प्रथम दीवान श्री गोयन्ददासजी

।। गोविन्ददास जी ।।

जन्म : सम्वत् 1530

विवाह : सम्वत् 1542

पाट : सम्वत् 1557

स्वगर्वास : सम्वत् 1612

माघ सुद बीज पोह सुद बीज

माधवजी के स्वर्गवास के समय गोविन्ददास जी की आयु 17 वर्ष की थी, गोविन्ददास आई माता के बड़े भक्त थे। आई माता गोविन्ददास को बड़े स्नेह से रखते थे। आई माता ने सम्वत् 1557 के माघ सुद बीज शनिवार को अपने पंथ के डोराबन्दों को इकटठा कर सबकी साक्षी में अपने मन्दिर में ज्योति के सामने पाट कर बैठाकर अपने हाथ से कुंकुम का तिलक कर दीवान की पदवी दी थी। और सब डोराबन्दी से कहा, कि आज से गोविन्द को दीवान कहकर पुकारे। दीवान को मेरा ही रूप मानना। जो इस गादी पर बैठे उसके रास्ते पर चलना। आज तक आई पंथ डोराबन्द दीवान को आईमाता का रूप मानते हैं। और अपना धर्म गुरु मानते हैं।

म्हारो गादी पुत्र तूं, गोयन्द सुण सुख पाय। देवी रो दीवाण पद, दीनो तब चित लाय।।
पनरे सो सतावने, माघ मास शनवार । सुभ्र पख की बीज दिन, आई वचन उच्चार।।

दोहा

आई एम उचारवे, गोयन्द सुण घणा जाण ।
म्हारे तूं गादी मुदे, देवी को दीवाण।।

 

