडेर की माली हालत में भी सुधार किया । साथ आई पंत का भी खूब प्रचार किया । आपके समय में आई माता के धर्म का खूब विस्तार हुआ था । आपके दो पुत्र थे । (1) शक्तिदानजी (2) जसवंतसिंहजी, शक्तिदानजी बड़े थे । संवत् 1945 में आपका स्वर्गवास हुआ था और आपके बड़े पुत्र शक्तिदानजी दीवान की गद्दी पर विराजमान हुवे ।

 

यहां पर संक्षिप्त जानकारी लिखी गई हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए श्री आई माताजी का इतिहास नामक पुस्तक ( बिलाडा़ मंदिर में उपलब्ध है ) पेज दृश्य न: ८९ से ९७ पुस्तक लेखक – स्वर्गीय श्री नारायणरामजी लेरचा

Recent Posts