फिर आई माता ने सबको उपदेश दिये और अपने आई पंथ के नियम बताये

(1) यह पंथ चार जुगों का हैं। (2) इस धर्म की राह गुरु मुखी होवे उसे ही बताना (3) मुर्ख के सामने इस पंथ की बात मत करना (4) किसी धर्म की निन्दा मत करना (5) किसी के मरम को मत छेड़ना (6) चोरी-जारी मत करना (7) किसी को बुरा कर्म करते देखों तो साथ मत देना (8) हो सके तो जीव का उपहार करना (9) किसी जीव को कष्ट मत देना (10) पराये जीव को कष्ट देने से खुद को कष्ट उपजेगा (11) कहीं जीव मरे वहाँ अवश्य खड़े रहकर उसका दाह संस्कार करना (12) जिस जगह कोई जीव मरे उस जगह पानी मत पीना (13) जिस डोराबन्द के हाथ के डोरा नहीं हो उसके हाथ का पानी मत पीना (14) झूठ कभी मत बोलना (15) रुपयों का ब्याज मत लेना (16) जुआ कभी मत खेलना (17) किसी की झूठी प्रशंसा मत करना (18) शराब, भांग, अफीम आदि मादक पदार्थ का सेवन मत करना (19) वेश्यागमन कभी मत करना (20) साध स्त्री की चोरी मत करना (21) रुपया लेकर बेटी की शादी मत करना (22) ब्रह्रा अतीत, अभ्यागत की सहायता करना, निन्दा कभी मत करना (23) सांधा के मेला की बात किसी से मत कहना (24) किसी साधु पर क्रोध मत करना (25) लोभ में आकर अकरम मत करना (26) अपने स्वार्थ के लिये किसी जीव को कष्ट मत देना (27) पेट में नहीं पचे वैसी बात होवे तो किसी से मत कहना (28) इतनी बातों का पालन करने वाला इस धर्म का अधिकारी होगा (29) सवेरे उठकर पहले धरती माता को प्रणाम करना (30) गुरु की आज्ञानुसार जप ध्यान पूजा पाठ करना (31) शुद्ध जल से रोज स्नान करना (32) इस गादी पर बैठे दीवान में मेरा रूप मानना (33) इस गादी पर बैठकर बोलता हैं वो मैं बोलती हूँ, जो करता हैं वो मै करती हूँ (34) इस पर सदा सर्वदा मुझे जानना इसे निमखण्ड खाली मत समझना (35) जोत में भेल में, गादी पर सदा में हूँ (36) गादी पर बैठने वाला कहे सो करना देखा-देखी मत करना (37) थावर की बीज उजाली तिथ पालना (38) बीज के दिन दूध,दही साधू सन्तों में बांटना (39) गुरु के पायल लेना (40) सदा वृत कांसा कंणमूठ करना (41) जो साधु है वो धर्म के रास्ते किया सहित चलेगा उसके रोम-रोम में में वास करूंगी हर जगह में हूँ।
सब लोगों से आई माता ने कहा, कि जो इन नियमों का पालन करेगा, वो सदा सुखी,धन-धन्य से परिपूर्ण रहेगा। में हमेशा उसके साथ रहूंगी। इतनी बातें बताकर आई माता ने सबको आशीर्वाद दिया। गोविन्द जी अब आई माता की सेवा करने लगे और अपने धर्म का प्रचार कर कईयों को डोराबन्द बनाया। अब हजारों लोग बिलाड़ा आई माता के दर्शन करने आने लगे। रात दिन मेला भरा रहने लगा। आई माता ने कई दीन दुखियों के दुःख दूर किये। एक दिन सम्वत् 1561 के चैत सुद बीज शनिवार को अपने डोराबन्दों को इकटठा किया और सामने गोयन्ददास जी को बैठाकर कहा, कि मै सात दिन तक गुप्त तपस्या करना चाहती हूँ। आप लोग सात दिन मेरे मंदिर के किवाड़ मत खोलना। नहीं तो पछताओगे। आई माता की बात सुन सब लोग बोले “हे मातेश्वरी भला हम सात दिन आपके दर्शन बिना कैसे रहेंगे। ”आपके दर्शन किये बिना हम खाना भी नहीं खाते हैं। भला सात दिन कैसे गुजारेंगे। अपने भक्तों की बात सुनकर आई माता ने कहा “में तुम्हारी भक्ति से बहुत खुश हूँ, आप लोग अब गोविन्द जी को मेरा रूप समझकर सवेरे इनके दर्शन करना। में मेरी ज्योति गोविन्द में प्रकट करुँगी इतना समझाकर सबको सात दिन किवाड़ (दरवाजा) न खोलने के लिये सावधान कर आप मन्दिर में पधारकर किंवाड़ बन्द कर दिये।
तीन चार दिन तो सब लोगों ने धीरज रखा। आखिर पांचवे दिन सब कहने लगे आई माता अपनों से नाराज है। कोई कहता आई माता ने समाधी ले ली हैं। और गोयन्दजी पर किवाड़ खोलने हेतु दबाव डालने लगे। आखिर ज्यादा लोगों के हट के आगे गोयन्ददासजी को झुकना पड़ा और पांचवे दिन ही किंवाड़ खोल दिये। सब भक्त मन्दिर के अन्दर घुस गये। उसी समय क्या देखते हैं कि जिस गादी पर आई माता विराजमान थे, उससे एक ज्योति निकलकर अखण्ड ज्योति में मिल रही हैं। और गादी पर आई माता का भगवा चोला, मोजड़ी, माला और ग्रन्थ पड़े हैं। आई माता अलोप हो चुके थे। क्योंकि आई माता के वचनों के अनुसार सात दिन के पहले ही मन्दिर के किंवाड़ खोल दिये। सब भक्तों को बड़ा दुःख हुआ और खूब पछताये। ऐसा उदाहरण इतिहास में कहीं भी नहीं मिलता हैं, कि कोई देवी-देवता अलोप हुये हों। केवल आई माता ही एक ऐसी देवी ने अवतार लिया था, जिससे न तो जन्म  लिया और न ही मृत्यु हुई वो तो अलोप हो गये।
आई माता के अलोप होने पर उनको पांच नारियल, मोजड़ी, चोला, माता, ग्रन्थ की ही पूजा होने लगी। आज 500 वर्ष से अधिक हो गये, लेकिन नारियल अभी भी आज के जैसे ताजे पड़े हैं, जिनकी आज भी पूजा होती हैं। ये सब चीजें गुप्त रखी हुई हैं। जिनकी हर साल भादरवा सुद बीज को पूजा होती हैं और अखण्ड ज्योति को बदल कर दूसरी ज्योति कायम करते हैं। यह पूजा दीवान सहाब, जतिजी व पुजारी तीनों मन्दिर के किंवाड़ बन्द कर गुप्त रूप से करते हैं। भादवा सुद बीज डोराबन्दों का बड़ा त्योंहार माना जाता हैं। उस दिन हर डोराबन्द अपनी गाय या भैंस का एक समय का दूध बडेर में अमावस्या को लाकर दही जमाते हैं। इस प्रकार करीब 15-20 मण दही इकटठा हो जाता हैं। उस दही को बीज के दिन सुबह एक पत्थर की बड़ी बिलोनि में डालकर दो-दो आदमी बारी-बारी से बिलोते हैं। फिर दिन में 12 बजे उस बिलोनी और उससे निकले घी को ज्योति में भरकर जलाकर बड़करसा सपत्नी पूजा करते है। फिर परदे में दोनों पति-पत्नी उस ज्योति को मंदिर में ले जाकर दीवान साहब को सौंपते हैं। जिसे दिवान साहब पूजन कर पहले वाली ज्योति की जगह कायम करते हैं। इस अवसर पर गुजरात, मालवा, मिमाड़,मद्रास, पश्चिमी राजस्थान से भारी संख्या में डोराबन्द आते हैं। बिलोनी की छाछ को भक्त लोग चरणामृत के रूप में बांटते है और शीशियों में भरकर अपने साथ ले जाकर भक्तों में बांटते हैं। फिर आई माता के मन्दिर में घी गुड़ के चूरमे का प्रसाद (कवली) बनता हैं, खूब भजन भाव होते हैं। शाम के समय खूब गाजों बाजों से आई माता के रथ को गाँव के बहार से बधावा करके लाते हैं। फिर मंदिर में पूजा के समय रौशनी होती है और रात भर जागरण होता हैं।
इसी प्रकार साल की चार बीजों को आई माता की बड़ी बीज मानते हैं। चारों बीजों को शाम के समय आई माता की भेल (रथ) को बधावा कर लाते हैं।

चारों बीजों का महत्व इस प्रकार हैं:-

(1) चैत सुद बीज सम्वत् 1561 के चैत सुद बीज शनिवार को आई माता अलोप हुई थी और अखण्ड ज्योति की स्थापना की।
(2) वैशाख सुद बीज इस दिन को किसान नव वर्ष का आरम्भ मानकार हल की पूजा कर खेत जोतते हैं।
(3) भादवा सुद बीज सम्वत् 1521 के भादवा सुद बीज शनिवार को आई माता बिलाड़ा पधारे थे व हर भादवा सुद बीज को अखण्ड ज्योति बदली जाती हैं।
(4) माघ सुद बीज संवत् 1557 के माघ सुद बीज शनिवार को आईमाता ने गोविन्ददास को अपने हाथ से तिलक कर दीवान पद देकर गद्दी पर बैठाया था ।

आज भी आई माता का रथ गांव-गांव घूमकर आई पंथ का प्रचार करता हैं तथा आज भी दीवान को डोराबन्द अपने धर्मगुरु और आई माता के रूप में पूजा करते हैं। जब किसी डोराबन्द के घर विवाह शादी होती हैं तो दीवान साहब व आई माता के रथ को न्यौता देते हैं तब दीवान साहब को व रथ को खूब गाजों-बाजों के साथ औरतें गीत गाती हुई अपने आंगन में ले जाते हैं। दीवान साहब सारी भोजन सामग्री की पूजा करते हैं फिर सब लोग भोजन करते हैं। सब समाज के लोग भोजन करने के साथ दीवान साहब भोजन करते हैं, उस समय गांव के सब पंच उस डोराबन्द के परिवार वाले साथ बैठ कर भोजन करते हैं। फिर विवाह के घर वाले दीवान साहब को कुछ रूपये और नारियल भेंट करते हैं। उसके बाद भेंट के अनुसार दीवान साहब उस डोराबन्द के सोने का गले का कण्ठा या हाथों में सोने कि माठियां पहनाते हैं जिसे वह बिना रोक-टोक पहनकार समाज में रह सकता हैं। इससे ज्ञात होता हैं, कि आज भी डोराबन्द दीवान साहब को कितना पूज्य मानते हैं। (स्मरण रहे अतीत में कोई सामाजिक व्यक्ति बिना आज्ञा के सोना नहीं पहन सकता था।)
दीवान गोविन्द दास जी आई माता की खूब भक्ति करते थे। कई लोगों को डोराबन्द भी बनाया । लोगों की भलाई का भी खूब ध्यान रखते थे। सबके दुःख में साथ देते थे। सम्वत् 1582 को भयंकर अकाल पड़ा । उस समय दीवान गोविन्ददास जी ने अपने कोठार धान के लोगों के लिये खोल दिये और गायों को चारा भी खूब दिया। लोगों को अकाल से उबार दिया था। इस सेवा से उन्हें पृथ्वी साधार की उपाधि मिली थी। गोयन्ददासजी का उद्देश्य हमेशा मनुष्य मात्र की सेवा करना ही रहता था गांव-गांव घूमकर दीन दुखियों की सहायता किया करते थे । संवत 1592 में आपके पुत्र रत्न हुये । जिनका नाम करमसिंह रखा गया ।
एक बार दीवान गोविन्ददासजी देशाटन करने सिंह मुल्तान की तरफ पधारे । उन्हीं दिनों दिल्ली पर बादशाह हुमायूं का शासन था । बादशाह हुमायूं उन दिनों चुनार के बादशाह से शिकस्त खाकर दुख का मारा इधर-उधर घूमता था । ऐसे समय में हुमायूं की मुलाकात गोविन्ददासजी से हुई । आपस में दोनों अच्छे परिचित हुये । गोविन्ददासजी ने ऐसे समय में हुमायूं की खूब सहायता की और ढांढस बन्धाया व वरदान दिया कि आप हिम्मत रखें आपको पुनः दिल्ली का राज प्राप्त होगा । और आपके एक पुत्र पैदा होगा जो बड़ा होनहार होगा और संसार में अपना नाम कमायेगा‌ । दीवान साहब के वरदान के अनुसार बादशाह हुमायूं के सम्वत् 1599 के काति शुक्ल 6 को उमरकोट में पुत्र पैदा हुआ । जिसका नाम अकबर रखा गया । जिसने भारत में खूब नाम कमाया । थोड़े समय बाद हुमायूं को पुनः दिल्ली का राज्य प्राप्त हो गया । दिल्ली का राज्य प्राप्त होने पर भी हुमायूं दीवान गोविन्ददासजी को भुला नहीं था । अपने पुत्र अकबर को बाल्यकाल से ही बिलाड़ा व दीवान साहब से परिचित करवा दिया था । अकबर बचपन से ही दीवान गोविन्ददासजी का आदर करता था । थोड़े समय बाद हुमायूं की मौत हो गई और अकबर दिल्ली के तख्त पर बैठा‌ । तो सर्वप्रथम दीवान साहब को याद किया ‌ गोविन्ददासजी उस समय वृध्द स्वस्थ रहते थे । तो भी अकबर से मिलने दिल्ली पधारे । दिल्ली पहुंचते ही अकबर बादशाह ने गोविन्ददासजी को दीवान खास में बुलाकर अपने सामने कुर्सी पर बैठाया और आदर सत्कार किया । इस पर दीवान गोविन्ददासजी ने बादशाह अकबर से कहा की तुम्हारी बादशाहत ऐसी जमेगी की न भुतोन: न भविष्यनि: इस वचन से अकबर बहुत खुश हुआ ओर अपने व अपने पिता के दुख के दिनों की सहायता का स्मरण हुआ । अकबर ने दिल्ली के बादशाह की हैसियत से गोयन्ददासजी को दीवान की पदवी दी ओर मोतियों की कण्ठी-2 सोने के लंगर-3 दुशाला-4 पुणचा-5 ओर जनाना मरदाना सिरोपाव, हाथी का नाम भुरो मंगल, गज, एक पंचकल्याम नगारा निशान, आवङा बाजा, छङी किरणियों पालङी व साथ में राजाओं का लवाजमा आदि बक्से । साथ ही आज्ञा प्रदान करवा दी कि बिलाङा दीवान का नगारा निशान पुरे भारत मे बिना किसी रोक टोक के बजेगा व पांव में सोने का कङा पहन कर हाथी की सवारी से सब जगह बेरोक-टोक घुमेंगे । गुरा भुवनकिर्तीजी को बुलाकर सारी कुरब कायदे वंशावली में लिखवाये । तथा दीवान साहब को तांबा पत्र लिखकर दिया । उस समय तो गोयन्ददासजी ने सब अंगीकार कर लिया लेकिन विदा होते समय निवेदन किया की दीवान का पद तो मुझे पहले आईमाता ने दे दिया है। अकबर बहुत बुध्दिमान था, इस गुढ़ आवश्यक को समझकर कहा कि दीवान पद मेरा ओर आईमाता दोनों का ही रहेगा । इसके अलावा चोधरी का पद तो सर्वोदय हे वो में आपको देता हुं चोधरी का पद उसे मिलता हे जो देश की दिशा मे पुर्ण परिचित हो । शाम धर्मी व प्रतिष्ठित हो । तथा राज कार्य में आला खानदान की सलाह देता रहे, उसे ही‌ चोधरी का पद मिलता हे वो पद में आपको देता हुं । इतने मान प्राप्त कर पुन: बिलाङा पधारे । बिलाङा पहुंचने के कुछ समय बाद बीमार ज्यादा हो गये ।

सोले सो इग्यारवे, पो सुद बीज प्रमाण ‌। अकबर सा पदवी दई, गायेन्द देश दिमाण ‌‌‌।।
जद गोयन्द कोधी अरज, अकबर सुं सुण बात । पदवी देश दिवाण री बगसी आईमाता ।।
खुश होयर अकबर कहो, देश दिवाण सिरेह । पद चोधर को पाय के, गायेन्द आयो धरेह ।।
पोनुं पप अकबर दिया, चोध व दिवाण । बिलाङे राजव करो, सुण गोयन्द सुण जांण ।।

गोयन्सदासजी का रोग अधिक बढ़ गया । उसी रोग से सम्वत् 1612 के पोह सुद 6 सोमवार को आपका देहान्त हो गया । उनके पीछे राणी हुल्साणी चम्पाकंवर सती हुई । दीवान गोयन्ददासजी के देहान्त की खबर जब अकबर बादशाह को‌ मिली तो उन्हें बहुत रंज हुआ । गोयन्दजी के एक ही पुत्र हुये थे । जिनका नाम लखधीरजी था । लखधीरजी दिल के बहुत ही भोले-भाले व सीधे स्वभाव के थे ‌। दीवान गोयन्ददासजी के समय मे ही लखधीरजी के करमसिंहजी पैदा हो गये थे । इस कारण लखधीरजी भोले-भाले होने से उनके पुत्र करमसिंहजी को दीवान की गद्दी पर बैठाया लखधीरजी के चार पुत्र थे । (1) पंचाणसिंहजी (2) करमसिंहजी (3) रतनसिंहजी (4) मालसिंहजी । इन चारों मे करमसिंहजी बङे थे ।

यहां पर संक्षिप्त जानकारी लिखी गई हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए श्री आई माताजी का इतिहास नामक पुस्तक ( बिलाडा़ मंदिर में उपलब्ध है ) पेज दृश्य न: ३४/४२
पुस्तक लेखक – स्वर्गीय श्री नारायणरामजी लेरचा

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